Monday, March 31, 2014

चुनाव प्रचार में कला और कलाकार

देखता हूँ कि एक चौराहे पर एक कलाकार माइक पर स्थानीय भाषा में किसी लोकगीत की पैरोडी गा रहा है, उसके बगल में दो स्त्रियां कठपुतलियों को नचाने की कोशिश में लगी है, एक नाल वादक ज़मीन पर उकडू सा बैठा गीत के साथ ताल मिला रहा है और पीछे पार्टी का बड़ा सा बैनर लगा है जिसमें एक खास पार्टी के उम्मीदवार को (बिना कोई खास कारण बताए) वोट देने का निवेदन है । फैशन के अनुसार बैनर पर उम्मीदवार की हाथ जोड़े फोटू भी है । बगल में एक छोटी ट्रक नुमा गाड़ी खड़ी है जिस पर जनरेटर और माइक सेट लगा है । कलाकार इसी में बैठकर एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचता है । हां, कुछ पानी के पुराने बोतल और कपड़े भी रखे हैं । गाड़ी बाहर से पुरी तरह से बैनर से सजी है । कलाकार वहां कुछ गीत गाता है, बीच में एक छुटभैया नेता गीत सुन रहे लोगों के रस में अपने भाषण से विघ्न डालता है । भाषण से लोग जैसे ही बोर होते हैं कि गीत और कठपुतली नाच शुरू हो जाता है । अलग-अलग चौराहे पर यह पूरा दिन चलता रहेगा । इन कलाकारों को देखकर ही यह साफ़ पता लगाया जा सकता है कि उन्हें यह काम करते हुए बहुत मज़ा नहीं आ रहा हैं !   
चुनाव का वक्त है, हर पार्टी प्रचार-प्रसार में लगी है । अखबार, टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट आदि के अलावा नुक्कड़ नाटकों, गीतों आदि का सहारा भी लिया जा रहा है । कुछ पार्टियों के पास अपने सांस्कृतिक दल है जिसे चुनाव के दिनों में पार्टियां अपने चुनाव प्रचार में लगाती हैं, यह बात इतर है कि बाकि दिनों इन पार्टियों को कला-संस्कृति से कोई ख़ास मतलब नहीं होता । पार्टियों के सांस्कृतिक प्रकोष्ठों में अनुशासन और विचारधारा के नाम अकलात्मक माहौल बनाया जाता है लेकिन यह पार्टियां अमूमन अपने किसी भी सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता का दायित्व उठाने को तैयार नहीं होती । ऐसे में इन कलाकारों के पास निम्न रास्ते बचते हैं -  ये पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता बन जाएँ और सांस्कृतिक दायित्वों के अलावा भी कई सारे और कामों में अपने को उलझा ले, पेट चलाने के लिए कोई और काम करें और साथ में अपने कलात्मक जूनून को ज़िंदा रखें और यह सब त्यागकर या तो किसी एनजीओ में चला जाएं या फिर मुंबई की गाड़ी पकड़ लें और फ़िल्मी दुनियां में दोयम दर्ज़े के नागरिक बन जाएं ।
जिन पार्टियों के पास अपना सांस्कृतिक प्रकोष्ठ नहीं है वे प्रोफेशनल्स या स्थानीय कलाकारों को बुलाकर चुनाव प्रचार में लगा रहे हैं । इन कलाकारों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं दी जाती । कहीं कहीं तो मामला केवल खाने-पीने तक सिमट जाता है तो कहीं यह भी ठीक से नहीं दिया जाता । तो कई कोई व्यक्ति इन कलाकारों का मुखिया बन जाता है और कलाकारों को प्रसादनुमा कुछ खिला-पिलाकर सारा पैसा खुद डकार जाता है । यह स्थिति तब है जब एक पार्टी चुनाव प्रचार पर करोड़ों रूपया तक खर्चा कर रही है । पार्टियां एलबम निकाल रहीं है, विज्ञापन बना रही हैं लेकिन उसमें काम करनेवाले कलाकार उपेक्षित हैं ।
