tag:blogger.com,1999:blog-61908604412465472322024-02-19T21:48:01.113+05:30डायरीPunj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.comBlogger127125tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-27450958911139047792020-02-24T23:36:00.002+05:302020-02-24T23:36:57.681+05:30दमा दम मस्त कलंदर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">आज
सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान
उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ब्यान किया है. एक बार की
बात है – मस्त कलंदर एक बेरी के पेड़ के नीचे नवाज़ पढ़ रहे थे कि बच्चे आए और
उन्होंने एक पत्थर उठाकर बेरी के पेड़ की तरफ़ उछाल दिया. पत्थर बेरी के पेड़ को लगा,
वहां से बेरी नीचे गिरी और बच्चे उसे खाने लगे. फिर दूसरा पत्थर मारा, फिर बेरी
गिरी और बच्चों ने फिर से बेरी खाई. तीसरा पत्थर जब बच्चों ने चलाया तो पत्थर बेरी
को न लगकर फकीर मस्त कलंदर को लग गई. मस्त कलंदर का ध्यान भंग हो गया और गुस्से
में बोले – “किसने यह पत्थर चलाई, मैं उसको श्राप दूँगा.” </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">यह
सुनकर बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले – बाबा, हम बेरी को पत्थर मार रहे थे, जो
गलती से आपको लग गई. वैसे बाबा, बेरी पत्थर खाकर हमें खाने को बेरियां देतीं हैं
लेकिन आप हमें श्राप देने की बात कर रहें हैं!” </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">मस्त
कलंदर को अपनी भूल का एहसास हो गया और उन्होंने बच्चों से तीन वरदान यह कहते हुए
माँगने को कहा कि – मागों, जो भी मांगना है. </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">बच्चों
ने पहला वरदान मांगा – माफ़ी. </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">दूसरा
वरदान माँगा – माफ़ी. </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">और
तीसरा वरदान माँगा – माफ़ी. </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">फिर
क्या था, मस्त कलंदर मस्त होकर उन्हें इस और उस दोनों लोकों के लिए माफ़ी दे दी. </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">कहने
का तात्पर्य यह कि अगर गलती करनेवाला मासूम हो तो उसकी गलती के बदले माफ़ी ही सबसे
उपयुक्त सजा है और बडकपन का घोतक भी. और यह भी कि अगर हमसे गलती होती है तो लाभ का
अवसर मिलने पर भी माफ़ी की उम्मीद ही काफी है. <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<br /></div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-43885692472652327412018-07-04T19:29:00.003+05:302020-07-03T23:42:48.651+05:30अक्टूबर : रातरानी की हल्की और भीनीभीनी महक जैसी फ़िल्म<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<div dir="ltr">
<div style="text-align: justify;">
<span style="text-align: left;">विश्विख्यात फ़िल्मकार Federico Fellini कहते हैं - "I don’t like the idea of “understanding” a film. I don’t believe that rational understanding is an essential element in the reception of any work of art. Either a film has something to say to you or it hasn’t. If you are moved by it, you don’t need it explained to you. If not, no explanation can make you moved by it."</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="text-align: left;"><br /></span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr">
</div>
<div dir="ltr">
<div style="text-align: justify;">
सिनेमा एक कलात्मक अनुभव है जो आंखों, कानों और संवेदनात्मक ज्ञान के माध्यम से दिल और दिमाग पर असर करती है। यह सबकुछ हमारी समझ और समझदारी, दृष्टि और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जब हम यह बात कर रहें हैं तो इसका संदर्भ उस सिनेमा से है जो सिनेमाई कला का सम्मान करने हुए सिनेमा रचता है ना कि अफ़ीम की गोली बनाता है। भारतीय संदर्भ में अमूमन सिनेमा अतिवाद की कला हो गई है और दर्शकों के दिमाग में यह बात पता नहीं कैसे घर कर गई है कि सिनेमा केवल मज़े या मनोरंजन मात्र के लिए देखा जाता है, कला या कलात्मक चिंतन के लिए। इसके पीछे का तर्क शायद बहुत पुराना है। एक से एक ग्रंथ अतिवाद और चमत्कार से भरा हुआ है और उसे सच मानने की मान्यता और परंपरा है। लेकिन इन सबके बीच भी कुछ लोग होते हैं जो कलात्मकता की परंपरा का बख़ूबी निर्वाह करते हुए भी यथार्थ का दामन नहीं छोड़ते। वो मात्र बॉक्स ऑफिस के लिए फिल्में नहीं बनाते बल्कि उनकी फिल्मों में मानवता और सिनेमाई कलात्मकता का एक मजबूत धागा बड़ी ही कुशलतापूर्वक पिरोया होता है। सत्यजीत रॉय, ऋत्विक घटक, विमल रॉय, राज कपूर, गुरुदत्त, महबूब खान, के आसिफ, वी शांताराम, कमाल अमरोही, जहानु बरुआ, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, गिरीश कासरावल्ली, चेतन आनंद, मृणाल सेन, मणि कौल, अडूर गोपालकृष्णन, जी अरबिंदम, बुध्ददेव दासगुप्ता, शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता जैसे अनगिनत नाम हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा को एक सार्थकता प्रदान की है। </div>
<div style="text-align: justify;">
वर्तमान समय में कुछ बेहतरीन निर्देशक हैं जो सफलता के घिसे-पिटे फार्मूले और यूरोप की भद्दी नकल के बजाय कुछ अलग और सार्थक रचने का जोख़िम लेने की हिम्मत रखते हैं। विगत कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा में कुछ अद्भुत फ़िल्में बनी हैं, कम ही सही। अक्टूबर ऐसी ही एक गिलम है। </div>
<div style="text-align: justify;">
यह मानवीय संवेदना की एक अनुपम गाथा है। एक ऐसे समय में जब चारो तरफ़ इंसान से इंसान के बीच नफ़रत का बीजारोपण हो रहा है। जाति, धर्म, समुदाय और वाद के आधार पर फैसले सड़कों पर किए जा रहे हैं। असहमति को उग्रवाद और देशद्रोह का नाम दिया जा रहा है और इन सब बातों को राजनैतिक स्वीकृति प्रदान की जा रही है, वैसे वक्त में एक इंसान के प्रति एक इंसान के लगाव की कहानी कहना ठीक वैसा ही एहसास है जैसा भीषण गर्मी में बारिश की एक बूंद का शरीर पर पड़ना। नायक के दोस्त उसे कहते हैं कि तुम इतना अटैच क्यों हो रहे हो? जवाब में नायक कहता है - तुमलोग इतना डिटैच कैसे हो? </div>
<div style="text-align: justify;">
अक्टूबर सवालों के हल या वैसी फ़िल्म नहीं कि एक एक भजन गाया और गोलियों से छलनी हुआ नायक उठाकर ना केवल बैठ गया बल्कि उसमें सुपरपावर का समावेश हो गया और एक ही झटके में उसने सारे खलनायकों का खात्मा कर दिया। यह सवालों के सतही और फ़िल्म जवाब वाली फ़िल्म नहीं है बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी मानवीय धर्म का पालन करते हुए उससे शालीनतापूर्वक जूझने के एहसास वाली फिल्म है। जीवन की तमाम संगति-विसंगतियों की उपस्थिति यहां भी है। अब इससे आपका मनोरंजन होता है तो ठीक नहीं होता है तो भी ठीक। </div>
<div style="text-align: justify;">
एक दुर्घटना में साथ काम करनेवाली एक लड़की कोमा में चली जाती है। उसके साथ केवल उसका परिवार होता है और होता है फ़िल्म का वो सबसे नालायक पात्र जिसे सफलता का सफलतम फार्मूला चुपचाप अपनाने में मज़ा नहीं आता। उसके बाद लगभग पूरी फिल्म हॉस्पिटल के मशीनों की आवाज़ और कुछ बहुत ही छोटे-छोटे और मासूम जीवन प्रसंगों के सहारे आगे बढ़ती है। अन्तः फ़िल्म थोड़ी आशावादिता के साथ एक यूटर्न के साथ खत्म होती है और अन्तः बहुत सारी बातें प्रतीकों के सहारे कह जाती हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
फ़िल्म में कोई भी महास्टार या चमत्कारी अभिनेता-अभिनेत्री नहीं है लेकिन जो भी हैं अपनी जगह एकदम फिट हैं। फिर भी अभिनेत्री गीतांजलि राव को इस फ़िल्म में अभिनय करते देखना एक अभिनय प्रेमी दर्शक के लिए सुखद अनुभूति है। बाकी किसी भी कला के बारे में उतनी ही बात करनी चाहिए जितने में कि रस बना रहे और उत्सुकता बनी रहे, ज़्यादा घोंटने से मीठा भी कड़वा हो जाता है। तो आख़िरी और सबसे ज़रूरी बात है कि अगर बिना दिमाग वाली फ़िल्में आपको बोर करती हैं तो इस फ़िल्म को ज़रूर देखिए, अगर अभी तक नहीं देखें हैं तो।</div>
</div>
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Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-24893013653264039722018-05-25T19:18:00.003+05:302018-05-25T19:18:33.239+05:30कामयाबी इंतज़ार करवाती है, उसके लिए जल्दी मत मचाइए।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आलस से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा ही महंगा पड़ता है। अमूमन सब सफल होना चाहते हैं, किसी भी स्थिति में कोई भी इंसान असफल तो नहीं ही होना चाहता है। तो क्या सफल होने का कोई गणित है? इसका जवाब है हाँ। जुगाड़ से इंसान को मौक़ा मिल सकता है, सफ़लता नहीं और सफलता का अर्थ केवल आर्थिक नहीं बल्कि सार्थक होना भी है। यह ज़रूरी नहीं कि जो सफल हो वो सार्थक भी हो। बहरहाल, सफल और सार्थक होने का रास्ता कठोर श्रम, निरंतर अभ्यास, मानसिक-बौद्धिक-शारीरिक और आध्यात्मिक (धार्मिक नहीं) तैयारी, उचित मार्गदर्शन, सही संगत, सकारात्मक नज़रिया और पर्याप्त धैर्य आदि के तप से होकर ही गुज़रता है, इसके अलावा कोई दूसरा मार्ग ना कभी था और ना कभी होगा। केवल मानसिक रूप से सोचते रहने मात्र से कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सकता बल्कि उसके लिए प्रयासरत भी रहना पड़ता है। जैसे बार-बार रस्सी के घर्षण से पत्थर भी कटने लगता है, ठीक उसी प्रकार। कबीर भी कहते हैं -<br />
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।<br />
रसरी आवत-जात के, सिल पर परत निशान ।।<br />
तो किसी भी कार्य में पूरे तन, मन और धन से लगना पड़ता है तभी उसे हासिल किया जा सकता है। “अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुम से मिलाने में लग जाती है” ज़रूर सुना होगा। यह पंक्ति हमारे फ़िल्म और आजकल एक विज्ञापन में ख़ूब सुनाई पड़ रहा है लेकिन मूलतः यह पाब्लो कोइलो के विश्विख्यात उपन्यास एल्केमिस्ट का है। इसी को सिद्धांत के रूप में Law of Attraction कहा जाता है जो यह कहती है कि आप अपने जीवन में उस चीज को आकर्षित करते हैं जिसके बारे में आप सोचते हैं। आपकी प्रबल सोच हकीक़त बनने का कोई ना कोई रास्ता निकाल लेती है। तो सोच को हकीक़त बनाना ही सफलता और सार्थकता की कुंजी हो सकती है।<br />
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कल एक दैनिक अखबार में "कामयाबी इंतज़ार करवाती है, उसके लिए जल्दी मत मचाइए" नामक शीर्षक से महानतम खिलाड़ी और वर्तमान में युवा क्रिकेट टीम के कोच और प्रशिक्षक राहुल द्रविड़ के विचार पढ़ने का मौक़ा मिला। उनके विचार आपके समक्ष जस का तस रख रहा हूँ। यह विचार उनको ही प्रेरित कर सकते हैं जो प्रेरित होना चाहते हैं। जो स्वयंभू हैं, उनका तो आजतक ना कुछ हुआ है और आगे होगा। राहुल को पढ़िए -<br />
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क्रिकेट ने मुझे एक बेहतर इंसान बनाया, लेकिन इसमें वक्त लगा अक्सर लोग पूछते हैं कि सफल होने का सूत्र क्या है। मैं मानता हूं कि संघर्ष करना जरूरी है और सफलता व असफलता दोनों ही इसके हिस्से हैं। आपको दोनों का सामना करना पड़ेगा। सफल होने के लिए आपको निरंतर जिज्ञासु होना होगा। ये जिज्ञासा ही है जो आपको अपनी रुचि को पहचानने में मदद करेगी। जब आप यह जान जाएंगे कि आपकी दिलचस्पी किसमें है तो आपको उस काम से प्यार हो जाएगा और आप उसे पूरी शिद्दत से कर पाएंगे। दूसरी ओर मुश्किल समय से मैंने सीखा है कि प्रेरणा आपके बहुत काम आती है। अक्सर लोग इसे किताबी ज्ञान मानते हैं, लेकिन मेरा अनुभव है कि प्रेरित करने वाली कोई भी बात आपको मुश्किल समय में मजबूत बनाने का काम करती है। अक्सर लोग सफल व्यक्ति को देखकर सोचते हैं कि इनके जीवन में कोई समस्या नहीं है या फिर इनकी जिंदगी में हमेशा से सबकुछ अच्छा था। ऐसा नहीं है। खेल को कॅरिअर के बनाने के दौरान मेरे और मेरे माता पिता के दिमाग में भी वही डर थे । जो एक सामान्य युवा और उसके , माता पिता के जेहन में होते हैं । लेकिन आपको इस डर को मैनेज करना होगा। इसके साथ अपने संघर्ष को भी अंजाम तक पहुंचाना होगा।<br />
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सफलता को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए चाहिए मजबूत आधार युवा पीढ़ी के साथ एक समस्या है कि उसमें धैर्य की कमी है। वह सब कुछ जल्दी से हासिल कर लेना चाहती है, लेकिन आपको समझना होगा कि कामयाबी इंतजार करवाती है। मैं इस बात को एक चाइनीज बैंबू के माध्यम से समझाना चाहूंगा। एक चाइनीज बैंबू के बीज को अपने बगीचे में लगाइए और उसे सींचिए आप पाएंगे कि पहले एक साल में कोई अंकुर नहीं फूटा। फिर देखेंगे कि अगले पांच साल तक भी कोई अंकुर नहीं पनपा, लेकिन फिर एक दिन एक छोटा तिनका जमीन के बाहर नजर आएगा, जो आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रहा है और सिर्फ 6 हफ्तों में 90 फीट का हो गया है। इस पौधे ने क्या किया 5 साल तक अपनी जड़ें जमाई ताकि वह अपनी 90 फीट की ऊंचाई को लंबे समय तक संभाल सके। कामयाब होना आसान है, लेकिन उसे लंबे समय तक बनाए रखने के लिए एक मजबूत आधार की जरूरत होती है। इसमें समय लगता है।<br />
परिणाम एकदम आखिरी प्रक्रिया है, उसके पहले की तैयारी महत्वपूर्ण है। लोग कहेंगे कि यह चाइनीज बैंबू 6 महीने में 90 फीट का हो गया, लेकिन मैं कहूंगा इसे यहां तक पहुंचने में 5 साल 6 महीने लगे<br />
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ज्यादा से ज्यादा सहयोगी बनाइए<br />
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हर सफल व्यक्ति के पीछे ढेरों लोगों का सहयोग होता है। यह सपोर्ट ही है, जो आपको असफलता के बाद फिर से खड़ा होने की उम्मीद देता है। मेरे साथ यह कई बार हुआ जब मुझे परिवार के साथ-साथ ऐसे लोगों का भी सहयोग मिला जिनसे मुझे कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए ज्यादा से ज्यादा सहयोगी बनाइए। वे आपको बेहतर बनाने के लिए अपनी अमूल्य राय देंगेजो आपको सफलता के करीब ले जाएगी। याद रखेंसफलता लक्ष्य नहीं एक यात्रा है, जिसमें आपको कई बार निराश होना पड़ेगा, लेकिन यह इसका जरूरी हिस्सा है। आपकी दृढ़ता भी आपको इस तक पहुंचने में मदद करेगी। कामयाबी के फल के लिए दृढ़ता का बीज रोपना जरूरी है। इतना ही नहीं जब वह आपको जाए तो उसकी इज्जत भी करें।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-87968441997592863572018-05-21T20:14:00.000+05:302018-05-21T20:14:13.999+05:30दरअसल कानून की भाषा बोलता हुआ यहां अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div dir="ltr">
मध्यप्रदेश का एक किसान 45 डिग्री सेल्सियस में 4 दिन से मंडी में अपनी फसल की तुलाई होने का इंतज़ार लाइन में लगकर करता है और अन्तः उसकी मौत हो जाती है। अब मरने से पहले मूलचंद नामक इस किसान ने "हे राम" या "भारत माता की जय" या "मेरा भारत महान" का जयघोष किया था या नहीं, यह अभी तक पता नहीं चल सका है। यह भी संभव हो कि मरते वक्त इसका पेट ख़ाली हो और उसके मुंह से "आलू" "चना" या 'प्याज़" नामक शब्द निकल हो। यह किसको वोट देता था और किसकी भक्ति करता था, यह भी अभी तक पता नहीं चल सका है। अगर पता चल जाता तो कहीं न कहीं से एक ट्यूट ज़रूर आता।</div>
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वैसे भी यह कोई ख़ास ख़बर नहीं है क्योंकि देश "हर हर घर घर" की भक्ति या विरोध में मस्त है, लीन है और व्यस्त है। बड़ा बड़ा विकास हो रहा है, इन फालतू की बातों पर कौन ध्यान दे! </div>
<div dir="ltr">
वैसे भी इस देश का किसान, मजदूर, बेरोज़गार नवयुवक आदि एक कीड़े में परिवर्तित कर दिया गया है, एकदम काफ़्का की कहानी "मेटामोरफॉसिस" की तरह। जो धर्म, जाति, देशप्रेम, संस्कृति, नैतिकता, मर्यादा आदि के नाम पर या तो मानसिक ग़ुलामी करने को अभिशप्त है या अराजक होने को या फिर जीने की जीतोड़ कोशिश में अपने प्राण त्यागने को। यह सुनियोजित साजिश के तहत की जानेवाली हत्याएं हैं, एक्सिडेंटल डेथ या आत्महत्या की शक्ल में और इन हत्याओं के लिए वो सब ज़िम्मेवार हैं जिनपर भी इनकी सूरत बदलने की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी है, या होती है।</div>
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कोई सत्ता के घमंड में चूर है तो कोई छीन गई सत्ता को कैसे भी वापस लाने की जुगाड़ में। कोई अपना जुगाड़ में लगा है तो कोई अपनों की जुगाड़ में। कहीं अपनी हवाई उपलब्धियों का हवा-हवाई और आक्रामक प्रचार है तो कहीं उस हवाई फायर का पुरज़ोर हवाई विरोध और समर्थन और कुछ हम आप जैसे भी महात्मा हैं जो फेसबूक पर पोस्ट मात्र डालकर लाइक कमेंट के खेल से अपनी सार्थकता और सामाजिक सरोकरता सिद्ध करने में लगे हैं। हम सब मिगुएल द सर्वांते के उपन्यास के पात्र डॉन क्युकजोर्ट बन चुके हैं जो सामाजिकता और सरोकार के नाम पर हवाई लड़ाइयों में मस्त है। हमारे हाथों में बरछी, भला, बल्लम की जगह चाइनीज़, कोरियन, अमेरिकन आदि मोबाइल है फ्री के डाटा कनेक्शन के साथ और दिन रात इसमें उंगली करने को अभिशप्त हो गए हैं। टीवी डिबेट से हम क्रांति की उम्मीद करने वाले यूटोपियन पिस्सू बन गए हैं हम। बाकी सच में और यथार्थ की धरातल पर समाज को सुंदर, सुलभ और मानवीय मेहनकश वर्ग के सर्वथा अनुकूल बनाने के लिए कौन क्या कर रहा है, यह तथ्य हम सब जानते हैं - अब उसे माने या ना माने यह अलग बात है। वैसे भी पूंजीपतियों के टुकड़ों पर चलने वाली पार्टियां और पलने वाले नेता क्या ख़ाक सेवा करेगें देश के आवाम की।</div>
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पूरे देश में किसानों की दैनीय स्थिति के बारे में शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा और अगर कोई अनभिज्ञ है तो उस महान आत्मा को 101 तोपों की सलामी। तो साहिबान, लीजिए प्रस्तुत है उस मारे हुए किसान की तस्वीर ताकि आपको दुःख जैसे महसूस कुछ करने में ज़्यादा ज़ोर ना लगाना पड़े। तो आइए हम सब "जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान" कहते हुए दुःखी जैसा कुछ इमोशन क्रिएट करते हैं। हमारी भावनाएं मिथकीय चरित्रों के लिए जागती हैं और जागती आखों और जीवित मनुष्यों के लिए ना जाने कब का हमारा हृदय पत्थर हो गया है, आंखों के आंसू सूख चुके हैं और गुस्से का हस्तमैथून हो चुका है। </div>
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बतोलेबाज़ी और जुमलेबाजी और सत्य का फ़र्क ना जाने कब का भूल चुके हैं हम। सच हमने जाना नहीं, पढ़ा नहीं, खोजा नहीं तो सच सच हो या ना हो लेकिन झूठ भी सच ही होगा। सवाल यह नहीं कि हम किसको मानते हैं बल्कि सवाल यह है कि हम सच में किसको जानते हैं, एकदम सही सही।</div>
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यह उस किसान की एक फाइल फोटो है। ग़ौर से देखिए इसके सिंघासन को, इसकी फसल ही इसका सिंघासन है और यह आशा भरी नजरों से पता नहीं किधर देख रहा है। पता नहीं किससे इसे उम्मीद है अब भी। देश का पेट भरनेवाला यह किसान खुद कैसा दिखता है, यह भी देख ही लीजिए। प्रधानसेवक के चेहरे से इसके चेहरे का मिलान भी कर लीजिए। उसकी दर्दनाक मौत (हत्या) की तस्वीरें और मौत का तमाशा देखते लोगों की तस्वीर भी नेट पर उपलब्ध हैं। अगर इस फोटो से सच्ची फिलिंग नहीं आ रही तो कृपया एल बार उन तस्वीरों का भी अवलोकन करें। </div>
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इस फालतू के स्टेटस को पढ़ने में जो कीमत समय गया उसकी भरपाई हम पतंजलि के स्वदेशी प्रोडक्ट के साथ आईपीएल का T20 क्रिकेट मैच देखकर या कर्नाटक पर गर्मागर्म बहस करके कर सकतें हैं या कुछ नहीं तो आराम से खाते - पीते मोदी-राहुल-कम्युनिस्ट-समाजवादी, हिन्दू-मुसलमान, भारत-चीन-रूस-पाकिस्तान, देशप्रेमी-देशद्रोही ही कर लेते हैं - वक्त कट जाएगा, आराम से। </div>
