Monday, November 13, 2017

पद्मावती : नकली आहत भावनाएं

जो समाज जितना ज़्यादा डरा, सहमा, सामंती, नकली और कूढ़-मगज होता है; उसकी भावनाएं उतनी ज़्यादा आहत होती है। ज्ञानी आदमी कौआ और कान वाली घटना में पहले अपना कान छूता है ना कि कौए के पीछे दौड़ पड़ता है ।
फ़िल्म इतिहास की किताबें नहीं होती। कोई भी सिनेमा कितना भी ऐतिहासिक होने का दवा प्रस्तुत करे लेकिन वो पूर्णरूपेण ऐतिहासिक तो कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि कोई भी कला चाहे वो कितना भी यथार्थवादी होने का भ्रम पैदा करे, यथार्थ और कल्पना के प्रयोग से जन्म लेता है। बिना काल्पनिकता का सहारा लिए किसी भी कला की उत्पत्ति संभव ही नहीं है, और फ़िल्म जैसी विधा का तो बिल्कुल ही नहीं। फ़िल्म का एक एक फ्रेम कल्पित किया जाता है और फिर अभिनय सहित कई अन्य माध्यमों से हर दृश्य में प्रभाव पैदा करने की चेष्टा की जाती है। इसलिए सिनेमा पूरी तरह से एक काल्पनिक माध्यम है। चरित्रों के नाम ऐतिहासिक रखना और कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को आत्मसाथ कर लेने मात्र से सिनेमा इतिहास की किताब नहीं हो जाती। जो लोग सिनेमा में इतिहास खोजते हैं वो मूढ़ हैं। इतिहास इतिहास की किताबों में खोजो, अगर किताबों से वास्ता हो तो। कुछ नहीं तो कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में पद्मावत ग्रंथ रूप में लिखी है, वही पढ़ लिया जाए। यह गर्व नहीं बल्कि शर्म की बात है कि अपने इज़्ज़त(?) की रक्षा के लिए किसी देश में स्त्रियों को जौहर (ख़ुद को ज़िंदा जला देना) करना पड़े। क्या किसी ने कभी यह सुना है कि किसी मर्द ने जौहर किया हो या अपनी पत्नी से साथ सती/सता हो गया हो? तो क्या इज़्ज़त केवल औरतों के पास होती हैं और मर्द इज़्ज़त का घोषित रखवाला या लूटेरा होता है? वैसे पद्मावती का इतिहास मिलना मुश्किल है। 1540 में लिखित जायसी के काव्य में इनका ज़िक्र आता है लेकिन यह इतिहास है या मिथ, पता नहीं। वैसे भी जायसी खिलजी के 240 साल बाद इस काव्य की रचना कर रहे होते हैं। लेकिन एक ऐसे देश में जहां ऐतिहासिक प्रमाणिकता के बजाय मिथ और विश्वास का स्थान ज़्यादा पवित्र माना जाता है वहां तर्क से ज़्यादा भक्ति का राज चलता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भक्ति के लिए मनुष्य मूर्खता की पराकाष्ठा पार कर सकता है।
कोई भी फ़िल्म किसी ऐतिहासिक चरित्र, घटना आदि से जुड़ा नहीं कि इस देश में कोई ना कोई तबका हाय-हाय करने लगता है। इसीलिए आजतक इतिहास, ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं पर अमूमन लोग फ़िल्म या कलात्मक अभिव्यक्ति से बचते हैं। भैंस के आगे कौन बीन बजाए!
वैसे दशरथ मांझी के ऊपर फ़िल्म बनी। निश्चित रूप से फ़िल्म एक फैंटेसी ही थी लेकिन किसी ने सुना कि माझी लोगों ने तलवार निकाल ली हो या फ़िल्म के ख़िलाफ़ कोई फतवा जारी किया हो या फ़िल्म के सेट को तोड़ा हो या कोट कचहरी के चक्कर लगाए हों। सच ही कहा है किसी ने कि रस्सी जल गई लेकिन ऐंठन नहीं गई। वैसे पता नहीं किस बात का ऐठन है? कई सौ साल मुगल राज किए, तो कई सौ साल अंग्रेज लूटते रहे देश को!!! आज भी भारत का लगभग पूरा मार्केट विदेशी कब्ज़े में है। सब इतने ही "सुपरहीरो" होते हैं तो फिर यह सब क्यों हुआ ?
वैसे इस फ़िल्म के ट्रेलर देखें हैं। एक से एक वाहियात डॉयलोग हैं। माना कि सिनेमा लार्जर देन लाइफ़ माध्यम है लेकिन इतना संवादों भी वाहियातपना उचित नहीं।

