Saturday, December 26, 2015

सत्ता, संस्कृति और जनवाद की संस्कृति

सत्ता, संघर्ष और मानव संस्कृति का इतिहास भी लगभग विश्व इतिहास के जितना ही पुराना है। आज का मानव समाज जहाँ खड़ा है वह विभिन्न एतिहासिक कालों और संघर्षों से श्रम के सहारे ही गुज़रकर इस मुकाम पर पहुंचा है। इतिहास की पुस्तकों में इसे अलग – अलग नामों से पढ़ाया भी जाता है। अलग - अलग कालों में सत्ता और संस्कृति की अच्छाई, बुराई और चुनौतियाँ अलग – अलग रहीं हैं। लेकिन कथित या तथाकथित रूप से सत्ता से आम जन का सीधा – सीधा जुड़ाव प्रजातंत्र नामक व्यवस्था के उपरांत ही देखने को मिलता है। वही सत्ता की संस्कृति और आम जन की संस्कृति का मेल-मिलाप और विभिन्न प्रकार के विरोधाभास भी सामने आते है। वहीं वामपंथ के आगमन के साथ ही जनवादी संस्कृति जैसे शब्द भी सुनाई पड़ने लगता है और यह मान्यता भी प्रखर रूप से सामने आती है कि असली जनवादी संस्कृति अक्सर सत्ता के विरोध या विपक्ष का काम करती है।
प्रसिद्द नाट्य चिन्तक नेमिचंद्र जैन का “सत्ता और संस्कृति” नामक एक आलेख है। यह आलेख सभी संस्कृतिकर्मियों को ज़रूर पढ़ना चाहिए और खासकर उनको जो यह मानते हैं कि कला, संस्कृति, साहित्य आदि स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होते हैं; और असली संस्कृति वही है जिसका मूल चरित्र सत्ता विरोधी हो। वहीं ऐसी मान्यता वालों की भी कोई कमी नहीं जो यह मानते हैं कि सत्ता का हस्तक्षेप या संरक्षण कला-संस्कृति को अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है इसलिए संस्कृतिकर्मी या कलाकार को सत्ता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए; कला साहित्य की पवित्रता की रक्षा के लिए यह एकदम ज़रूरी है। तो कुछ लोग यह भी मानते हैं कि समाज में दो संस्कृतियाँ होती हैं - एक सत्ताधारी अर्थात शोषक वर्ग की और दूसरी क्रांतिकारी अर्थात शोषित वर्ग की और असली संस्कृति वही है जो सत्ताधारी वर्ग और उसकी संस्कृति से निरंतर संघर्ष करके शोषित वर्ग की सत्ता और संस्कृति की स्थापना में हाथ बंटाती है। नेमिचंद्र जैन इन सारी बातों का तर्क और उदाहरणों के साथ खंडन करते हैं और इन मान्यताओं को मानने वालों को कोरा भावुक, चतुर, सतही, भोला या पाखंडी मानते हैं क्योंकि इन बातों में एतिहासिक सच्चाई नहीं है। यदि यह सच होता तो विश्व इतिहास के उन महान लेखकों – कलाकारों का तो वजूद ही नहीं होना चाहिए था जो सामंतवाद काल में और सत्ता के नजदीक रहकर एक से एक महत्वपूर्ण रचनाएँ कीं।   
वर्तमान में भी सरकारी संस्थानों और उससे मिलनेवाले सहयोगों के लेकर खुद को जनवादी संस्कृति के वाहक मानने वाले समूहों और लोगों में एक खास किस्म का हिकारत का भाव है। वहीं सरकारी नौकरियां करनेवाले से इन्हें कोई परहेज़ नहीं। ऐसे लोग इन समूहों के न केवल सदस्य हैं बल्कि बड़े-बड़े पदों पर भी विराजमान हैं। लेकिन यहाँ भी शायद पदाधिकारियों और सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए अलग-अलग नियमावली हैं। लिखित रूप में न सही व्याहारिक रूप में तो हैं हीं। वैसे भी इन समूहों में जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है उनकी स्थिति निहायत ही दैनीय ही है और वो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कार्यकर्ताओं के दबंगई को सहना पड़ता है।
