Saturday, August 31, 2013

रंगमंच और मीडिया : विकास की उल्टी प्रक्रिया !

मीडिया मूलतः दो प्रकार का है - प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक | रंगमंच के बारे में विद्वानों का मत है कि यह भी मूलतः दो प्रकार का ही है – शौकिया और व्यावसायिक | जात्रा, पारसी, नौटंकी के साथ ही साथ पारंपरिक रंगमंच लगभग लुप्तप्राय हो चुके हैं | भारत में व्यावसायिक रंगमंच कहाँ और कितना है यह एक शोध का विषय हो सकता है ! भारतीय रंगमंच का मूल स्वरुप शौकिया ही है | मीडिया का दायरा जहाँ दिन-प्रतिदिन और ज़्यादा विस्तृत हो रहा है वहीं रंगमंच का दायरा तमाम सरकारी सहयोगों के बावजूद दिन-प्रतिदिन सिमट रहा है | कैरियरिज़म के वर्तमान दौर में यह सिमटन वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत आदि स्तरों पर देखी जा सकती है | रंगमंच क्यों ? इस छोटे से सवाल का जवाब आज बड़े-बड़े रंगकर्मियों और समाज के पास नहीं है ! शायद इसीलिए नाट्य विद्यालयों से निकलनेवाले छात्र एकाएक बेमकसद होकर खाक छानने को अभिशप्त हैं, क्योंकि रंगमंच करने के पीछे उनका उद्येश्य नाट्य विद्यालय में दाखिला लेना था | दाखिला मिल गया, पास आउट भी हो गए, अब ? बिना मकसद के संचालित होने वाला कलाकर्म हर स्तर पर अराजकता और व्यक्तिवाद को ही बढ़ावा देगा, ये तय है |
रंगमंच एक समय में एक स्थान पर होनेवाला कलाकर्म है और मीडिया एक चीज़ को घर-घर पहुंचानेवाला माध्यम | सूचनाएं, न्यूज़ और व्यूज़ के सहारे चलनेवाला मीडिया रंगमंच से और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जोड़ने, इसके दस्तावेज़ीकरण, समीक्षात्मक चिंतन में एक प्रखर भूमिका का निर्वाह कर सकता है | उपरोक्त बातें हम केवल प्रिंट मिडिया के सन्दर्भ में कर रहें हैं क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया ने अभी तक रंगमंच को कोई खास जगह नहीं दिया है | भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी नया है और फिलहाल पेड न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज़ और टीआरपी की चपेट में फंसकर गलाकाट प्रतियोगिता में संलग्न है | हमारे यहाँ लगभग हर चीज़ का एक अलग चैनल है सिवाय पारंपरिक कला और रंगमंच के | वैसे प्रिंट मीडिया की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है | विज्ञापनों के साथ ही साथ क्रिकेट और सिनेमा की खबरें हर अखबार को अपने कब्ज़े में जकड़ चुकी है वहीं नाटकों के मंचन से लेकर प्रतिबंध जैसी ख़बरें बमुश्किल ही यहाँ स्थान बना पातीं हैं |
मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है लेकिन भारतीय सन्दर्भ में यदि लोकतंत्र की बात करें तो ये साफ़ लगता है कि यह अभी वयस्क नहीं हुआ है बल्कि दिन-प्रतिदिन खतरनाक रूप से अराजक होता जा रहा है | असहमति का स्वर अब विद्रोह माना जाता है | क्रिकेट के एक शतक से एक व्यक्ति लखटकिया नायक हो जाता है वहीं पूरा जीवन कला, साहित्य, रंगमंच की सेवा करनेवाला कलाकार और आम आवाम जीवन की मूलभूत सुविधाओं तक से महरूम है | ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के खम्भों की क्या हालत होगी इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है | चंद बड़े नामों को छोड़ दें तो पत्रकारों की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है |  
एक वक्त था जब अधिकतर प्रतिष्ठित अखबारों में साप्ताहिक कला और संस्कृति नामक पन्ना प्रकाशित हुआ करता था जिनमें नाटकों, गीत, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था |  तब समाचार का मूल माध्यम अखबार, रेडियो तथा दूरदर्शन हुआ करता था | फिर विचार के अंत (Post Modernism) की घोषणा के साथ उदारीकरण, निजीकरण और बाज़ारवाद का ऐसा दौर आया और उसी के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया की कुछ ऐसी आंधी चली कि लगा अखबार के दिन गए ! पर ऐसा हुआ नहीं | हाँ, अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करता गये जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं | कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया ! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक नहीं रहे बल्कि नफ़े-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित हो गए हैं जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था | नीति साफ़ थी कि अखबार अब उन्हीं ख़बरों को छापेगा जो सनसनी पैदा करे | कला-संस्कृति की ख़बरें कौन पढ़ता है ?