एक दूजे के लिए : दुनियां में प्यार की एक है बोली

फिल्में ट्रेंड पैदा करती हैं। किसी ज़माने में नाटक भी ट्रेंड पैदा किया करते थे। जगह-जगह अर्थात ऐतिहासिक इमारत, पहाड़, पेड़ आदि पर प्रेमी-प्रेमिका का नाम लिखा होने का ट्रेंड शायद जिस फ़िल्म ने पैदा किया वो फ़िल्म थी - एक दूजे के लिए। अब यह नोट पर फलां बेवफ़ा है लिखने का ट्रेंड किसने पैदा किया यह एक खोज का विषय हो सकता है। 
पता नही यह विचार सही है या ग़लत कि नई के साथ-साथ पुरानी फिल्मों पर भी बात होनी चाहिए; क्योंकि नया जो कुछ भी होता है उसकी ज़मीन पुराने ने ही तैयार की होती है। वैसे कला में नया पुराना एक भ्रम मात्र ही है। चाहत तो यह भी है कि सिनेमा हॉल में नई के साथ ही साथ पुरानी फिल्मों का भी प्रदर्शन हो, क्योंकि सिनेमा हॉल में ही फ़िल्म देखने का असली मज़ा है, जैसे नाटक का असली मज़ा लाइव देखने में है रिकॉडिंग में नहीं। क्योंकि नाटक वाइड विजन का जीवंत और थ्री डी माध्यम है जबकि रिकॉर्डिंग में यह सब चीज़ें ग़ायब हो जातीं हैं।
कमल हसन भारतीय सिनेमा के मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक हैं, तो क्यों ना बात हिंदी फिल्म "एक दूजे के लिए" की कर ली जाय। इस फ़िल्म से कमल हसन, रति अग्निहोत्री, माधवी और गायक एस. पी. बालासुप्रमन्यम बतौर कलाकार हिंदी सिनेमा में पदार्पण कर रहे थे। कमल हसन भारत के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक हैं, लेकिन कुछ साल हिंदी फिल्मों में काम करने के पश्चात उन्होंने वापस साउथ लौटने में ही भलाई समझी। हिंदी फिल्म उद्योग ने इस कमाल के अभिनेता और प्रतिभा का उचित सम्मान नहीं किया। वैसे भी उस समय एक एक से वाहियात फिल्मों का बोलबाला था और स्टार कल्चर के चक्कर में एक से एक बेसिरपैर की फिल्मों का निर्माण हो रहा था। कह सकते हैं कि हिंदी सिनेमा का डार्क एज चल रहा था। ऐसे में कोई भी संवेदनशील और सम्भवनाओं से भरा कलाकार स्वर्ग की गुलामी से नर्क की पहरेदारी करने को ज़्यादा सम्मान देता। इस फ़िल्म के अन्य कलाकर थे सुनील थापा, रज़ा मुराद, अरविंद देशपांडे, राकेश बेदी, शुभा खोटे, मधु मालिनी, गीता, असरानी, सत्येन्द्र कपूर आदि। 
90 के दशक में फाइट मास्टर वीरू देवगन के बेटे अजय देवगन की फ़िल्म आई थी - फूल और कांटे। इस फ़िल्म के बाइक स्टंट ने सबको स्टंट कर दिया था क्योंकि यह बाइक स्टंट खुद अजय देवगन ने किए थे। लेकिन जिन्होंने एक दूजे के लिए फ़िल्म देखी है वो यह बात भली-भांति जानते हैं कि कमल हसन 1981 में बुलेट से एक से एक स्टंट दिखा चुके हैं। हॉलीवुड की फिल्मों में तो इस तरह के स्टंट कब के पुराने पड़ चुके थे।
जैसा कि "एक दूजे के लिए" नाम से ही ज़ाहिर है कि यह फ़िल्म एक प्रेम कहानी है जिसके निर्देशक थे के. बालचंद्र। राष्ट्रीय सहित कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित इस फ़िल्म को स्वयं निर्देशक बालचंद्र और कमल हसन ने लिखा था। पद्मश्री सहित बहुत सारे सम्मानों से सम्मानित बालचंद्र अपनी फिल्में में नवाचार और स्त्री चरित्रों के छुईमुई और हीरो की कठपुतली बनाने के बजाय एक मजबूत इंसान के रूप में चित्रित करने के लिए जाने जाते हैं। इस फ़िल्म में भी सारे स्त्री चरित्र बहुत ही मजबूत हैं और किसी भी मर्द (पिता, भाई, पति, प्रेमी आदि) के सामने अपने फैसले पर अडिग रहने के साहस से लबरेज़ तथा तमाम चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत के साथ अकेली उपस्थित हैं। इनकी फिल्मों में कोई भी स्त्री चरित्र अपने को "मैं तुलसी तेरे आंगन की" के रूप में प्रस्तुत नहीं करती। 
एक दूजे के लिए इनके द्वारा निर्देशित तेलगु फ़िल्म मारो चरित्रा (1978) का हिंदी पुनर्निर्माण था। फ़िल्म ने ख़ूब व्यवसाय किया तो उसे हिंदी में भी बनाने का निर्णय किया गया। हिंदी में भी यह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट थी। कमल हसन और माधवी तेलगु और हिंदी दोनों में उपस्थित थे। कहा जाता है फ़िल्म ने उस वक्त लगभग 100 करोड़ का कारोबार किया था, लेकिन उस वक्त 100 करोड़ का इतना भयंकर शोर मचाने वाले लोग नहीं थे। शायद उस वक्त शोर से ज़्यादा शालीनता को तबज़्ज़ो दी जाती रही हो। वैसे भी कलात्मक मानसिकता यह कहता है कि सफल होने पर शालीनता और बढ़ जानी चाहिए जैसे मीठे फल से लदा पेड़ थोड़ा झुक जाता है। हाँ, खजूर हमेशा तना रहता है। कबीर कहते हैं - 
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर 
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर 
यह एक मल्टीलिंगुअल फ़िल्म भी थी जिसका अंत दुखांत है। यानी नीम और करेला एक साथ परोसने का साहस, वो भी उन दर्शकों के समक्ष जिन्हें सुखांत अंत और सतही मनोरंजन की "स्पून फीडिंग" का रोग लगा दिया गया हो। वैसे तमाम विश्व प्रसिद्द प्रेम कहानियों का अंत दुखांत और अधूरापन ही है। ठीक अमीर खुसरो की इन पंक्तियों की तरह - 
खुसरो दरिया प्रेम का जो उल्टी वाकि धार 
जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार 
फ़िल्म में भारतीयता में उपस्थित भाषा और संस्कृति की टकराहट भी है। साथ ही कठोर सच यह भी है कि राधा-कृष्ण को पूजानेवाला देश अपने व्यवहार में कितना प्रेम विरोधी है। फ़िल्म में प्रेम है, प्रेम की पराकाष्ठा आई और है एक दूसरे पर पुरज़ोर भरोसा के साथ मानवीय कमज़ोरियाँ भी। अंततः यह फ़िल्म ग़ालिब के एक शेर को भी साक्षात सिनेमाई रूपांतरण प्रदान करता है। शेर है - 
आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब 
दिल का क्या रंग करूं ख़ून जिगर होने तक
और फ़िल्म जब समाप्त होती है तो देखनेवाले किसी भी संवेदनशील हृदय में एक हूक सी पैदा कर जाती है और "हम तुम दोनों जब मिल जाएगें, एक नया इतिहास बनाएगें" नामक गीत को चरितार्थ कर जाता है। वैसे, फ़िल्म के संगीत में इस फ़िल्म की आत्मा बसी हुई है। क्या ख़ूब अमर गाने हैं - एक से एक। 
#तेरे मेरे बीच में कैसा है बंधन अनजाना 
#हम तुम दोनों जब मिल जाएगें 
#मेरे जीवन साथी प्यार किए जा 
#हम बने तुम बने एक दूजे के लिए 
#तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना 
#सोलह बरस की बाली उमर को सलाम 
इन गानों को लता मंगेश्कर, एस. पी. बालासुप्रमान्यम, अनुराधा पौडवाल और अनूप जलोटा ने आवाज़ दी थी। संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का था और गीत लिखे थे आनंद बक्षी ने। क्या ख़ूब अमर गीत लिखे थे जैसे फ़िल्म की आत्मा निचोडकर रख दिया हो आनंद बक्षी साहेब ने। कुछ पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए - 
कितनी ज़ुबाने बोले लोग हमजोली
दुनियां में प्यार की एक है बोली
बोले जो शमां परवाना 
वैसे संगीत का असली मज़ा तो सुनने में हैं। केवल "तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन" नामक गीत सुन लीजिए, फ़िल्म के बाकी संगीत अपने आप सुनिएगा - दावा है। वैसे यह गीत भारतीय फिल्म संगीत के महानतम गीतों में से एक है। यकीन नहीं है तो लता जी की आवाज़ में एक बार सुन भर लीजिए। पसंद ना आए तो आप अपना नाम संगीत प्रेमी की लिस्ट से फौरन काट लीजिए। एक बात और, इस गीत के लिए बक्षी साहब को फ़िल्म फेयर अवार्ड भी मिला था। फ़िल्म में गैर-हिन्दीभाषी गायक एस. पी. बालासुप्रमन्यम से गाना गवाने के पीछे भी तर्क है। फ़िल्म का नायक दक्षिण भारतीय है और वो पहले के घंटे तो हिंदी में कुछ बोलता ही नहीं है। तो ऐसे चरित्र के लिए गायक भी कोई ऐसा चाहिए था जिसकी हिंदी फिल्म के चरित्र के मेल खाती हो। इसलिए एस. पी. बालासुप्रमन्यम का चयन किया गया था। 
यह वैसी बेसिरपैर की फ़िल्म नहीं थी कि फ़िल्म के नायक-नायिका का वैसे तो नाचने गाने का कोई चारित्रिक संस्कार नहीं होता लेकिन गाना आते ही सुरीली आवाज़ निकलने लगती है और ख़ूब जम के नृत्य भी करने लगते हैं। कह सकते हैं कि अमूमन फिल्मों में गाने के दौरान अच्छे से अच्छा "स्टार" अपने चरित्र को छोड़ देता है। वैसे हिंदी फिल्मों में चरित्र कम लटके-झटके ज़्यादा देखने को मिलता है।
फ़िल्म का एक और गीत "मेरे जीवन साथी प्यार किए जा" का अलग से ज़िक्र करना ज़रूरी है। इस गीत के बोलों में एक बहुत ही ख़ास बात यह है कि उसके बोल हिंदी फिल्मों के नाम (Title) लेकर लिखे गए हैं। यह अपनेआप में एक अनूठी बात है। भारतीय इतिहास में इस तरीक़े की मात्र एक रचना ही और मिलती है (कम से कम मेरी जानकारी में); वो है हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध रचनाकार श्रीलाल शुक्ल की अद्भुत कृति "राग-दरबारी" के नायिका बेला की रुप्पन बाबू को लिखी चिट्ठी। सच चिट्ठी की बात बाद में पहले फ़िल्म का यह गीत पढ़िए और सोचिए कि ऐसा क्या कोई दूसरा गीत है? 
मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा 
वाह! वाह! स: हाँ हाँ ! 
मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा 
जवानी दीवानी 
खूबसुरत, ज़िद्दी पड़ोसन 
सत्यम शिवम सुंदरम, 
सत्यम शिवम सुंदरम सत्यम शिवम सुंदरम 
झूठा कहीं का! 
हाँ, हरे रामा हरे कृष्ना 
धत! चार सौ बीस, आवारा! 
दिल ही तो है 
है! 
आशिक़ हूँ बहारों का, 
तेरे मेरे सपने, 
तेरे घर के सामने, 
आमने सामने, 
शादी के बाद! 
शादी के बाद? 
ओ बाप रे! 
हां हां हां, हां! 
हमारे तुम्हारे! 
क्या? 
मुन्ना, गुड्डी, टिंकू, मिली, शिन शिनाकी बूबला बू, खेल खेल में शोर! 
शोर, शोर ... 
भूल गये? 
जाॅनी मेरा नाम 
अच्छा? 
चोरी मेरा काम, जाॅनी मेरा नाम, ओ, चोरी मेरा काम 
ओ! 
राम और श्याम 
धत, बंडलबाज़! 
लड़की, मिलन, गीत गाता चल, प्यार का मौसम 
बेशरम! 
आहा हाहाहाहा! प्यार का मौसम 
बेशरम ... स: सत्यम शिवम सुंदरम, सत्यम शिवम सुंदरम सत्यम शिवम सुंदरम मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा अनु: जा जा! 
हा हा! इश्क़ इश्क़ इश्क़ 
Bluff master. 
ये रास्ते हैं प्यार के, चलते चलते, मेरे हमसफ़र 
आह! स: हमसफ़र, दिल तेरा दीवाना, दीवाना मस्ताना, छलिया, अंजाना पगला कहीं का! 
छलिया, अंजाना, आशिक़ बेगाना, लोफ़र, अनाड़ी बढ़ती का नाम दाढ़ि, चलति का नाम गाड़ी - जब प्यार किसी से होता है, ये सनम 
ओ हो! 
जब याद किसी की आती है, जनेमन 
सच? 
बंधन, कंगन, चंदन, झूला, चंदन, कंगन, बंदन, झूला, बंदन झूला, कंगन झूला, चंदन झूला, झूला झूला झूला झूला दिल दिया दर्द लिया, झनक झनक पायल बाजे, छम छमा छम गीत गाया पत्थरों ने, सरगम, सत्यम शिवम सुंदरम सत्यम शिवम सुंदरम, सत्यम शिवम सुंदरम स: मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा अनु: चल चल! 
जवानी दिवानी, खूबसुरत, ज़िद्दी, पड़ोसन सत्यम शिवम सुंदरम, सत्यम शिवम सुंदरम Sing with me come on! 
ला ला ला ला ला ला स: come on! good! 
स: ला ला ला ला ला ला
अब बताइए, गाने की ऐसी लिरिक्स कहीं पढ़ी है? अब रही राग दरबारी की यह चिट्ठी। इस चिट्ठी में शुक्ल जी ने फ़िल्मी गीतों के बोल का प्रयोग किया है। जो भी लोग राग दरबारी पढ़ चुके हैं वो इस चिट्ठी से भली परिचित हैं। जो नहीं पढ़ें हैं उनके लिए वो चिट्ठी यह रही - 
ओ सजना, बेदर्दी बालमा, 
तुमको मेरा मन याद करता है। पर ... चाँद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर। वह बेचारा दूर से ही देखे करे न कोई शो। तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो। याद मे तेरी जाग-जाग के हम रात – भर करवटें बदलते हैं।
अब तो मेरी यह हालत हो गई है कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए। देखो न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया। और तुम हो कि कभी उड जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया का खोले ना। मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको छिपाने की बुरी आदत है। कहीं दीप जले कहीं दिल, ज़रा देख तो आके परवाने। 
तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं। ये सुलगते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ। मुहब्बत लूटाने को जी चाहता हैं। पर मेरा नादान बलमा न जाने दिल की बात। इसलिए मैं उस दिन तुमसे मिलने आई थी। पिया मिलन को जाना। अंधेरी रात। मेरी चाँदनी बिछुड़ गई, मेरे घर पे पड़ा अँधियारा था। मैं तुमसे यही कहना चाहती थी, मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए। बस, एहसान तेरा होगा मुझ पर मुझे पलकों की छाँव में रहने दो। पर जमाने का दस्तूर है यह पुराना, किसी को गिराना किसी को मिटाना। मैं तुम्हारी छत पर पहुंचती पर वहाँ तुमरे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था। मैं लाज के मारे मर गई। आंधियों, मुझ पर हंसों, मेरी मुहब्बत पर हंसों।
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो। तुम कब तक तड़पाओगे? तड़पाओगे? तड़पा लो, हम तड़प-तड़पके भी तुम्हारे गीत गाएँगे। तुमसे जल्दी मिलना है। क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मंदिर सूना है। अकेले हैं, चले आओ जहां हो तुम। लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो। यही तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए, हाय। हम आस लगाए बैठे हैं। देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना। 
तुम्हारी याद में, 
कोई एक पागल।