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जब तक सर्वहारा, मजदूर, किसान, मेहनतकश और शोषित तबका एकजुट होकर अपने सच्चे प्रतिनिधित्व को सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ नहीं करते और लगातार सतर्क और सक्रिय नहीं होते, तब तक स्थिति यही होगी। केवल इसको या उसकव वोट करने मात्र से हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का निर्वाह नहीं हो जाता। बाकी धोखा का क्या है वो तो हर रंग वाले रंगे सियार घूम ही रहें हैं नेता, बुद्धिजीवी, कलाकार का चोला धारण करके, जिसे धूमिल "कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का संयुक्त परिवार कहते हैं।" और सत्य के साथ पूरी ताक़त और मजबूती से खड़े होने के हमारे साहस का बलात्कार हो चुका है, रोज़ हो रहा है बाकी सत्यमेव जयते का कानफाड़ू जयघोष तो हर जगह है ही!!!</div>
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<u>ज़िंदा</u> लोग मौन रहें तो मुर्दे सवाल करते हैं। </div>
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इस देश को कौन चला रहा है ? इस सवाल का जवाब में हम सबके दिमाग में किसी नेता का नाम आता है जबकि सच यह है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश उसके मेहनतकश किसान और मज़दूर चलाते हैं लेकिन दुःखद सच यह है कि इस देश में सबसे ज़्यादा बुरी स्थिति इन्हीं की है। देश के नौजवानों की बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्या (जो दरअसल हत्या है), मज़दूरों और सर्वहारा क्लास की नारकीय ज़िन्दगी के बीच विकास का क़सीदा कोई कसाई भी नहीं पढ़ सकता। </div>
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यह व्यवस्था अगर केवल मुआवजे देने और हम केवल अत्यंत दुःखद वाक्यों से सराबोर फेसबूक स्टेटस लिखने में मशगूल हैं तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हमारी हत्या बहुत पहले हो चुकी है और हम केवल ज़िंदा रहने का नाटक कर रहें हैं। </div>
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जिस मुल्क में जिंदा लोग मुर्दा हो जाएं वहां लाशें बोलती हैं और अपने लहू और पसीने का हिसाब पाई पाई वसूलती हैं। जब ज़िंदा लोग सवाल करना बंद कर देते हैं और भक्ति में लीन हो जाते हैं तब मुर्दे सवाल करेगें और उनके सवालों को जिसने भी अनदेखा किया उसका नामोनिशान इतिहास से खत्म हो गया। अच्छे-अच्छे का सिंघासन डोल गया।</div>
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सिर्फ सरहद पर लड़नेवाला ही शाहिद नहीं होता बल्कि आंख खोलकर देखा जाय तो उस देश के किसान मजदूर और युवा रोज़-रोज़ तिल - तिल करके शाहिद हो रहे हैं। <br />
जिस दिन इस देश के मेहनतकश एकजुट होकर अपना हिसाब मांगेंगे उस दिन पता चलेगा कि सच में किसने क्या किया। तबतक देश को जितना बहकाना है, बहका लो।</div>
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Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-70679339646102524832018-05-14T06:45:00.000+05:302018-05-14T06:45:01.717+05:30माँ कहते ही कितना कुछ एक साथ याद आने लगता है।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
किसी भी मनुष्य के अनुभूतियों और ज्ञान के चक्षु जब खुलने लगते हैं तो माँ कहते ही स्मृतियों में एक साथ ना जाने कितने बिम्ब बनने लगते हैं। कभी गोर्की की माँ याद आती है, कभी हज़ार चौरासी की माँ, कभी मदर इंडिया की वो माँ जो किसी से जबरन "भारत माता की जय" नहीं बुलवाती और बहुमत के दम्भ में चूर होकर यह भी नहीं दहाड़ती कि यदि तुम ऐसा नहीं बोलते तो तुम देशद्रोही हो, बल्कि उसूलों की रक्षा के लिए अपने जिगरी बेटे को भी गोली मार देती है। फिर गोदान की गोबर की माँ भी है जो किसान से मज़दूर की ओर तेज़ी से अग्रसर होते होरी का पूरी जीवंतता से साथ देती है और आखिर में उस व्यवस्था का प्रतीकात्मक विरोध का प्रतीक भी बनती है जिसने होरी जैसे किसान की सज्जनता का खूब दुरुपयोग किया। धनियां को पता है कि प्रतिरोध ज़रूरी है परंपराओं से भी। मुझे the latter to a child who never born की माँ भी याद आ जाती है जो किसी भी शर्त पर अन्तः अपने नितांत निजी वजूद को समाप्त करने को कत्तई तैयार नहीं। मुझे रामायण की वो सीता याद आती है जो पति द्वारा परित्याग के बावजूद बड़ी ही बहादुरी से अपने बच्चों का कुशल पालन करती है और महाभारत की कुंती और द्रोपदी को कैसे भूल जा सकता है जिन्होंने कई मर्दों और पतियों का संसर्ग प्राप्त किया? वैसे माँ तो शकुंतला भी है, सावित्री भी और जगत जननी तो माता होती ही हैं जो अपने किसी भी बच्चे में कोई विभेद नहीं करतीं कभी भी, किसी भी परिस्थिति में। और फिर फ़िल्म राम-लखन, दूध का कर्ज़ और करण-अर्जुन आदि फिल्मों की भी माँ है जो अपने बच्चों को बुराई से लड़ने के लिए फौलाद बनाती हैं नाज़ुक good child नहीं। फिर "मेरे पास माँ है" वाली मां भी है। फिर भगत सिंह और चंद्रशेखर जैसों की माँ भी है जिन्हें अपने बेटों की कुर्बानी पर गौरव का अनुभव होता है क्योंकि उनके बच्चों ने एक सुन्दर और एक ऐसे मानवीय समाज का सपना देखा था जहाँ किसी भी क़ीमत पर इंसान द्वारा इंसान का शोषण नहीं होगा। मुझे सति की याद भी आती है जो शक्ति का प्रतीक हैं ना कि केवल त्याग, बलिदान और ममता की मूरत।<br />
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सेना के उन लाखों जवानों की माँ को कौन भूल सकता है जिनके बच्चे रोज़ खतरों की आंधी में झुलसते हैं ताकि हम और आप चैन और सुकून की सुरक्षित ज़िंदगी बसर कर सकें और बहस कर सकें। मुझे कृष्ण की मईया यशोदा भी याद आती हैं जो किसी और के बालक को अपना बालक बनाकर पालतीं हैं। फिर मेहनतकश वर्ग के उस माँ को कैसे ना याद करूँ जो तमाम शोषण को नज़रन्दाज़ करते हुए और अपने बच्चे को चिपकाए हुए रोज़ मेहनत और मजूरी करती है और अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करती हैं।<br />
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फिर उन माताओं का क्या जो आज अपने ही बच्चों के लिए एक बोझ हैं? कोई बृद्धा आश्रम में पड़ी हैं तो कोई अपने ही घर में किसी अनचाही वस्तु में परिवर्तित हो गईं हैं। ऐसी ना जाने कितनी माएं हैं। वैसे माँ काशी में भी हैं, वृंदावन में भी और सोनागाछी में भी।<br />
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मुझे उन सारी माओं से सहानुभूति हैं जिन्होंने पुरुषसत्तात्मक और सामंती समाज की चक्की में पिसकर अपने जीते जी ही अपना वजूद खो दिया, फलां की माँ, फलां की पत्नी और फलां की बेटी-बहु नामक उपनामों में बदल गईं और इसी को वो अपनी नियति और अपना वजूद मान लिया।<br />
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आज जब हम अपनी अपनी माँ को याद कर रहें हैं, उनकी तस्वीरों को शेयर कर रहें हैं तो आशा करता हूँ कि हम अपने भीतर अपनी और दुनियां की सारी मां व स्त्री के "स्वतंत्र वजूद" को स्वीकार करने का माद्दा भी पैदा करने का प्रयास करेगें और उनकी सनातन पीड़ा से मुक्ति में अपना हर संभव योगदान भी देंगें, क्योंकि एक स्त्री का अपना एक स्वतंत्र वजूद भी होता है या होना चाहिए माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका और विश्वास व मान्यताओं आदि के परे भी। और दुनियां की कोई भी माँ हमें प्यार, सम्मान, स्नेह और सत्य सिखलाती है नफ़रत और हिंसा नहीं।<br />
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#आज mother's day है my mother day नहीं।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-87354562506824588112018-05-07T11:02:00.001+05:302018-05-07T11:02:35.409+05:30फ़िल्म 102 Not Out : जिओ ज़िंदादिली से भरपूर ज़िन्दगी !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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किसी भी इंसान के जीवन का मूल लक्ष्य क्या है? इस प्रश्न का सीधा जवाब है ख़ुशी की तलाश। इंसान जो कुछ भी करता है या करना चाहता है या नहीं भी करता है, उसके पीछे का कारण ख़ुशी नहीं तो और क्या है? दुःख का कारण क्या है? इस सवाल के जवाब में सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हो जाते हैं और फिर गहन चिंतन-मनन के पश्चात जो जवाब उन्हें सूझता है वो यह है कि सुख और दुःख एक अंदुरुनी मामला है हम नाहक ही उसे बाहर ढूंढते रहते हैं। </div>
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आज की दुनियां में भी इंसान चैन पाने के लिए बेचैन है। वो अमूमन भौतिक चीज़ों और नकली दुनियावी आडंबरों और दिखावे में सुख तलाशता रहता है जबकि वो मन की चीज़ है। मन जिसे कोई बाहरी चीज़ नहीं बल्कि अंदुरुनी चीज़ संचालित करती है लेकिन इंसान के पास इतना वक्त ही कहाँ कि वो अपने अंदर की शक्ति को पहचाने और उसका समुचित उपयोग करे और ऐसा करने के लिए किसी भी बाहरी आडंबर की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसके भीतर पैशन, जुनून और जीवन का एक एक कतरा निचोड़कर पी लेने के माद्दे का होना ज़रूरी है। कनफ्यूशियस कहता है - "ऐसा काम चुनें, जो करना पसंद हो। इस तरह आपको ज़िन्दगी भर काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी" <br />
एक बार इंसान अपनी शक्ति को पहचान ले और तमाम किंतु-परंतु को दरकिनार कर अपने मनपसंद के काम में भीड़ जाए, फिर उसे दुनियां का कोई भय भयभीत नहीं कर सकता और ना ही कोई निराशा ही उसे निराश कर सकती है। लेकिन समस्या यह है कि अमूमन लोग यहां जीवन जीते कम, जीने का ढोंग ज़्यादा करते हैं। वो ना ख़ुद सुखी होते हैं और ना दूसरों को ही कोई सुख दे सकते हैं जबकि उनकी भी इच्छा सुख ही होती है। तभी तो फ़िल्म में 102 नॉट आउट वाला चरित्र कहता है - ठकेला, पकेला, बोरिंग इंसान के साथ ज़िन्दगी अच्छी और लंबी नहीं हो सकती। <br />
किसी भी बात के लिए देरी कभी नहीं होती, वैसे भी कहावत मशहूर है कि जब जागो तभी सवेरा। फिर जहां तक सवाल इंसानी रिश्ते नातों का है तो तमाम मजबूरियों, किंतु-परंतु, I hope you will understand से ऊपर उठकर जिस रिश्ते की डोर ज़िम्मेवारियों के साथ ही साथ सुख, शांति और सुकून से न बंधी हो, वो जितनी जल्दी ख़त्म हो जाए उतना ही बेहतर है। तभी तो फ़िल्म में एक 102 साल का वृद्ध अपने बेटे (पोते) की वजह से अपने 75 साल के बेटे की हालत और झुके हुए कंधे को देखकर कहता है - "बेटा अगर नालायक निकले तो उसे भूल जाना चाहिए और केवल उसका बचपन याद रखना चाहिए।" क्योंकि बचपन निःस्वार्थ और मासूम होता है। यही बात अन्य रिश्तों पर भी लागू होती है। इसी निःस्वार्थपाना और मासूमियत को बड़ी ही शिद्दत से गढ़ता है यह फ़िल्म। वैसे भी जिसने अपने बचपना खो दिया, निःस्वार्थ भाव को भुला दिया और मासूमियत का गला रेत दिया वो इंसान नहीं बल्कि दो पैर पर चलता हुआ भौतिक वस्तुओं में सुख तलाश करता काफ़्का का एक मेटॉरफॉसिस मात्र है। बहरहाल, फ़िल्म पर कुछ और बात करूं उससे पहले एक शेर अर्ज़ करने का मिजाज़ बन रहा है। फ़ैजाबाद के एक अजीम शायर थे इमाम बक्श नाशिक़ <a href="tel:17721838">(1772 - 1838</a>) उन्होंने एक बाकमाल शेर लिखा था कि <br />
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है <br />
मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं <br />
इसी फिलॉसफी को केवल तीन पात्रों के माध्यम से बड़े ही रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करती है यह फ़िल्म, जिसका अंदाज़ कुछ कुछ हृषीकेश मुखर्जी की फ़िल्म आनंद वाली ही है। आंनद नामक वो फ़िल्म याद तो है ना जिसमें राजेश खन्ना का चरित्र कैंसर जैसा लाइलाज बीमारी से पीड़ित होते हुए भी लोगों में जमकर ज़िंदादिली बांटता है और उसके मरने के बाद यह संवाद गूंजता है कि "आंनद मारा नहीं, आनंद मरते नहीं।" 102 नॉट आउट में भी आखिरी में एक मौत होती है और होता है पर्दे पर एक ब्लैकआउट और फिर एक सिटी सुनाई पड़ती है उस ब्लैकआउट में। इसका तात्पर्य भी आनंद वाली उस संवाद की तरह है बल्कि उससे कुछ ज़्यादा ही बाकमाल कि वो चरित्र अमर होते हैं जो अपने दुःख दर्द से ऊपर उठकर दूसरे को सीधी रीढ़ के साथ जीना सिखलाते हैं। लेकिन यहां तो आलम यह है कि लोग जीते जी जीना भूल जाते हैं। बहरहाल, इन दोनों फिल्में में एक समानता यह है कि सीनियर बच्चन साहब इन दोनों ही फ़िल्में में बड़ी शिद्दत से मौजूद हैं। लेकिन उस आनंद में और इस 102 नॉट आउट में बच्चन साहब के अंदाज़ में ज़मीन और आसमान का अंतर है। किसी ने बिल्कुल सच कहा है कि कलाकार की उम्र जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे उसकी कला और जवान होती जाती है, बशर्ते वो निरंतर प्रयासरत रहे और उतनी ही शिद्दत से भिड़ा रहे। 102 नॉट आउट में भी बच्चन साहब का अभिनय अपने पूरे जवानी के जोश से लबरेज़ है। फ़िल्म पर और बातें हों उससे पहले एक बात यह कि वर्तमान समय में और ख़ासकर हिंदी में कोई ढंग का फ़िल्म समालोचक शायद नहीं है, जो है उनमें से अधिकतर समालोचना नहीं बल्कि FIR लिखने में महारत हासिल रखते हैं। यदि होते तो बेहतरीन फिल्मों पर बेहतरीन लेखन करते और ख़राब फिल्मों को ख़ारिज, लेकिन पूंजी से संचालित वर्तमान समय में बिल्ली के गले में घंटी बंधने का जोखिम कौन ले? <br />
खैर, तत्काल बात यह कि यह एक टोकेटिव फ़िल्म है जिसके कई संवाद दिल को छू तो लेते हैं लेकिन यह फ़िल्म ज़्यादा कॉम्प्लिकेशन में नहीं पड़ती। यहां हास्य भी है तो आंसू भी। एकाध जगह गंभीरता भी है लेकिन तभी एक पांच आता है और आपका मिजाज़ लाइट बना देता है। यह गुजराती कॉमर्शियल नाटकों स्टाइल है कि हंसते खेलते निकल लो और यह फ़िल्म भी एक गुजराती नाटक का सिनेमाई वर्जन है। जिसकी चाल हृषीकेश मुखर्जी की आनंद वाली तो है बस मामला थोड़ा इधर का उधर और उधर का इधर है। हां, जिस प्रकार आनंद में बेहतरीन संगीत था यहां उसका सर्वथा अभाव है और शायद उसकी कमी भी नहीं खलती है। एक 102 साल के बाप का अपने 75 साल के बेटे को वृद्ध आश्रम भेजने की परिकल्पना ही गुदगुदाने के लिए काफी है और फर इससे बचने के लिए बाप द्वारा जो शर्तें लादी जातीं है वो हास्य, व्यंग्य और अन्य इमोशन को उत्पन्न करते हुए जीवन और जीवन जीने के तरीक़े की एक महानतम दर्शन से रूबरू कराया जाती हैं। बहरहाल, फ़िल्म में कुछ समस्याएं भी हैं लेकिन वर्तमान में भारतीय सिनेमा जिन मुकामों पर खड़ा है वहां हम तत्काल कोई ग्रेट आर्ट की उम्मीद कर भी नहीं सकते क्योंकि अगर फ़िल्म ग्रेट हुई तो ना उसे वितरक मिलेगें, ना हॉल और अगर ग़लती से यह दोनों मिल गए तो दर्शकों के नहीं मिलने की पूर्ण गारेंटी तो होगी ही होगी।<br />
एक गुजराती नाटक से प्रभावित यह फ़िल्म एक महान कलाकार की एक दूसरे महानतम कलाकार को श्रद्धांजलि भी माना जा सकता है - इशारों इशारों में। इस फ़िल्म में 102 साल के अमिताभ बच्चन के चरित्र का गेटअप प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन की तरह हैं जिन्हें हम सबने अघोषित देश निकाला दे दिया था और बेचारे अन्तः अपनी धरती और अपनी ज़मीन से दूर प्राण त्यागने को अभिशप्त हुए। कहा जाता है कि वो अमिताभ ही हैं जिन्होंने फ़िल्म के निर्देशक के सामने अपने चरित्र का गेटअप मकबूल फिदा हुसैन की तरह रखने का प्रस्ताव दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया और जिन्हें हमने जीते जी मार डाला आज वो रुपहले पर्दे के मार्फ़त पूरी दुनियां में सजीव हो रहें हैं। अब यह एक कलाकार का दूसरे कलाकार के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं तो और क्या है? वैसे भी जब बात सीधे-सीधे कहने में भावनाओं का आहत होने का ड्रामा खुद जोश से खेला जाता है वैसे माहौल में एक कलाकार चुप नहीं होता बल्कि अपनी सच्ची भावनाएं प्रतीकों में व्यक्त करता है, उदाहरण के लिए आप विश्व के उन देशों की कलात्मक अभिव्यक्ति देख सकते हैं जहां बात सीधे-सीधे कहने की आज़ादी उतनी नहीं है और आजकल हमारे भी देश में भावनाएं कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही आहत होकर बेवजह हिंसक भी हो रहीं हैं और उसे सत्ता का मौन समर्थन भी हासिल हो रहा है। अच्छे से अच्छा बड़बड़िया नेता इन बातों पर मनमोहन हो जा रहे हैं और उनका मौन अन्तः गलत का समर्थन ही हो जाता है। बहरहाल, वोट बैंक की राजनीति जो ना कराए!<br />
इस फ़िल्म पर अगर इससे ज़्यादा बात किया तो आपका फ़िल्म देखने का आनंद ही ख़त्म हो जाने का ख़तरा है इसलिए जाइए और यह फ़िल्म देख आइए, अगर अब तक नहीं देखे हैं तो। आप अमिताभ बच्चन को पसंद करते हो या ना करते हों, आप ऋषि कपूर के प्रशंसक हों ना हो, आप निर्देशक उमेश शुक्ला के नाम से परिचित हों या ना हों; आपने नाटक के क्षेत्र में सौम्य जोशी का नाम सुना हो या ना सुना हो - इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तमाम बातों में एक बात यह कि इस फ़िल्म से कुछ नहीं तो जीवन को जीने का सलीका ही सिख लीजिए, क्योंकि यह फ़िल्म नहीं बल्कि एक फिलॉसफी है जीवन को जीवन की तरह जीने का और अगर इस फ़िल्म को देखने के पश्चात भी अगर आपके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना। </div>
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सनद रहे, जिसे हम रुकावट मानते हैं वो दरअसल एक चुनौती होता है, जिसे पर कर लिए तो सार्थकता हाथ लगती है नहीं तो जो है वो तो है और होगा ही।</div>
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Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-38511244008439531072018-02-07T17:33:00.003+05:302018-02-07T17:33:34.617+05:30नाटक बिदेसिया का एक किस्सा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
1980 का दशक था। उस वक्त भिखारी ठाकुर लिखित और संजय उपाध्याय निर्देशित बिदेसिया नाटक तीन घंटे से ऊपर का हुआ करता था। 25 मिनट का तो पूर्व रंग हुआ करता था अर्थात् बिदेसी, बटोही, प्यारी सुंदरी और रखेलिन की कथा नाटक शुरू होने के 25 मिनट बाद ही शुरू हुआ करता था। अब तो पता नहीं कैसे यह भ्रम व्याप्त हो गया है कि डेढ़ घंटे से ज़्यादा का नाटक कोई देखना ही नहीं चाहता जबकि अभी भी कई शानदार नाटक ऐसे हैं जिनकी अवधि ढाई घंटे के आसपास है। अभी हाल ही में रानावि रंगमंडल ने दो मध्यांतर के साथ 6 घंटे का नाटक किया और लोगों ने भी छः घंटा देखा। अभी हाल ही में कई शानदार फिल्में आईं हैं जो तीन घंटे की हैं। आज भी गांव में लोग रात-रात भर नाटक (!) देखते हैं। तो शायद दोष लोगों यानी दर्शकों का नहीं है; शायद अब कलाकारों (लेखक, निर्देशक, परिकल्पक, अभिनेता आदि) में ही वह दम खम नहीं है कि वो डेढ़ घंटे से ज़्यादा वक्त तक लोगों में रुचि बनाकर रख सके।<br />
बहरहाल, 80 के दशक में भी बिदेसिया के सारे प्रदर्शन टिकट लगकर किया जाता था लेकिन तब भी शो हाउसफुल हुआ करते थे। बहुत से लोग इस नाटक के फैन हो गए थे। वो किसी भी प्रकार इसका सारा शो देखना चाहते थे। पटना में कुछ तो ऐसे भी थे जो पूरे परिवार के साथ हर संभव प्रयास करके नाटक के सभागार में चले आते थे। खैर, मूल किस्सा यह है कि नाटक में प्यारी सुंदरी का किरदार करनेवाली अभिनेत्री के परिवार वाले कुछ शर्तों के साथ अभिनय करने देने के लिए राज़ी हुए थे। तो हुआ यूं कि उस दृश्य में जब बिदेसी कलकत्ता से घर वापस आता है तो बिदेसी की भूमिका कर रहे पुष्कर सिन्हा ने उत्साह वश मंच पर आंख मार दिया जिसे सभागार में बैठे प्यारी सुंदरी की भूमिका कर रही अभिनेत्री के परिवारवालों ने देख लिया। फिर क्या था दूसरे दिन के शो में प्यारी सुंदरी ग़ायब। इधर शो का वक्त हो रहा था उधर प्यारी सुंदरी के घर पर जाकर कुछ लोग मनाने की चेष्टा कर रहे थे और बिदेसी के उस आंख मारनेवाली हरक़त के लिए शायद सफाई भी पेश कर रहे थे। उन्हें समझा रहे थे कि यह अभिनेता ने उत्साह में किया है इसके पीछे कोई और मंशा नहीं है। शो का वक्त क़रीब आ रहा था ऐसी स्थिति में एक निर्देशक और पूरी टीम की मनोदशा का अनुमान कोई भी संवेदनशील और कलात्मक मन लगा सकता है। कोई चारा ना देख आख़िरकार नाटक के निर्देशक संजय उपाध्याय ने एक निर्णय यह लिया कि प्यारी सुंदरी की भूमिका वो खुद करेंगें - संवाद, गीत और नाटक की ब्लॉकिंग तो लगभग उन्हें याद तो है ही। फिर क्या था, निर्देशक महोदय ने साया, साड़ी, ब्लाउज़ धारण किया या करने लगे। वो मानसिक रूप से तैयार तो हो ही गए थे अब आहार्य ही तो धारण करना था कि तभी नाटक की प्यारी सुंदरी हाज़िर हुई और उस दिन का शो सुचारू रूप से शुरू हुआ।<br />