ऐसे ही एक समूह के एक सदस्य ने नाटक के लिए सरकारी ग्रांट लिया तो उसको दल से निकालने तक के लिए बैठक पर बैठक की जाने लगी जबकि उसकी खस्ता माली हालत पर ज़िम्मेवारी तो दूर, किसी ने उस विषय पर तनिक भी चिंता करना तक ज़रुरी नहीं समझा। नेमीचंद जैन कहते हैं – “इस मामले में वामपंथियों का रवैया पूरी तरह से दोमुंहा है। एक ओर वे संस्कृति को स्वभाव से सत्ता - विरोधी माननेवालों के साथ बड़े उत्साह से शामिल होते हैं और दूसरी ओर वो अपनी (और अपने जैसों – लेखक) सरकारों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के समर्थक हैं।”
अब तो कई सारे जनवादी संस्कृति के वाहक दल और व्यक्ति NGO के रूप में परिवर्तित हो गए हैं। एक तरफ सरकारी और अन्य गैरसरकारी माध्यमों से मोटी रकम उठा रहे हैं वहीं मौके बे-मौके जनवाद का ढोल भी बजाते रहते हैं। नुक्कड़ नाटक विधा में विशेषज्ञता की वजह से प्रचार-प्रसार के लिए कई सारे सरकारी और गैर कंपनियों का काम भी इन्हें आसानी से मिल जाते हैं। दुखद सच तो यह भी है कि जनवाद के कुछ ठेकेदार कई शहरों और गांव में दलाली नामक नई “जनवादी” विधा के सबसे बड़े पैरोकार भी बनकर उभरें हैं। यह उनकी आर्थिक मजबूरी हो सकती है लेकिन मजबूरियां संविधान नहीं हो सकतीं।
नेमिचंद्र जैन सवाल करते हैं कि “संस्कृति और सत्ता के सम्बन्ध को लेकर सस्ती जुमलेबाज़ी करने से पहले हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हम सचमुच चाहते हैं कि सरकार ने जो सांस्कृतिक संस्थान स्थापित किए हैं, उन्हें बंद कर दिया जाय और संस्कृति के क्षेत्र में कोई साधन सुलभ न कराए?” सत्ता के बारे में वह लिखते हैं कि “निस्संदेह, सत्ता हाथ में आने पर सत्ताधारी अनेक बार उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगते हैं, स्वार्थ साधन में लग जाते हैं, या निरंकुश होकर सत्ता की स्थापना के मूल उद्देश्य को ही नष्ट करने लगते हैं। ऐसी हालत में उससे हटाकर सत्ता की कोई दूसरी व्यवस्था आवश्यक हो जाती है। --- जो भी सत्ता मौजूद हो, उसकी ज़िम्मेदारी और एक गैर ज़िम्मेदार सत्ता को बदलने की ज़रूरत के बीच फर्क करना बहुत ही आवश्यक है। यह न कर सकने से ही बहुत से खोखले विचार और नारे पैदा होते हैं।”
लेख के आखिर में वो लिखते हैं कि “अगर संस्कृति को सत्ता का पिछलगुआ बनना धातक है तो उतना ही आत्मघाती है उसे किसी राजनैतिक पार्टी, कार्यक्रम या विचारधारा का पिछलगुआ बनाना। यह एक विडम्बना ही है कि अपने आपको वैज्ञानिक चिंतन के हामी माननेवाले भी इस तरह के ढोंगी दोमुहें आचरण तथा वैचारिक खोखलेपन से अपने आपको मुक्त नहीं कर पाते।”
अब थोड़ी सी पड़ताल जनवाद भी किया ही जाना चाहिए। जन का क्या अर्थ होता है? क्या जन का अर्थ केवल मेहनकश वर्ग है? तो क्या बाकि लोग जन नहीं हैं? यह समूह जब ब्रेख्त के नाटकों का मंचन करते हैं तो वह जनवादी नाटक हो जाता है और कोई और करे तो कलावादी! यह दोहरापन एक पाखंड नहीं तो और क्या है? जनता और जनवाद की इनकी व्याख्या एक खास प्रकार की संकीर्णता युक्त नहीं तो और क्या है? इनकी संकीर्णता का आलम तो यह है कि यह वाद्यों तक को सामंती और सर्वहारा बना देते हैं। मसलन सितार सामंती मानसिकता का परिचायक है और नगाडा जनवादी मानसिकता का। सितार से जो ध्वनि निकलती है वह सामंतवाद की ध्वनि होती है और नगाड़े से निकलने वाली जनवाद की? ऐसी मान्यताओं वाले लोग खुद तो हास्यास्पद होते ही हैं और अपने साथ उस वैज्ञानिक विचारधारा को भी हास्यास्पद बना देते हैं जो हज़ारों फूलों को खिलने दो जैसा सिद्धांत मानता है।
जहाँ तक सवाल कला और साहित्य है तो उसके लिए प्रसिद्द नाटककार दरियो फ़ो का यह कथा ही काफी है कि “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।” फ़ो के इस कथन में क्या जनवादिता नहीं है?