यह दोनों रचनाएं भारतीय साहित्य (फिल्मी लेखन भी साहित्य है) की अद्भुत और अनूठी रचना है। राग दरबारी 1968 में लिखी गई थी और एक दूजे के लिए फ़िल्म बनी 1981 में। अब फ़िल्म के यह गाना राग दरबारी की उस चिट्ठी से प्रभावित थी या नहीं इसका शायद ही। कहीं कोई प्रमाण मिले! वैसे थी तब भी अच्छी और नहीं थी तब भी। रचनात्मक लोगों का एक-दूसरे से प्रभावित होने कोई आश्चर्य की बात नहीं है। 
बहरहाल, इस फ़िल्म पर कहने को बहुत सारी बातें और हैं मसलन संपादन, गोवा का सुंदर और खतरनाक फिल्मांकन, संवाद और अभिनय आदि। लेकिन बात उतनी ही करनी या कहनी चाहिए जितने में कि बात की शालीनता बनी रहे। तो अब बात बंद और आपने यदि यह फ़िल्म नहीं देखी है तो देख लीजिए यूट्यूब पर मुफ़्त में उपलब्ध है, और यदि देखी है तो एक बार और देख लीजिए शायद कुछ नया मिल जाए।

फ़िल्म इत्तेफ़ाक : हर इत्तेफ़ाक़ महज इत्तेफाक नहीं होती !

यह सच है कि कलाकार एक दूसरे की कला से प्रभावित होते हैं, यह एक स्वाभविक प्रक्रिया है; लेकिन प्रभाव के साथ ही साथ चुपके से नकल कर लेना हिंदी सिनेमा की महत्वपूर्ण आदत रही है। यह सब आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से हो रहा है। तब इंटरनेट का ज़माना नहीं था, और आम दर्शकों की पहुंच विश्व सिनेमा तक नहीं थी। उनके सामने जो कुछ भी परोसा जाता था, वो उसे ही असली मानकर देखने या झेलने को अभिशप्त थे। जहां तक सवाल फ़िल्मी पत्रकारिता का है तो वहां अमूमन मूढ़ता की स्थिति ही है, उसे सच्चाई से ज़्यादा गॉशिप से प्यार है और समीक्षा का है और वो भी हिंदी में तो उसकी हालत गंभीर रूप से नाजुक है। ख़ैर, इंटरनेट के आगमन ने बड़े - बड़ों की पोल खोलके रख दी है; वो चाहे लेखक हों, निर्देशक हों, संगीत परिकल्पक हों, या अभिनेता। अब तो फ़िल्म प्रदर्शित होते ही कथा-कहानी ही नहीं बल्कि फ्रेम तक कहाँ से कॉपी मारा गया है - ट्रोल करने लगता है।
हॉलीवुड में सन 1965 में George Englundand के निर्देशन में Signpost to Murder नामक एक सस्पेंस-थ्रिलर फिल्म बनती है। यह फ़िल्म Monte Doyle नामक एक नाटककार के नाटक से प्रेरित था, जिसे Sally Benson नामक लेखक ने लिखा था। इस फ़िल्म में Joanne Woodward, Stuart Whitman, Edward Mulhare, Alan Napier, Joyce Worsley and Leslie Denison नामक कलाकारों ने अभिनय किया था। 
यह फ़िल्म सन 1969 में हिंदी में बनी इत्तेफ़ाक नाम से। फ़िल्म के निर्माता थे बी. आर. चोपड़ा और निर्देशक थे यश चोपड़ा। अब यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है कि आज चोपड़ा फैमली हिंदी सिनेमा में एक प्रतिष्ठित घराने का नाम है! बहरहाल, इस फ़िल्म में राजेश खन्ना के साथ नंदा, मदन पूरी, बिंदु,सुजीत कुमार और इफ़्तिख़ार आदि ने काम किया था। फ़िल्म में सबने एक से एक वाहियात अभिनय किया है। किन्तु वो राजेश खन्ना के दौर था और संस्पेंस-थ्रिलर का तड़का तो फ़िल्म साधारण कामयाबी हासिल करने में सफल रही थी। वैसे इस फ़िल्म को देखने के बाद यह यक़ीन करना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि वो वही राजेश खन्ना हैं जो आनंद और बाबरची जैसी फिल्मों में शानदार अभिनय करेंगें। पूरी फिल्म अजीब है और अंत तो सबसे अजीब। फिल्म में एक भी गाना नहीं था जबकि फ़िल्म के संगीत निर्देशक थे मशहूर संगीतकार सलिल चौधरी और लेखक के रूप में G.R. Kamath का नाम भी आता है। फ़िल्म 10 नवम्बर 1969 को प्रदर्शित हुई थी। फ़िल्म ने बेहतरीन निर्देशन और पार्श्वसंगीत का अवार्ड भी जीता था! अब यह पता लगाना चाहिए कि फ़िल्म में शानदार निर्देशन के नाम पर ऐसा क्या था कि उसे बेहतरीन निर्देशन का सम्मान मिला। वैसे इस फ़िल्म का पार्श्वसंगीत निहायत ही ख़राब है और संगीत के नाम पर बड़ा ही बचकाना शोर पैदा किया गया है। उस वक्त का तो पता नहीं लेकिन आज जब वो फ़िल्म देखिए तो कई जगह पार्श्व संगीत के आने पर शोर इस क़दर बढ़ जाता है कि कान बंद करना पड़ता है। वैसे इस फ़िल्म से पहले इस कथ्य पर आधारित एक गुजराती नाटक भी खेला गया था। अब इस फ़िल्म और नाटक ने हॉलीवुड की फ़िल्म Signpost to Murder के राइट्स ख़रीदे थे या नहीं, इसकी कोई ख़ास जानकारी नहीं मिल पाती। ख़ैर, अपने यहां तो नक़ल को भी एक कला ही माना जाता है और ऐसे निर्माताओं-निर्देशकों की कोई कमी नहीं जो किसी फ़िल्म की सीडी या कैसेट पकड़कर लेखक को पटकथा और संवाद लिखने को कहते हैं और फिर उसे लगभग फ्रेम बाई फ्रेम शूट कर लेते हैं। और लेखक इतने बेशर्म कि पटकथा केके नीचे अपना नाम लिखते हैं। यह सब इत्तेफ़ाक से नहीं बल्कि जानबूझकर किया जाता है। कई बार प्रभावित होने की बात को स्वीकार कर लिया जाता है तो कई बार निर्माता-निर्देशक बेशर्मी से कह देता है कि मैंने फलां फ़िल्म अबतक देखी ही नहीं है और यदि मेरी फिल्म से उस फिल्म का कोई मेल है तो वह महज एक इत्तेफ़ाक है। गुलज़ार जैसे संवेदनशील कवि भी अपनी फिल्म परिचय को हॉलीवुड की फ़िल्म Sound of music के प्रभाव को आजतक स्वीकार नहीं करते। ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। बहरहाल, वर्तमान में उस पुराने इत्तेफ़ाक का भी पुनर्निर्माण हुआ है, जिसका प्रदर्शन गत 3 November 2017 को हुआ है। इस बार निर्माता हैं प्रतिष्ठित शाहरुख खान, गौरी खान और कारण जौहर, और इसे निर्देशित किया है अभय चोपड़ा (चौपड़ा फैमिली) ने। फ़िल्म में अक्षय खन्ना, सोनाक्षी सिन्हा और सिद्धार्थ मल्होत्रा ने काम किया है। 
फ़िल्म उद्योग में लेखकों और मूलकथा का घोर अभाव है; जबकि भारत किस्से-कहानियों और एक से एक साहित्य के भंडार का देश है। इस बीमारी के लिए कई सारे कारक हैं, जिसमें सबसे बड़ी बीमारी है लकीर का फ़क़ीर होना। 
पटकथा किसी भी फ़िल्म कला की रीढ़ होती है लेकिन यहां कला किसको निर्मित करना है? अमूमन सबको बस हिट फ़िल्म बनानी है, जैसे भी। वैसे एक टैग याद आ रहा है - नकल से सावधान!