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#बहुत_किस्से_हैं_कोई_लिखे_तो_सही ।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-18944904604438438052018-02-07T17:29:00.002+05:302018-02-07T17:29:43.742+05:30बहुत संकीर्ण है Toilet एक प्रेम कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कल Toilet एक प्रेम कथा नामक प्रोपेगेंडा फ़िल्म देखी। फ़िल्म देखने के पीछे का मूल कारण यह था कि ऐसी ख़बर थी कि फ़िल्म हमारे मित्र Bulloo Kumar अभिनीति फ़िल्म गुंटर गुटरगूँ की कॉपी है लेकिन इस बात में कोई खास दम नहीं है। Toilet एक प्रेमकथा एक निहायत ही ज़रूरी विषय पर बनी, पर वर्तमान प्रधानमंत्री की हवा हवाई नीतियों की चमचई करनेवाली एक सरदर्द फ़िल्म साबित होती है। यह चूरन की एक ऐसी गोली की तरह है जिसको खाते ही हवा निकलती है और चंद पलों के लिए पेटदर्द से आराम मिलता है लेकिन असल बीमारी जस की तस बनी रहती है। फ़िल्म भारतीय परंपरा और संस्कृति की बात करती है जिसमें आदिवासी, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, पंजाबी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन आदि के लिए कोई स्थान नहीं बल्कि RSS की संकीर्ण सोच की तरह मनुस्मृति और गीता ही सबकुछ है। फ़िल्म इतनी संकीर्ण है कि पूरे के पूरे फ़िल्मी गाँव में ऊपरी पायदान के विशिष्ट हिन्दू छोड़कर किसी अन्य के लिए कोई स्कोप तो दूर की बात दूर दूर तक कोई नामोनिशान तक नहीं है। बहरहाल, इतना घटिया प्रोपगेंडा फ़िल्म पहली बार देखी मैंने। अरे भाई प्रोपगेंडा फ़िल्म ही बनाना है तो पहले दुनियां की कुछ बेहतरीन प्रोपगेंडा फ़िल्म देख तो लेते और पलॉट तो सही चुन लेते। प्रधानमंत्री का प्रचार Tiolet के माध्यम से करना - शोभा देता है क्या ? लेकिन अंधभक्तों को क्या फर्क पड़ता है कि भक्ति का स्तर क्या है। एक सियार बोला नहीं कि सारे हुआँ हुआँ करने लगते हैं और इस फ़िल्म में तो भक्तों की ही फौज है। भक्त अनुपम खेर तो अपनी ज़िंदगी की सबसे वाहियात भूमिका में हैं। एक से एक घटिया जोक मारे हैं अनुपम चाचा ने। वैसे सही भी है कि कलाकार जब राजनीतिज्ञों या राजनीतिक पार्टियों का बंदर बन जाए तो उसे भांड़गिरी तो करनी ही पड़ती है। वैसे भी लोकतंत्र में व्यक्ति विशेष को इतना भाव देना ख़तरनाक होता है। इतिहास बताता है कि हिटलर चाचा को भी प्रोपगेंडा फिल्में बनवाने का बेहद शौख था।<br />
वैसे सुना है फ़िल्म खूब कमाई कर रही है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि भारत में अच्छी फिल्में फ्लॉप और घटिया फिल्में खूब कमाई करने के लिए ही जानी जाती है। किसी ने सही कहा है कि भारत अच्छी कला - संस्कृति की कब्रगाह बन गई है। वैसे यह सोच बहुत दिनों से प्रचलन में है कि पहले इंसान के दिमाग को टॉयलेट के रूप में परिवर्तित कर दो फिर वो टट्टी तो अपने आप ही निगल लेगा।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-29129703219102068462018-02-07T17:17:00.004+05:302018-02-07T17:17:56.064+05:30बनारस का महाश्मशान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जन्म और मृत्यु इस जगत के अकाट्य सत्य हैं जो एक न एक दिन सबके साथ घटित होता है। अमीर-गरीब, छोटा- बड़ा, लंबा-नाटा, सुंदर-कुरूप, प्रसिद्ध-गुमनाम यहां सब एक समान हैं। आदमी ख़ाली हाथ आता है और ख़ाली हाथ ही जाता है। अब वो स्वर्ग में जाता है, नर्क में जाता है या इसी धरती पर भटकता है इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है और आस्था की बात क्या करना वो तो जन्मजात अंधी होती है। बाकी जीवन और मृत्यु के बीच का वक्त इस धरती पर अच्छे-बुरे, अर्थवान या फालतू के काम करते हुए व्यतीत करता है। कुछ अपने जीवन को अपने कर्मों से सार्थकता प्रदान करते हैं तो कुछ निरर्थक ही समय काटकर चल देते हैं। कुछ के लिए अपनी सुख सुविधा का जुगाड़ ही जीवन का अर्थ होता है तो कुछ दुनियां जैसी भी है उसे और सुंदर और मानवीय बनाने में ही अपने जीवन की सार्थकता देखते हैं। कवि मुक्तिबोध कहते हैं -<br />
ओ मेरे आदर्शवादी मन<br />
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन<br />
अब तक क्या किया<br />
जीवन क्या जिया ?<br />
तो बात तत्काल बनारस की जो कला, साहित्य, सिनेमा, धर्म आदि के केंद्र में पता नहीं कब से विद्दमान है। ना जाने कितने लेखकों, कलाकारों, विद्वानों और मूर्खों को पाला है इसने। आधुनिक से लेकर पौराणिक ग्रंथ बनारस के किस्सों-कहानियों से भरे पड़े हैं। शिव की नगरी है तो औघड़ता इसके मिजाज़ में विद्दमान है। इस औघड़पने पर बात फिर कभी तत्काल बात यह कि बनारस घाटों का भी नगर है। यहां कुल मिलाकर 84 घाट हैं। ये घाट लगभग 4 मील लम्बे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पाँच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थ' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट,(इस घाट का एक कमाल रूप काशीनाथ सिंह "काशी का अस्सी" में करते हैं) दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में। हर घाट की सत्य और काल्पनिक अपनी अलग-अलग कहानी है। लेकिन वर्तमान में बात मणिकर्णिका घाट की। अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग का नाम डॉ. तुलसीराम मणिकर्णिका रखते हैं। इस किताब में डॉ. तुलसीराम लिखते हैं - "एक हिन्दू मान्यता के अनुसार जिस किसी का अंतिम संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया जाता है, वह सीधे स्वर्ग चला जाता है। इस घाट पर सदियों से जलती चिताएं कभी नहीं बुझी। अतः मृत्यु का कारोबार यहां चौबीसों घंटे चलता रहता है। सही अर्थों में मृत्यु बनारस का बहुत बड़ा उद्योग है। अनगिनत पंडों की जीविका मृत्यु पर आधारित रहती है। सबसे ज़्यादा कमाई उस डोम परिवार की होती है, जिससे हर मुर्दा मालिक चिता सजाने के लिए लकड़ी खरीदता है। यह डोम परिवार इस पौराणिक कथा का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसमें उसके पूर्वजों के हाथों कभी राजा हरिश्चन्द्र बिक गए थे। डोम के ग़ुलाम के रूप में राजा हरिश्चन्द्र की नियुक्ति मुर्दाघाट की रखवाली के लिए की गई थी। एक घाट आज हरिश्चन्द्र घाट के रूप में भी जाना जाता है। इसी मान्यता के कारण लोगों का विश्वास है कि जब तक उस डोम परिवार द्वारा दी गई लकड़ी से चिता नहीं सजाई जाएगी, तब तक स्वर्ग नहीं मिलेगा।"<br />
बहरहाल, स्वर्ग-नर्क का यह अंधविश्वासी खेल बहुत पुराना है जिसने अब हर चीज़ को एक कारोबार में बदल दिया है। बहरहाल, यह घाट वाराणसी में गंगानदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध घाट है। एक मान्यता के अनुसार माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहाँ एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूढने का काम भगवान शंकर जी द्वारा किया गया, जिस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान शंकर जी द्वारा माता पार्वती जी के पार्थीव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया, जिस कारण इसे महाश्मसान भी कहते हैं।<br />
इस घाट से जुड़ी दो किम्वदंतियाँ हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी।<br />
दूसरी कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी। देवी पार्वती इससे परेशान हुईं और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है? प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है। निश्चित ही कुछ और किवदंतियां होंगी। बहरहाल, इस घाट पर बहुत कुछ एक साथ घटित होता रहता है। वहां बिना काम के चैन से बैठिए और मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह फ़क़ीरों का वेश बनाकर तमाशा देखिए।<br />
बनाकर फ़क़ीरों का हम वेश ग़ालिब<br />
तमाशा ए अहले करम देखते हैं।<br />
क्या धर्म या क्या अधर्म। क्या पाप क्या पूण्य। सबका घालमेल है यह जीवन। वैसे भी जीवन किताबों में वर्णित धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य से परे है। जीवन का सच कभी किताबी हो ही नहीं सकता। तो निःस्वार्थ भाव से चलते हुए तमाशा देखिए दुनियां श्वेत और श्याम नहीं बल्कि ग्रे है। तो अभी के लिए तत्काल बस इतना कि<br />
काया का क्यों रे गुमान काया तोरी माटी की</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-48499517148254026552018-02-07T17:15:00.001+05:302018-02-07T17:15:36.813+05:30भावनाएं : कलाकार, कला और समाज की भावना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक फ़िल्म के लिए लोग मरने-मारने पर उतारू हैं। कानून व्यवस्था और संविधान को ताक पर रखकर भावना के नाम पर गुंडई कर रहे हैं। इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों को तालिबानी मूल्य में बदलते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आती और वोट बैंक की पॉलिटिक्स के चक्कर में रखवाले लोग मूक तमाशा देख रहे हैं। न्यायाधीश चीख़-चीख़कर कह रहे हैं कि यह सही नहीं है लेकिन उसकी परवाह करने का समय किसके पास है!<br />
कोई भी लोकतांत्रिक देश कानून व्यवस्था और मेहनतकशों की मेहनत से संचालित होती है, ना कि जाति, समुदाय या धर्म की मूर्खतापूर्ण आस्थाओं से। आस्था में भावना का तड़का लगाकर सदियों से लोग आतंकवाद को बढ़ावा देते आए हैं। अब हद यह हो गई है कि देश के शीर्ष पदों पर विद्दमान लोग भी आस्था और भावना का नंगा नाच नाच रहे हैं। मुख्यमंत्री फ़िल्म बैन करते हैं तो प्रधानमंत्री मौनव्रत धारण कर लेते हैं। तत्काल मामला संजय लीला भंसाली की फ़िल्म पद्मावत का है जो जायसी के काव्य पर आधारित मूलतः एक काल्पनिक गाथा ही है। जायसी के काव्य को आधार बनाकर पहले भी फ़िल्म बनी है। एक तो मणिकौल की ही लघु फ़िल्म है उसका नाम ‘द क्लाऊड डोर’। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले स्वयं मणिकौल ने लिखा है जो प्रसिद्ध नाटककार भाष के नाटक अविमारका और मोहम्मद जायसी का काव्य पद्मावत पर आधारित है। मणि की यह फ़िल्म इरोटिक है जो कामसूत्रा के इस देश में सहज ग्राह्य नहीं है। वैसे भी हम कम्बल के नीचे से घी पीने के लिए कुख्यात हैं, कम्बल के बाहर से घी पीने पर हमारी भावनाएं आहत हो जाती है। लगभग 23 मिनट की यह फ़िल्म यूट्यूब पर मुफ़्त में उपलब्ध है, पोस्ट के अंत में लिंक दे रहा हूँ - देख सकते हैं। फ़िल्म अपने बुद्धि-विवेक से देखिएगा क्योंकि फ़िल्म न्यूड़ सीन से भरपूर है। वैसे मणिकौल की काव्यत्मक सिनेमा को समझना साधारण दिमाग के वश की बात नहीं है।<br />
इस फ़िल्म की एक और ख़ास बात है इस फ़िल्म की अभिनेत्री अनु अग्रवाल। उसने जिस सहजता से इस फ़िल्म को किया है वो काबिलेतारीफ है। वैसे अनु अग्रवाल का चेहरा तो याद ही होगा। नहीं याद तो सन <br />
1990 में आई फ़िल्म ‘आशिकी’ को याद कर लीजिए। 90 के दशक में महेश भट्ट की यह फ़िल्म सुपर डुपर हिट थी और राहुल रॉय और अनु अग्रवाल प्रेमी-प्रेमिकाओं के आदर्श चेहरे हो गए थे जिन्होंने उस वक्त लोगों को प्यार करने का एक नया अंदाज़ सिखाया था। उस फ़िल्म के समीर के लिखे और नदीम-श्रवण के संगीतबद्ध किए गीत चाहे वो जान इ ज़िगर जानेमन , मैं दुनिया भुला दूंगा तेरी चाहत में, बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए, नज़र के सामने, धीरे धीरे से मेरी ज़िन्दगी में आना , मेरा दिल तेरे लिए, तू मेरी ज़िन्दगी है, दिल का आलम मैं क्या बताऊँ तुझे संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करते हैं।<br />
इन्हें सुनते ही हमारे सामने अनु अग्रवाल और राहुल रॉय का चेहरा अपने आप सामने आ जाता है. लेकिन फिल्मी दुनियां जितना चमकदार होती है काश सच में उसमें इतनी चमक होती। अब अनु अग्रवाल की ही कहानी ले लीजिए।<br />
11 जनवरी 1969 को दिल्ली में जन्मी अनु अग्रवाल उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र की पढ़ाई कर रही थीं, जब महेश भट्ट ने उन्हें अपनी आने वाली संगीतमय फ़िल्म ‘आशिकी’ में पहला ब्रेक दिया। उस वक्त उनकी उम्र महज 21 वर्ष थी। फ़िल्म बम्पर हिट रही लेकिन बाद में उनकी ‘गजब तमाशा’, ‘खलनायिका’, ‘किंग अंकल’, ‘कन्यादान’ और ‘रिटर्न टू ज्वेल थीफ़’ फिल्में कब पर्दे पर आईं और कब चली गईं, पता ही नहीं चला। उन्होंने एक तमिल फ़िल्म ‘थिरुदा-थिरुदा’ में भी काम किया। 1996 के बाद अनु एकाएक बड़े पर्दे से गायब हो गईं और उन्होंने योग और अध्यात्म की तरफ़ रुख कर लिया था।<br />
1999 में उनके साथ एक सड़क दुघटर्ना घटित हुई जिसने अनु के जीवन की गाड़ी को एक पटरी से उठाकर दूसरी पटरी पर रख दिया। इस हादसे ने न सिर्फ़ उनकी याददाश्त को प्रभावित किया, बल्कि उन्हें चलने फिरने में भी अक्षम (पैरालाइज़्ड) कर दिया। 29 दिनों तक कोमा में रहने के बाद जब अनु होश में आईं, तो वह खुद को पूरी तरह से भूल चुकी थी। लगभग 3 वर्ष चले लंबे उपचार के बाद वे अपनी धुंधली यादों को जानने में सफ़ल हो पाईं। इसके बाद उन्होंने अपनी संपत्ति त्याग कर सन्यास की ओर रुख किया। हाल ही में अनु अपनी आत्मकथा 'अनयूजवल: मेमोइर ऑफ़ ए गर्ल हू केम बैक फ्रॉम डेड' को लेकर दुबारा से चर्चा के केंद्र में आईं थी. यह आत्मकथा उस लड़की है जिसकी ज़िंदगी कई टुकड़ों में बंट गई थी और बाद में उसने खुद ही उन टुकड़ों को एक कहानी की तरह जोड़ा है। इसमें फ़िल्म उद्योग के कई स्याह पन्ने भी शामिल हैं जो केवल उगते सूरज को ही सलाम करने की आदत पाले बैठा है। वर्तमान में अनु अग्रवाल झुग्गियों के बच्चों को नि:शुल्क योगा सिखाती है। फिल्मी दुनियां ही नहीं बल्कि साहित्य, रंगमंच आदि ऐसी कहानियों से भरी पड़ी हैं जिनकी सुधबुध लेनेवाला कोई नहीं - न सरकार, न कोई जाति और ना ही कोई समुदाय इनके लिए आंदोलन करता है और ना ही किसी की भावना ही आहत होती है। बहरहाल, अनु अग्रवाल अभिनीत मणिकौल की फ़िल्म "द क्लाऊड डोर" का लिंक यह रहा। हां, इस फ़िल्म के एक शॉर्ट में इरफ़ान खान भी नज़र आएगें - सोते हुए।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-68506955131406957942018-01-25T00:13:00.002+05:302018-01-25T09:37:48.893+05:30हिंदी रंगमंच की मूल समस्या - भाग दो <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उदारीकरण के बाद विभिन्न सरकारी या गैरसरकारी अनुदानों के तहत कुछ पैसों का आगमन रंगमंच में हुआ है। यह पैसे क्यों बांटे जा रहे हैं, यह एक राजनैतिक खेल है जो इतनी आसानी से समझ में नहीं आनेवाला। एक पुरानी कहावत है, कह देता हूँ - समझ में आ जाए तो ठीक और ना आए तो भी ठीक - "किसी को बेकार बनाना हो तो उसे ख़ैरात की आदत डाल दो।" फिर क्या है वो ख़ुद की सलाम बजाने को तैयार रहेगा।<br />
ख़ैर, इस प्रक्रिया में कुछ का भला भी हुआ है। कुछ की दाल रोटी चल गई है, तो कुछ के घर में सामान बढ़ गए हैं, कुछ ने नई बाइक ले ली है, कुछ के घर में नल की टंकी लग गई है, कुछ के दादा बढ़ गए हैं तो कुछ के चमचे बढ़ गए हैं, तो कुछ ने कुछ बेहतरीन नाटक भी किए हैं। लेकिन साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उग आए हैं जिनका दूर-दूर तक कोई भी सरोकार ना कभी रंगमंच से रहा है और ना है। वो रंगमंच के "शुभचिंतक" के रूप में अवतरित हुए हैं और दिन रात इन अनुदानों की वेबसाइट की ख़ाक छानते और अप्लाई करते रहते हैं। रंगमंच के विकास के लिए आए इस पैसे से ये कौन सा विकास कर रहे हैं यह बात जग ज़ाहिर है! वैसे सरल भाषा में इन्हें परजीवी कहते हैं।<br />
साथ ही यह भी एक आम चलन और हर अड्डे पर सुनने को मिल जाता है कि रंग-समूह का मुखिया रंगमंडल ग्रांट के तहत मिलनेवाले अभिनेताओं का पैसा विभिन्न कुतर्कों को देकर डकार जाता है। ऐसा बहुत कम ही समूह है जो पैसे का हिसाब साफ़-साफ़ और सार्वजनिक रखता हो और अभिनेता को महीने का पूरा पैसा देता हो। जो भी समूह ऐसा कर रहा है उसे मेरा सलाम। बहरहाल, क्या इसके लिए केवल उस ग्रुप का मुखिया ही ज़िम्मेदार है? क्या अभिनेता या बाकी लोग उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं जो केवल अपना स्वार्थ देखते हैं? 6 हज़ार की जगह 2 या 3 हज़ार पाकर 6 हज़ार के कागज़ पर या ख़ाली पन्ने पर साइन करते हैं और जबतक आपको यह पैसा मिलता रहता है तबतक सब ठीक और जब किसी वजह से नहीं मिलता तब "क्रांतिकारी" हो जाते हैं या फिर किसी और मुखिया को खोजने लगते हैं जो अनुदान के चंद टुकड़े आपके मुंह में डाल सके और साथ ही समय-समय पर चाय-पानी या मुर्गा-दारू की व्यवस्था भी देख ले। चाहे रंगमंडल अनुदान हो या व्यक्तिगत अनुदान शुरू में ही एक कानूनी एग्रीमेंट पेपर पर साइन क्यों नहीं होता, यह बात समझ के परे तो बिल्कुल ही नहीं है!<br />
मैं ऐसा कहके अभिनेताओं के मजबूरियों पर कटाक्ष नहीं कर रहा हूँ और ना ही उन निर्देशकों पर उंगली ही उठा रहा हूँ जो अपनी पूरी ऊर्जा रंगमंच की भावी पीढ़ी को गढ़ने में खर्च कर रहे हैं। मैं ख़ुद एक अभिनेता-निर्देशक हूँ और हिंदी रंगमंच में मैंने एक अभिनेता-निर्देशक होने की पीड़ा और अकेलेपन को बड़े ही शिद्दत से महसूस किया ही नहीं बल्कि कर रहा हूँ। बहुत अच्छे और खरे लोग भी मिले लेकिन कुछ ऐसे निर्देशकों और आयोजकों से भी पाला पड़ा है जो काम कराकर पैसे देने भूल गए हैं या फिर बार-बार मांगने पर एहसानी मुद्रा में पैसे दिए हैं। कुछ बेचारे ने तो बेशर्मी की हद पार करते हुए ना केवल पैसे डकारे बल्कि यह कोशिश भी की कि बतौर कलाकार मेरा वजूद ही ख़त्म हो जाए! लेकिन ग़लती मेरी ही थी कि मैंने "दोस्ती-यारी" के चक्कर में आकर इन कार्यों को अंजाम दिया था। मुझे पहले ही दिन से सबकुछ साफ़-साफ़ बात करना चाहिए था, फिर उस निर्देशक को अच्छा लगता तो मेरे साथ काम करता, नहीं अच्छा लगता तो न करता। बहरहाल, ग़लती करना कोई गुनाह नहीं है बल्कि एक ग़लती को दुहराना गुनाह है। अब अगर कोई भी मेरे साथ काम करना चाहता है तो उसे मेरी फीस पहले तय करनी पड़ती है। हां, उन गुरुओं के लिए मैं आज भी सहज और फ्री में उपलब्ध हूँ जिन्होने मेरी उंगली पकड़कर मुझे इस महान कला के क्षेत्र में चलना सिखलाया है और उन दोस्तों के लिए भी जो दोस्ती का अर्थ जानते हैं या फिर उन लोगों के लिए भी जो एक मुहिम के तहत सामाजिक सरोकार से लैश होकर "सेवाभाव" से रंगकर्म कर रहे हैं और नए साथियों के लिए तो मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा ही खुले हैं।<br />
एक सच्चे कलाकार को हर क़ीमत पर अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना ही चाहिए। बाद में हाय-हाय करने से बेहतर है कि पहले ही दूध का दूध और पानी का पानी कर लिया जाय। रीढ़ की हड्डी सीधी रखो मेरे अभिनेता/अभिनेत्री मित्रों; क्योंकि ग़लत का साथ देना भी ग़लत ही कहलाता है। आप इस्तेमाल करके दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंक दिए जाओ इससे पहले ही सचेत हो जाओ। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए खूब मेहनत से अपने को गढ़ों। बौद्धिक, शारीरिक और रचनात्मक रूप से अपने को खूब लगन और किसी अच्छे मार्गदर्शक के सानिध्य में तैयार करो। इस क़ाबिल बनो कि लोगों को आपकी क़ाबिलियत पर फ़क्र हो। झूठी प्रशंसा और फ़र्ज़ी निंदा से अपने को सचेत रखो। अपने काम का सही-सही और सत्य से आंकलन तुम खुद करो। दुनियां भर की चीज़ें देखों, सुनो, पढ़ों और ख़ूब चिंतन करो। साथ ही रंगमंच एक सामूहिक कार्य है तो समूह के हर कार्य में अपना रचनात्मक और सक्रिय योगदान दो। किसी के भी पीछे मत भागो बल्कि उसकी अच्छी बातों को आत्मसात और बुरी बातों को त्याग कर उसके आगे या कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जोश भरो - अपने अंदर। किसी भी ऐसे इंसान चाहे वो कितना भी पहुँचवाला क्यों ना हो, का साथ छोड़ दो जिसके पास अपने लिए अलग और तुम्हारे लिए अलग संविधान हो। एक सच्चा मार्गदर्शक अपने शागिर्दों को हर तरह से रचनात्मक बनाता है पिछलग्गू नहीं।<br />