अपने माथे पर किसी फलाने वाद का तमगा भर लगा लेने से कोई जनवादी और प्रासंगिक नहीं हो जाता? जनवाद और प्रासंगिकता एक गंभीर और व्यापक विषय है। अ-गंभीर, संकीर्ण, मूढ़ और स्वार्थी लोगों को केवल अपने और अपनों का फ़ायदा नुकसान दिखता है। वो अगर जन और जनवाद की बात करते भी हैं तो यह उनका केवल एक छलावा मात्र है। ऐसे लोग न केवल जन और जनवाद के कट्टर और सबसे बड़े शत्रु हैं बल्कि उस विचार को भी संकीर्ण कर देते हैं जिन्हें मानने का दंभ ये भरते हैं।     

Sunday, December 6, 2015

कम्युनिस्ट पार्टियां कभी ऐसा भी करतीं थीं, अब पता नहीं!

एक पुरानी भारतीय कहावत है कि पैसा अपने साथ बहुत सारी बुराइयों को भी लाता है। एक समय ऐसा भी था जब बिहार के कम्युनिस्ट पार्टियों के पास पैसा था ही नहीं। लेवी और विभिन्न प्रकार के टेक्स लेने का पेशा अभी शुरू नहीं हुआ था। कैडरों की ईमानदार, प्रतिबद्धता और जूनून और मेहनतकश जनता की एकता और अपने नेता पर उनका विश्वास ही उनकी कुल जमा पूंजी थी। आज का हाल तो खैर सबको पता है ही।
तो उसी ईमानदार काल का एक किस्सा कुछ यूं है – किसी इलाके के में पर्चा छपना था। पहले पर्चे का ड्राफ्ट तैयार किया गया। उस ड्राफ्ट को कुछ लोगों के बीच (जिनमें ग्रामीण ज़्यादा थे, नेता एक या दो) पढ़ा गया। फिर जो सुधार लोगों ने सुझाया उसे ठीक लगने पर दुरुस्त किया गया। फिर गाँव में चंदा किया गया। गांव क्या था कुछ झोपड़ियों से सुशोभित दलितों की बस्ती थी। रोज़ कुआँ खोदना और रोज़ पानी पीना यही उनकी ज़िंदगी थी। तो ऐसी बस्ती में चंदे के रूप में नगदी की कल्पना तो किया ही नहीं जा सकता है। वहां चंदे के रूप में वह अनाज ही मिलता जो औरत, मर्द रोज़ कमाकर या मेहनत से कमाए पैसे से खरीदकर लाते थे।
हम बच्चों को यह ज़िम्मेवारी मिलती थी कि कई प्रकार का झोला लेकर शाम के समय बस्ती में दरवाज़े दरवाज़े जाते और लोग उसमें अपनी मुट्ठी से चावल, दाल, आंटा आदि चीजें डालते। फिर उसको दूकान में बेचा जाता और उससे जो पैसा मिलता उससे पर्चा छप के आता। पर्चा जब छपकर हाथ में आता तो वह किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं होता।
पर्चा चुकी बहुत ही कम छप पता था तो हर गांव के हिस्से कुछ दर्जन पर्चे ही आते; जिसे लोग किसी अमानत की तरह संभालकर पढ़ते। अमूमन कोशिश यह किया जाता कि शाम में सबको बुलाकर यह पर्चा पढ़कर सुनाया जाय और बाकि पर्चे को बांटने के काम में लाया जाय। फिर भी कुछ लोग ऐसे थे जो अपने हाथों से पढ़ते। जो पढ़ सकते थे खुद पढ़ते और जो नहीं पढ़ सकते थे वो हम जैसे किसी बच्चे को पकड़कर पढ़वाते और बीच-बीच में हां-हूँ करते रहते। कहीं कुछ नहीं समझ में आने पर उस पंक्ति को बार-बार पढ़वाते। जब पर्चा पढ़ लिया जाता तो उसे किसी और को पढ़ने के लिए सौंप दिया जाता।
उस काल में कोई पर्चा फेंका हुआ पा लिया जाना एक बहुत बड़ी घटना थी और ऐसी घटनाएं शायद ही कभी हुईं।