देश और समाज में, खासकर हिंदी प्रदेशों में कला और कलाकार की स्थिति लगभग अनचाहे बच्चे जैसी ही है । यह कलाकारों का जूनून ही है जो इन प्रदेशों में आजतक कला का वजूद है । सरकारें और सरकारी नीतियों ने तो इन्हें लुप्त प्रजाति में शामिल करने में कोई कोर-कसर नहीं रख छोडीं हैं । यहाँ पारम्परिक और रंगमंच के कलाकारों की बात हो रही है, फ़िल्मी कलाकारों का मामला एकदम दूसरा है । वैसे अभी हाल ही की तो बात है जब रैली और रैला में रात-रात भर लौंडा और बाईजी का नाच होता था । बदले में इन कलाकरों को क्या मिलता है, यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं ।
कला और संस्कृति का दायरा व्यापक है इसे केवल नाटक, नृत्य, संगीत, साहित्य आदि के ही संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए । कला और संस्कृति किसी भी सभ्य समाज का आईना होता है । अब किसी भी पार्टी का चुनाव घोषणापत्र उठाकर देखिए क्या कला और संस्कृति का कहीं ज़िक्र तक है ? यदि नहीं तो क्या यह एक खरतनाक बात नहीं है ? बिना कला-संस्कृति के क्या मानव और मानवीय जीवन की परिकल्पना की जा सकती है ? इन बातों की चिंता किसे है, नेता और पार्टियां तो परिवारवाद, अवतारवाद, जातिवाद, ग्लैमरवाद, क्षेत्रवाद, व्यक्तिवाद, समुदायवाद, सम्प्रदायवाद, सेकुलरवाद आदि की लहर चलाने में व्यस्त है और जनता इन लहरों में गोते लगाने को !
विभिन्न पार्टियों की सांस्कृतिक शून्यता का एक और नमूना देखना हो तो इनके भाड़े या जबरन के प्रचार गाड़ियों पर बजनेवाले गीतों को ज़रा गौर से सुनिए । यह अमूनन किसी फ़िल्मी या पारंपरिक गीतों की तुच्छ सी पैरोडी होती है । कई बार तो ऐसे-ऐसे गानों की पैरोडी सुनने में मिलती है जिसका मूल गाना याद आते ही हंसी छूट जाती है । इन पार्टियों के पास एक अच्छा गीतकार, संगीतकार तक नहीं जो मूल रच सके । सुना है चुनाव के समय छोटे-छोटे स्टूडियो सीडी तैयार करने का ठेका लेते हैं । कई बार तो एक ही स्टूडियो में कई-कई पार्टी का प्रचार सीडी तैयार होता है । तो कई बार एक ही एंकर की आवाज़ दो अलग-अलग पार्टियों की सीडी में पाई जाती हैं । बहरहाल, केवल राजनीति को कोसने से क्या होगा ? समाज और व्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं । जैसा समाज वैसी व्यवस्था और जैसी व्यवस्था वैसा समाज । समाज की ज़िम्मेदारी केवल वोट देना नहीं होता वहीं व्यवस्था का काम केवल राज करना नहीं होता बल्कि सुन्दर, कलात्मक, मानवीय और वैज्ञानिक समाज गढ़ने की दिशा में अग्रसर होना भी होता है । यदि ऐसा नहीं हो रहा तो आखिर ज़िम्मेदार कौन है ? सारी ज़िम्मेदारी किसी और पर डाल देने से पहले एक सवाल अपनेआप से भी करना चाहिए कि क्या हमने कभी कला-संस्कृति की कभी चिंता की ? चीज़ें विलुप्त हो जाएं उससे पहले हम सचेत हो जाएं तो अच्छा है, नहीं तो “अब पछताए का होत जब चिड़िया चुग गई खेत”   