जैसी दुनियां, रंगमंच या समूह तुम्हें चाहिए - गढ़ो - रोका किसने है ? कोशिश करो, अपने लिए कुछ ना गढ़ पाए तो भावी पीढ़ी के लिए तो कुछ ना कुछ सार्थक कर ही जाओगे। बस इतना ख्याल रखना कि तुम्हारी दुनियां ऐसी हो जहां कोई मनुष्य किसी और मनुष्य का शोषण ना कर रहा हो। </div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-71007075407750690822018-01-24T07:05:00.002+05:302018-01-24T07:05:40.978+05:30हिंदी रंगमंच की मूल समस्या !!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हिंदी रंगमंच की मूल समस्या उसका गैरपेशेवर चरित्र है। दूसरे किसी भी पेशा को लीजिए, उस पेशे को अपना व्यवसाय बनानेवाला व्यक्ति ज़्यादा से ज़्यादा वक्त उस पेशे में देता है और उस पेशे को व उस पेशे के लिए ख़ुद को बेहतर से बेहतर बनाने का प्रयत्न करता है।<br />
जाड़ा हो, गर्मी हो, बरसात हो : एक चाय बेचनेवाला इंसान सुबह 6 बजे से पहले अपनी दुकान पर आ जाता है और देर रात तक चाय बेचता रहता है, तब वो उस पेशे से अपना और अपने परिवार का किसी प्रकार भरण-पोषण कर पाता है। वो पैसे के लिए सरकार या किसी और के पास हाथ नहीं फैलाता, किसी अड्डे पर जाकर समय काटने के लिए घंटे भर फालतू के गप्पें नहीं मरता बल्कि जो कुछ भी कमाना होता है, अपने पेशे से कमाता है। जितना भी वक्त बिताना होता है अपने पेशे के साथ बिताता है। दुनियां का वो कोई भी इंसान जो पेशेवर है उसके पास फालतू का वक्त होता ही नहीं। यहां तो आलम यह है कि फालतू के वक्त में से एकाध घंटे नाटक-वाटक भी कर लिए। <br />
कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी का अधिकार रंगकर्मी व्यवहारिक रूप से दिनभर में रोज़ 2 घंटे भी अपने पेशे को नहीं देता। ना ढंग का कोई अभ्यास करता है, ना प्रशिक्षण में रुचि है (बल्कि प्रशिक्षण और प्रशिक्षित लोगों के प्रति हेय दृष्टिकोण है) और ना ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास में (बल्कि अज्ञानता का घमंड है) : बस कुछ जुगाड़ और जोड़-तोड़ करके साल में जैसे-तैसे कुछ नाटक खेलना है। मेरा नाटक तुम देखो, तुम्हारा नाटक हम देखेंगे। मेरे नाटक में ताली तुम पीटो, तुम्हारे में हम पीटेंगे! मुझे तुम पुरस्कार दो, हम तुम्हें पुरस्कृत करेगें। अपने नाट्योत्सव में तुम हमें बुलाओ, हम तुम्हें बुलाएगें। तुम हमें महान घोषित करो, हम तुम्हें महानता का तमगा देगें। और कोई एकाध अगर कुछ थोड़ा बहुत बेहतर करने की चेष्टा कर रहा है तो उसे कुज़ात घोषित कर दो और ऐसे माहौल बना दो कि मानसिक टॉर्चर होता रहे। इससे क्या हासिल होगा - आत्ममुग्धता, कुछ तालियां, कुछ गालियां और कुछ झूठी - सच्ची हाय-हाय, वाह-वाह के सिवा ?<br />
इस दृष्टिकोण को दूर कर पेशेवर बनने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। जानता हूँ इसमें बहुत वक्त लगेगा लेकिन पूरी ईमानदारी से गंभीरतापूर्वक प्रयास हुआ तो कुछ भी असंभव नहीं। भले ही हम अपने लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाएं लेकिन हम भावी पीढ़ी के लिए एक सुंदर जगह ज़रूर छोड़ जाएगें जहां वो बड़ी आसानी से रंगमंच को अपना पेश बना सकते हैं। 24 घंटे में किसी तरह 2 घंटे रंगमंच करने को रंगमंच करना नहीं कहते। यह बदलाव रंगमंच को पेशा बनानेवाले लोग ही कर सकते हैं, इसे शौकिया तौर पर करनेवालों का इसमें कोई रुचि नहीं है और हिंदी रंगमंच व्यवसायिक हो ही नहीं सकता का जाप भी करने लगेंगे क्योंकि उनकी दाल-रोटी, चिकन-मटन, घर-गाड़ी का जुगाड़ कहीं और से हुआ रहता है। प्रसिद्द जर्मन कवि रिल्के कहते हैं - "अपनी सारी इच्छाओं और मूल्यों कला को अपना आप समर्पित किए बिना कोई भी व्यक्ति किसी ऊंचे उद्देश्य तक नहीं पहुंच सकता। मैं कला को एक शहादत की तरह नहीं - एक युद्ध की तरह मानता हूं जहां कुछ चुनिंदा लोगों को अपने और अपने परिवेश के विरुद्ध लड़ना है ताकि वे शुद्ध मन से उच्चतम उद्देश्य तक पहुंच सकें और अपने उत्तराधिकारियों को खुले हाथों से यह सम्पदा सौंप सकें। ऐसा करने के लिए एक इंसान के समग्र जीवन की ज़रूरत है न कि थकान से भरे कुछ फुर्सती घंटों की।"<br />
इसलिए चाहे जैसे भी हो, रंगमंच को पेशा और पेशा को पेशेवर बनाने की ओर प्रयास होना चाहिए। कुछ चुनिंदा लोगों के गालों पर लाली और पेट पर चर्बी और एकाउंट में चंद रुपए आ जाने को पेशेवर होना नहीं कहते।<br />
दूसरे का इंतज़ार मत कीजिए क्योंकि इस देश की एक और समस्या यह है कि यहां लगभग हर व्यक्ति दूसरे को बदलने में लगा है ख़ुद को नहीं। तो क्यों ना ख़ुद से ही शुरुआत हो और जो भी मुसीबत आए उससे सीना तानकर भीड़ जाया जाय। जो होगा देखा जाएगा; वैसे भी कौन सा भला हो रहा है ? रंगमंच का समृद्ध इतिहास का जाप किस काम का है, वो तो चटनी बनाने के भी काम नहीं आएगा !</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-75592213026464425962018-01-21T17:43:00.002+05:302018-01-21T17:43:38.167+05:30अघोरी : जो घोर नहीं बल्कि सरल हैं।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भारत एक बहुलतावादी संस्कृति का देश है। यहां पग-पग पर पानी और वाणी बदल जाता है। कोई अगर किसी एक संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति मानता है तो यह उसकी मूढ़ता है या फिर वो बाकियों में मूढ़ता का प्रचार करके अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना चाहता है। नफ़रत के बीज के पोषक अमूमन यह कार्य करते हैं।<br />
इस मुल्क़ में बहुत से समुदाय एकदम भिन्न हैं। इन समुदायों के बारे में तथाकथित सभ्य समाज की जानकारी बहुत ही कम है और वो अमूमन उन्हें हीन भावना से भी देखता है। वैसे बिना जाने समझे पूजने या नफ़रत करने की एक समृद्ध भारतीय परम्परा रही है। विचार और व्यवहार का फर्क समझने की शक्ति तो कमतर है ही। हम कुतर्क करना तो बख़ूबी जानते हैं लेकिन मिथ्या भाषण या प्रचार और व्यवहारिक कार्य में फ़र्क को बड़ी मुश्किल से ही समझ पाते हैं। हमें ज्ञान के बजाय मूढ़ता का ही गुमान होता है और इसी मूढ़ता का फ़ायदा चंद चालक लोग बड़ी ही आसानी से उठा लेते हैं। बहरहाल, बात तो रही थी सांस्कृतिक भिन्नता की तो एक समुदाय है मसान योगियों का।<br />
जो मशान जगाता (कम से कम मान्यता तो यही है) है उसे मशान जोगी कहते हैं। हम अमूमन इन्हें अघोरी के नाम से जानते हैं और इनसे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि काल भैरव के ये उपासक तंत्र-मंत्र के काली विद्यायों में महारत हासिल रखते हैं। वैसे ऐतिहासिक रूप से इन योगियों की उत्पत्ति हैदराबाद के पूर्व निजाम के शासनकाल में माना जाता है। यह समुदाय पारंपरिक रूप से अंत्योष्टि से जुड़े धार्मिक कर्मकांड करनेवाला वर्ग माना जाता है। श्मशान ही इनका ठिकाना होता है और इनका जीवन दान-दक्षिणा से ही चलता है। श्मशान के उपासक मसान योगी श्मशान के देवता माने जाते हैं। ये ज्वालामुखी (चिता) की आग का इस्तेमाल करते हैं, इसीलिए कुछ समय पहले तक रसोई की आग इनके लिए पूर्णतः प्रतिबंधित थी। वैसे इनको लेकर आज भी एक रहस्यमय वातवरण ही है। वर्ष 2011 की जनगणना में इनकी कुल संख्या 27,000 दर्ज़ की गई है। वैसे बदले समय में इस समुदाय के कुछ लोग अब आम ज़िन्दगी का हिस्सा भी बनने लगे हैं।<br />
इस समुदाय के बारे में आज भी कई तरह की भ्रांतियां हैं। जिसका मूल आधार धर्म और अंधविश्वास ही है। अब एक भ्रांति यह है कि ये श्मशान को जागृत करते हैं और ये अपनी शक्ति से मृत व्यक्ति को भी जीवित कर सकते हैं। तंत्र-मंत्र साधना भी इनकी क्रियायों में शामिल हैं। जिसका लाभ किसको कैसे मिलता है, यह एक विचित्रता भरी परिकल्पना है। बहरहाल, इनके अनुसार शमशान को निम्नलिखित दस प्रकारों से जागृत किया जाता है -सफेदा ,यमदंड, सुकिया, फुलिया, हल्दिया कमेदिया, कीकिचिया, मिचमिचिया, सिलासिलिया, पिलिया। ये नाम उन 10 शक्तिशाली प्रेत शक्तियों के हैं जो कि शमशान साधना के अधिपति होते हैं। इनकी मान्यता के अनुसार इन्ही प्रेत शक्तियों के बल के माध्यम से श्मशान की ख़ामोशी में अभिचार कर्म, भूतप्रेत , पिशाच, बेताल, भैरव, आदि के मंत्र सिद्ध किये जाते हैं।<br />
इनके अनुसार शमाशान के सेनापति महिषासुर और धूम्रलोचन को माना जाता है और मुख्य गणश्मशान भैरव और रक्त चामुण्डा काली होती है। वैसे और मशान वीरों की भी सिद्धि की जाती हैं जिनका स्वरुप घनश्याम, भयानक, दीर्घ देह, बड़े बड़े केश और सघन बड़ी लोम्राशी, हाथ में वज्र और पाश, नग्न पाद, चमड़े की लंगोट धारण किये हुए है। ये दुनियां के बने बनाए नियम नहीं मानते और निषिद्ध से निषिद्ध चीज़ों को अपने भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।<br />
ये कई प्राकर के विचित्र साधना करते हैं। इनके अनुसार अघोर साधना, काल भैरव साधना, श्मशान जागरण साधना, आसन कीलने की साधना, उग्र काली साधना, 52 भैरव और 52 वीर और 56 कलुवा वीरों की साधना, महाउग्र तारा साधना, श्मशान काली साधना, मरघट चंडी साधना, तांत्रिक षट्कर्म आदि श्माशान में की जाने वाली प्रमुख साधनाएं है। इनके अतिरिक्त वीर साधन एक अति महत्वपूर्ण साधना है।<br />
फिल्मों, सीरियलों, दंतकथाओं आदि ने इनके बारे में इतने डरवाने छवि प्रस्तुत किए हैं कि किसी भी साधारण इंसान को इनके आस पास फटकने में भी भय घेर लेता है लेकिन कुछ समय इनके पास गुजारिए तो इनके आसपास रचा झूठ का तिलिस्म खंडित होने लगता है और पता चलता है कि ये भी हम और आपकी तरह एक साधारण मानव ही हैं और बड़े-बड़े तंत्र-मंत्र जानने और विचित्र-विचित्र कार्य को सम्पन्न करने का दावा प्रस्तुत करनेवाले इन अजीब वेशभूषा धारियों के आडम्बर के नीचे एक साधारण मानव का ही निवास है। वैसे भी अघोर का अर्थ समझाते हुए एक अघोरी कहते हैं - जो घोर नहीं बल्कि सरल हो।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-1164545476437227922017-11-13T20:04:00.002+05:302017-11-13T20:07:57.629+05:30पद्मावती : नकली आहत भावनाएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जो समाज जितना ज़्यादा डरा, सहमा, सामंती, नकली और कूढ़-मगज होता है; उसकी भावनाएं उतनी ज़्यादा आहत होती है। ज्ञानी आदमी कौआ और कान वाली घटना में पहले अपना कान छूता है ना कि कौए के पीछे दौड़ पड़ता है ।<br />
फ़िल्म इतिहास की किताबें नहीं होती। कोई भी सिनेमा कितना भी ऐतिहासिक होने का दवा प्रस्तुत करे लेकिन वो पूर्णरूपेण ऐतिहासिक तो कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि कोई भी कला चाहे वो कितना भी यथार्थवादी होने का भ्रम पैदा करे, यथार्थ और कल्पना के प्रयोग से जन्म लेता है। बिना काल्पनिकता का सहारा लिए किसी भी कला की उत्पत्ति संभव ही नहीं है, और फ़िल्म जैसी विधा का तो बिल्कुल ही नहीं। फ़िल्म का एक एक फ्रेम कल्पित किया जाता है और फिर अभिनय सहित कई अन्य माध्यमों से हर दृश्य में प्रभाव पैदा करने की चेष्टा की जाती है। इसलिए सिनेमा पूरी तरह से एक काल्पनिक माध्यम है। चरित्रों के नाम ऐतिहासिक रखना और कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को आत्मसाथ कर लेने मात्र से सिनेमा इतिहास की किताब नहीं हो जाती। जो लोग सिनेमा में इतिहास खोजते हैं वो मूढ़ हैं। इतिहास इतिहास की किताबों में खोजो, अगर किताबों से वास्ता हो तो। कुछ नहीं तो कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में पद्मावत ग्रंथ रूप में लिखी है, वही पढ़ लिया जाए। यह गर्व नहीं बल्कि शर्म की बात है कि अपने इज़्ज़त(?) की रक्षा के लिए किसी देश में स्त्रियों को जौहर (ख़ुद को ज़िंदा जला देना) करना पड़े। क्या किसी ने कभी यह सुना है कि किसी मर्द ने जौहर किया हो या अपनी पत्नी से साथ सती/सता हो गया हो? तो क्या इज़्ज़त केवल औरतों के पास होती हैं और मर्द इज़्ज़त का घोषित रखवाला या लूटेरा होता है? वैसे पद्मावती का इतिहास मिलना मुश्किल है। 1540 में लिखित जायसी के काव्य में इनका ज़िक्र आता है लेकिन यह इतिहास है या मिथ, पता नहीं। वैसे भी जायसी खिलजी के 240 साल बाद इस काव्य की रचना कर रहे होते हैं। लेकिन एक ऐसे देश में जहां ऐतिहासिक प्रमाणिकता के बजाय मिथ और विश्वास का स्थान ज़्यादा पवित्र माना जाता है वहां तर्क से ज़्यादा भक्ति का राज चलता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भक्ति के लिए मनुष्य मूर्खता की पराकाष्ठा पार कर सकता है।<br />
कोई भी फ़िल्म किसी ऐतिहासिक चरित्र, घटना आदि से जुड़ा नहीं कि इस देश में कोई ना कोई तबका हाय-हाय करने लगता है। इसीलिए आजतक इतिहास, ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं पर अमूमन लोग फ़िल्म या कलात्मक अभिव्यक्ति से बचते हैं। भैंस के आगे कौन बीन बजाए!<br />
वैसे दशरथ मांझी के ऊपर फ़िल्म बनी। निश्चित रूप से फ़िल्म एक फैंटेसी ही थी लेकिन किसी ने सुना कि माझी लोगों ने तलवार निकाल ली हो या फ़िल्म के ख़िलाफ़ कोई फतवा जारी किया हो या फ़िल्म के सेट को तोड़ा हो या कोट कचहरी के चक्कर लगाए हों। सच ही कहा है किसी ने कि रस्सी जल गई लेकिन ऐंठन नहीं गई। वैसे पता नहीं किस बात का ऐठन है? कई सौ साल मुगल राज किए, तो कई सौ साल अंग्रेज लूटते रहे देश को!!! आज भी भारत का लगभग पूरा मार्केट विदेशी कब्ज़े में है। सब इतने ही "सुपरहीरो" होते हैं तो फिर यह सब क्यों हुआ ?<br />
वैसे इस फ़िल्म के ट्रेलर देखें हैं। एक से एक वाहियात डॉयलोग हैं। माना कि सिनेमा लार्जर देन लाइफ़ माध्यम है लेकिन इतना संवादों भी वाहियातपना उचित नहीं।</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-69555495157686826492017-11-13T13:52:00.002+05:302017-11-13T13:52:19.518+05:30एक दूजे के लिए : दुनियां में प्यार की एक है बोली<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">फिल्में ट्रेंड पैदा करती हैं। किसी ज़माने में नाटक भी ट्रेंड पैदा किया करते थे। जगह-जगह अर्थात ऐतिहासिक इमारत, पहाड़, पेड़ आदि पर प्रेमी-प्रेमिका का नाम लिखा होने का ट्रेंड शायद जिस फ़िल्म ने पैदा किया वो फ़िल्म थी - एक दूजे के लिए। अब यह नोट पर फलां बेवफ़ा है लिखने का ट्रेंड किसने पैदा किया यह एक खोज का विषय हो सकता है।</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> </span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">पता नही यह विचार सही है या ग़लत कि नई के साथ-साथ पुरानी फिल्मों पर भी बात होनी चाहिए; क्योंकि नया जो कुछ भी होता है उसकी ज़मीन पुराने ने ही तैयार की होती है। वैसे कला में नया पुराना एक भ्रम मात्र ही है। चाहत तो यह भी है कि सिनेमा हॉल में नई के साथ ही साथ पुरानी फिल्मों का भी प्रदर्शन हो, क्योंकि सिनेमा हॉल में ही फ़िल्म देखने का असली मज़ा है, जैसे नाटक का असली मज़ा लाइव देखने में है रिकॉडिंग में नहीं। क्योंकि नाटक वाइड विजन का जीवंत और थ्री डी माध्यम है जबकि रिकॉर्डिंग में यह सब चीज़ें ग़ायब हो जातीं हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">कमल हसन भारतीय सिनेमा के मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक हैं, तो क्यों ना बात हिंदी फिल्म "एक दूजे के लिए" की कर ली जाय। इस फ़िल्म से कमल हसन, रति अग्निहोत्री, माधवी और गायक एस. पी. बालासुप्रमन्यम बतौर कलाकार हिंदी सिनेमा में पदार्पण कर रहे थे। कमल हसन भारत के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक हैं, लेकिन कुछ साल हिंदी फिल्मों में काम करने के पश्चात उन्होंने वापस साउथ लौटने में ही भलाई समझी। हिंदी फिल्म उद्योग ने इस कमाल के अभिनेता और प्रतिभा का उचित सम्मान नहीं किया। वैसे भी उस समय एक एक से वाहियात फिल्मों का बोलबाला था और स्टार कल्चर के चक्कर में एक से एक बेसिरपैर की फिल्मों का निर्माण हो रहा था। कह सकते हैं कि हिंदी सिनेमा का डार्क एज चल रहा था। ऐसे में कोई भी संवेदनशील और सम्भवनाओं से भरा कलाकार स्वर्ग की गुलामी से नर्क की पहरेदारी करने को ज़्यादा सम्मान देता। इस फ़िल्म के अन्य कलाकर थे सुनील थापा, रज़ा मुराद, अरविंद देशपांडे, राकेश बेदी, शुभा खोटे, मधु मालिनी, गीता, असरानी, सत्येन्द्र कपूर आदि। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">90 के दशक में फाइट मास्टर वीरू देवगन के बेटे अजय देवगन की फ़िल्म आई थी - फूल और कांटे। इस फ़िल्म के बाइक स्टंट ने सबको स्टंट कर दिया था क्योंकि यह बाइक स्टंट खुद अजय देवगन ने किए थे। लेकिन जिन्होंने एक दूजे के लिए फ़िल्म देखी है वो यह बात भली-भांति जानते हैं कि कमल हसन 1981 में बुलेट से एक से एक स्टंट दिखा चुके हैं। हॉलीवुड की फिल्मों में तो इस तरह के स्टंट कब के पुराने पड़ चुके थे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जैसा कि "एक दूजे के लिए" नाम से ही ज़ाहिर है कि यह फ़िल्म एक प्रेम कहानी है जिसके निर्देशक थे के. बालचंद्र। राष्ट्रीय सहित कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित इस फ़िल्म को स्वयं निर्देशक बालचंद्र और कमल हसन ने लिखा था। पद्मश्री सहित बहुत सारे सम्मानों से सम्मानित बालचंद्र अपनी फिल्में में नवाचार और स्त्री चरित्रों के छुईमुई और हीरो की कठपुतली बनाने के बजाय एक मजबूत इंसान के रूप में चित्रित करने के लिए जाने जाते हैं। इस फ़िल्म में भी सारे स्त्री चरित्र बहुत ही मजबूत हैं और किसी भी मर्द (पिता, भाई, पति, प्रेमी आदि) के सामने अपने फैसले पर अडिग रहने के साहस से लबरेज़ तथा तमाम चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत के साथ अकेली उपस्थित हैं। इनकी फिल्मों में कोई भी स्त्री चरित्र अपने को "मैं तुलसी तेरे आंगन की" के रूप में प्रस्तुत नहीं करती। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">एक दूजे के लिए इनके द्वारा निर्देशित तेलगु फ़िल्म मारो चरित्रा (1978) का हिंदी पुनर्निर्माण था। फ़िल्म ने ख़ूब व्यवसाय किया तो उसे हिंदी में भी बनाने का निर्णय किया गया। हिंदी में भी यह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट थी। कमल हसन और माधवी तेलगु और हिंदी दोनों में उपस्थित थे। कहा जाता है फ़िल्म ने उस वक्त लगभग 100 करोड़ का कारोबार किया था, लेकिन उस वक्त 100 करोड़ का इतना भयंकर शोर मचाने वाले लोग नहीं थे। शायद उस वक्त शोर से ज़्यादा शालीनता को तबज़्ज़ो दी जाती रही हो। वैसे भी कलात्मक मानसिकता यह कहता है कि सफल होने पर शालीनता और बढ़ जानी चाहिए जैसे मीठे फल से लदा पेड़ थोड़ा झुक जाता है। हाँ, खजूर हमेशा तना रहता है। कबीर कहते हैं - </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह एक मल्टीलिंगुअल फ़िल्म भी थी जिसका अंत दुखांत है। यानी नीम और करेला एक साथ परोसने का साहस, वो भी उन दर्शकों के समक्ष जिन्हें सुखांत अंत और सतही मनोरंजन की "स्पून फीडिंग" का रोग लगा दिया गया हो। वैसे तमाम विश्व प्रसिद्द प्रेम कहानियों का अंत दुखांत और अधूरापन ही है। ठीक अमीर खुसरो की इन पंक्तियों की तरह - </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">खुसरो दरिया प्रेम का जो उल्टी वाकि धार </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">फ़िल्म में भारतीयता में उपस्थित भाषा और संस्कृति की टकराहट भी है। साथ ही कठोर सच यह भी है कि राधा-कृष्ण को पूजानेवाला देश अपने व्यवहार में कितना प्रेम विरोधी है। फ़िल्म में प्रेम है, प्रेम की पराकाष्ठा आई और है एक दूसरे पर पुरज़ोर भरोसा के साथ मानवीय कमज़ोरियाँ भी। अंततः यह फ़िल्म ग़ालिब के एक शेर को भी साक्षात सिनेमाई रूपांतरण प्रदान करता है। शेर है - </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">दिल का क्या रंग करूं ख़ून जिगर होने तक</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">और फ़िल्म जब समाप्त होती है तो देखनेवाले किसी भी संवेदनशील हृदय में एक हूक सी पैदा कर जाती है और "हम तुम दोनों जब मिल जाएगें, एक नया इतिहास बनाएगें" नामक गीत को चरितार्थ कर जाता है। वैसे, फ़िल्म के संगीत में इस फ़िल्म की आत्मा बसी हुई है। क्या ख़ूब अमर गाने हैं - एक से एक। </span></div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87?source=feed_text&story_id=10155865743257328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">तेरे</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">मेरे बीच में कैसा है बंधन अनजाना</span><span style="color: #1d2129;"> </span></span></div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%B9%E0%A4%AE?source=feed_text&story_id=10155865743257328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">हम</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">तुम दोनों जब मिल जाएगें</span><span style="color: #1d2129;"> </span></span></div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87?source=feed_text&story_id=10155865743257328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">मेरे</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">जीवन साथी प्यार किए जा</span><span style="color: #1d2129;"> </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">#हम बने तुम बने एक दूजे के लिए </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">#तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना </span></div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%B9?source=feed_text&story_id=10155865743257328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">सोलह</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">बरस की बाली उमर को सलाम</span><span style="color: #1d2129;"> </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">इन गानों को लता मंगेश्कर, एस. पी. बालासुप्रमान्यम, अनुराधा पौडवाल और अनूप जलोटा ने आवाज़ दी थी। संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का था और गीत लिखे थे आनंद बक्षी ने। क्या ख़ूब अमर गीत लिखे थे जैसे फ़िल्म की आत्मा निचोडकर रख दिया हो आनंद बक्षी साहेब ने। कुछ पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए - </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">कितनी ज़ुबाने बोले लोग हमजोली</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">दुनियां में प्यार की एक है बोली</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बोले जो शमां परवाना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">वैसे संगीत का असली मज़ा तो सुनने में हैं। केवल "तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन" नामक गीत सुन लीजिए, फ़िल्म के बाकी संगीत अपने आप सुनिएगा - दावा है। वैसे यह गीत भारतीय फिल्म संगीत के महानतम गीतों में से एक है। यकीन नहीं है तो लता जी की आवाज़ में एक बार सुन भर लीजिए। पसंद ना आए तो आप अपना नाम संगीत प्रेमी की लिस्ट से फौरन काट लीजिए। एक बात और, इस गीत के लिए बक्षी साहब को फ़िल्म फेयर अवार्ड भी मिला था। फ़िल्म में गैर-हिन्दीभाषी गायक एस. पी. बालासुप्रमन्यम से गाना गवाने के पीछे भी तर्क है। फ़िल्म का नायक दक्षिण भारतीय है और वो पहले के घंटे तो हिंदी में कुछ बोलता ही नहीं है। तो ऐसे चरित्र के लिए गायक भी कोई ऐसा चाहिए था जिसकी हिंदी फिल्म के चरित्र के मेल खाती हो। इसलिए एस. पी. बालासुप्रमन्यम का चयन किया गया था। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह वैसी बेसिरपैर की फ़िल्म नहीं थी कि फ़िल्म के नायक-नायिका का वैसे तो नाचने गाने का कोई चारित्रिक संस्कार नहीं होता लेकिन गाना आते ही सुरीली आवाज़ निकलने लगती है और ख़ूब जम के नृत्य भी करने लगते हैं। कह सकते हैं कि अमूमन फिल्मों में गाने के दौरान अच्छे से अच्छा "स्टार" अपने चरित्र को छोड़ देता है। वैसे हिंदी फिल्मों में चरित्र कम लटके-झटके ज़्यादा देखने को मिलता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">फ़िल्म का एक और गीत "मेरे जीवन साथी प्यार किए जा" का अलग से ज़िक्र करना ज़रूरी है। इस गीत के बोलों में एक बहुत ही ख़ास बात यह है कि उसके बोल हिंदी फिल्मों के नाम (Title) लेकर लिखे गए हैं। यह अपनेआप में एक अनूठी बात है। भारतीय इतिहास में इस तरीक़े की मात्र एक रचना ही और मिलती है (कम से कम मेरी जानकारी में); वो है हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध रचनाकार श्रीलाल शुक्ल की अद्भुत कृति "राग-दरबारी" के नायिका बेला की रुप्पन बाबू को लिखी चिट्ठी। सच चिट्ठी की बात बाद में पहले फ़िल्म का यह गीत पढ़िए और सोचिए कि ऐसा क्या कोई दूसरा गीत है? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">वाह! वाह! स: हाँ हाँ ! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जवानी दीवानी </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">खूबसुरत, ज़िद्दी पड़ोसन </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सत्यम शिवम सुंदरम, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सत्यम शिवम सुंदरम सत्यम शिवम सुंदरम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">झूठा कहीं का! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हाँ, हरे रामा हरे कृष्ना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">धत! चार सौ बीस, आवारा! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">दिल ही तो है </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">है! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आशिक़ हूँ बहारों का, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तेरे मेरे सपने, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तेरे घर के सामने, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आमने सामने, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">शादी के बाद! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">शादी के बाद? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ओ बाप रे! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हां हां हां, हां! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हमारे तुम्हारे! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">क्या? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मुन्ना, गुड्डी, टिंकू, मिली, शिन शिनाकी बूबला बू, खेल खेल में शोर! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">शोर, शोर ... </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">भूल गये? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जाॅनी मेरा नाम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">अच्छा? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चोरी मेरा काम, जाॅनी मेरा नाम, ओ, चोरी मेरा काम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ओ! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">राम और श्याम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">धत, बंडलबाज़! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">लड़की, मिलन, गीत गाता चल, प्यार का मौसम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बेशरम! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आहा हाहाहाहा! प्यार का मौसम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बेशरम ... स: सत्यम शिवम सुंदरम, सत्यम शिवम सुंदरम सत्यम शिवम सुंदरम मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा अनु: जा जा! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हा हा! इश्क़ इश्क़ इश्क़ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">Bluff master. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ये रास्ते हैं प्यार के, चलते चलते, मेरे हमसफ़र </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आह! स: हमसफ़र, दिल तेरा दीवाना, दीवाना मस्ताना, छलिया, अंजाना पगला कहीं का! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">छलिया, अंजाना, आशिक़ बेगाना, लोफ़र, अनाड़ी बढ़ती का नाम दाढ़ि, चलति का नाम गाड़ी - जब प्यार किसी से होता है, ये सनम </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ओ हो! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जब याद किसी की आती है, जनेमन </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सच? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बंधन, कंगन, चंदन, झूला, चंदन, कंगन, बंदन, झूला, बंदन झूला, कंगन झूला, चंदन झूला, झूला झूला झूला झूला दिल दिया दर्द लिया, झनक झनक पायल बाजे, छम छमा छम गीत गाया पत्थरों ने, सरगम, सत्यम शिवम सुंदरम सत्यम शिवम सुंदरम, सत्यम शिवम सुंदरम स: मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा अनु: चल चल! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जवानी दिवानी, खूबसुरत, ज़िद्दी, पड़ोसन सत्यम शिवम सुंदरम, सत्यम शिवम सुंदरम Sing with me come on! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ला ला ला ला ला ला स: come on! good! </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">स: ला ला ला ला ला ला</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">अब बताइए, गाने की ऐसी लिरिक्स कहीं पढ़ी है? अब रही राग दरबारी की यह चिट्ठी। इस चिट्ठी में शुक्ल जी ने फ़िल्मी गीतों के बोल का प्रयोग किया है। जो भी लोग राग दरबारी पढ़ चुके हैं वो इस चिट्ठी से भली परिचित हैं। जो नहीं पढ़ें हैं उनके लिए वो चिट्ठी यह रही - </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ओ सजना, बेदर्दी बालमा, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तुमको मेरा मन याद करता है। पर ... चाँद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर। वह बेचारा दूर से ही देखे करे न कोई शो। तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो। याद मे तेरी जाग-जाग के हम रात – भर करवटें बदलते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">अब तो मेरी यह हालत हो गई है कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए। देखो न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया। और तुम हो कि कभी उड जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया का खोले ना। मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको छिपाने की बुरी आदत है। कहीं दीप जले कहीं दिल, ज़रा देख तो आके परवाने। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं। ये सुलगते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ। मुहब्बत लूटाने को जी चाहता हैं। पर मेरा नादान बलमा न जाने दिल की बात। इसलिए मैं उस दिन तुमसे मिलने आई थी। पिया मिलन को जाना। अंधेरी रात। मेरी चाँदनी बिछुड़ गई, मेरे घर पे पड़ा अँधियारा था। मैं तुमसे यही कहना चाहती थी, मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए। बस, एहसान तेरा होगा मुझ पर मुझे पलकों की छाँव में रहने दो। पर जमाने का दस्तूर है यह पुराना, किसी को गिराना किसी को मिटाना। मैं तुम्हारी छत पर पहुंचती पर वहाँ तुमरे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था। मैं लाज के मारे मर गई। आंधियों, मुझ पर हंसों, मेरी मुहब्बत पर हंसों।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो। तुम कब तक तड़पाओगे? तड़पाओगे? तड़पा लो, हम तड़प-तड़पके भी तुम्हारे गीत गाएँगे। तुमसे जल्दी मिलना है। क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मंदिर सूना है। अकेले हैं, चले आओ जहां हो तुम। लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो। यही तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए, हाय। हम आस लगाए बैठे हैं। देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तुम्हारी याद में, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">कोई एक पागल।</span></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह दोनों रचनाएं भारतीय साहित्य (फिल्मी लेखन भी साहित्य है) की अद्भुत और अनूठी रचना है। राग दरबारी 1968 में लिखी गई थी और एक दूजे के लिए फ़िल्म बनी 1981 में। अब फ़िल्म के यह गाना राग दरबारी की उस चिट्ठी से प्रभावित थी या नहीं इसका शायद ही। कहीं कोई प्रमाण मिले! वैसे थी तब भी अच्छी और नहीं थी तब भी। रचनात्मक लोगों का एक-दूसरे से प्रभावित होने कोई आश्चर्य की बात नहीं है।</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> </span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
बहरहाल, इस फ़िल्म पर कहने को बहुत सारी बातें और हैं मसलन संपादन, गोवा का सुंदर और खतरनाक फिल्मांकन, संवाद और अभिनय आदि। लेकिन बात उतनी ही करनी या कहनी चाहिए जितने में कि बात की शालीनता बनी रहे। तो अब बात बंद और आपने यदि यह फ़िल्म नहीं देखी है तो देख लीजिए यूट्यूब पर मुफ़्त में उपलब्ध है, और यदि देखी है तो एक बार और देख लीजिए शायद कुछ नया मिल जाए।</div>
</span></div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-17650633925145382632017-11-13T13:46:00.001+05:302017-11-13T13:46:18.516+05:30फ़िल्म इत्तेफ़ाक : हर इत्तेफ़ाक़ महज इत्तेफाक नहीं होती !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह सच है कि कलाकार एक दूसरे की कला से प्रभावित होते हैं, यह एक स्वाभविक प्रक्रिया है; लेकिन प्रभाव के साथ ही साथ चुपके से नकल कर लेना हिंदी सिनेमा की महत्वपूर्ण आदत रही है। यह सब आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से हो रहा है। तब इंटरनेट का ज़माना नहीं था, और आम दर्शकों की पहुंच विश्व सिनेमा तक नहीं थी। उनके सामने जो कुछ भी परोसा जाता था, वो उसे ही असली मानकर देखने या झेलने को अभिशप्त थे। जहां तक सवाल फ़िल्मी पत्रकारिता का है तो वहां अमूमन मूढ़ता की स्थिति ही है, उसे सच्चाई से ज़्यादा गॉशिप से प्यार है और समीक्षा का है और वो भी हिंदी में तो उसकी हालत गंभीर रूप से नाजुक है। ख़ैर, इंटरनेट के आगमन ने बड़े - बड़ों की पोल खोलके रख दी है; वो चाहे लेखक हों, निर्देशक हों, संगीत परिकल्पक हों, या अभिनेता। अब तो फ़िल्म प्रदर्शित होते ही कथा-कहानी ही नहीं बल्कि फ्रेम तक कहाँ से कॉपी मारा गया है - ट्रोल करने लगता है।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; margin-top: 6px;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हॉलीवुड में सन 1965 में George Englundand के निर्देशन में Signpost to Murder नामक एक सस्पेंस-थ्रिलर फिल्म बनती है। यह फ़िल्म Monte Doyle नामक एक नाटककार के नाटक से प्रेरित था, जिसे Sally Benson नामक लेखक ने लिखा था। इस फ़िल्म में Joanne Woodward, Stuart Whitman, Edward Mulhare, Alan Napier, Joyce Worsley and Leslie Denison नामक कलाकारों ने अभिनय किया था। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह फ़िल्म सन 1969 में हिंदी में बनी इत्तेफ़ाक नाम से। फ़िल्म के निर्माता थे बी. आर. चोपड़ा और निर्देशक थे यश चोपड़ा। अब यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है कि आज चोपड़ा फैमली हिंदी सिनेमा में एक प्रतिष्ठित घराने का नाम है! बहरहाल, इस फ़िल्म में राजेश खन्ना के साथ नंदा, मदन पूरी, बिंदु,सुजीत कुमार और इफ़्तिख़ार आदि ने काम किया था। फ़िल्म में सबने एक से एक वाहियात अभिनय किया है। किन्तु वो राजेश खन्ना के दौर था और संस्पेंस-थ्रिलर का तड़का तो फ़िल्म साधारण कामयाबी हासिल करने में सफल रही थी। वैसे इस फ़िल्म को देखने के बाद यह यक़ीन करना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि वो वही राजेश खन्ना हैं जो आनंद और बाबरची जैसी फिल्मों में शानदार अभिनय करेंगें। पूरी फिल्म अजीब है और अंत तो सबसे अजीब। फिल्म में एक भी गाना नहीं था जबकि फ़िल्म के संगीत निर्देशक थे मशहूर संगीतकार सलिल चौधरी और लेखक के रूप में G.R. Kamath का नाम भी आता है। फ़िल्म 10 नवम्बर 1969 को प्रदर्शित हुई थी। फ़िल्म ने बेहतरीन निर्देशन और पार्श्वसंगीत का अवार्ड भी जीता था! अब यह पता लगाना चाहिए कि फ़िल्म में शानदार निर्देशन के नाम पर ऐसा क्या था कि उसे बेहतरीन निर्देशन का सम्मान मिला। वैसे इस फ़िल्म का पार्श्वसंगीत निहायत ही ख़राब है और संगीत के नाम पर बड़ा ही बचकाना शोर पैदा किया गया है। उस वक्त का तो पता नहीं लेकिन आज जब वो फ़िल्म देखिए तो कई जगह पार्श्व संगीत के आने पर शोर इस क़दर बढ़ जाता है कि कान बंद करना पड़ता है। वैसे इस फ़िल्म से पहले इस कथ्य पर आधारित एक गुजराती नाटक भी खेला गया था। अब इस फ़िल्म और नाटक ने हॉलीवुड की फ़िल्म Signpost to Murder के राइट्स ख़रीदे थे या नहीं, इसकी कोई ख़ास जानकारी नहीं मिल पाती। ख़ैर, अपने यहां तो नक़ल को भी एक कला ही माना जाता है और ऐसे निर्माताओं-निर्देशकों की कोई कमी नहीं जो किसी फ़िल्म की सीडी या कैसेट पकड़कर लेखक को पटकथा और संवाद लिखने को कहते हैं और फिर उसे लगभग फ्रेम बाई फ्रेम शूट कर लेते हैं। और लेखक इतने बेशर्म कि पटकथा केके नीचे अपना नाम लिखते हैं। यह सब इत्तेफ़ाक से नहीं बल्कि जानबूझकर किया जाता है। कई बार प्रभावित होने की बात को स्वीकार कर लिया जाता है तो कई बार निर्माता-निर्देशक बेशर्मी से कह देता है कि मैंने फलां फ़िल्म अबतक देखी ही नहीं है और यदि मेरी फिल्म से उस फिल्म का कोई मेल है तो वह महज एक इत्तेफ़ाक है। गुलज़ार जैसे संवेदनशील कवि भी अपनी फिल्म परिचय को हॉलीवुड की फ़िल्म Sound of music के प्रभाव को आजतक स्वीकार नहीं करते। ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। बहरहाल, वर्तमान में उस पुराने इत्तेफ़ाक का भी पुनर्निर्माण हुआ है, जिसका प्रदर्शन गत 3 November 2017 को हुआ है। इस बार निर्माता हैं प्रतिष्ठित शाहरुख खान, गौरी खान और कारण जौहर, और इसे निर्देशित किया है अभय चोपड़ा (चौपड़ा फैमिली) ने। फ़िल्म में अक्षय खन्ना, सोनाक्षी सिन्हा और सिद्धार्थ मल्होत्रा ने काम किया है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">फ़िल्म उद्योग में लेखकों और मूलकथा का घोर अभाव है; जबकि भारत किस्से-कहानियों और एक से एक साहित्य के भंडार का देश है। इस बीमारी के लिए कई सारे कारक हैं, जिसमें सबसे बड़ी बीमारी है लकीर का फ़क़ीर होना। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">पटकथा किसी भी फ़िल्म कला की रीढ़ होती है लेकिन यहां कला किसको निर्मित करना है? अमूमन सबको बस हिट फ़िल्म बनानी है, जैसे भी। वैसे एक टैग याद आ रहा है - नकल से सावधान!</span></div>