केवल पर्चा ही नहीं बल्कि बैनर और पोस्टर भी ऐसे ही बनाए जाते। कूट (गत्ता) पर सदा कागज़ चिपकाया जाता और उस पर दातुन की कुंची बनाकर नारे लिखे जाते और उसे बांस के फट्ठे या किसी सीधे डंडे में किसी पतली रस्सी की सहायता से बड़ी ही सफाई से बंधा जाता।
बैनर के लिए लाल कपड़ा और एल्युम्युनियम पेंट का छोटा सा डब्बा ख़रीदा जाता और उसे अपने हाथों से बनाया जाता। दीवाल लेखन भी कुछ ऐसे ही होता था। टीन के छोटे-छोटे डब्बे में होली में इस्तेमाल होने वाले रंगों को थोड़ा गढा मिलाया जाता और उसे बबूल के दातून की कुंची बनाकर दीवाल पर लिखा जाता।
अब तो पर्चा कौन लिखता है, कैसे छपता है और कब बाँट दिया जाता है, किसी को कुछ पता ही नहीं चलता। बैनर, पोस्टर तो अब प्रोफेशनल ही बनाते हैं। सबकुछ एक रहस्य की तरह हो गया है। पर्चे पर वाद-विवाद तो अब दूर की बात है। लेकिन यह परम्परा हार जगह से खत्म हो गई है; ऐसा भी नहीं है। खैर, सन 1985 से 95 के बीच घटित यह पुरी घटना सुनाने के पीछे मेरा स्वार्थ केवल इतना है कि इस पुरे प्रकरण से ही मैंने पेंट और ब्रश से लिखना (कैलीग्राफी) सीखा और आज तो काफ़ी ठीक-ठाक लिख लेता हूँ। मैंने अपने नाटकों में भी मैंने अपनी इस कला का खूब इस्तेमाल किया। शुक्रिया कॉमरेड्स और जनता। 

Friday, December 4, 2015

कोठागोई : यथार्थ का किस्सागोई

संगीत और कला को जब-जब बाँधने की कोशिश की जाती है वह बाँध तोड़कर आगे बढ़ जाती है । - कोठागोई 

अपने अंदर बृहद कालखंड समेटे वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रभात रंजन की किताब कोठगोई (चतुर्भुज स्थान के किस्से) एक ही बैठकी में पढ़ी जानेवाली एक ज़रुरी रचना है । समाज और समाजिकता के स्याह और धूसर पन्नों के इतिहास और किस्सागोई में लेखक की विभिन्न लोगों से साक्षात्कारों, गप्पों, स्मृतियों और तमाम इन्द्रियों के सहारे गोते लगाती यह एक सामाजिक विज्ञान की पुस्तक भी बन जाती है । जिसमें इतिहास का स्याह और सफ़ेद अध्याय है, किस्सा है, कहानी है, गप्प है, गल्प है, उपन्यास है, निबन्ध है, कवित्त है, गीत है, आत्मकथा है, संस्मरण आदि है । तो मूल बात यह कि इस पुस्तक को किस स्थापित श्रेणी में रखा जाय ? शायद कहीं नहीं या शायद हर जगह । वैसे भी कुछ चीज़ें और कुछ इंसान ऐसे होते हैं जो बने बनाए किसी भी खांचे और सांचे में फिट नहीं बैठते । वैसे सच कहूँ तो मेरे व्यक्तिगत अनुभव और समझ उतनी उन्नत भी नहीं है कि इसे किसी खांचे में डालके पैक कर दूँ । और फिर लोक इतिहास यथार्थ और कल्पना के सटीक मेल से ही तो बनता है; नहीं क्या ? यह सुनी, सुनाई और इस सुनने सुनाने से बनाई गई कथागोई है । “जितनी उसने सुनाई थी, जितनी मैंने उसके सुनाए से बनाई थी ।” – (कोठागोई, पृष्ठ – 169) क्या इसे ही रिसर्च वर्क कहा जाता है ? यदि नहीं तो किसे कहा जाएगा  ?