रिबन : एक अनछुआ प्रयास

हिंदी सिनेमा की मूल समस्या कथ्य की है। यहां अमूमन वही घिसा पीटा फॉर्मूला थोड़े फेर बदल के साथ चलता/बनता है और अमूमन फिल्में उसके आस पास गोल-गोल चक्कर काटती रहती हैं; जबकि भारत में इतने किस्से कहानियां हैं और इतना घटनाप्रधान देश है कि लाखों फिल्में बने तो भी कहानी का ख़जाना ख़त्म ना हो कभी; और रही सही कसर स्टार कल्चर ने पूरी कर दी है। वो अमूमन लटके झटकों को ही कलाकारी मनवा बैठे हैं। ऐसे वक्त में किसी भी अनछुए पहलु पर फ़िल्म बनाने की परिकल्पना ही अपने आप में एक साहसिकता भरा क़दम है और रिबन हर प्रकार से एक साहसिक प्रयोग है। यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि "मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन" के वाहियात कसौटी ने सिनेमा के दर्शकों का जायका इतना ख़राब कर दिया है कि उसे कोई भी अर्थवान सिनेमा "बोर" करने लगा है। रिबन के साथ भी यदि भारतीय दर्शक यही व्यवहार करें तो आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। रिबन की गति मंथर है और फिल्मांकन सादगीपूर्ण तथा रोज़मर्रा के संवाद और संवेदना। ना कोई स्टार कास्ट है और ना ही हीरो-हीरोइन के लटके झटके और आइटम नंबर और ना ही तालीबजाऊ कोई संवाद या दृश्य। फ़िल्म और फिल्मांकन की आत्मा ही यह सादगी और उसके पीछे छोटे-बड़े तनाव है। इसकी कथा बहुआयामी और नवाचार से परिपूर्ण है और नवाचार का स्वागत करने का साहस अभी बहुत ही कम लोगों में है। सिनेमा के "भीड़" दर्शकों में तो बिल्कुल ही नहीं और उनके पास तो एकदम ही नहीं जो रोज़ एक प्रकार की चीज़ें देखने, सुनने और महसूस करने में सहज महसूस करते हैं। इसलिए ऐसी फिल्में "भीड़" के स्नेह से वंचित रहती हैं और वो अपना लागत भी बड़ी मुश्किल से निकाल पातीं हैं। वैसे भी कुछ कला भीड़ को संबोधित करती है तो कुछ इंसान के दिल, दिमाग और संवेदनाओं को कुरेदने का कार्य करती हैं। रिबन आपसे दिल, दिमाग, संवेदनशीलता और इत्मिनान की मांग करती है। यह हाजमोला नहीं कि मुंह में डाला, चटखारा लगाया और गैस निकाल दिया।
रिबन संयुक्त परिवार के बिघटन, औधोगिकरण और बाज़ारवाद के दवाब में दड़बे जैसे फ्लैट में रहने वाले एक ऐसे कामकाज़ी जोड़े की व्यथा है जिसकी एक बेटी है लेकिन बच्चे की देखभाल करने के लिए भी आया रखना पड़ता है। यहां तमाम भौतिक सुविधाएं खरीदी जाती हैं लेकिन कोई भी ख़ूब जमकर ठहाका लगाता हुआ नहीं दिखता बल्कि यहां बच्चे भी समय से पहले बड़े होते हैं। यहां कुत्ते को डॉग, डॉक्टर को डॉक और मम्मी को मॉम बोला जाता है। यहां ना कोई स्थानीय बोली-भाषा है और नाहीं बच्चों के लिए लोरी और दादी नानी के किस्से, है तो बस शोर करता हुआ मशीन। यहां चैन से फिंगर चिप तक खाने का वक्त नहीं है। 
यह कथा है एक ऐसी स्त्री की जो अपने काम में महारत रखती है किंतु गर्भावस्था के कारण उसे छुट्टी लेनी पड़ती है और जब वो काम पर वापस लौटती है तो मुनाफ़ा मात्र कमाने के लिए चल रहे कारपोरेट ऑफिस में सबकुछ बदल चुका होता है। इन दफ्तरों में ना कोई संवेदनशीलता होती है और ना ही कोई मानवता। ये बस प्रतिभा का दोहन करने के लिए चल रहे मशीन हैं। वैसे समाज कितना संवेदनशील है खासकर स्त्री के सवालों पर? समाज तो रेप के लिए भी स्त्री पर ही दोष मढ़ता है और दुनियाभर के वाहियात सवाल करता है। स्त्री के कार्य, अधिकार और गर्वाधरण को तो आजतक हमने शायद ही वो महत्व दिया है, जो उसे मिलना चाहिए और एक पुरुषप्रधान समाज में यह संभव भी नहीं है - बिल्कुल भी नहीं। रिबन में भी मेल इगो और फीमेल सेंसिबिलिटी का एहसास लगभग हर जगह है - कभी मौन तो कभी मुखर। यहां भौतिकता की तलाश में चिंताग्रस्त नायक, एक पुरुष गुस्से में घर से बाहर निकल जाता है, सड़क पर सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए अपनी चिंता का प्रदर्शन करता है, होटल में खाता और कॉफी पीता है लेकिन नायिका, स्त्री अपनी बेटी से चिपककर सोती है। यह इमेजेज बिना शोर किए बहुत कुछ कहतीं हैं बशर्ते उसे देखने समझने की दृष्टि हमारे पास हो। फ़िल्म ऐसी ही इमेजेज से परिपूर्ण है। किन्तु हम एक ऐसे पुरुषप्रधान समाज में जीते हैं जहां गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देनेवाले पुरुष को मर्यादापुरुषोत्तम का स्थान प्राप्त होता है और हम चीज़ों को समझने में कम मानने और पूजने में ज़्यादा सहजता महसूस करते हैं और नतीज़ा वहीं गोलचक्कर होता है।
एकल परिवार में बहुत ही कम महिलाएं बच्चा पैदा करने के बाद काम पर वापस लौट पातीं है। एक आंकड़े के अनुसार केवल 34 प्रतिशत। इस फ़िल्म की नायिका भी इसलिए लौट पाती है क्योंकि वो 15 हज़ार रुपए महीने के आया का भार वहन कर सकती हैं। यह कहानी औरत और उसके शरीर पर उसके अधिकार की झलक की कहानी भी है। एकल परिवार में बच्चे की परवरिश की चुनौती की व्यथा है तो बाल शोषण और उस पर सबके (खासकर स्कूल के) पल्ले झाड़ लेने की कथा भी है। वो केवल कागज़ों पर यक़ीन करते हैं और कागज़ (डिग्री) ही बांटते हैं। संवेदनहीनता की हद तब पर हो जाती है जब एक मासूम बच्ची से यह सवाल होता है कि तुम्हें कहाँ कहाँ छुआ गया। फ़िल्म में बहुत कुछ और है, फ़िल्म जितना कुछ कहती है उससे कहीं ज़्यादा चीज़ें नहीं कहती हैं लेकिन यह नहीं कहना ही दरअसल कह देना है बशर्ते कि हमारे पास वह दृष्टि हो कि हम उस अनकहे तक शालिनता से पहुंच सकें। हां नहीं है तो सतही मनोरंजन और ताली बजाऊ लटके झटके और संवाद। यहां मौन है, जिसकी भाषा समझने की संवेदना हम भाग दौड़ के चक्कर में पता नहीं कब की खो चुके हैं। फ़िल्म समाधान का क्षणिक सुख नहीं बेचती बल्कि बड़ी ही शालिनता से सवाल करती है, वो भी बिना जवाब की उम्मीद में, बिल्कुल मध्यवर्गीय मानसिकता की तरह जो जीवन में शायद ही कोई साहसिक फैसला करने की कुब्बत करता है। क्योंकि इस क्लास में भय सबसे ज़्यादा होता है और अमूमन किन्तु-परंतु ही मुखर होकर निकलता है। हम ऐसी कला से बचते हैं क्योंकि यह हमें हमारे ही सामने नंगा करता है और हम बगले झांकने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसी चीजों में आंख बचा लेना अब हमारी आदतों में शुमार हो गया है।
यह मूलतः उच्च मध्यवर्ग के जीवन की जद्दोजहद ही सादगीपूर्ण प्रस्तुति की व्यथा है लेकिन फिल्मों में अफ़ीम का नशा जैसा मनोरंजन तलाशनेवालों के पास ऐसे सिनेमा और कला के लिए वक्त कहाँ है? बाकी ज़्यादा बताऊंगा तो सिनेमा का मज़ा किरकिरा हो सकता है हां बस इतना ज़रूर कहूंगा कि हर बार मज़े और मनोरंजन या सिनेमाई आंनद की बात नहीं होनी चाहिए कभी-कभी गंभीरता भी ज़रूरी है क्योंकि कला एक गंभीर विषय है, चुटकुला नहीं। वैसे भी जीवन हमेशा एक ही ताल, लय, गति या संवेदना में संचालित नहीं होता। जीवन बहुरंगीं है और उसी बहुरंगीं के एक रंग की सादगीपूर्ण प्रस्तुति है रिबन।
रिबन की पूरी टीम को बधाई इस साहसिक प्रयास के लिए। बधाई राखी सांडिल्य (निर्देशिका)। ऐसी फ़िल्म कोई स्त्री ही निर्देशित कर सकती है। बधाई एडिटर राजीव उपाध्याय Rajeev Upadhyay. अब बड़े हो गए हो बच्चा तुम। बधाई Shardendu Priyadarshi और Ajit मुझे इस अवसर का साक्षी बनाने के लिए। 
साथ ही निवेदन यह कि बुरे को कोसने के साथ ही साथ बेहतर या कम बेहतर का समर्थन भी आज के वक्त में एक ज़रूरी पहल बन जाती है। तो जाइए, यह फ़िल्म देखिए। शायद कुछ नया देखने का एहसास मिले।

नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876 अर्थात एक काला अध्याय अब समाप्त होगा।

सबसे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि नाटय प्रदर्शन अधिनियम 1876 क्या है? इस का निर्माण क्यों किया गया? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक देश की मूलभूत ज़रूरतों में से एक है और जहां तक सवाल कला और संस्कृति का है तो उसे तो फलने-फूलने के लिए पूणतः स्वतंत्र वातावरण ही चाहिए। लेकिन समय समय पर विभिन्न रूप से इसे नियांत्रिक करने का भी प्रयास होता ही रहता है। सरकार, समाज, परिवार, विभिन्न संस्थाएं और व्यक्ति भी कला और संस्कृति पर अपना ज़ोर आजमाते रहे हैं।
1876 में ब्रिटिश राज ने भारतीय रंगमंच पर पूरी तरह नियंत्रण स्थापित करने के लिए नाटय प्रदर्शन अधिनियम पारित किया था । नाट्य प्रदर्शन अधिनियम’ 16 दिसंबर 1876 को प्रचलन में आया, जिसका प्रारूप थामस बेरिंग ने तैयार किया था और यह वायसराय नार्थब्रूक के समय में अमल में लाया गया था। देश के आजाद होने के 70 वर्ष बाद भी यह कानून विद्यमान है. 
भारत देश ब्रिटिशसमाज का उपनिवेश था अत: ब्रिटिश राज की जातीय विरोध में रंगमंच को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा । क्रांति एवं विरोध की इस नई धारा को रोकने और इस पर नियंत्रण स्थापित करने की दृष्टी से ब्रिटिश सरकार ने इस अधिनियम की स्थापना की अत: इस अधिनियम को वक्त पूर्वक स्थापित किया । तत्कालीन वायसराय की “नर्थ बूक” की राय में इस अधिनियम के द्वारा भारत में रंगमंच पृदृश्य को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है इस अधिनियम के संबंध में उनके निम्न विचार जो इस प्रकार है :- 
#इस अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के द्वारा किसी भी नाटक सार्वजनिक प्रावधान को रोका जा सकता ।
नाटक के क्षेत्र में मूका अभिनय एवं अन्य नाटय रूपों को भी शामिल कर लिया गया था। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ये अधिकार प्राप्त हो गये थे कि वह किसी भी नाटय प्रदर्शन का :-
(क) षड्यंत्रकारी प्रकृती का ।
(ख) सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त करने का ।
(ग) कानून द्वारा स्थापित सरकारी नियमों एवं संस्थाओ के विरूद्ध असंतुष्टी एवं विरोध उत्पन्न करने वाला।
व्यक्तियों को भ्रम उत्पन्न करने वाला घोषित किया जा सकता था तथा एसे प्रदर्शन को निषिद्ध किया जा सकता था ।
#इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अनुसार उपनियमों के अवहेलना करने वाले व्यक्तियों के समूह को दंडित करने का प्रावधान भी किया गया है जिसके अंदर तीन साल की कैद और जुर्माना हो सकता था या दोनों । 
#इस अधिनियम के अंतर्गत सरकारी एजेंसी या अधिकारी को यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी नाटक या नाटकों की संतुष्टी एवं सत्यापन कर सकता था ।
#पुलिस को यह भी अधिकार था कि वह नाटक कि प्रस्तुती के दौरान उस प्रेक्षागृह में जा कर वह उस नाटक को रुकवा भी सकती थी साथ ही दृश्य सज्जा, वस्त्र एवं अन्य सामग्री को जब्त भी कर सकती थी ।
#सरकारी की अनुमती के बिना किसी भी सार्वजनिक स्थल पर नाटक प्रस्तुत करने की अनुमती नहीं थी ।
इस क्रम में 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात भी इस अधिनियम को वापस नहीं लिया गया अपितु विभिन्न प्रांतो की सरकारों ने अपनी-अपनी नीतियों एवं आवश्क्ताओं के आधार पर उपअधिनियम में संशोधन कर लागू कर दिया जिनके कारण अधिकांश प्रान्तों में रंगमंच की गतिविधियों का प्रशासन का और अधिक नियंत्रण स्थापित हो गया । 
आजादी के आंदोलन में लोक नाटकों और कलाओं के मंचन की ताकत को भांपकर ब्रिटिश सरकार ने इनके मंचन को निषिद्ध करने के लिए राजद्रोह और मानहानिकारक कानून बनाया था। इस कानून को ख़तम करने की मांग बहुत ही पुरानी है। 
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोगों में आजादी की अलख जगाने में नाटकों की महत्चपूर्ण भूमिका रही थी। इस श्रृंखला में गिरीश चंद्र घोष ने ‘सिराज उद दौला’ और ‘मीर कासिम’ नाट्य श्रृंखला लिखी जो अंग्रेजी शासनकाल के दमन चक्र को दर्शाती थी. इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. ऐसे नाटकों में ‘मृणालिनी’, ‘छत्रपति शिवाजी’, ‘कारागार’ जैसे नाटक प्रमुख हैं.
इसी प्रकार बंगाल में महत्वपूर्ण नाटक ‘नील दर्पण’ पर भी प्रतिबंध लगाया गया जिसे दीन बंधु मित्रा ने लिखा था. 
साल 1870 के बाद राष्ट्रवाद की भावना की अभिव्यक्ति वाले कई नाटक आए जिनमें अंग्रेजों के शासनकाल के दमन चक्र को प्रतिबिंबित किया गया था और जनमानस में इनका व्यापक प्रभाव देखा गया.
सरकार ने संसद के मानसून सत्र में निरसन और संशोधन (दूसरा) विधेयक 2017 पेश किया था जिसके माध्यम से 131 पुराने और अप्रचलित कानूनों को समाप्त करने का प्रस्ताव किया गया था.
अंग्रेजों शासनकाल में प्रदर्शित ऐसे ही नाटकों की श्रृंखला में ‘चक्र दर्पण’ और ‘गायकवाड दर्पण’ का प्रमुख स्थान हैं. इन नाटकों को मानहानिकारक, राजद्रोहात्मक बताकर प्रतिबंध लगाया गया था.
इसके साथ ही ‘गजदानंद एवं युवराज’, ‘हनुमान चरित्र’ पर भी प्रतिबंध लगाया गया. ‘द पुलिस आफ पिग एंड शीप’ भी ऐसे ही नाटक हैं. इसे तत्कालीन पुलिस कमीश्नर हाग और उस समय के पुलिस अधीक्षक लैम्ब के संदर्भ में पेश किया गया था. तब नाटक के निर्माता उपेंद्र नाथ दास एवं थियेटर से जुड़े अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था.
नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876 में प्रवधान किया गया था कि जो कोई भी इस आदेश की अधिसूचना के बाद उसके प्रदर्शन में, प्रदर्शन संचालन में या उसके किसी भाग के दर्शक के रूप में उपस्थित रहेगा अथवा गृह, कमरे या स्थान को प्रदर्शन के लिये खोलेगा…. उसे दोष सिद्ध होने पर तीन माह का कारावास या जुर्माना या दोनों दंड प्रदान किया जाएगा.
औपनिवेशिक काल के इस कानून के अनुसार, राज्य सरकार यह आदेश भी दे सकती है कि ऐसे क्षेत्र के भीतर सार्वजनिक मनोरंजन के किसी स्थान में कोई भी नाट्य प्रदर्शन तक तक नहीं किया जायेगा, जब तक कि उस कृति की…… लिखित प्रति या मूक अभिनय का विवरण तीन दिन पहले नहीं दे दिया जाता है। 
इस काले कानून को अब समाप्त किया जा रहा है, जो निश्चित ही एक स्वागतयोग्य क़दम है। बस कला और संस्कृति के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण (ख़ासकर हिंदी में) भी ज़रा सम्मानित भाव वाला हो जाए तो आनंद आ जाए।
#कुछ शब्द द वायर, हिंदी से उधार लिया गया है।