</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-5942594120031937812017-11-13T13:44:00.001+05:302017-11-13T13:44:15.517+05:30रिबन : एक अनछुआ प्रयास<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हिंदी सिनेमा की मूल समस्या कथ्य की है। यहां अमूमन वही घिसा पीटा फॉर्मूला थोड़े फेर बदल के साथ चलता/बनता है और अमूमन फिल्में उसके आस पास गोल-गोल चक्कर काटती रहती हैं; जबकि भारत में इतने किस्से कहानियां हैं और इतना घटनाप्रधान देश है कि लाखों फिल्में बने तो भी कहानी का ख़जाना ख़त्म ना हो कभी; और रही सही कसर स्टार कल्चर ने पूरी कर दी है। वो अमूमन लटके झटकों को ही कलाकारी मनवा बैठे हैं। ऐसे वक्त में किसी भी अनछुए पहलु पर फ़िल्म बनाने की परिकल्पना ही अपने आप में एक साहसिकता भरा क़दम है और रिबन हर प्रकार से एक साहसिक प्रयोग है। यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि "मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन" के वाहियात कसौटी ने सिनेमा के दर्शकों का जायका इतना ख़राब कर दिया है कि उसे कोई भी अर्थवान सिनेमा "बोर" करने लगा है। रिबन के साथ भी यदि भारतीय दर्शक यही व्यवहार करें तो आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। रिबन की गति मंथर है और फिल्मांकन सादगीपूर्ण तथा रोज़मर्रा के संवाद और संवेदना। ना कोई स्टार कास्ट है और ना ही हीरो-हीरोइन के लटके झटके और आइटम नंबर और ना ही तालीबजाऊ कोई संवाद या दृश्य। फ़िल्म और फिल्मांकन की आत्मा ही यह सादगी और उसके पीछे छोटे-बड़े तनाव है। इसकी कथा बहुआयामी और नवाचार से परिपूर्ण है और नवाचार का स्वागत करने का साहस अभी बहुत ही कम लोगों में है। सिनेमा के "भीड़" दर्शकों में तो बिल्कुल ही नहीं और उनके पास तो एकदम ही नहीं जो रोज़ एक प्रकार की चीज़ें देखने, सुनने और महसूस करने में सहज महसूस करते हैं। इसलिए ऐसी फिल्में "भीड़" के स्नेह से वंचित रहती हैं और वो अपना लागत भी बड़ी मुश्किल से निकाल पातीं हैं। वैसे भी कुछ कला भीड़ को संबोधित करती है तो कुछ इंसान के दिल, दिमाग और संवेदनाओं को कुरेदने का कार्य करती हैं। रिबन आपसे दिल, दिमाग, संवेदनशीलता और इत्मिनान की मांग करती है। यह हाजमोला नहीं कि मुंह में डाला, चटखारा लगाया और गैस निकाल दिया।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; margin-top: 6px;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">रिबन संयुक्त परिवार के बिघटन, औधोगिकरण और बाज़ारवाद के दवाब में दड़बे जैसे फ्लैट में रहने वाले एक ऐसे कामकाज़ी जोड़े की व्यथा है जिसकी एक बेटी है लेकिन बच्चे की देखभाल करने के लिए भी आया रखना पड़ता है। यहां तमाम भौतिक सुविधाएं खरीदी जाती हैं लेकिन कोई भी ख़ूब जमकर ठहाका लगाता हुआ नहीं दिखता बल्कि यहां बच्चे भी समय से पहले बड़े होते हैं। यहां कुत्ते को डॉग, डॉक्टर को डॉक और मम्मी को मॉम बोला जाता है। यहां ना कोई स्थानीय बोली-भाषा है और नाहीं बच्चों के लिए लोरी और दादी नानी के किस्से, है तो बस शोर करता हुआ मशीन। यहां चैन से फिंगर चिप तक खाने का वक्त नहीं है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह कथा है एक ऐसी स्त्री की जो अपने काम में महारत रखती है किंतु गर्भावस्था के कारण उसे छुट्टी लेनी पड़ती है और जब वो काम पर वापस लौटती है तो मुनाफ़ा मात्र कमाने के लिए चल रहे कारपोरेट ऑफिस में सबकुछ बदल चुका होता है। इन दफ्तरों में ना कोई संवेदनशीलता होती है और ना ही कोई मानवता। ये बस प्रतिभा का दोहन करने के लिए चल रहे मशीन हैं। वैसे समाज कितना संवेदनशील है खासकर स्त्री के सवालों पर? समाज तो रेप के लिए भी स्त्री पर ही दोष मढ़ता है और दुनियाभर के वाहियात सवाल करता है। स्त्री के कार्य, अधिकार और गर्वाधरण को तो आजतक हमने शायद ही वो महत्व दिया है, जो उसे मिलना चाहिए और एक पुरुषप्रधान समाज में यह संभव भी नहीं है - बिल्कुल भी नहीं। रिबन में भी मेल इगो और फीमेल सेंसिबिलिटी का एहसास लगभग हर जगह है - कभी मौन तो कभी मुखर। यहां भौतिकता की तलाश में चिंताग्रस्त नायक, एक पुरुष गुस्से में घर से बाहर निकल जाता है, सड़क पर सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए अपनी चिंता का प्रदर्शन करता है, होटल में खाता और कॉफी पीता है लेकिन नायिका, स्त्री अपनी बेटी से चिपककर सोती है। यह इमेजेज बिना शोर किए बहुत कुछ कहतीं हैं बशर्ते उसे देखने समझने की दृष्टि हमारे पास हो। फ़िल्म ऐसी ही इमेजेज से परिपूर्ण है। किन्तु हम एक ऐसे पुरुषप्रधान समाज में जीते हैं जहां गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देनेवाले पुरुष को मर्यादापुरुषोत्तम का स्थान प्राप्त होता है और हम चीज़ों को समझने में कम मानने और पूजने में ज़्यादा सहजता महसूस करते हैं और नतीज़ा वहीं गोलचक्कर होता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">एकल परिवार में बहुत ही कम महिलाएं बच्चा पैदा करने के बाद काम पर वापस लौट पातीं है। एक आंकड़े के अनुसार केवल 34 प्रतिशत। इस फ़िल्म की नायिका भी इसलिए लौट पाती है क्योंकि वो 15 हज़ार रुपए महीने के आया का भार वहन कर सकती हैं। यह कहानी औरत और उसके शरीर पर उसके अधिकार की झलक की कहानी भी है। एकल परिवार में बच्चे की परवरिश की चुनौती की व्यथा है तो बाल शोषण और उस पर सबके (खासकर स्कूल के) पल्ले झाड़ लेने की कथा भी है। वो केवल कागज़ों पर यक़ीन करते हैं और कागज़ (डिग्री) ही बांटते हैं। संवेदनहीनता की हद तब पर हो जाती है जब एक मासूम बच्ची से यह सवाल होता है कि तुम्हें कहाँ कहाँ छुआ गया। फ़िल्म में बहुत कुछ और है, फ़िल्म जितना कुछ कहती है उससे कहीं ज़्यादा चीज़ें नहीं कहती हैं लेकिन यह नहीं कहना ही दरअसल कह देना है बशर्ते कि हमारे पास वह दृष्टि हो कि हम उस अनकहे तक शालिनता से पहुंच सकें। हां नहीं है तो सतही मनोरंजन और ताली बजाऊ लटके झटके और संवाद। यहां मौन है, जिसकी भाषा समझने की संवेदना हम भाग दौड़ के चक्कर में पता नहीं कब की खो चुके हैं। फ़िल्म समाधान का क्षणिक सुख नहीं बेचती बल्कि बड़ी ही शालिनता से सवाल करती है, वो भी बिना जवाब की उम्मीद में, बिल्कुल मध्यवर्गीय मानसिकता की तरह जो जीवन में शायद ही कोई साहसिक फैसला करने की कुब्बत करता है। क्योंकि इस क्लास में भय सबसे ज़्यादा होता है और अमूमन किन्तु-परंतु ही मुखर होकर निकलता है। हम ऐसी कला से बचते हैं क्योंकि यह हमें हमारे ही सामने नंगा करता है और हम बगले झांकने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसी चीजों में आंख बचा लेना अब हमारी आदतों में शुमार हो गया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">यह मूलतः उच्च मध्यवर्ग के जीवन की जद्दोजहद ही सादगीपूर्ण प्रस्तुति की व्यथा है लेकिन फिल्मों में अफ़ीम का नशा जैसा मनोरंजन तलाशनेवालों के पास ऐसे सिनेमा और कला के लिए वक्त कहाँ है? बाकी ज़्यादा बताऊंगा तो सिनेमा का मज़ा किरकिरा हो सकता है हां बस इतना ज़रूर कहूंगा कि हर बार मज़े और मनोरंजन या सिनेमाई आंनद की बात नहीं होनी चाहिए कभी-कभी गंभीरता भी ज़रूरी है क्योंकि कला एक गंभीर विषय है, चुटकुला नहीं। वैसे भी जीवन हमेशा एक ही ताल, लय, गति या संवेदना में संचालित नहीं होता। जीवन बहुरंगीं है और उसी बहुरंगीं के एक रंग की सादगीपूर्ण प्रस्तुति है रिबन।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">रिबन की पूरी टीम को <span class="_ezo" id="u_0_14" style="color: #f1765e; cursor: pointer; font-weight: bold;">बधाई</span> इस साहसिक प्रयास के लिए। <span class="_ezo" id="u_0_15" style="color: #f1765e; cursor: pointer; font-weight: bold;">बधाई</span> राखी सांडिल्य (निर्देशिका)। ऐसी फ़िल्म कोई स्त्री ही निर्देशित कर सकती है। <span class="_ezo" id="u_0_16" style="color: #f1765e; cursor: pointer; font-weight: bold;">बधाई</span> एडिटर राजीव उपाध्याय <a class="profileLink" data-hovercard-prefer-more-content-show="1" data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=805467210&extragetparams=%7B%22fref%22%3A%22mentions%22%7D" href="https://www.facebook.com/rajeev.upadhyay1?fref=mentions" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;">Rajeev Upadhyay</a>. अब बड़े हो गए हो बच्चा तुम। बधाई <a class="profileLink" data-hovercard-prefer-more-content-show="1" data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=100001793915202&extragetparams=%7B%22fref%22%3A%22mentions%22%7D" href="https://www.facebook.com/shardendu.priyadarshi?fref=mentions" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;">Shardendu Priyadarshi</a> और <a class="profileLink" data-hovercard-prefer-more-content-show="1" data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=100001752491694&extragetparams=%7B%22fref%22%3A%22mentions%22%7D" href="https://www.facebook.com/profile.php?id=100001752491694&fref=mentions" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;">Ajit</a> मुझे इस अवसर का साक्षी बनाने के लिए। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">साथ ही निवेदन यह कि बुरे को कोसने के साथ ही साथ बेहतर या कम बेहतर का समर्थन भी आज के वक्त में एक ज़रूरी पहल बन जाती है। तो जाइए, यह फ़िल्म देखिए। शायद कुछ नया देखने का एहसास मिले।</span></div>
</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-12800101307735534782017-11-13T13:38:00.003+05:302017-11-13T13:38:40.718+05:30नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876 अर्थात एक काला अध्याय अब समाप्त होगा।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सबसे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि नाटय प्रदर्शन अधिनियम 1876 क्या है? इस का निर्माण क्यों किया गया? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक देश की मूलभूत ज़रूरतों में से एक है और जहां तक सवाल कला और संस्कृति का है तो उसे तो फलने-फूलने के लिए पूणतः स्वतंत्र वातावरण ही चाहिए। लेकिन समय समय पर विभिन्न रूप से इसे नियांत्रिक करने का भी प्रयास होता ही रहता है। सरकार, समाज, परिवार, विभिन्न संस्थाएं और व्यक्ति भी कला और संस्कृति पर अपना ज़ोर आजमाते रहे हैं।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">1876 में ब्रिटिश राज ने भारतीय रंगमंच पर पूरी तरह नियंत्रण स्थापित करने के लिए नाटय प्रदर्शन अधिनियम पारित किया था । नाट्य प्रदर्शन अधिनियम’ 16 दिसंबर 1876 को प्रचलन में आया, जिसका प्रारूप थामस बेरिंग ने तैयार किया था और यह वायसराय नार्थब्रूक के समय में अमल में लाया गया था। देश के आजाद होने के 70 वर्ष बाद भी यह कानून विद्यमान है.</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> </span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
भारत देश ब्रिटिशसमाज का उपनिवेश था अत: ब्रिटिश राज की जातीय विरोध में रंगमंच को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा । क्रांति एवं विरोध की इस नई धारा को रोकने और इस पर नियंत्रण स्थापित करने की दृष्टी से ब्रिटिश सरकार ने इस अधिनियम की स्थापना की अत: इस अधिनियम को वक्त पूर्वक स्थापित किया । तत्कालीन वायसराय की “नर्थ बूक” की राय में इस अधिनियम के द्वारा भारत में रंगमंच पृदृश्य को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है इस अधिनियम के संबंध में उनके निम्न विचार जो इस प्रकार है :- </div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%87%E0%A4%B8?source=feed_text&story_id=10155855758567328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">इस</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के द्वारा किसी भी नाटक सार्वजनिक प्रावधान को रोका जा सकता ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
नाटक के क्षेत्र में मूका अभिनय एवं अन्य नाटय रूपों को भी शामिल कर लिया गया था। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ये अधिकार प्राप्त हो गये थे कि वह किसी भी नाटय प्रदर्शन का :-</div>
<div style="text-align: justify;">
(क) षड्यंत्रकारी प्रकृती का ।</div>
<div style="text-align: justify;">
(ख) सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त करने का ।</div>
<div style="text-align: justify;">
(ग) कानून द्वारा स्थापित सरकारी नियमों एवं संस्थाओ के विरूद्ध असंतुष्टी एवं विरोध उत्पन्न करने वाला।</div>
<div style="text-align: justify;">
व्यक्तियों को भ्रम उत्पन्न करने वाला घोषित किया जा सकता था तथा एसे प्रदर्शन को निषिद्ध किया जा सकता था ।</div>
<div style="text-align: justify;">
#इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अनुसार उपनियमों के अवहेलना करने वाले व्यक्तियों के समूह को दंडित करने का प्रावधान भी किया गया है जिसके अंदर तीन साल की कैद और जुर्माना हो सकता था या दोनों । </div>
<div style="text-align: justify;">
#इस अधिनियम के अंतर्गत सरकारी एजेंसी या अधिकारी को यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी नाटक या नाटकों की संतुष्टी एवं सत्यापन कर सकता था ।</div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%B8?source=feed_text&story_id=10155855758567328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">पुलिस</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">को यह भी अधिकार था कि वह नाटक कि प्रस्तुती के दौरान उस प्रेक्षागृह में जा कर वह उस नाटक को रुकवा भी सकती थी साथ ही दृश्य सज्जा, वस्त्र एवं अन्य सामग्री को जब्त भी कर सकती थी ।</span></div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80?source=feed_text&story_id=10155855758567328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">सरकारी</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">की अनुमती के बिना किसी भी सार्वजनिक स्थल पर नाटक प्रस्तुत करने की अनुमती नहीं थी ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
इस क्रम में 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात भी इस अधिनियम को वापस नहीं लिया गया अपितु विभिन्न प्रांतो की सरकारों ने अपनी-अपनी नीतियों एवं आवश्क्ताओं के आधार पर उपअधिनियम में संशोधन कर लागू कर दिया जिनके कारण अधिकांश प्रान्तों में रंगमंच की गतिविधियों का प्रशासन का और अधिक नियंत्रण स्थापित हो गया । </div>
<div style="text-align: justify;">
आजादी के आंदोलन में लोक नाटकों और कलाओं के मंचन की ताकत को भांपकर ब्रिटिश सरकार ने इनके मंचन को निषिद्ध करने के लिए राजद्रोह और मानहानिकारक कानून बनाया था। इस कानून को ख़तम करने की मांग बहुत ही पुरानी है। </div>
<div style="text-align: justify;">
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोगों में आजादी की अलख जगाने में नाटकों की महत्चपूर्ण भूमिका रही थी। इस श्रृंखला में गिरीश चंद्र घोष ने ‘सिराज उद दौला’ और ‘मीर कासिम’ नाट्य श्रृंखला लिखी जो अंग्रेजी शासनकाल के दमन चक्र को दर्शाती थी. इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. ऐसे नाटकों में ‘मृणालिनी’, ‘छत्रपति शिवाजी’, ‘कारागार’ जैसे नाटक प्रमुख हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
इसी प्रकार बंगाल में महत्वपूर्ण नाटक ‘नील दर्पण’ पर भी प्रतिबंध लगाया गया जिसे दीन बंधु मित्रा ने लिखा था. </div>
<div style="text-align: justify;">
साल 1870 के बाद राष्ट्रवाद की भावना की अभिव्यक्ति वाले कई नाटक आए जिनमें अंग्रेजों के शासनकाल के दमन चक्र को प्रतिबिंबित किया गया था और जनमानस में इनका व्यापक प्रभाव देखा गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
सरकार ने संसद के मानसून सत्र में निरसन और संशोधन (दूसरा) विधेयक 2017 पेश किया था जिसके माध्यम से 131 पुराने और अप्रचलित कानूनों को समाप्त करने का प्रस्ताव किया गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
अंग्रेजों शासनकाल में प्रदर्शित ऐसे ही नाटकों की श्रृंखला में ‘चक्र दर्पण’ और ‘गायकवाड दर्पण’ का प्रमुख स्थान हैं. इन नाटकों को मानहानिकारक, राजद्रोहात्मक बताकर प्रतिबंध लगाया गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
इसके साथ ही ‘गजदानंद एवं युवराज’, ‘हनुमान चरित्र’ पर भी प्रतिबंध लगाया गया. ‘द पुलिस आफ पिग एंड शीप’ भी ऐसे ही नाटक हैं. इसे तत्कालीन पुलिस कमीश्नर हाग और उस समय के पुलिस अधीक्षक लैम्ब के संदर्भ में पेश किया गया था. तब नाटक के निर्माता उपेंद्र नाथ दास एवं थियेटर से जुड़े अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876 में प्रवधान किया गया था कि जो कोई भी इस आदेश की अधिसूचना के बाद उसके प्रदर्शन में, प्रदर्शन संचालन में या उसके किसी भाग के दर्शक के रूप में उपस्थित रहेगा अथवा गृह, कमरे या स्थान को प्रदर्शन के लिये खोलेगा…. उसे दोष सिद्ध होने पर तीन माह का कारावास या जुर्माना या दोनों दंड प्रदान किया जाएगा.</div>
<div style="text-align: justify;">
औपनिवेशिक काल के इस कानून के अनुसार, राज्य सरकार यह आदेश भी दे सकती है कि ऐसे क्षेत्र के भीतर सार्वजनिक मनोरंजन के किसी स्थान में कोई भी नाट्य प्रदर्शन तक तक नहीं किया जायेगा, जब तक कि उस कृति की…… लिखित प्रति या मूक अभिनय का विवरण तीन दिन पहले नहीं दे दिया जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
इस काले कानून को अब समाप्त किया जा रहा है, जो निश्चित ही एक स्वागतयोग्य क़दम है। बस कला और संस्कृति के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण (ख़ासकर हिंदी में) भी ज़रा सम्मानित भाव वाला हो जाए तो आनंद आ जाए।</div>
<div style="color: #365899; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9B?source=feed_text&story_id=10155855758567328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">कुछ</span></span></a><span style="color: #1d2129;"> </span><span style="color: #1d2129;">शब्द द वायर, हिंदी से उधार लिया गया है।</span></div>
</span></div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-45761944056125351842017-11-13T13:32:00.002+05:302017-11-13T13:32:35.660+05:30चार्ली चैप्लिन : The Kid के बहाने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सिनेमा की शुरुआत में ही फ़्रान्सीसी दर्शनिक बर्गसन ने कहा था कि "मनुष्य की मष्तिष्क की तरह ही कैमरा काम करता है। मनुष्य की आंखे इस कैमरे की लेंस हैं। आंखों से लिए गए चित्र याद के कक्ष में एकत्रित होते हैं और विचार की लहर इन स्थिर चित्रों को चलायान करती हैं। मेकैनिकल कैमरा और मानवीय मष्तिष्क के कैमरे के बीच आत्मीय तादात्म्य बनने पर महान फ़िल्म बनती है।" तात्पर्य यह कि एक कलाकार को वैचारिक और बौद्धिक स्तर पर भी समृद्ध होना पड़ेगा तभी वो महान कला का सृजन कर सकता है और चार्ली इस कला में माहिर थे। वो एक समृद्ध व्यक्तित्व थे और यह समृध्दि किताबी नहीं बल्कि व्यवहारिक और यथार्थ जगत की कड़वी धरातल से उपजी थी। वो मानवीय चेतना के सच्चे चितेरे थे लेकिन इस अजब-गजब दुनियां की रीत भी निराली है। कलाकार अपना काम कर रहा होता है और दुनियां अपनी ही दुनियादारी में मगन रहती है। जिस चार्ली ने यह कहते हुए दुनियां में केवल खुशी ही बांटी कि "मेरा दर्द किसी के लिए हंसने की वजह हो सकता है, पर मेरी हंसी कभी किसी के दर्द की वजह नहीं बनेगी।" उसी चार्ली की शव उनकी कब्र से तीन महीने बाद ग़ायब हो जाता है और ग़ायब करनेवाले ने उनके शव के कॉफिन लौटाने के लिए 6 लाख स्विस फ्रैंक्स की मांग की। तभी तो चार्ली इस दुनियां को मक्कार और बेरहम कहते हुए कहते हैं - "ये बेरहम दुनिया है और इसका सामना करने के लिए तुम्हे भी बेरहम होना होगा।" ग़ालिब ने भी शायद सही ही कहा है - </span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; margin-top: 6px;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">वैसे त्रासदी शायद महान कलाकारों की नियति है। मोज़ार्ट, ग़ालिब, काफ़्का, रिल्के, गुरुदत्त, मीना कुमारी जैसे अनगिनत नाम त्रासदियों के बीच रचनात्मक रहे। खुद चार्ली का जीवन भी तो त्रासदियों का महासागर ही रहा। यह त्रासदी चार्ली की फिल्मों में भी किसी ना किसी रूप में विद्दमान है। पूरी दुनियां अमूमन चार्ली को हास्य के लिए जानती है लेकिन चार्ली ने खुद अपने लिए जो चरित्र गढ़ा वो अभाव और त्रासदी का ही सिनेमेटिक वर्जन नहीं तो और क्या है ? शायद तभी चार्ली यह कहते हैं कि "असल में हंसी का कारण वही चीज़ बनती है जो कभी आपके दुख का कारण होती हैं।" अपने दुःख से लोगों को खुशी पहुंचाना कोई चार्ली से सीखे। वैसे भी जीवन त्रासदी और कॉमेडी का मिला जुला रूप है। चार्ली शायद सच ही कहते हैं - "ज़िंदगी करीब से देखने में एक त्रासदी है और दूर से देखने में कॉमेडी।" यह सूफ़ियाना अंदाज़ है और हर सच्चा कलाकार दिल से सूफी संत ही होता है बाकि कलाकार के नाम पर धधेबाज़ों की भी आज कोई कमी नहीं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">एक सच्चा कलाकार दुनियां में रहते हुए भी दुनियां से अलहदा होता है। उसमें भीड़ में भी अकेले खड़े होने का माद्दा और आदत होती है। वो अपनी कला को प्रथम स्थान पर रखता है ना कि व्यवसाय को। गुरुदत्त के सामने भी साहब बीबी और गुलाम के दौरान फ़िल्म के अंत को बदलने का दवाब था लेकिन गुरुदत्त ने आखिरकार कला के रास्ते को चुना। ऐसे लोग सही-गलत से ज़्यादा सच की परवाह करता है। कलाकार होने की कुछ शर्तें होतीं है। अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक "कला की ज़रूरत" में कला मर्मज्ञ अर्न्स्ट फिशर लिखते हैं - "कलाकार होने के लिए अनुभव को पकड़ना, उस पर अधिकार करना, उसे स्मृति में रूपांतरित करना, और स्मृतियों को अभिव्यक्ति में, वस्तु को रूप में रूपांतरित करना आवश्यक है। कलाकार के लिए भावना ही सबकुछ नहीं है, उसके लिए निहायत ज़रूरी है कि वो अपने काम को जाने और उसमें आंनद ले; उन सारे नियमों को समझे, उन तमाम कौशलों, रूपों और परिपाटियों को समझे, जिनसे प्रकृति रूपी चंडिका को वश में किया जा सके। वह आवेग जो कलाप्रेमी को ग्रस लेता है, सच्चे कलाकार की सेवा करता है। कलाकार उस आवेग रूपी वन्य पशु के हाथों क्षत-विक्षत नहीं होता, बल्कि उसे वाश में करके पालतू बनाता है।" </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली का बचपन बड़ा ही कष्टप्रद बीता था। माँ-बाप के होते हुए भी वो अनाथालय में पलने को अभिशप्त थे। माँ-बाप अलग हो चुके थे। मां पागलखाने में भर्ती थी। अमूमन आदमी अपने बचपन को बड़े ही रोमांस के साथ याद करता है लेकिन यदि इस्मत चुग़ताई के शब्दों में कहें तो "बचपन जैसे तैसे बीता। यह कभी पता न चला कि लोग बचपन के बारे में ऐसे सुहाने राग क्यों अलापते हैं। बचपन नाम है बहुत सी मजबूरियों का, महरुमियों का।" (इस्मत की आत्मकथा - कागज़ी है पैरहन) शायद बचपन की इन्हीं अनुभूतियों को कलात्मकता के साथ वो अपनी फिल्म <a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/the_kid?source=feed_text&story_id=10155765255832328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">The_kid</span></span></a> में जगह-जगह प्रस्तुत कर रहे थे। फ़िल्म एक ऐसे बच्चे की कथा कहती है जिसे माँ-बाप त्याग देते हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली अपनी फिल्मों में अद्भुत विम्बों का प्रयोग करते हैं। अगर आपने उनकी फिल्म #The_Kid देखी हो तो याद कीजिए फ़िल्म का पहला ही शॉट, आपको चार्ली की अद्भुत परिकल्पना का अंदाज़ा स्वतः ही हो जाएगा। फ़िल्म इस टाइटल से शुरू होती है - A picture with smile - and perhaps, a tear. अर्थात् चार्ली आंसू और मुस्कुराहट को एक साथ मिलाकर सिनेमा बना रहे हैं। वैसे भी एक ही बात किसी के लिए ट्रैजडी होती है तो किसी के लिए कॉमेडी। सड़क पर चलता हुआ आदमी फिसलकर गिर पड़ता है और देखनेवाले मुस्कुरा देते हैं। गिरनेवाले के लिए यह ट्रेजडी है लेकिन देखनेवाले के लिए कॉमेडी। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तो बात हो रही थी बिम्ब की। कोई भी कला एक रेखकीय अच्छी नहीं लगती बल्कि उसे एक वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसमें कई जड़ें, तना, पत्तियां और फूल आदि होते हैं। वैसे भी फ़िल्म केवल संवाद या कहानी फ़िल्माने की कला नहीं है बल्कि वो अपने चलती फिरती इमेज के द्वारा भी फ़िल्म को महाकाव्य में परिवर्तित करती है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">किसी चैरिटी हॉस्पिटल से अपने नवजात शिशु को लेकर एक माँ निकलती है। एक दोराहे पर आके खड़ी हो जाती है फिर एक तरफ चल देती है और अगले शॉट में यीशु मसीह अपनी पीठ पर क्रॉस लादे दिखाते हैं। अब इन दोनों इमेज से चार्ली क्या कहना चाहते हैं यदि यह समझ मे नहीं आया तो हम चार्ली की कोई भी फ़िल्म देखने के लिए अभी नादान हैं। हमें कला का असली आनंद लेने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित होना होगा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">The Kid एक बच्चे को पैदा करने और पालनेवाले की कहानी है। जिसे महाभारत कृष्ण और कर्ण तथा बर्तोल्त ब्रेख़्त खड़िया के घेरे के माध्यम से उठाते हैं और चार्ली चैप्लिन चुपचाप वो कथा बड़ी ही शालीनता से कहते हैं; वो भी बिना जजमेंटल हुए।</span></div>
</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-74410561380976680192017-11-13T13:15:00.002+05:302017-11-13T13:15:29.066+05:30ये मोह मोह के धागे : दम लगाके हैशा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">कुछ फिल्में बड़ी ही स्मूथ, स्वीट, सादगीपूर्ण और सौम्य होती हैं। ये फिल्में भले ही बॉक्स ऑफिस पर कोई बड़ा धमाल नहीं करतीं लेकिन जो भी इन्हें देखता है काफी दिनों तक इसके सादगीपूर्ण सम्मोहन से उबर नहीं पता। भारत में ऐसी फिल्मों का एक बड़ा ही समृद्ध इतिहास रहा है। ऋषिकेश मुखर्जी बड़े मास्टर थे इस काम के।</span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">लेकिन हम तत्काल बात कर रहे हैं सन् 2015 में आई फ़िल्म "दम लगाके हैशा" की। वरुण ग्रोवर लिखित और पापॉन तथा मनाली ठाकुर द्वारा गाया हुआ शानदार गीत "ये<span class="text_exposed_show" style="display: inline;"> मोह मोह के धागे, का जादू आज भी कायम है। यह गाना इसी फिल्म का है। आश्चर्यजनक रूप से इस गाने की धुन अनु मलिक ने बनाई है। हम बस दुआ ही कर सकते हैं कि उनका यह गाना कहीं से कॉपी मारा हुआ ना हो! फ़िल्म का शानदार बैकग्राउण्ड संगीत कंपोज किया है इटालियन कंपोजर Andrea Guerra ने। शरद कटारिया लिखित निर्देशित यह फ़िल्म बड़े ही सौम्य ढंग से बेमेल अरेंज मैरेज की कहानी कहती है। फ़िल्म ज़्यादा कौप्लिकेशन में नहीं जाती बल्कि कह सकतें हैं कि सतह पर ही तैरती हुई भारतीय सिनेमा की "महान" कमाऊ परंपरा "Happy Ending" की तरफ निकल जाती है। </span></span></div>
<span class="text_exposed_show" style="display: inline;"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
इस फ़िल्म के लिए अभिनेत्री भूमि पेडनेकर को काफी सराहना भी मिली थी; जो कि निश्चित रूप से मिलनी भी चाहिए क्योंकि भूमि बड़ी सफाई से मायानगरी में व्याप्त अभिनेत्रियों के बेबी डॉल इमेज को तोड़ती हैं। यहां हॉट, सेक्सी, गुड़ लुकिंग और तथाकथित होरो के हाथ का एक खिलौना और गुड़िया टाइप इमेज से परे जाकर चरित्र में ढलती है। भरोसा नहीं इनकी बाकी की दो फ़िल्में भी देख लीजिए। इस फ़िल्म के लिए भूमि को Best Female Debut का सम्मान भी मिल चुका है।</div>
<div style="text-align: justify;">
फ़िल्म देख लिया है तो बहुत खूब; नहीं देखा तो ज़रूर देखिए।</div>
</span></span></div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-51304169668992318882017-11-13T13:13:00.002+05:302017-11-13T13:13:33.110+05:30चार्ली चैपलिन : #The_Gold_Rush : प्यार काफी है हर काम को करने के लिए ।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सोने की खोज में बर्फीले तूफ़ान में फंसे भूख से बिलबिलाते दो लोग। कोई चारा ना देखकर अन्तः जूता पकाया जाता है और उस पके जूते को खाया भी जाता है। विश्व सिनेमा में यह दृश्य अद्भुत और अनमोल है और इस दृश्य को अपनी लेखनी, निर्देशन, कल्पनाशीलता, प्रतिभा और अभिनय से रचा है चार्ली चैपलिन ने। सन 1925 में लगभग डेढ़ घंटे की यह फिल्म है #The_Gold_Rush। यह दृश्य विश्व सिनेमा में एक क्लासिक का दर्जा ना जाने कब का हासिल कर चूका है। वैसे इस फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिसकी नक़ल आजतक हो रही है। वैसा ही एक दृश्य है तूफान में कॉटेज का एक खाई के पास जाकर अटक जाना। इस दृश्य को अभी हाल ही की हिंदी फिल्म वेलकम में देखा जा सकता है।</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> </span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली चैपलिन अपनी कला में परफेक्शन के लिए भी जाने जाते थे। वो अपनी फिल्मों के फिल्मांकन से तबतक संतुष्ट नहीं होते जबतक की वो दृश्य ठीक वैसे ही फिल्मा नहीं लिया जाता जैसा कि उन्हें ने अपनी कल्पना में उसे फिल्मा रखा है। इसके लिए उन्हें जितनी भी मशक्कत करनी होती, जितना भी खर्च करना पड़ता - वो अवश्य ही करते। वैसे भी जैसे-तैसे कला की रचना नहीं होती और समझौतावादी और विशुध्द व्यवसायिक नजरिया तो कला का दुश्मन है। फ़िल्म एक कला है पहले उसके बाद कुछ और। हमें कला को समझने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित भी होना पड़ेगा नहीं तो हम कला के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण के शिकार होकर रह जाएगें। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">वो फिल्मों का शुरूआती दौर था और फ़िल्में आज की तरह डिजिटल नहीं थी और ना ही तकनीक के स्तर पर आज जैसा उन्नत ही। फिर भी चार्ली ने अपनी फिल्मों हर प्रकार से जिस तरह के प्रयोग किए वो आज भी कई फिल्म बनानेवालों के लिए एक प्रेरणाश्रोत से कम तो कताई ही नहीं है। उनकी फ़िल्में बिना शब्द के सबकुछ महसूस करवा देने की क्षमता रखतीं हैं। चार्ली कहते हैं - "हम सोचते बहुत हैं और महसूस बहुत कम करते हैं।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">बहरहाल, तो बात उनकी फिल्म #The_Gold_Rush की हो रही थी। चार्ली की यह फिल्म दो भागों में आगे बढती है। पहला भाग सोने की तलाश में बर्फ के तूफानों में भटकते इन्सान रूपी जीव हैं तो दुसरे भाग में एक मज़ाक से शुरू हुआ एक प्रेम कहानी। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली एक सामान्य अच्छे सकारात्मक आदमी के चित्रण के चितेरे हैं। ऐसे चरित्र का चित्रण आसन काम कभी नहीं रहा। यही कोशिश अपने महानतम उपन्यास बौड़म में करते हुए महान रुसी लेखक दोस्तोयेव्स्की लिखते हैं – “इस उपन्यास के विचार को मैं कब से अपने मन में संजोये रहा हूँ, पर यह इतना कठिन था कि बहुत समय तक उसे हाथ लगाने का मुझे साहस नहीं हुआ। उपन्यास का मुख्य विचार सकारात्मक रूप से एक बहुत अच्छे इंसान का चित्रण करना है। दुनियां में इससे कठिन कोई दूसरा काम नहीं है; विशेष रूप से इस समय। जो सुन्दर है वह एक आदर्श है, और उसका अभी तक पूरा विकास नहीं हुआ है।” </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली इस सुन्दरता और सादगी को कैमरे में बड़ी ही शालीनता से कैमरे में कैद कर रहे थे, जिसे प्रस्तुत करना आजतक लोगों के लिए एक चुनौती बना हुआ है। चार्ली हिरोपंथी से परे सरलता और सहजता के कलाकार हैं। उनका नायक मानवीय दुःख-तकलीफ, खूबियाँ-खामियां से लैश है। अमूमन उन्हें हास्य का मास्टर माना जाता है लेकिन उनकी फ़िल्में देखते हुए यह एहसास आसानी से होता है कि वो हास्य प्रस्तुत करते हुए हास्यास्पद नहीं होते और बड़ी ही कुशलता से हास्य में करुणामय अंश जोड़ देते हैं। एकांत उनकी फिल्मों का एक ज़रूरी अंग रहा है। याद कीजिए फिल्म #The_Gold_Rush का वह दृश्य जब नायिका के मज़ाक को सच समझकर चार्ली अकेले नए साल के भोज का प्रबंध करते हैं और फिर इंतज़ार की घड़ियों में सपनों में खो जाते हैं और जब सपना टूटता है तब वो इस यथार्थ जगत में अकेले हैं – नितांत अकेले। यह अकेलापन किसी भी सृजनशील कलाकार का नितांत अपना होता है। इसी अकेलेपन में वो निराशा होता है, रोता है, कुढ़ता है, चिंतन करता है, सपने देखता है और रचनाशील भी होता है। गौतम भी इसी एकांत की वजह से बुद्ध बने। प्रसिद्द जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के कहते हैं – “अपने एकांत को प्यार करो और उसकी उपजाई पीडाओं के बीच भी मग्न रहना सीखो।” स्वयं चार्ली चैपलिन कहते हैं – “जीवन अद्भुत और रोमांचक बनेगा अगर लोग आपको अकेला छोड़ दें तो।" लेकिन आज हालात यह है कि हम एकांत होकर भी शायद ही अकेले हो पाते हैं। पूंजीवादी समाज तो इन्सान को समूह से काटकर तमाम भौतिक चीजों के बीच एकांत में पटक देने के लिए कुख्यात है ही। पूंजीवादी समाज में पैसा ही भगवान होता है और इन्सान इस पैसे को किसी भी तरह अपने वश में कर लेना चाहता है। क्या अमीर और क्या गरीब, सब इसी पैसे के पीछे भागते हैं – अपनी जान और सेहत की परवाह किए बगैर। यहाँ मानवता और मानवीय संवेदना का कोई ख़ास महत्व नहीं होता। चार्ली की फिल्म #The_Gold_Rush याद कीजिए। प्रतिकूल परिस्थियों की परवाह किए बैगैर सोने की खोज में लोग हजारों की संख्या में बर्फीले बियाबान में अपना लाव-लश्कर लेकर निकल पड़े हैं। सबको किसी ना किसी प्रकार वहां पाया जानेवाला सोना चाहिए। इस सोने के लिए एक इंसान दूसरे इंसान की हत्या तक करने से नहीं चूकता। पहले ही शॉर्ट में सोने की तलाश में लम्बी कतार में जा रहा एक इंसान दम तोड़ देता है लेकिन किसी भी दुसरे इंसान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता और वो सोने की तलाश की अपनी यात्रा चालू रखता है। आगे लगभग आधे घंटे तक फिल्म में इंसान तो हैं लेकिन इंसानियत का कहीं नामोंनिशान तक नहीं। वहां है तो केवल सोने की भूख।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">इन्सान बाकी जीवों से इतर इसलिए नहीं है कि उसकी बनावट अलग है बल्कि इतर इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर बुद्धि, विवेक और इंसानियत नामक अतिसंवेदनशील और अनमोल चीज़ का निवास होता है। एक संवेदनशील इंसान की दुनियां केवल अपने और अपनों तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाहित होता है। लेकिन जब इंसानियत और मानवीय संवेदना से ज्यादा पूंजी की सत्ता की पूछ हो तो वहां व्यक्ति आत्मकेंद्रित और भयभीत होता है और बाकी सारी चीज़े उसके लिए या तो साधन होता है या फिर साध्य। हालत इस कदर खराब हो जाती है कि भूख लगने पर सामनेवाला इंसान भी उसे मुर्गा दिखाई पड़ता है। याद कीजिए फिल्म का वह दृश्य जब बर्फीले तूफान में फंसे दो व्यक्ति एक दुसरे को ही संदेह की नज़र से देखने लगते हैं। कौन, कब, कैसे दुसरे की हत्या कर दे – पता नहीं। यह शक, भय से उत्पन्न होता है और भय इतना भयानक होता है कि वो इंसान अपने-पराए तक में भेद नहीं करता। ब्रेख्त की एक एकांकी है – घर का भेदी। उसमें पति-पत्नी हिटलर की तानाशाही प्रवृति को लेकर बहस कर रहे होते हैं कि एकाएक उन्हें अपने एकलौते बेटे पर यह शक हो जाता है कि वो यह बात किसी को बाहर तो नहीं बता देगा। आज हमारे देश में भी ऐसा ही माहौल बनाने की चेष्टा की जा रही है। एक से एक नकली आदर्श गढ़े जा रहे हैं। एक ख़ास व्यक्ति, वाद, धर्म या पार्टी की आलोचना देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया जा रहा है। इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं कि आलोचना लोकतंत्र की बुनियाद होती है। यहाँ विरोध का भी उतना ही महत्व होता है जितना सत्ता पक्ष का। लेकिन जब सत्ता पक्ष विरोधियों को कुचलने या ख़त्म कर देने तथा विरोध पक्ष किसी भी प्रकार सत्ता पर काबिज़ होने की कूटनीति में व्यस्त हो तो वहां लोकतंत्र की पास बिलखने के अलावा कोई और चारा नहीं रहता। आज तानाशाही की चाशनी में लोकतंत्र का फलूदा पकाया जा रहा है और हद तो यह है कि हम सब कोई विकल्प रचने और चीजों को और ज्यादा सुन्दर, कोमल और मानवीय बनाने के बजाए इस फालुदे में ड्राई फ्रूट्स डालने का काम कर रहे हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चैप्लिन कहते हैं - "आपको शक्ति (पॉवर) की तभी जरूरत होती है जब आप किसी को नुकसान पहुंचाना चाहे, अन्यथा प्यार काफी है हर काम को करने के लिए।"</span></div>
</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-85954644329637558972017-11-13T13:11:00.002+05:302017-11-13T13:11:41.105+05:30चार्ली चैप्लिन : अमृत और विष !!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">90 का दशक था। एंटीना और स्वेत-श्याम टेलीविजन वाला युग। चैनल के नाम पर एकलौता दूरदर्शन था। केबल और डीटीएच टीवी का आतंक अभी कोसों दूर था। दुरदर्शन पर रविवार की सुबह चार्ली चैप्लिन की फिल्में दिखाई जा रहीं थीं। चार्ली की फिल्मों का असली मर्म समझने की हमारी उम्र और समझ थी नहीं लेकिन फिर भी पता नहीं क्या आकर्षण था कि पूरे का पूरा एपिसोड देख जाते। उन दिनों रंगमंच, अभिनय आदि से मेरा कोई वास्ता नहीं था। हाँ, कुछ लुगदी साहित्य और चलताऊ पत्रिकाओं से वास्ता पड़ता रहता था। पापा की वजह से अख़बार और कुछ अच्छी समाचार पत्रिका भी पलट भर लेता था।</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> </span></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">उन्हीं दिनों चार्ली की फ़िल्मों में सबसे ज़्यादा जो चीज़ मुझे आकर्षित की वो थी चार्ली की आंखे। वैसे तो चार्ली की कला का मुख्य स्वर हास्य-व्यंग्य रहा है किंतु उनकी कंचई आंखों में मुझे उदासी ही उदासी दिखतीं। बाद के दिनों में जब चार्ली की बॉयोग्राफी Chaplin : his life and art पढ़ी और Robert Downey Jr द्वारा अभिनीति चार्ली के जीवन पर बनी अद्भुत फ़िल्म Chaplin (1992) देखी, डीवीडी ख़रीदकर उनकी लगभग सारी फिल्में कई बार देखी, उनके ऊपर कई आलेख और किताबें पढ़ीं तब यह समझ में आया कि दुनियां को मानवीय, खूबसूरत और उल्लासपूर्ण बनाने का ख़्वाब देखनेवाले इस कलाकार का जीवन कितना त्रासदियों से भरा था। वैसे भी चिराग़ तले अंधेरा ही होता है। लेकिन मीर ने क्या खूब कहा है - </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">दुनियां में रहो ग़मज़दा या शाद रहो</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ऐसा कुछ करके चलो जाके बहुत याद रहो। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली इस शेर के जीते जागते मिसाल हैं। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी को अपनी कला के ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। ना जाने कितनी बार सपने टूटे, आशियाना उजड़ा, फरेब मिला लेकिन उनकी कला हमेशा मानवता और त्याग के पक्ष में पुरज़ोर तरीक़े से खड़ी रही। अपने व्यक्तिगत जीवन के कड़वे अनुभव से उन्होंने दुनियां को नहीं परखा बल्कि खुद शंकर की भांति विष ग्रहण किया लेकिन दूसरों के हिस्से अमृत ही छोड़ा। शायद यही है एक सच्चे कलाकार का दायित्व। जो अपना और अपनों के स्वर्थपूर्ती में ही बेचैन रहे वो कलाकार कम मुनाफाखोर व्यापारी ज़्यादा है। वैसे भी एक कलाकार की दुनियां में पूरा ब्रह्मांड समाहित होता है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मैं चार्ली की फ़िल्में देखते हुए कभी ठहाका लगाया होऊंगा, मुझे याद नहीं आता। हां, एक दृश्य ज़रूर है जिसको याद आते ही मैं नींद में भी मुस्कुरा सकता हूँ। वो दृश्य उनकी महानतम फ़िल्म <a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/mordern_times?source=feed_text&story_id=10155744197467328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">Mordern_Times</span></span></a> में आता है जब वो सुबह उठकर नदी में नहाने के लिए कूदते हैं और पता चलता है कि नदी में पानी ही बहुत कम है। आज सोचता हूँ कि बतौर अभिनेता अगर मुझे वो दृश्य करना होता तो क्या मैं कर पाता? और उसका जवाब है - नहीं। चार्ली का कोई भी एक्ट कर पाना बड़े से बड़े अभिनेता के कूबत से बाहर की चीज़ है तो हम जैसों की क्या विसात! चार्ली चैपलिन अभिनय के उस आदर्श का नाम है जहाँ तक पहुंचने का ख़्वाब एक अभिनेता पालता है, पालना चाहिए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">चार्ली अपने समय से कई सदी आगे के कलाकार हैं। उन्होंने प्रस्तुति से लेकर कथ्य तक मे कई ऐसे प्रयोग किए जो आज भी लोगों के लिए एक आदर्श है। उनकी कई फिल्में आज की फिल्में लगती हैं। कई तो आज से भी आगे की हैं। 1936 में अपनी फ़िल्म <a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/modern_times?source=feed_text&story_id=10155744197467328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">Modern_Times</span></span></a> में जिस मशीनीकरण की परिकल्पना उन्होंने की और जिस तरह उसे फिल्माया, वहां तक तो हम आजकल नहीं पहुंच पाए हैं। सन् 1940 में जिस <a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/the_great_dictetor?source=feed_text&story_id=10155744197467328" style="color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">The_Great_dictetor</span></span></a> की परिकल्पना चार्ली करते हैं हम आज उस तरफ कुछ कदम ज़रूर बढ़े हैं। अब हमें पार्टियों और विचार को नहीं बल्कि व्यक्ति को वोट कर रहें हैं। चाहे प्रधानमंत्री का चुनाव हो, मुख्यमंत्री का या मुखिया का। लोकतंत्र में व्यक्ति को विचार और विचारधारा और पार्टी से ज़्यादा भाव देना एक ख़तरनाक संकेत है और मूर्खता की हद तो यह कि हमें इस पागलपन में आनंद आ रहा है। आज एक तरह से पूरी दुनियां में ही अधिनायकवाद की एक ऐसी लहर चल रही है जो विनाशकारी है। यह दुनियां धर्म, जाति, समुदाय के नाम पर एक और विश्वयुध्द नहीं झेल सकती। इस ख़तरनाक प्रवृति से यदि दुनियां को कोई उबार सकता है तो वो हैं हम आम जन, नेतागण को हमें इस अंधी गली में धकेलकर और झूठे सच्चे ख़्वाब बेचकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। वैसे भी यदि लोकतंत्र सुचारू रूप से संचालित नहीं होता तो वहां अराजकता का राज होता है और वहां से तानाशाही प्रवृति का उदय होता है, जो दुनियां को एक ऐसे अंधेरी कोठारी में धकेल देती है जहां अमानवता के पास सिसकने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता। ऐसी प्रवृति से हमें सच्चा ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना ही उबार सकता है बशर्ते अफवाहों और झूठे वादे को चीरकर हमारे अंदर सच का सामना करने की हिम्मत हो, ठीक उस हंस की तरह तो दूध में मिले पानी को अलग-अलग करने की क्षमता रखता है। सनद रहे, आस्थाएं अंधी होती हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सत्य का मार्ग ज़रा दुर्गम है। लेकिन बिना गहरे पानी में पैठ लगाए मोती हासिल किया भी नहीं जा सकता और जो कलाकार गहरे पैठने से बचे, वो कलाकार कैसा !!! कलाकार कहलाने की कुछ शर्तें और ज़िम्मेदारियाँ होतीं हैं। कला के क्षेत्र में घुसपैठ करनेवाला हर व्यक्ति कलाकार नहीं होता।</span></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%AB%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A5%8B?source=feed_text&story_id=10155744197467328" style="color: #365899; cursor: pointer; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">फोटो</span></span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> </span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">- चार्ली का नदी में वो जम्प ।</span></div>
