Monday, July 15, 2013

झारखण्ड : मानव तस्करी होता है यहाँ !!!

झारखण्ड घरेलू नौकरों की सप्लाई और मानव तस्करी का एक अड्डा बन गया है. यहाँ गरीब आदिवासियों को घरेलू नौकर बनाने के नाम पर एक बड़ा धंधा पिछले कई दशक से निर्वाध रूप से चल रहा है. चल ही नहीं बड़े ज़ोरों से फल फूल भी रहा है. इसे किसी का संरक्षण प्राप्त नहीं है ऐसा आज के युग में कोई मुर्ख भी मानने से बचता है.
नाबालिक गरीब आदिवासी लड़कियां इसके आसान शिकार बनाई जा रही हैं. काम दिलाने के नाम पर इन्हें राज्य और देश कि सीमाओं से बाहर के नगरों-महानगरों तक ले जाया जाता है, जहाँ ये अमानवीय स्थितियों में काम करने और जीने को अभिशप्त होती हैं. जिन घरों में ये काम के नाम पर कैद कर दी जाती हैं वहां उनके मालिक अमूमन इनके साथ कैसा बर्ताव करते हैं, यह आए दिन अख़बारों में पढने को मिलाता रहता है. इसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है.
करीब 6 हज़ार आदिवासी लड़कियों के लापता होने की सूचना पुलिस रिकार्ड में है. वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी इस बात पर शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो. कमाल तो यह है कि इस समस्या से उबरने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कई गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को प्रति व्यक्ति 19,400 रुपये के हिसाब से पैसों का भुगतान किया. उन्होंने इसे कंट्रोल करने के नाम पर उल्टे घरेलू नौकर बनाने का ही काम किया, वो भी सरकारी पैसे से. इन संस्थाओं ने राज्य और केंद्र को गलत रिपोर्टे सौंपी. फर्ज़ी प्रशिक्षणार्थियों के नाम लिखकर पैसे निकाले. कई संस्थाओं ने तो प्रशिक्षण दिया किसी और को, नौकरी का रहा है कोई और, नौकरी भी कैसी-घरेलू नौकर की. हद तो ये है कि ये संस्थाएं आगे भी प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की इजाज़त मांग रहीं हैं. उनमें से कुछ को गर इजाज़त मिल जाए तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ये संस्थाएं दावा ठोक रहीं हैं कि इन्होनें 10 हज़ार से भी अधिक युवाओं को नौकरी दिलवाई है. कहाँ और कैसी नौकरी इसका शायद ही कोई सही रिकार्ड इनके पास हो.
एक खबर के अनुसार इन संस्थाओं को अब तक 300 करोड़ से भी अधिक की राशि का भुगतान किया जा चुका है. इसमें किसी सरकारी कर्मचारी और अफसरों ने कोई घूस नहीं खाई होगी, ऐसा मानने का दिल नहीं करता.
देश की राजघानी दिल्ली समेत कई नगरों-महानगरों के अख़बारों में तो बाजाब्ता विज्ञापन छपता है कि अगर आपको आदिवासी नौकरानी चाहिए तो संपर्क करें. नीचे पता और फोन नंबर भी होते हैं. कहने का अर्थ यह कि ये सब खुलेआम चल रहा है और कानून के लंबे हाथ यहाँ तक केवल ‘चंदा’ वसूलने के लिए पहुंचते हैं.
अंधाधुंध विकास की इस अंधी दौड़ ने सबसे ज़्यादा अगर किसी चीज़ का नुकसान किया है तो वो है - मानवता. विकास के नाम पर इन आदिवासियों को इनके जल, जंगल और ज़मीन से बेदर्दी के साथ खदेड़ा जा रहा है. वहां से अलग होकर विस्थापन की मार झेलते इन सरल-सहज लोगों के पास दैनिक मज़दूर और घरेलू नौकरानियां बनाने के सिवा चारा ही क्या बचाता है ? यह एक विडंवना है. सरकार और मानव निर्मित विडंबना.
प्रतिकार करनेवाले को विकास विरोधी का तमगा पहनाकर ‘उग्रवादी’ की संज्ञा से विभूषित कर, एक आसान शिकार बना देना एक परम्परा है, जिसका निर्वाह कानूनी तौर पर, बड़ी शिद्दत के साथ किया जा रहा है. आदिवासी शासित और पोषित झारखण्ड में न जाने कितने आदिवासी झूठे मुकदमें में जेलों में कैद कर दिए गए है. ये खुशकिस्मत है कि इन्हें अब-तक किसी इनकाउंटर में मारा नहीं गया.
जो भी है, जैसा भी है, झारखण्ड की एक कड़वी सच्चाई यह भी है. हम माने या न माने. वैसे किसी के मानने या न मानने से सच झूठ में नहीं बदल जाता.  

Saturday, July 6, 2013

त्रासदी, क्रिकेट, शैपेन की बोतल और क्रांतिकारी नैतिकता !