चार्ली चैप्लिन : The Kid के बहाने

सिनेमा की शुरुआत में ही फ़्रान्सीसी दर्शनिक बर्गसन ने कहा था कि "मनुष्य की मष्तिष्क की तरह ही कैमरा काम करता है। मनुष्य की आंखे इस कैमरे की लेंस हैं। आंखों से लिए गए चित्र याद के कक्ष में एकत्रित होते हैं और विचार की लहर इन स्थिर चित्रों को चलायान करती हैं। मेकैनिकल कैमरा और मानवीय मष्तिष्क के कैमरे के बीच आत्मीय तादात्म्य बनने पर महान फ़िल्म बनती है।" तात्पर्य यह कि एक कलाकार को वैचारिक और बौद्धिक स्तर पर भी समृद्ध होना पड़ेगा तभी वो महान कला का सृजन कर सकता है और चार्ली इस कला में माहिर थे। वो एक समृद्ध व्यक्तित्व थे और यह समृध्दि किताबी नहीं बल्कि व्यवहारिक और यथार्थ जगत की कड़वी धरातल से उपजी थी। वो मानवीय चेतना के सच्चे चितेरे थे लेकिन इस अजब-गजब दुनियां की रीत भी निराली है। कलाकार अपना काम कर रहा होता है और दुनियां अपनी ही दुनियादारी में मगन रहती है। जिस चार्ली ने यह कहते हुए दुनियां में केवल खुशी ही बांटी कि "मेरा दर्द किसी के लिए हंसने की वजह हो सकता है, पर मेरी हंसी कभी किसी के दर्द की वजह नहीं बनेगी।" उसी चार्ली की शव उनकी कब्र से तीन महीने बाद ग़ायब हो जाता है और ग़ायब करनेवाले ने उनके शव के कॉफिन लौटाने के लिए 6 लाख स्विस फ्रैंक्स की मांग की। तभी तो चार्ली इस दुनियां को मक्कार और बेरहम कहते हुए कहते हैं - "ये बेरहम दुनिया है और इसका सामना करने के लिए तुम्हे भी बेरहम होना होगा।" ग़ालिब ने भी शायद सही ही कहा है - 
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना 
वैसे त्रासदी शायद महान कलाकारों की नियति है। मोज़ार्ट, ग़ालिब, काफ़्का, रिल्के, गुरुदत्त, मीना कुमारी जैसे अनगिनत नाम त्रासदियों के बीच रचनात्मक रहे। खुद चार्ली का जीवन भी तो त्रासदियों का महासागर ही रहा। यह त्रासदी चार्ली की फिल्मों में भी किसी ना किसी रूप में विद्दमान है। पूरी दुनियां अमूमन चार्ली को हास्य के लिए जानती है लेकिन चार्ली ने खुद अपने लिए जो चरित्र गढ़ा वो अभाव और त्रासदी का ही सिनेमेटिक वर्जन नहीं तो और क्या है ? शायद तभी चार्ली यह कहते हैं कि "असल में हंसी का कारण वही चीज़ बनती है जो कभी आपके दुख का कारण होती हैं।" अपने दुःख से लोगों को खुशी पहुंचाना कोई चार्ली से सीखे। वैसे भी जीवन त्रासदी और कॉमेडी का मिला जुला रूप है। चार्ली शायद सच ही कहते हैं - "ज़िंदगी करीब से देखने में एक त्रासदी है और दूर से देखने में कॉमेडी।" यह सूफ़ियाना अंदाज़ है और हर सच्चा कलाकार दिल से सूफी संत ही होता है बाकि कलाकार के नाम पर धधेबाज़ों की भी आज कोई कमी नहीं। 
एक सच्चा कलाकार दुनियां में रहते हुए भी दुनियां से अलहदा होता है। उसमें भीड़ में भी अकेले खड़े होने का माद्दा और आदत होती है। वो अपनी कला को प्रथम स्थान पर रखता है ना कि व्यवसाय को। गुरुदत्त के सामने भी साहब बीबी और गुलाम के दौरान फ़िल्म के अंत को बदलने का दवाब था लेकिन गुरुदत्त ने आखिरकार कला के रास्ते को चुना। ऐसे लोग सही-गलत से ज़्यादा सच की परवाह करता है। कलाकार होने की कुछ शर्तें होतीं है। अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक "कला की ज़रूरत" में कला मर्मज्ञ अर्न्स्ट फिशर लिखते हैं - "कलाकार होने के लिए अनुभव को पकड़ना, उस पर अधिकार करना, उसे स्मृति में रूपांतरित करना, और स्मृतियों को अभिव्यक्ति में, वस्तु को रूप में रूपांतरित करना आवश्यक है। कलाकार के लिए भावना ही सबकुछ नहीं है, उसके लिए निहायत ज़रूरी है कि वो अपने काम को जाने और उसमें आंनद ले; उन सारे नियमों को समझे, उन तमाम कौशलों, रूपों और परिपाटियों को समझे, जिनसे प्रकृति रूपी चंडिका को वश में किया जा सके। वह आवेग जो कलाप्रेमी को ग्रस लेता है, सच्चे कलाकार की सेवा करता है। कलाकार उस आवेग रूपी वन्य पशु के हाथों क्षत-विक्षत नहीं होता, बल्कि उसे वाश में करके पालतू बनाता है।" 
चार्ली का बचपन बड़ा ही कष्टप्रद बीता था। माँ-बाप के होते हुए भी वो अनाथालय में पलने को अभिशप्त थे। माँ-बाप अलग हो चुके थे। मां पागलखाने में भर्ती थी। अमूमन आदमी अपने बचपन को बड़े ही रोमांस के साथ याद करता है लेकिन यदि इस्मत चुग़ताई के शब्दों में कहें तो "बचपन जैसे तैसे बीता। यह कभी पता न चला कि लोग बचपन के बारे में ऐसे सुहाने राग क्यों अलापते हैं। बचपन नाम है बहुत सी मजबूरियों का, महरुमियों का।" (इस्मत की आत्मकथा - कागज़ी है पैरहन) शायद बचपन की इन्हीं अनुभूतियों को कलात्मकता के साथ वो अपनी फिल्म #The_kid में जगह-जगह प्रस्तुत कर रहे थे। फ़िल्म एक ऐसे बच्चे की कथा कहती है जिसे माँ-बाप त्याग देते हैं। 
चार्ली अपनी फिल्मों में अद्भुत विम्बों का प्रयोग करते हैं। अगर आपने उनकी फिल्म #The_Kid देखी हो तो याद कीजिए फ़िल्म का पहला ही शॉट, आपको चार्ली की अद्भुत परिकल्पना का अंदाज़ा स्वतः ही हो जाएगा। फ़िल्म इस टाइटल से शुरू होती है - A picture with smile - and perhaps, a tear. अर्थात् चार्ली आंसू और मुस्कुराहट को एक साथ मिलाकर सिनेमा बना रहे हैं। वैसे भी एक ही बात किसी के लिए ट्रैजडी होती है तो किसी के लिए कॉमेडी। सड़क पर चलता हुआ आदमी फिसलकर गिर पड़ता है और देखनेवाले मुस्कुरा देते हैं। गिरनेवाले के लिए यह ट्रेजडी है लेकिन देखनेवाले के लिए कॉमेडी। 
तो बात हो रही थी बिम्ब की। कोई भी कला एक रेखकीय अच्छी नहीं लगती बल्कि उसे एक वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसमें कई जड़ें, तना, पत्तियां और फूल आदि होते हैं। वैसे भी फ़िल्म केवल संवाद या कहानी फ़िल्माने की कला नहीं है बल्कि वो अपने चलती फिरती इमेज के द्वारा भी फ़िल्म को महाकाव्य में परिवर्तित करती है। 
किसी चैरिटी हॉस्पिटल से अपने नवजात शिशु को लेकर एक माँ निकलती है। एक दोराहे पर आके खड़ी हो जाती है फिर एक तरफ चल देती है और अगले शॉट में यीशु मसीह अपनी पीठ पर क्रॉस लादे दिखाते हैं। अब इन दोनों इमेज से चार्ली क्या कहना चाहते हैं यदि यह समझ मे नहीं आया तो हम चार्ली की कोई भी फ़िल्म देखने के लिए अभी नादान हैं। हमें कला का असली आनंद लेने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित होना होगा। 
The Kid एक बच्चे को पैदा करने और पालनेवाले की कहानी है। जिसे महाभारत कृष्ण और कर्ण तथा बर्तोल्त ब्रेख़्त खड़िया के घेरे के माध्यम से उठाते हैं और चार्ली चैप्लिन चुपचाप वो कथा बड़ी ही शालीनता से कहते हैं; वो भी बिना जजमेंटल हुए।