Monday, March 24, 2014

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय निदेशक, अध्यक्ष व रंगमंडल प्रमुख के नाम खुली चिट्ठी.

महोदय,
सुना कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल अपने स्थापना का 50 वां वर्ष मना रहा है । बड़ी हर्ष की बात है । जहाँ तक मेरी जानकारी है कुछ महीने पहले भी 50 वर्ष का एक आयोजन किया गया था । बहरहाल, दुबारा इस आयोजन को करने के पीछे क्या मंशा है यह आपलोग बेहतर जानते होंगे मैंने सुना कि इस आयोजन के लिए रंगमंडल के तमाम पुराने सदस्यों को इक्कठा करने का प्रयत्न भी किया गया ।
किन्तु इन्हें बुलाने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई गई उम्मीद है इसकी खबर आपको ज़रूर होगी इसके लिए एक चिट्ठी का फोटो कॉपी करके उपलब्ध किसी भी पते पर पोस्ट कर दिया गया होगा । यह जानने की कोशिश भी नहीं की गई होगी कि वो व्यक्ति अभी तक उस पते पर रहता भी है कि नहीं । मोबाइल, इमेल, सोशल नेटवर्क के युग में मात्र चिट्ठी पर भरोसे के पीछे निश्चित ही कोई ‘महान’ योजना रही होगी ! जो हम जैसे साधारण बुद्धिवाले मनुष्य की समझ से परे है !
मैं भी लगभग पांच साल तक रंगमंडल का सदस्य रहा हूँ और घोर आश्चर्य कि मुझे इस आयोजन के बारे में जानकारी अपने एक मित्र के माध्यम से उस दिन होता है जिस दिन यह आयोजन शुरू हुआ । मैंने फ़ौरन कुछ अन्य पूर्व रंगमंडल सदस्यों को फोन किया तो पता चला कि उन्हें भी इस आयोजन की या तो कोई जानकारी नहीं या है भी तो सही तरीके से नहीं है वैसे सुना है कुछ ‘खास’ लोगों को फोन भी किया गया और हवाई यात्रा का खर्च भी प्रदान किया गया । वहीं कुछ सीनियर तो दिल्ली में रहते हुए इस आयोजन का हिस्सा नहीं बनना चाहते । पूछने पर कहते हैं “कोई उपयोगिता ही नहीं है, केवल खाना खाने और टीए-डीए का फॉर्म भरने के लिए मैं नहीं जाना चाहता ।” यह स्थिति क्यों है क्या इसकी चिंता करनेवाला रानावि में आज कोई है ? आप सब बड़े कलाकार हैं, यक़ीनन यह बात आपको भी पता होगा ही कि कलाकार सम्मान चाहता है अशोका होटल का कमरा, हवाई सफ़र और टीए-डीए उसकी प्राथमिक ज़रूरतों में नहीं आता
वैसे लगभग पांच साल रंगमंडल में बतौर अभिनेता काम करते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है कि रंगमंडल के पास लगभग 12 कम्प्युटर है और सबमें नेट का कनेक्शन है और सबलोग इसका भरपूर सेवन भी करते हैं । टोरेंट, यू-ट्यूब और फेसबुक जैसे साईट भी चलती रहती है रंगमंडल में कई सारे फोन के कनेक्शन भी है जिससे फोन किया जाता है । किन्तु रंगमंडल के पूर्व सदस्यों को सूचना देने के लिए आज भी बाबा आदम के ज़माने की तकनीक का सहारा लिया गया, क्यों ? क्योंकि Old is Gold !
वैसे कितने पूर्व सदस्य पहुंचे और जो नहीं पहुंचे वो क्यों नहीं पहुंचे, क्या यह बात की चिंता किसी की प्राथमिकता में है ? खबर है कि कुल 150 के आसपास लोग आए । तो क्या पचास सालों में केवल इतने ही लोग रंगमंडल से जुड़े थे ?  
आज रानावि रंगमंडल की क्या स्थिति है वह किसी से छुपा नहीं है । मेरे सहित कई लोगों ने ऐसी ही ‘असंवेदनशीलता’ का प्रतिकार करते हुए रंगमंडल से त्यागपत्र दिया था । शिक्षा का कोई भी संस्थान यदि असंवेदनशीलता का दामन थाम लेता है तो वहां कला की सेवा होगी इस पर मुझे गहरा संदेह है । चीज़ों को दबा देने से सुधार नहीं होता बल्कि प्रवृतियों को छुपाकर हम उसे प्रश्रय देने का ही काम करते हैं ।
आशा थी कि रानावि निदेशक और अध्यक्ष के बदलने से परिस्थितियों में सुधार होगा किन्तु हाय रे रानावि की किस्मत, फिर वही ढाक के तीन पात । रानावि से जुड़ाव की वजह से बड़े ही दुःख और क्षोभ में यह खुला पत्र प्रेषित कर रहा हूँ और आशा करता हूँ कि पत्र को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार किया जाएगा । हां, रानावि हमारा मदर इंस्टीटयूट है, था और रहेगा, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं ओह, मैं यह तो बताना भूल ही गया कि मेरा नाम पुंज प्रकाश है और मैं सत्र 2004-07 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का छात्र रहा तत्पश्चात 2012 तक रंगमंडल का सदस्य और रंगमंडल के असंवेदनशीलता के विरोध में मैंने दिनांक 12 मार्च 2012 को त्यागपत्र दिया । मैंने अपने त्यागपत्र में जिन मुद्दों को उठाया था उसका जवाब आज तक मुझे नहीं दिया गया है । यकीन है कि मेरा पत्र आज भी किसी फ़ाइल में पड़ा धूल खा रहा होगा ।
सादर,
पुंज प्रकाश
पूर्व छात्र व रंगमंडल सदस्य
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली

Friday, March 21, 2014

भारतीय नाट्य परम्परा : नेमीचन्द्र जैन

नेमीचन्द्र जैन की पुस्तक भारतीय नाट्य परम्परा के आधार पर बनाया गया संछिप्त नोट  
  
आदिम या पौराणिक युगों से ही किसी न किसी तरह का रंगमूलक कार्यकलाप भारतीय जीवन का एक अनिवार्य अंग रहा है । कई शताब्दियों तक वह सामान्य लोक जीवन में केवल अनुष्ठानमूलक, गीत-नृत्य, कथा गायन अथवा विशेष अवसर पर निकलनेवाली झांकियों के रूप में ही मौजूद रहा, बाद में उच्च अभिजात्य वर्गों में इसके विभिन्न रूप प्रतिष्ठित हुए । जो करीब एक-डेढ़ हज़ार वर्ष तक रहे, इसे हम संस्कृत नाटक/रंगमंच के रूप में जानते हैं ।
ईसा से पांचवीं-छठी सदी तक भारतीय नाट्य का इतिहास मिलता है । वैदिक युग के यज्ञों से सम्बंधित कर्मकांडों में नाट्य जैसी कई स्थितियां और क्रियाएँ मौजूद हैं । वैदिक साहित्य में गीत, नृत्य, वाद्यों तथा नेपथ्य की सामग्रियों का प्रचुर उल्लेख मिलता है । ऋगवेद में यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, विश्वामित्र-नदी, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इंद्र-अदिति आदि सूक्तियां संवाद मूलक हैं । जो एक नाटकीय संयोजन का आभास देते हैं ।
रामायण में नर्तक, गायक, कुश-लव की नाटकीयता की सूचना है । बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में भी नाटक का ज़िक्र मिलता है । कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र में रंगोपजीवी पुरुषों तथा नाट्य, नृत्य, गीत, वाद्य आदि की चर्चा है ।
नाट्यशास्त्र : नाटक और रंगमंच से सम्बंधित ऐसा कोई पक्ष/विषय नहीं है जिसपर इसमें गंभीरतापूर्वक एवं विस्तार से तथा सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से विचार न किया गया हो ।  
संस्कृत नाटकों की छवि : संस्कृत नाटकों में भारतीय जीवनदृष्टि का एक बड़ा विलक्षण और प्रभावशाली रूप मिलता है । वे दिखलाते हैं कि मनुष्य अपने स्वभाव, स्वधर्म और पुरुषार्थ के अनुसार जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से विभिन्न भावों, आवेगों, विकारों और स्थितियों से गुज़रता हुआ, उनके बीच अपना निर्धारित कर्तव्य पूरा करता हुआ अंत में जिस सामंजस्य और संतुलन की स्थिति में पहुंचता है वही जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य है और काम्य तथा वांछनीय भी ।
संस्कृत नाटक जीवन का कोई सतही यथार्थवादी प्रतिविम्ब नहीं प्रस्तुत करते । उनमें एक गहरे नैतिक और सौन्दर्यमूलक विवेक से मनुष्य के कार्यों और भावों की, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं की, कलात्मक कल्पनाशील अनुकृति (तस्वीर) दिखाई गई है जिससे दर्शक को रसात्मक अनुभव से मिलनेवाला आनंद के द्वारा सत्य का बोध हो ।
भारतीय जीवनदृष्टि : यह स्वीकार नहीं करती कि आदमी किन्हीं अज्ञात रहस्यमय अंधी दैवी शक्तियों के हाथों का खिलौना है जिनके विरुद्ध संघर्ष करने को तो वह अभिशप्त है पर उसकी नियति पूर्व निर्धारित त्रासदी ही है ।