भारत उत्तराखंड प्राकृतिक सह मानवनिर्मित त्रासदी से गुज़र रहा है ठीक उसी वक्त भारतीय क्रिकेट टीम चमत्कारिक रूप से आखिरी चैम्पियंस ट्राफी जीत लेती है. इस बार की भारतीय क्रिकेट टीम को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसे रामायण के बाली जैसा वरदान मिला हो कि जो भी उसके सामने आएगा उसकी आधी शक्ति का हरण हो जाएगा. तभी तो अच्छी से अच्छी टीम भारतीय दल के सामने आके क्लब के टीमों जैसा व्यवहार करने लगी तो संदेह होने लगा कि टीम इंडिया को आखिर किसका बरदान प्राप्त हो गया जिसने ये लिख दिया कि चैम्पियंस ट्राफी की आखिरी चैम्पियन टीम इंडिया ही होगी.
सार्वजनिक है कि इंग्लैड की टीम क्रिकेट के लंबे फोर्मेट में ज़्यादा कम्फ्ट महसूस करती है, जिसे जबरन 20-20 का मुकाबला खेलवाया गया. उसी दिन ही विजेता का फैसला कर लेना क्या निहायत ज़रुरी ही था ? चैम्पियंस ट्रॉफी विश्व कप के आयोजन के बाद विश्व क्रिकेट के एकदिन प्रारूप का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन है. बरसात के सीजन ध्यान रखते हुए क्या यह ज़रूरी नहीं हो जाता है कि कम से कम फाइनल जैसे महत्वपूर्ण मुकाबले के लिए रिज़र्ब डे रखा जाता. 50 ओवर का मुकाबला 20-20 ओवर खेलकर कोई जीते यह बात आज के ज़माने में जब टी 20 का प्रारूप आ चुका है, पचा पाना किसी भी क्रिकेट प्रेमी के लिए ज़रा सांप-छुछुंदर हो जाता है. ध्यान रहे मैं क्रिकेट प्रेमियों की बात कर रहा हूँ, दीवानों और क्रिकेट से कमाई करनेवालों की नहीं.
“आईपीएल में जो कुछ भी हुआ उसका पाप धोने का एक संक्षिप्त तरीका था ये कि भारतीय टीम को किसी भी तरह चैम्पियंस ट्रॉफी जितवाया जाए, ताकि कमज़ोर यादाश्तवाले भारतीय जनता का विश्वास एक बार पुनः क्रिकेट में वापस लाया जा सके.” कुछ क्रिकेट प्रेमी आलोचकों का यह कथन अतिवाद हो सकता है पर विश्व क्रिकेट की वर्तमान हालत देखते हुए पूर्णतः निराधार नहीं माना जा सकता. किसे नहीं पता कि भारत आज क्रिकेट का सबसे बड़ा मार्केट है. हो सकता है कि यह मात्र एक शंका हो पर यह शंका अपने चाहनेवालों के दिल में किसने पैदा किया ? पैसे और शोहरत की लालच में कौन आज कुछ भी करने और कुछ भी बेचने को तैयार है ?
बहरहाल, विजेता टीम इंडिया ने शैंपेन की बोतलों के बीच बार्मिघम (इंग्लैड) के एक होटल में पुरी रात पार्टी में मस्त रही. जीत का जश्न मनाया, हिंदी-पंजाबी गानों पर नृत्य किया. यह सब उस वक्त हो रहा है जब केदारनाथ में हज़ारों लोग ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं. खैर यहाँ केवल क्रिकेटरों को दोष देना उचित नहीं सेना और कुछ एनजीओ को छोड़ दें तो समाज के लगभग सारे ही हिस्से का हाल यही है. जो जहाँ हैं वहीं से क्रांति, परिवर्तन और नैतिकता का कानफाडू ‘हुयां-हुयां’ जारी रखे है. सब अपने आपको नैतिकता का पुजारी घोषित करने में लगे हैं और नैतिकता की हालत अबरा की मौगी सबकी भौजी वाली ही गई है. कह सकते हैं कि उदारीकरण, बाज़ारीकरण, निजीकरण, तकनीकीकरण आदि कारणों के बीच यह नैतिकता के पतन का युग भी है. और इससे कोई भी अछूता नहीं है, कोई भी नहीं. नेता, अभिनेता, साहित्यकार, रंगकर्मी, फिल्मकार, पत्रकार, जज, वकील, बाबू आदि आदि. हर कोई अपने को नैतिक और दूसरे को अनैतिक मानकर चलता है. क्रांतिकारी जमात का ध्यान अब क्रांतिकारिता पर कम फ़तवेबाज़ी पर ज़्यादा है. वो अपने अलावा हर चीज़ को नकार देना चाहते हैं. इनके लिए केदारनाथ त्रासदी एक धार्मिक पागलपन और उन्माद और क्रिकेट एक बुर्जुआ खेल से ज़्यादा कुछ नहीं है. जो हज़ारों लोग मरे वो इनके लिए बुर्जुआ और सामंत, अंधविश्वासी आदि संज्ञाओं से ज़्यादा कोई महत्व नहीं रखते. किसी बुर्जुआ की कमाई पर पलते और क्रांति का रट्टा मारते-मारते ये बेचारे भूल जातें हैं कि इनका खुद का घर और भारत की ज़्यादातर जनता की मानसिकता आज भी बुर्जुआ और सामंती है. क्रांति के ये नए चितचोर जनता का विश्वास तर्क से कम बल से ज़्यादा हासिल करने में विश्वास करते हैं. अक्ल बड़ी की भैंस में अब इनका जवाब भैंस होता है क्योंकि भैंस तात्कालिक और शारीरिक रूप से ज़्यादा ताकतवर दिखाती है और उसका रंग भी काला है और काला अपने आपमें विरोध का प्रतीक है. लाल और काले के मिश्रण से ही तो क्रांति संभव है, अब !

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...