वैसे पुस्तक की जड़ में मुज़फ्फरपुर (बिहार) का चतुर्भुज स्थान तो है लेकिन यहाँ मन में आनेवाले विचारों की तरह उन्मुक्त फैलाव भी है । जिसमें “अंधेरे-उजाले के बीच संगीत इबादत से पहले !”, “सुना गुना समझा जाना बुना !”, “ज़िंदगी उस पार जितनी ज़िंदगी उस पार है”, “गुमनाम कवि बदनाम गायिका, बाकि बाजत रसनचौकी”, “इज्ज़त उसे मिली जो वतन से निकल गया”, “दर्द का किस्सा यार बहुत है”, “पढ़ कर आगे जाना है अपना दाग मिटाना है”, “दर मिला मुझको दरबदर होकर”, “ब्लू कलर का पैंट पहनकर हैंड कमर में लाती हो”, “दुनियां दुनियां जीवन जीवन”, “अंतिम प्रणाम लोक देवता को”, आखिरी बात आदि कुल तेरह शीर्षकों के सहारे किस्से स्वतंत्र, रोचक और सहज तरीके से विचरण करते है; बिलकुल दादी, नानी और लोक कथाओं के कहानियों की तरह । यहाँ कथा है तो कथा कि परिकथा और उपकथा भी । कला है तो नंगा और क्रूर यथार्थ भी है, विषय है तो विषयान्तर भी, “विषय के नाम पर विषयान्तर, कथा के नाम पर कथान्तर !” (कोठागोई, पृष्ठ – 96), या “क्या कीजिएगा विषय के नाम पर विषयान्तर हो ही जाता है ।” (कोठागोई, पृष्ठ - 73) कई स्थान पर तो एक ही कथा के कई वर्जन भी हैं । बिलकुल वैसे ही जैसे एक ही घटना पर अलग-अलग व्यक्ति का वर्जन थोड़ा अलग होता है । सच्चाई, सहजता और यथार्थ भी तो यही है । यथार्थ के धरातल पर भी सच है तो उसमें कल्पना का मिश्रण भी कम नहीं । तो फिर ? सच-झूठ से ज़्यादा ज़रूरी नज़रिया हो जाता है । नजरिया समझ, अनुभव और ज्ञान से ही बनता है; तब जब दिल-दिमाग खुले हों और मन में सवाल उत्पन्न होते हों, दिल में बैचैनी का घर हो । साधारण जीवन जीना और बने बनाए ढर्रे पर रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह चलते चले जाना मुश्किल हो सकता है, मज़ेदार तो कतई नहीं है । ठीक वैसे ही जैसे कान तो सबके पास होते ही हैं लेकिन सब “कनरसिया” नहीं होते । वैसे यहाँ कथाओं का अंत गुमनाम है या फिर अंत के कई किस्से ।
साधारण जिंदगियों की कहानियां भी बड़ी ही साधारण होतीं हैं । शायद जीवन भी अति साधारण ही होता होगा । चुनौतियों का क्या, वो तो हर किसी की सहयात्री होती ही हैं । अलग-अलग रुतवे के लोग अपनी अलग-अलग ज़रूरतों के लिए अलग-अलग चुनौतियों का सामना करते हैं । इसमें कोई खास बात नहीं । तो  ? कहानियां होती हैं उनकी जो दुनियां के बीच रहकर भी कुछ अलग जीते हैं । अब यह जीवन खुशी से स्वीकारते हैं या मज़बूरी से यह बात और है । वैसे भी मनपसंद जीवन जीने का मौका और ज़ज्बा मिलाता ही कितने लोगों को है  ?