इसीलिए संस्कृत नाटकों में पात्रों की वास्तविक अथवा कल्पित निजी यातना, पीड़ा या पापबोध का क्रमशः उत्तरोत्तर सघन उद्घाटन करने की बजाय, विभिन्न वैयक्तिक और सामाजिक स्थितियों में मनुष्य के सुख-दुःख, सफलता-असफलता, प्रेम-करुणा, मिलन-वियोग, हंसी-रुदन को उसके सहज मानवीय आचरण को प्रस्तुत किया गया है ।
संस्कृत नाटकों का वर्गीकरण त्रासदी और कामदी नहीं बल्कि प्रमुख पात्रों की सामाजिक और मानसिक स्थितियां तथा उसके अनुकूल होनेवाले कार्यकलापों के आधार पर है ।
संस्कृत नाटकों में : स्वतंत्र और सम्पूर्ण नाट्यशिल्प तथा विशिष्ट सौंदर्य-दृष्टि उभरती है । उनका संघटन और वस्तुविन्यास लचीला और काल्पनिक है । नाट्य रचनाओं में विन्यास की अलग-अलग पद्धति है । कार्य व्यापार की निरंतरता पर बल दिया गया है । कथा सूत्र स्पष्ट हैं । विभिन्न पात्रों द्वारा समय-समय पर अलग-अलग होनेवाले या हो चुके घटनाप्रसंगों और स्थान/समय परिवर्तन की जानकारी/सूचना दी जाती है । यह अभिनेता केंद्रित रंगमंच है । उपकरणों का न के बराबर प्रयोग होता है । गद्य, पाठ्य पद्य, काव्यात्मक पद्य और गेय छंद सभी का प्रयोग होता है । प्राकृत, रोचक युक्तियाँ, स्वागत, नेपथ्य से पात्रों का कथन एवं आकाशवाणी, संगीत, नृत्य का भी प्रयोग होता है । चरित्रों में अलग-अलग भावों की प्रधानता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है ।
अभिनय का उद्देश्य : किसी पात्र के विभिन्न भावों के उद्घाटन से दर्शक के मन में रस की श्रृष्टि द्वारा आनंद की अनुभूति पैदा करना होता है । दर्शक रसानुभूति द्वारा आनंद की प्राप्ति करते हैं । अभिनय के लिए अभिनेताओं से समग्र अभिनेता का आग्रह यानि अभिनेता को नृत्य, गायन, भाषा, छंद, लय, काव्य की गहरी जानकारी व अभ्यास की प्रमुखता अनिवार्य मानी गई है । अभिनेता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के हिसाब से वेशभूषा, रूपसज्जा, व्यवहार में आनेवाले उपकरणों को आहार्य के रूप में शामिल किया जाता है । अभिनय परम्परा में यथार्थ के अनुरूप नहीं बल्कि यथार्थ को दिखाने, उसे व्यंजित करने का प्रयास किया जाता है । सहृदय दशकों के लिए नाट्यप्रदर्शन किया जाता था । सूत्रधार/नट-नटी, विदूषक के माध्यम से नाट्य प्रयोग को दर्शकों से जोड़ने की कोशिश की जाती थी । विदूषक हास्य विनोद का संवाहक है । कक्षा विभाग व रंगपट्टी (प्रवेश-प्रस्थान हेतू) का प्रयोग किया जाता है ।

संस्कृत नाटकों के विघटन के कारण : एक सैद्धांतिक और व्यावहारिक बुनियाद पर प्रतिष्ठित होने के बावजूद भी संस्कृत नाटक का दसवीं शताब्दी तक विघटन हो गया । इसके कुछ प्रमुख कारण विदेशी आक्रमणों और आंतरिक विग्रह से पैदा होनेवाली राजनैतिक-सामाजिक अस्थिरता, संस्कृत भाषा के क्रमशः अभिजात वर्ग तक सीमित होते जाने से उसमें सृजनात्मक उर्जा की क्षीणता, नाट्य रचना के स्तर पर प्रतिभा कई कमी, सामान्य दर्शकों के लिए उनकी लोकप्रियता में कमी आदि हैं ।

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...