</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-18044954809733520042017-10-01T22:13:00.000+05:302017-10-01T22:13:20.032+05:30चार्ली चैप्लिन : हास्य एक गंभीर विषय है।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgReRSaXFuS55gCV6eehLOOq8uAI6XUz2KJmISIFEuf_TJihA6S5VfWy8sC5QcWJ4wHJ8byZpDZaOqo3Wj0f0IdulC5I4lh-9CqJldmWExhIQd4GDic-9RlNWh_7sKdw5lLd8KgrJc0QJ4/s1600/charlie+chaiplin.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="375" data-original-width="393" height="305" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgReRSaXFuS55gCV6eehLOOq8uAI6XUz2KJmISIFEuf_TJihA6S5VfWy8sC5QcWJ4wHJ8byZpDZaOqo3Wj0f0IdulC5I4lh-9CqJldmWExhIQd4GDic-9RlNWh_7sKdw5lLd8KgrJc0QJ4/s320/charlie+chaiplin.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">टीवी से अमूमन दूर ही रहता हूँ लेकिन कभी-कभी तफ़रीह मार लेता हूँ। आज तफ़रीह के चक्कर में </span><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/romedy_now?source=feed_text&story_id=10155740086767328" style="background-color: white; color: #365899; cursor: pointer; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">Romedy_Now</span></span></a><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> नामक चैनल पर गया तो देखा चार्ली चैप्लिन की फ़िल्म</span><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/the_circus?source=feed_text&story_id=10155740086767328" style="background-color: white; color: #365899; cursor: pointer; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">The_Circus</span></span></a><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> आ रही है। अब चार्ली की कोई फ़िल्म आ रही हो और उस पर से मेरी नज़र हट जाए, ऐसा तो आजतक हुआ नहीं। मुझे वो विश्व के इकलौते कलाकार लगते हैं जिन्होंने अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और संगीत में एक आदर्श स्थापित किया और दुनियां के तमाम अभिनेताओं को यह बताया कि देखो एक अभिनेता अपनी कला से क्या आदर्श रच सकता है। जब पूरी दुनियां विश्वयुद्ध के पागलपन में अंधी हुई पड़ी थी, हर ओर नफ़रत और साज़िश की बू थी, ठीक उसी वक्त एक कलाकार अपनी कला से दुनियां को प्रेम, स्नेह, त्याग के साथ हास्य-व्यंग्य का अमृत पिला रहा था। जब पूरी दुनियां हिटलर के आतंक से आतंकित थी और बड़े से बड़ा कलाकार या तो हिटलर की चापलूसी करने में व्यस्त थे या फिर बेदर्दी से मौत के घाट उतारे जा रहे थे ठीक उसी वक्त </span><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/the_great_dictator?source=feed_text&story_id=10155740086767328" style="background-color: white; color: #365899; cursor: pointer; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #4267b2; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm">The_Great_Dictator</span></span></a><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"> नामक फ़िल्म बनाकर पूरी दुनियां समेत ख़ुद हिटलर को यह एहसास करवाना कि देखो यह जो तुम दुनियां का मसीहा बनने की कोशिश कर रहे हो दरअसल तुम कितने फेक, फेंकू और हास्यास्पद हो, कोई माज़क नही है।</span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #1d2129;">चार्ली की कला का मूल स्वर हास्य-व्यंग्य है। बहुतेरे लोग जिसमें कुछ पढ़े-लिखे महाज्ञानी भी हैं, हास्य-व्यंग्य को बड़ा ही कमतर आंकते हैं। कुछ तो भाव ही नहीं देते। शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि हास्य-व्यंग्य एक गंभीर विषय होता है और व्यक्ति कभी भी हास्यास्पद होना पसंद नहीं करता। मौलियार अपने नाटकों में जब तथाकथित सभ्य लोगों को हास्यास्पद बनाते हैं, तो वो दरअसर शराफत के उस नकली परत को भेद रहे होते हैं जिसे ओढ़कर दोहरी मानसिकता में जीनेवाला समाज खुद को सुरक्षित, सुखी और संपन्न महसूस करता है।</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> </span></div>
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><div style="text-align: justify;">
हमारे यहां बुद्धिजीवी तबका मुस्कुराने तक से परहेज़ करता है और दुनियां की ऐसी तैसी करते हुए किसी अंदरूनी बीमारी के मरीजों की तरह सड़ा हुआ चेहरा बनाए रखने में ही अपनी विद्वता समझता है। वहीं सामान्य जन की स्थिति यह है कि अवतारवाद के अफीम ने उन्हें ऐसे ग्रस्त लिया है कि वो कभी कोई लोड ही नहीं लेता। उसे तो हर बात में "मनोरंजन" चाहिए, घटिया या सतही ही सही। </div>
</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"><div style="text-align: justify;">
और हास्य-व्यंग्य की स्थिति यह कि हरिशंकर परसाई से ज़्यादा सम्मान और प्रतिष्ठा टीवी पर किसी छिछोरे शो के एंकर का है। अकबर-बीरबल, गोनू झा, तेनालीराम, देवेन मिसिर आदि के किस्सों का मर्म समझना आज भी रहस्य बना हुआ है। </div>
</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"><div style="text-align: justify;">
बहरहाल, #The_Circus एक प्रेम कहानी है। जहाँ प्रेम का अर्थ किसी व्यक्तिगत संपात्ति की तरह हीरो या हीरोइन को हासिल कर लेना भर नहीं है बल्कि यहां उसकी ख़ुशी ज़्यादा मायने रखती है जिसे आप प्यार करते हैं। हालांकि, अमूमन भारतीय सिनेमा, सीरियल और ग्रंथ जैसे-तैसे हीरो-हीरोइन को मिलवा या हासिल कर लेने का आदर्श ही स्थापित करते हैं, उसके लिए चाहे उसे कितनी भी हत्या करनी पड़े। पति या प्रेमी अमूमन अपनी पत्नियों या प्रेमिकाओं को व्यक्तिगत संपात्ति से ज़्यादा महत्व नहीं देते। शैलेन्द्र जब हिरामन और हीराबाई की स्नेह कथा तीसरी क़सम बनाते हैं और अंत में हीराबाई शारीरिक रूप में हिरामन से दूर चली जाती है तो वितरक उनसे अंत बदलने को कहते हैं ताकि फ़िल्म का तथाकथित सुखद अंत हो और वितरक इस सुखद अंत को अफीम की तरह दर्शकों में बांट या बेच सकें। जब शैलेंद्र ऐसा नहीं करते तो फ़िल्म ढंग से रिलीज़ तक नहीं होती। वैसे भी एक ऐसे समाज में जो प्रेम की पूजा तो करता है लेकिन व्यवहार में उसकी मानसिकता सामंती और प्रेम विरोधी हो, वहां नकली सुख की ही प्रधानता ज़्यादा होती है। वहां नकली सुख बेचे और खरीदे जाते हैं। </div>
</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"><div style="text-align: justify;">
ऐसी दुनियां में अभी से कई दशक पहले चार्ली चैप्लिन नामक यह कलाकार दुनियां के चेहरे पर मुस्कान लाते हुए सच्चे प्रेम का पाठ पढ़ता है। इस पाठ को आज भी पढ़ना और समझना ज़रूरी है। ख़ासकर जब लोग नफ़रत की खेती और गलतबयानी करके बड़ी आसानी से अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। </div>
</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"><div style="text-align: justify;">
यह दुनियां नफ़रत और साजिशों की बदौलत नहीं बल्कि प्रेम, स्नेह और प्रकृति की वजह से ख़ूबसूरत है। इसे खूबसूरत बनाना ही मानव और मानवीय कला का एकमात्र उद्देश्य हो सकता है। </div>
</span><div style="background-color: white; cursor: pointer; text-align: justify; text-decoration-line: none;">
<span class="_5afx" style="background-color: white; cursor: pointer; direction: ltr; text-decoration-line: none; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="unicode-bidi: isolate;"><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%9A%E0%A5%87?source=feed_text&story_id=10155740086767328" style="background-color: white; color: #365899; cursor: pointer; text-decoration-line: none;">#</a><span style="color: #365899;">फोटो</span></span></span><a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%9A%E0%A5%87?source=feed_text&story_id=10155740086767328" style="color: #365899;"><span style="background-color: white; color: #1d2129; cursor: pointer; text-decoration-line: none;"> फ़िल्म के आख़िरी दृश्य के फिल्मांकन का फोटो है जहाँ दुनियां को प्रेम और हास्य का अमृत बांटने के पश्चात् चार्ली अकेले हो सबकुछ "झटक" के मस्ती में चल देते हैं बिल्कुल किसी सूफ़ी संत की तरह।</span></a></div>
</span></div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-58449775730031414442017-06-30T09:55:00.001+05:302017-06-30T09:55:23.577+05:30हूल विद्रोह : भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxCp79I10TN3kuQtdflsUBVYusaJp_L_T9q_fluTxBza9HmdQZVrrj00KWPlqTR_1uJQRvB7ZiWlHxtUFKFvCUQuxOEm3UR63wXDA_QRXbBANs5sdAi9-U6CbAM5h3ji2zsAyvxRPaZMY/s1600/santhal+rebelion1.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="346" data-original-width="635" height="217" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxCp79I10TN3kuQtdflsUBVYusaJp_L_T9q_fluTxBza9HmdQZVrrj00KWPlqTR_1uJQRvB7ZiWlHxtUFKFvCUQuxOEm3UR63wXDA_QRXbBANs5sdAi9-U6CbAM5h3ji2zsAyvxRPaZMY/s400/santhal+rebelion1.JPG" width="400" /></a></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">अमूमन इतिहासकार </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">1857 </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">के
सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई मानते हैं लेकिन तथ्यों
की पड़ताल करने पर कई अन्य विद्रोह भी सामने आते हैं जो सिपाही विद्रोह से पहले के
हैं और इन विद्रोहों की भूमिका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज़मीन तैयार करने में
कमतर नहीं रही है। इन्हीं विद्रोहों में से एक विद्रोह है झारखण्ड का हूल विद्रोह
जिसका नेतृत्व सीधो, कान्हू, चांद और भैरव ने किया था।</span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">आदिवासी समाज स्वतंत्रता का पोषक रहा है। जल, जंगल और ज़मीन के साथ वो अपने
तरीके से स्वतंत्र जीने में विश्वास करता है। हूल विद्रोह की पृष्टभूमि पर सरसरी
निगाह डालें तो तथ्य कुछ यूं निकलकर सामने आते हैं – आदिवासियों ने यह महसूस किया
कि उनकी आज़ादी के ऊपर लगाम लगाया जा रहा है। उन्हें मालगुज़ारी, बंधुआ मज़दूरी और
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा था। ब्रिटिश राज में मालगुज़ारी
नहीं देने पर आदिवासियों की ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी। </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">30</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">
जून </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">1855</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;"> को भोगनडीह नामक जगह में लगभग </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">28000</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">
आदिवासियों की सभा हुई जिनमें संताल, पहाडिया व अन्य जनजातीय समुदाय के लोग शामिल
हुए। इस सभा में सिदो को राजा, कान्हो को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को
सेनापति नियुक्त करते हुए यह घोषणा की गई कि “अंग्रेज़ी राज गया और अपना राज कायम
हुआ”। लोगों ने अंगेज़ी राज को मालगुज़ारी देना बंद किया और अंग्रेज़ी राज के खिलाफ़
अपने पारंपरिक हथियारों के साथ विद्रोह शुरू कर दिया। </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">11-13</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">
जुलाई </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">1855</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;"> को अंग्रेज़ों ने इस विद्रोह को कुचल दिया। सिद्धो,
कान्हू और भैरव महेशपुर के युद्ध में शहीद हो गए। इस क्रांति में लगभग </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">30,000</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">
लोग शहीद हुए, इसमें कई लड़ाका महिलाएं भी थीं। </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">भारतीय इतिहास की किताबों में भले ही इस विद्रोह को सम्मानित स्थान प्राप्त
नहीं है किन्तु झारखण्ड के आदिवासी आज भी अपने इस विद्रोह और उनके नायकों को अपने
गीतों और संस्कृति में याद रखते हैं। सिद्धो, कान्हू, भैरव और चांद को लेकर आज भी
ये अपने गीतों में बड़े ही आदर से याद करते हैं। स्थानीय निवासी आज भी अबुआ राज के
इस संघर्ष को भूले नहीं हैं बल्कि उसे अपनी संस्कृति का अंग बना चुके हैं। आज
इतिहासकार इन्हीं गीतों के माध्यम से इन वीरों की गाथा सुनते, लिखते और गुनते हैं।
वैसे भी असली नायक वह है जो जन के दिलों में ज़िंदा रहे, वह नहीं जिन्हें व्यवस्था
बार-बार जीवित करे और उनकी उपलब्धियों का रट्टा मरवाए।</span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="line-height: 115%;"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">किसी ने सच ही कहा है कि राजा-महाराजा, नेता-अभिनेता का इतिहास तो है लेकिन
जनता और जननायकों का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt;"><o:p></o:p></span></span></div>
</div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6190860441246547232.post-20166464671459423182017-06-29T20:03:00.000+05:302017-06-30T09:59:21.095+05:30बाज़ार और स्वदेशी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjM_TY_Z_ReLb-u6YTPaEzJdGi33077VpKZUuPjBprcwN0KZ-DSlxxueR-td1WkNmdHpik1JYsFvBlDEHHB4jqboYpZ6kQb6aWIUX-AQDgBDT5H4AjuAxZnDEe_BD-VNa8nmQv-A00nZW8/s1600/Gadgets.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="314" data-original-width="469" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjM_TY_Z_ReLb-u6YTPaEzJdGi33077VpKZUuPjBprcwN0KZ-DSlxxueR-td1WkNmdHpik1JYsFvBlDEHHB4jqboYpZ6kQb6aWIUX-AQDgBDT5H4AjuAxZnDEe_BD-VNa8nmQv-A00nZW8/s320/Gadgets.jpg" width="320" /></a></div>
<span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">Gadgets के बारे में पढ़ना और जानकारी इकट्ठा करना मुझे बेहद पसंद है। इसके पीछे शायद कारण यह है कि मुझे Gadgets सबसे क्रांतिकारी वैज्ञानिक अविष्कारों में से एक लगता है - ख़ासकर मोबाइल फोन। इस छोटी सी चीज़ ने अपने अंदर कितनी चिज़ों को समेट लिया है - इंटरनेट, फोन, घड़ी, म्यूज़िक प्लेयर, टाइप राइटर, कम्प्यूटर, कैलेंडर, चिट्ठी और पता नहीं कितनी चीज़ें इस छोटे से Gadget में समाहित हो गया है और आनेवाले दिनों में और पता नहीं क्या क्या इसमें जुड़ेगा। इस उपकरण के बिना आज शायद ही किसी का काम चलत</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ा हो - खासकर शहरों में। </span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="background-color: white; color: #1d2129;">आज भारतीय बाजारों में एक से एक Gadgets उपलब्ध हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि ज़्यादातर बाजार पर विदेशी कंपनियों का कब्ज़ा है। सिर्फ Gadgets Market ही नहीं वरण आज पूरे बाज़ार पर ही विदेशी कंपनियों ने कब्ज़ा जमा रखा है और स्वदेशी के नाम पर जो कंपनियां बाज़ार में हैं उनके Product ज़्यादातर निहायत ही घटिया हैं और जो कुछ बढ़िया और ठीक-ठाक हैं - उनकी क़ीमत ज़्यादा है। शायद इसीलिए उन्हें अपने Product बेचने के लिए धर्म, भारत, भारतीयता और देशप्रेम का सहारा लेना पड़ता है और हम भारतीय इस मामले में इतने मूढ़ हैं कि जाति, धर्म और देश की बात होते ही हमारे दिल, दिमाग और आंखें बंद हो जाती हैं और हम किसी भी अंधी गली में घुस पड़ने को तत्पर हो जाते हैं।</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> </span></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline;"><div style="text-align: justify;">
भारत अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से इसलिए आज़ाद नहीं हुआ था कि विदेशी कंपनियां उसके बाज़ार पर कब्ज़ा कर लें या स्वदेशी के नाम पर रद्दी Product देशप्रेम की चाशनी में घोलकर परोसा जाए। हद तो यह है कि स्वदेशी का जाप करनेवाली हमारी सरकारें कोई मजबूत स्वदेशी infrastructure बनाने के बजाय विदेशियों और विदेशी कंपनियों को भारत आकर व्यापार करने का आमंत्रण देने में खुद को ज़्यादा सहज महसूस करती हैं। यह सबकुछ आज शुरू हुआ हो ऐसा नहीं है बल्कि इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि हम colonial मानसिकता से शायद कभी मुक्त ही नहीं हुए और फिर सामंती मानसिकता तो हमें विरासत में मिली ही है। </div>
<div style="text-align: justify;">
East India Company के व्यापारी खुद व्यापार करने आए थे और हम अब आज Open Market के निहायत ही बकवास और बाज़ारू आइडिया का ग़ुलाम हो अपना बाज़ार खोलकर खुद बुलावा दे रहे हैं कि आओ और हमें आर्थिक रूप से फिर से ग़ुलाम बना लो। (शायद बहुत हद तक हम बन भी चुके हैं।) वैसे काफी हद तक बना भी चुके हैं। सनद रहे कि कोई भी व्यापारी अपना फायदा पहले देखता है और उसके लिए उसे कोई भी लेबल लगाने से कोई गुरेज नहीं होता। वैसे हम पता नहीं किस अंधी दौड़ में शामिल हैं कि हमें इन सब बातों से कोई खास फर्क पड़ता भी नहीं है।</div>
</span></span></div>
Punj Prakashhttp://www.blogger.com/profile/13508235479639115507noreply@blogger.com0