ये मोह मोह के धागे : दम लगाके हैशा

कुछ फिल्में बड़ी ही स्मूथ, स्वीट, सादगीपूर्ण और सौम्य होती हैं। ये फिल्में भले ही बॉक्स ऑफिस पर कोई बड़ा धमाल नहीं करतीं लेकिन जो भी इन्हें देखता है काफी दिनों तक इसके सादगीपूर्ण सम्मोहन से उबर नहीं पता। भारत में ऐसी फिल्मों का एक बड़ा ही समृद्ध इतिहास रहा है। ऋषिकेश मुखर्जी बड़े मास्टर थे इस काम के।
लेकिन हम तत्काल बात कर रहे हैं सन् 2015 में आई फ़िल्म "दम लगाके हैशा" की। वरुण ग्रोवर लिखित और पापॉन तथा मनाली ठाकुर द्वारा गाया हुआ शानदार गीत "ये मोह मोह के धागे, का जादू आज भी कायम है। यह गाना इसी फिल्म का है। आश्चर्यजनक रूप से इस गाने की धुन अनु मलिक ने बनाई है। हम बस दुआ ही कर सकते हैं कि उनका यह गाना कहीं से कॉपी मारा हुआ ना हो! फ़िल्म का शानदार बैकग्राउण्ड संगीत कंपोज किया है इटालियन कंपोजर Andrea Guerra ने। शरद कटारिया लिखित निर्देशित यह फ़िल्म बड़े ही सौम्य ढंग से बेमेल अरेंज मैरेज की कहानी कहती है। फ़िल्म ज़्यादा कौप्लिकेशन में नहीं जाती बल्कि कह सकतें हैं कि सतह पर ही तैरती हुई भारतीय सिनेमा की "महान" कमाऊ परंपरा "Happy Ending" की तरफ निकल जाती है। 
इस फ़िल्म के लिए अभिनेत्री भूमि पेडनेकर को काफी सराहना भी मिली थी; जो कि निश्चित रूप से मिलनी भी चाहिए क्योंकि भूमि बड़ी सफाई से मायानगरी में व्याप्त अभिनेत्रियों के बेबी डॉल इमेज को तोड़ती हैं। यहां हॉट, सेक्सी, गुड़ लुकिंग और तथाकथित होरो के हाथ का एक खिलौना और गुड़िया टाइप इमेज से परे जाकर चरित्र में ढलती है। भरोसा नहीं इनकी बाकी की दो फ़िल्में भी देख लीजिए। इस फ़िल्म के लिए भूमि को Best Female Debut का सम्मान भी मिल चुका है।
फ़िल्म देख लिया है तो बहुत खूब; नहीं देखा तो ज़रूर देखिए।

चार्ली चैपलिन : #The_Gold_Rush : प्यार काफी है हर काम को करने के लिए ।

सोने की खोज में बर्फीले तूफ़ान में फंसे भूख से बिलबिलाते दो लोग। कोई चारा ना देखकर अन्तः जूता पकाया जाता है और उस पके जूते को खाया भी जाता है। विश्व सिनेमा में यह दृश्य अद्भुत और अनमोल है और इस दृश्य को अपनी लेखनी, निर्देशन, कल्पनाशीलता, प्रतिभा और अभिनय से रचा है चार्ली चैपलिन ने। सन 1925 में लगभग डेढ़ घंटे की यह फिल्म है #The_Gold_Rush। यह दृश्य विश्व सिनेमा में एक क्लासिक का दर्जा ना जाने कब का हासिल कर चूका है। वैसे इस फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिसकी नक़ल आजतक हो रही है। वैसा ही एक दृश्य है तूफान में कॉटेज का एक खाई के पास जाकर अटक जाना। इस दृश्य को अभी हाल ही की हिंदी फिल्म वेलकम में देखा जा सकता है। 
चार्ली चैपलिन अपनी कला में परफेक्शन के लिए भी जाने जाते थे। वो अपनी फिल्मों के फिल्मांकन से तबतक संतुष्ट नहीं होते जबतक की वो दृश्य ठीक वैसे ही फिल्मा नहीं लिया जाता जैसा कि उन्हें ने अपनी कल्पना में उसे फिल्मा रखा है। इसके लिए उन्हें जितनी भी मशक्कत करनी होती, जितना भी खर्च करना पड़ता - वो अवश्य ही करते। वैसे भी जैसे-तैसे कला की रचना नहीं होती और समझौतावादी और विशुध्द व्यवसायिक नजरिया तो कला का दुश्मन है। फ़िल्म एक कला है पहले उसके बाद कुछ और। हमें कला को समझने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित भी होना पड़ेगा नहीं तो हम कला के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण के शिकार होकर रह जाएगें। 
वो फिल्मों का शुरूआती दौर था और फ़िल्में आज की तरह डिजिटल नहीं थी और ना ही तकनीक के स्तर पर आज जैसा उन्नत ही। फिर भी चार्ली ने अपनी फिल्मों हर प्रकार से जिस तरह के प्रयोग किए वो आज भी कई फिल्म बनानेवालों के लिए एक प्रेरणाश्रोत से कम तो कताई ही नहीं है। उनकी फ़िल्में बिना शब्द के सबकुछ महसूस करवा देने की क्षमता रखतीं हैं। चार्ली कहते हैं - "हम सोचते बहुत हैं और महसूस बहुत कम करते हैं।"
बहरहाल, तो बात उनकी फिल्म #The_Gold_Rush की हो रही थी। चार्ली की यह फिल्म दो भागों में आगे बढती है। पहला भाग सोने की तलाश में बर्फ के तूफानों में भटकते इन्सान रूपी जीव हैं तो दुसरे भाग में एक मज़ाक से शुरू हुआ एक प्रेम कहानी। 
चार्ली एक सामान्य अच्छे सकारात्मक आदमी के चित्रण के चितेरे हैं। ऐसे चरित्र का चित्रण आसन काम कभी नहीं रहा। यही कोशिश अपने महानतम उपन्यास बौड़म में करते हुए महान रुसी लेखक दोस्तोयेव्स्की लिखते हैं – “इस उपन्यास के विचार को मैं कब से अपने मन में संजोये रहा हूँ, पर यह इतना कठिन था कि बहुत समय तक उसे हाथ लगाने का मुझे साहस नहीं हुआ। उपन्यास का मुख्य विचार सकारात्मक रूप से एक बहुत अच्छे इंसान का चित्रण करना है। दुनियां में इससे कठिन कोई दूसरा काम नहीं है; विशेष रूप से इस समय। जो सुन्दर है वह एक आदर्श है, और उसका अभी तक पूरा विकास नहीं हुआ है।” 
चार्ली इस सुन्दरता और सादगी को कैमरे में बड़ी ही शालीनता से कैमरे में कैद कर रहे थे, जिसे प्रस्तुत करना आजतक लोगों के लिए एक चुनौती बना हुआ है। चार्ली हिरोपंथी से परे सरलता और सहजता के कलाकार हैं। उनका नायक मानवीय दुःख-तकलीफ, खूबियाँ-खामियां से लैश है। अमूमन उन्हें हास्य का मास्टर माना जाता है लेकिन उनकी फ़िल्में देखते हुए यह एहसास आसानी से होता है कि वो हास्य प्रस्तुत करते हुए हास्यास्पद नहीं होते और बड़ी ही कुशलता से हास्य में करुणामय अंश जोड़ देते हैं। एकांत उनकी फिल्मों का एक ज़रूरी अंग रहा है। याद कीजिए फिल्म #The_Gold_Rush का वह दृश्य जब नायिका के मज़ाक को सच समझकर चार्ली अकेले नए साल के भोज का प्रबंध करते हैं और फिर इंतज़ार की घड़ियों में सपनों में खो जाते हैं और जब सपना टूटता है तब वो इस यथार्थ जगत में अकेले हैं – नितांत अकेले। यह अकेलापन किसी भी सृजनशील कलाकार का नितांत अपना होता है। इसी अकेलेपन में वो निराशा होता है, रोता है, कुढ़ता है, चिंतन करता है, सपने देखता है और रचनाशील भी होता है। गौतम भी इसी एकांत की वजह से बुद्ध बने। प्रसिद्द जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के कहते हैं – “अपने एकांत को प्यार करो और उसकी उपजाई पीडाओं के बीच भी मग्न रहना सीखो।” स्वयं चार्ली चैपलिन कहते हैं – “जीवन अद्भुत और रोमांचक बनेगा अगर लोग आपको अकेला छोड़ दें तो।" लेकिन आज हालात यह है कि हम एकांत होकर भी शायद ही अकेले हो पाते हैं। पूंजीवादी समाज तो इन्सान को समूह से काटकर तमाम भौतिक चीजों के बीच एकांत में पटक देने के लिए कुख्यात है ही। पूंजीवादी समाज में पैसा ही भगवान होता है और इन्सान इस पैसे को किसी भी तरह अपने वश में कर लेना चाहता है। क्या अमीर और क्या गरीब, सब इसी पैसे के पीछे भागते हैं – अपनी जान और सेहत की परवाह किए बगैर। यहाँ मानवता और मानवीय संवेदना का कोई ख़ास महत्व नहीं होता। चार्ली की फिल्म #The_Gold_Rush याद कीजिए। प्रतिकूल परिस्थियों की परवाह किए बैगैर सोने की खोज में लोग हजारों की संख्या में बर्फीले बियाबान में अपना लाव-लश्कर लेकर निकल पड़े हैं। सबको किसी ना किसी प्रकार वहां पाया जानेवाला सोना चाहिए। इस सोने के लिए एक इंसान दूसरे इंसान की हत्या तक करने से नहीं चूकता। पहले ही शॉर्ट में सोने की तलाश में लम्बी कतार में जा रहा एक इंसान दम तोड़ देता है लेकिन किसी भी दुसरे इंसान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता और वो सोने की तलाश की अपनी यात्रा चालू रखता है। आगे लगभग आधे घंटे तक फिल्म में इंसान तो हैं लेकिन इंसानियत का कहीं नामोंनिशान तक नहीं। वहां है तो केवल सोने की भूख।
इन्सान बाकी जीवों से इतर इसलिए नहीं है कि उसकी बनावट अलग है बल्कि इतर इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर बुद्धि, विवेक और इंसानियत नामक अतिसंवेदनशील और अनमोल चीज़ का निवास होता है। एक संवेदनशील इंसान की दुनियां केवल अपने और अपनों तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाहित होता है। लेकिन जब इंसानियत और मानवीय संवेदना से ज्यादा पूंजी की सत्ता की पूछ हो तो वहां व्यक्ति आत्मकेंद्रित और भयभीत होता है और बाकी सारी चीज़े उसके लिए या तो साधन होता है या फिर साध्य। हालत इस कदर खराब हो जाती है कि भूख लगने पर सामनेवाला इंसान भी उसे मुर्गा दिखाई पड़ता है। याद कीजिए फिल्म का वह दृश्य जब बर्फीले तूफान में फंसे दो व्यक्ति एक दुसरे को ही संदेह की नज़र से देखने लगते हैं। कौन, कब, कैसे दुसरे की हत्या कर दे – पता नहीं। यह शक, भय से उत्पन्न होता है और भय इतना भयानक होता है कि वो इंसान अपने-पराए तक में भेद नहीं करता। ब्रेख्त की एक एकांकी है – घर का भेदी। उसमें पति-पत्नी हिटलर की तानाशाही प्रवृति को लेकर बहस कर रहे होते हैं कि एकाएक उन्हें अपने एकलौते बेटे पर यह शक हो जाता है कि वो यह बात किसी को बाहर तो नहीं बता देगा। आज हमारे देश में भी ऐसा ही माहौल बनाने की चेष्टा की जा रही है। एक से एक नकली आदर्श गढ़े जा रहे हैं। एक ख़ास व्यक्ति, वाद, धर्म या पार्टी की आलोचना देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया जा रहा है। इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं कि आलोचना लोकतंत्र की बुनियाद होती है। यहाँ विरोध का भी उतना ही महत्व होता है जितना सत्ता पक्ष का। लेकिन जब सत्ता पक्ष विरोधियों को कुचलने या ख़त्म कर देने तथा विरोध पक्ष किसी भी प्रकार सत्ता पर काबिज़ होने की कूटनीति में व्यस्त हो तो वहां लोकतंत्र की पास बिलखने के अलावा कोई और चारा नहीं रहता। आज तानाशाही की चाशनी में लोकतंत्र का फलूदा पकाया जा रहा है और हद तो यह है कि हम सब कोई विकल्प रचने और चीजों को और ज्यादा सुन्दर, कोमल और मानवीय बनाने के बजाए इस फालुदे में ड्राई फ्रूट्स डालने का काम कर रहे हैं। 
चैप्लिन कहते हैं - "आपको शक्ति (पॉवर) की तभी जरूरत होती है जब आप किसी को नुकसान पहुंचाना चाहे, अन्यथा प्यार काफी है हर काम को करने के लिए।"