किस्सागोई एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी है गाने-बजाने, सीखने-सीखने, सुनने-सुनाने, गुनने-गुनाने, बेचने-खरीदने, प्रसिद्धि और फिर गुमनामी के अंधेरे कोने में दफ़न हो जाने को अभिशप्त ना जाने कितने लोगों और संस्कृतियों का । लेकिन जैसा की प्रामाणिक सत्य है कि कुछ भी पूरी तरह से कभी खत्म नहीं होता, बल्कि उसका स्वरूप बदल जाता है । यह बदलाव अच्छा भी हो सकता है और अच्छा नहीं भी हो सकता है । बदलाव के बहुत से कारक होते हैं – सांस्कृतिक, एतिहासिक, आर्थिक, राजनैतिक और पता नहीं क्या क्या ! बदलाव कभी अंदरूनी होता है तो कभी बाहरी, लेकिन दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं, इस तथ्य से कैसे इनकार किया जा सकता है । इस प्रकार कोठागोई चतुर्भुज स्थान की स्थापना से लेकर और न जाने कितने किस्से समेटते हुए उसके उत्थान-पतन की भी कथा कहता है ।
कोठागोई इस पुस्तक के लिए एकदम अनुकूल शीर्षक है । भाषाशास्त्री, भोलानाथ तिवारी, “शब्दों का जीवन” नामक पुस्तक में लिखते हैं – “शब्द जनमते हैं । जी हां, शब्द जनमते हैं । नयी घटनाएँ, नए विचार, नयी परम्पराएं, नयी वस्तु, प्रायः नए शब्द को जन्म देते हैं । पाकिस्तानियों ने 1965 में भारत में घुस-पैठ की और हिंदी में ‘घुस-पैठिया’ शब्द ने जन्म लिया । विभिन्न प्रलोभनों ने हमारे विधायकों को दल बदलने को मजबूर किया जिसका परिणाम था ‘दलबदलू’ शब्द का जन्म ।” कोठों का किस्सा सुनाने के लिए लेखक ने किस्सागोई नामक शब्द से प्रेरणा लेकर कोठागोई नामक शब्द की रचना की होगी या क्या पता यह शब्द पहले से प्रचलन में हो । लेकिन क्या कोठागोई केवल कोठे के किस्से तक ही सीमित है । नहीं, हरगिज़ नहीं । कथा का सूत्र किसी बरगद की जड़ की तरह चतुर्भुज स्थान से होकर ना जाने कितने देस-परदेस तक का सफ़र तय कर विभिन्न जाने अनजाने चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से शब्दों के मार्फ़त अपनी यात्रा तय करता है ।
कोठागोई का किस्सा सूत्रधारात्मक (Narrative) है सदियों पुरानी प्रथा किस्सागोई की तरह । जिसका सूत्रधार निश्चित रूप से लेखक ही हैं । हलांकि यह भी विश्वास से कहना उचित नहीं होगा । हां, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि किस्से लेखक के मार्फ़त ही आते हैं । अब लो यह भी कोई बात हुई, किस्से लेखक के मार्फ़त ही तो आएंगें ना ! खैर, पुस्तक के शुरुआत ही में लेखक ने यह दावा पेश किया है कि “मैं चतुर्भुज की शपथ लेकर कहता हूँ कि इस पुस्तक में जो लिखा है सब झूठ है । इसमें झूठ के सिवा कुछ नहीं है ।” यह बड़ा अटपटा है । दरअसल, लेखक का यह कथन ही इस पुस्तक का सबसे बड़ा झूठ है । वही कुछ और विचार पुस्तक में बार-बार अन्य-अन्य तरीके से दुहराए जाते हैं जो निश्चित ही उपरोक्त कथन की बार-बार पुष्टिकरण ही करते हैं । वो भी इतनी बार की कई बार तो इस पुष्टिकरण पर ही संदेह होने लगता है । किसी ने सच ही कहा है कि इंसान एक बार झूठ का सहारा ले ले तो उसे बरकरार रखने के लिए बार-बार झूठ का सहारा लेना पड़ता है और हो सकता है कि अगला झूठ पिछले झूठ से बड़ा झूठ हो । इस प्रक्रिया में भय यह रहता है कि झूठ का एक बड़ा पुलिंदा ही न बन जाए । लेकिन इंसान की बात अलग है और लेखक की अलग । लेखक झूठ में सच और सच में झूठ की मिलावट न करे तो शायद कोई किस्सा ही न बने । इसी को नाट्यशास्त्र में भरतमुनि कथावस्तु (Plot) कहते हैं । जिसके तीन श्रोत होते हैं - प्रख्यात यानि किसी प्रसिद्द कथा को विषय बनाकर लिखा गया । उत्पाध यानि किसी काल्पनिक कथा वस्तु को आधार बनाकर लिखा गया । मिश्रित यानि प्रसिद्ध तथा काल्पनिक कथा वस्तु को मिलाकर लिखा गया । हालाकिं भरतमुनि यह बात नाटक के सन्दर्भ में कह रहे हैं लेकिन क्या कथा, कहानियों व उपन्यासों आदि का भी सच यही या इसी के आसपास नहीं है ? वैसे “सच - झूठ होता क्या है ? अपना अपना नज़रिया है । --- जो हमें अच्छा लगता है हम उसे सच मान लेते हैं । --- सच असल में कुछ होता नहीं, अपने-अपने सोच की सुविधा होती है ।” (कोठागोई, पृष्ट - 57)
तो क्या कोठागोई का सच फार्स और काल्पनिकता है ? नहीं, हरगिज़ नहीं ! बल्कि यहाँ रचनात्मक सच है । भारतीय परम्परा में जिसे काव्यात्मक सच (Poetic Truth) कहा गया है । यह सच झूठ से परे एक विश्वास है । जिसकी अन्तःप्रेरणा है कथ्य । इसी कथ्य को अभिव्यक्त करने के लिए रचनाकार रचनात्मक सच रचता है । इसे सच नहीं, सच का एहसास (Sense of Truth) कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा । यहाँ पाठ नहीं बल्कि समय, काल, स्थिति और परिवेश आदि ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं । यहाँ जितना इतिहास है उतना ही गप्प भी । जितना सच लगभग उतनी ही गल्प । निरा गप्प भी नहीं बल्कि चुन-चुनकर सजाया हुआ, इतिहास के पन्नों से निकाला और कुरेदा हुआ गप्प । जिसके केन्द्र में हैं एक पूरी की पूरी कला और पल-पल बदलता, टूटता, बिखरता और समृद्ध होता या तबाह होता नंगा यथार्थ । सामाजिक मान्यताओं ने जिसे बदनाम का नाम दे रखा था लेकिन उसका रस भी इसी समाज ने जम के चूसा और जब सारा गूदा खत्म हो गया तो आम की गुठली की मानिंद चतुर्भुज स्थान से बाहर फेंक दिया और किसी नए मनबहलाव की खोज में व्यस्त हो गया । वैसे कुछ आमों की किस्मत में चूसा जाना भी नहीं होता बल्कि वो वही पड़े-पड़े कुढ़ते-खीजते और अंततः कुम्हलाते हुए किसी अंधेरे कोने में गुम हो जाते हैं; तो कुछ चुसे जाने के बाद ज़मीन के सहारे एक नया पौधा बन जीवन प्राप्त करते हैं । यह सच है कोई हैरत की बात नहीं । वैसे भी “जब यथार्थ ही इतना अविश्वसनीय हो चला हो तो ऐसे में किसी भी बात पर हैरत नहीं होना चाहिए ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 184)
कोठागोई, कोठे के मार्फ़त समाज की कथा कहता है । इसे ऐसे भी कहें तो गलत नहीं कि कोठागोई समाज के मार्फ़त कोठे की कथा कहता है । या फिर इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कोठागोई कथाएँ कहता है जिसमें इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, समाज विज्ञान, कोठा, सांस्कृतिक परम्परा, कला, देह, रुतबा, रूपया आदि और पता नहीं क्या-क्या समाहित होता जाता है । नहीं; इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि कोठागोई एक पेड़ है जिसकी जड़ तो एक है, लेकिन कई टहनियाँ हैं और अनगिनत नए, पुराने, सूखे, हरियाते, गिरे तुड़े पत्ते हैं ।