चार्ली चैप्लिन : अमृत और विष !!!

90 का दशक था। एंटीना और स्वेत-श्याम टेलीविजन वाला युग। चैनल के नाम पर एकलौता दूरदर्शन था। केबल और डीटीएच टीवी का आतंक अभी कोसों दूर था। दुरदर्शन पर रविवार की सुबह चार्ली चैप्लिन की फिल्में दिखाई जा रहीं थीं। चार्ली की फिल्मों का असली मर्म समझने की हमारी उम्र और समझ थी नहीं लेकिन फिर भी पता नहीं क्या आकर्षण था कि पूरे का पूरा एपिसोड देख जाते। उन दिनों रंगमंच, अभिनय आदि से मेरा कोई वास्ता नहीं था। हाँ, कुछ लुगदी साहित्य और चलताऊ पत्रिकाओं से वास्ता पड़ता रहता था। पापा की वजह से अख़बार और कुछ अच्छी समाचार पत्रिका भी पलट भर लेता था। 
उन्हीं दिनों चार्ली की फ़िल्मों में सबसे ज़्यादा जो चीज़ मुझे आकर्षित की वो थी चार्ली की आंखे। वैसे तो चार्ली की कला का मुख्य स्वर हास्य-व्यंग्य रहा है किंतु उनकी कंचई आंखों में मुझे उदासी ही उदासी दिखतीं। बाद के दिनों में जब चार्ली की बॉयोग्राफी Chaplin : his life and art पढ़ी और Robert Downey Jr द्वारा अभिनीति चार्ली के जीवन पर बनी अद्भुत फ़िल्म Chaplin (1992) देखी, डीवीडी ख़रीदकर उनकी लगभग सारी फिल्में कई बार देखी, उनके ऊपर कई आलेख और किताबें पढ़ीं तब यह समझ में आया कि दुनियां को मानवीय, खूबसूरत और उल्लासपूर्ण बनाने का ख़्वाब देखनेवाले इस कलाकार का जीवन कितना त्रासदियों से भरा था। वैसे भी चिराग़ तले अंधेरा ही होता है। लेकिन मीर ने क्या खूब कहा है - 
दुनियां में रहो ग़मज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ करके चलो जाके बहुत याद रहो। 
चार्ली इस शेर के जीते जागते मिसाल हैं। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी को अपनी कला के ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। ना जाने कितनी बार सपने टूटे, आशियाना उजड़ा, फरेब मिला लेकिन उनकी कला हमेशा मानवता और त्याग के पक्ष में पुरज़ोर तरीक़े से खड़ी रही। अपने व्यक्तिगत जीवन के कड़वे अनुभव से उन्होंने दुनियां को नहीं परखा बल्कि खुद शंकर की भांति विष ग्रहण किया लेकिन दूसरों के हिस्से अमृत ही छोड़ा। शायद यही है एक सच्चे कलाकार का दायित्व। जो अपना और अपनों के स्वर्थपूर्ती में ही बेचैन रहे वो कलाकार कम मुनाफाखोर व्यापारी ज़्यादा है। वैसे भी एक कलाकार की दुनियां में पूरा ब्रह्मांड समाहित होता है। 
मैं चार्ली की फ़िल्में देखते हुए कभी ठहाका लगाया होऊंगा, मुझे याद नहीं आता। हां, एक दृश्य ज़रूर है जिसको याद आते ही मैं नींद में भी मुस्कुरा सकता हूँ। वो दृश्य उनकी महानतम फ़िल्म #Mordern_Times में आता है जब वो सुबह उठकर नदी में नहाने के लिए कूदते हैं और पता चलता है कि नदी में पानी ही बहुत कम है। आज सोचता हूँ कि बतौर अभिनेता अगर मुझे वो दृश्य करना होता तो क्या मैं कर पाता? और उसका जवाब है - नहीं। चार्ली का कोई भी एक्ट कर पाना बड़े से बड़े अभिनेता के कूबत से बाहर की चीज़ है तो हम जैसों की क्या विसात! चार्ली चैपलिन अभिनय के उस आदर्श का नाम है जहाँ तक पहुंचने का ख़्वाब एक अभिनेता पालता है, पालना चाहिए।
चार्ली अपने समय से कई सदी आगे के कलाकार हैं। उन्होंने प्रस्तुति से लेकर कथ्य तक मे कई ऐसे प्रयोग किए जो आज भी लोगों के लिए एक आदर्श है। उनकी कई फिल्में आज की फिल्में लगती हैं। कई तो आज से भी आगे की हैं। 1936 में अपनी फ़िल्म #Modern_Times में जिस मशीनीकरण की परिकल्पना उन्होंने की और जिस तरह उसे फिल्माया, वहां तक तो हम आजकल नहीं पहुंच पाए हैं। सन् 1940 में जिस #The_Great_dictetor की परिकल्पना चार्ली करते हैं हम आज उस तरफ कुछ कदम ज़रूर बढ़े हैं। अब हमें पार्टियों और विचार को नहीं बल्कि व्यक्ति को वोट कर रहें हैं। चाहे प्रधानमंत्री का चुनाव हो, मुख्यमंत्री का या मुखिया का। लोकतंत्र में व्यक्ति को विचार और विचारधारा और पार्टी से ज़्यादा भाव देना एक ख़तरनाक संकेत है और मूर्खता की हद तो यह कि हमें इस पागलपन में आनंद आ रहा है। आज एक तरह से पूरी दुनियां में ही अधिनायकवाद की एक ऐसी लहर चल रही है जो विनाशकारी है। यह दुनियां धर्म, जाति, समुदाय के नाम पर एक और विश्वयुध्द नहीं झेल सकती। इस ख़तरनाक प्रवृति से यदि दुनियां को कोई उबार सकता है तो वो हैं हम आम जन, नेतागण को हमें इस अंधी गली में धकेलकर और झूठे सच्चे ख़्वाब बेचकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। वैसे भी यदि लोकतंत्र सुचारू रूप से संचालित नहीं होता तो वहां अराजकता का राज होता है और वहां से तानाशाही प्रवृति का उदय होता है, जो दुनियां को एक ऐसे अंधेरी कोठारी में धकेल देती है जहां अमानवता के पास सिसकने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता। ऐसी प्रवृति से हमें सच्चा ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना ही उबार सकता है बशर्ते अफवाहों और झूठे वादे को चीरकर हमारे अंदर सच का सामना करने की हिम्मत हो, ठीक उस हंस की तरह तो दूध में मिले पानी को अलग-अलग करने की क्षमता रखता है। सनद रहे, आस्थाएं अंधी होती हैं।
सत्य का मार्ग ज़रा दुर्गम है। लेकिन बिना गहरे पानी में पैठ लगाए मोती हासिल किया भी नहीं जा सकता और जो कलाकार गहरे पैठने से बचे, वो कलाकार कैसा !!! कलाकार कहलाने की कुछ शर्तें और ज़िम्मेदारियाँ होतीं हैं। कला के क्षेत्र में घुसपैठ करनेवाला हर व्यक्ति कलाकार नहीं होता।

#फोटो - चार्ली का नदी में वो जम्प ।

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...