बाकी इस किताब के बारे में और क्या-क्या और लिखा जाना चाहिए मुझे नहीं पता । निश्चित रूप से इस पुस्तक में भी कई छेद होंगे ही, होने भी चाहिए । सम्पूर्ण तो आजतक कुछ हुआ ही नहीं है । लेकिन अभी तो इसके पहले प्यार में अभिभूत हूँ और प्यार जब नया नया होता है तो बस खुमारी ही खुमारी होती है । वहां कमजोरियों और बेतुकेपन पर भी प्यार ही आता है । जैसे प्रूफ की गडबड़ी के कारण शारदा सिन्हा, शारदा सिंह हो जाती हैं । अच्छा, क्या यह बात हमारे समय की सच्चाई बन चुकी है कि अब अच्छे प्रूफ रीडर बहुत ही कम हैं और प्रकाशकों ने लेखक को ही यह सारा काम करने को अभिशप्त कर दिया है ? वही एकाध जगह नैरेशन में अंगेजी के शब्दों का प्रयोग भी खटकता है । लेकिन यह सब छोटी-मोटी बातें हैं जिसे अगले संस्करण (यदि छपा तो !) में आराम से दुरुस्त किया जा सकता है ।
कोठागोई गुमनाम जगहों और लोगों का किस्सा है । जो काल्पनिक नहीं बल्कि यथार्थ है – नंगा यथार्थ । हम इसे स्वीकारें न स्वीकारें यह अलग बात है । वैसे भी “शाम होते ही मर्द बाहर निकल आते हैं और घर बाज़ार बन जाते हैं । दिन में वे घर होते हैं, पुरुष होते हैं, बच्चे होते हैं, शाम को बस बाज़ार । कुछ खरीदार होते हैं, कुछ तफरीहदार ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 91) सच यह है कि दुनियां बाज़ार में तेज़ी से तबदील होती जा रही है और इंसान उपभोक्ता के रूप में परिवर्तित होने को अभिशप्त । लेकिन इस सच को स्वीकारने के लिए बहुत कम लोग तैयार है । अब यह अज्ञानता है, अनभिज्ञता, तटस्था, अक्खड़ता, अहम् या कुछ और या सब कुछ, या कुछ भी नहीं; कौन जाने  ? बहरहाल –
शोहरत-वोहरत इज्ज़त-विज्जत जिसको चाहे मिल जाये
चादर-वादर दौलत-वौलत जिसको चाहे मिल जाए
सच्चे फनकारों को कदरदां हर टेशन पर मिल जाए
बाकि तो सब फाव की दौलत जिसको चाहे मिल जाए
तो अंत में बस इतना ही कि कोठागोई पढ़िए और मेरी लिखी सारी बातों को सिरे से ख़ारिज कर दीजिए मुझे ज़रा भी दुःख नहीं होगा – सच्ची-मुच्ची । चतुर्भुज स्थान की कसम । लेकिन बिना पढ़े खारिज़ करेंगें तो किसी का भला नहीं होनेवाला, आपका भी नहीं । वैसे लगे हाथ यह भी बता ही दूँ कि कसम उसम पर मेरा कोई यकीन नहीं है । वैसे भी “जीवन के उमंग से जगानेवाली आवाज़ें कभी अमर नहीं होतीं । उनका मरना ही उनकी नियति है शायद । जिनका कोई नाम नहीं होता उनका गुम हो जाना ही उनकी नियति होती है । हम बस खोज सकते हैं । उनको जो गुम हो गए ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 65)

कोठागोई (चतुर्भुज स्थान के किस्से), लेखक – प्रभात रंजन, प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, मूल्य 295 रुपया  
                                                       पाखी में प्रकाशित 

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...