भारत में रंगमंच का इतिहास सदियों पुराना है पर रंगमंच पर कोई निष्पक्ष और निरंतर पत्रिका नहीं है, जो हैं उनकी स्थिति न होने जैसी ही है | जहाँ तक सवाल साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का है तो सिनेमा पर तो वे बड़े ही गर्व के साथ विशेषांक निकालते हैं किन्तु रंगमंच व अन्य कलाओं के लिए यहाँ अघोषित रूप से प्रवेश निषेध है ! वहीं संगीत नाटक अकादमियां न जाने कब की भ्रष्ट, अराजक और दिशाहीन हो चुकीं हैं | यहाँ अब कला-संस्कृति के नाम पर पैसों के बंदरबांट, कमीशनखोरी के सिवा कुछ नहीं होता है |
यह एक तरफ़ चीज़ों के तकनीकीकरण का दौर है वहीं सामाजिक चिंतन के स्तर पर व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, समुदायवाद, आत्ममुग्धता, वैचारिक दिवालियेपन और सामूहिकता के ह्रास का काल भी है | इससे कोई नहीं बचा – न नाटक, न मीडिया, न परिवार और ना ही समाज | नाटक करने के लिए नाटक करने और उद्देश्पूर्ण नाटक करने में बहुत फर्क है | ग्रांट और महोत्सव आधारित रंगमंच के वर्तमान युग में गंभीर चिंतन-मनन, आलोचना-समालोचना, बात-विचार, प्रतिबद्धताएं अब रंगकर्मियों के सिर में दर्द पैदा करने लगी हैं | रंगमंच का सरोकार समाज से हो या न हो किन्तु रंगमंच सामाजिक परिघटनाओं से अछूता रह पायेगा ऐसा सोचना मूर्खता है |
रंगमंच का एक अति महत्वपूर्ण अंग है – नाट्यालोचना, जो अमूमन पत्र-पत्रिकाओं के मार्फ़त ही होती है | वर्तमान में नाट्यालोचना की स्थिति ये है कि नाटकों पर आलोचनात्मक टिपण्णी करने पर रंगकर्मियों ने समीक्षक/आलोचक को सैधांतिक या शारीरिक हिंसा से साक्षात्कार करवाया और बहिष्कार तक की घोषणा कर दी ! वहीं दूसरा सच ये कि वो लोग भी नाटकों पर अपनी कलम चलाने से बाज नहीं आते जिनको रंगमंच के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की उतनी समझ नहीं कि वो रंगमंच की समीक्षा करें | रंगकर्म वर्तमान में घटित होनेवाला कलामाध्यम है, इसलिए नाट्यालोचना की प्रवृति अन्य कला माध्यमों से ज़रा अलग होती है | साहित्य, फिल्म, चित्रकला, मूर्तिकला ऐसी विधाएं हैं जो अपने पाठकों, दर्शकों, रसिकों के लिए सदा उपलब्ध रहतीं हैं | कोई भी इन्हें पढ़, देखकर इनकी समीक्षा से इतर अपने विचार बना सकता है, किन्तु किसी भी नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन को उसी स्वरुप में चिरकाल तक जारी रखना संभव नहीं | एक ही दल द्वारा किया गया एक से दूसरा प्रदर्शन कम से कम संवेदनात्मक स्तर पर एक दूसरे से अलग होता है | नाट्य-साहित्य, नाट्य प्रदर्शन का स्वरूप ग्रहण करके ही अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है | अगर हम पूर्व प्रदर्शित नाटकों के बारे में जानकारी चाहते हैं तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस नाटक की समीक्षा और समाचार महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं | इसीलिए नाटकों की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा आदि एक ऐतिहासिक महत्व का काम हो जाता है | किन्तु यथार्थ ये है कि एक ख़ास तरह की मृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं |
भारत एक ऐसा कृषि प्रधान सांस्कृतिक देश है जिसके हुक्मरानों और आवाम को न तो कृषि की चिंता है ना ही संस्कृति की | जिस देश की जनता अनगिनत मजबूरियों का बोझ लादे केवल वोट डालके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाय वहां इससे बेहतर स्थिति की उम्मीद भी नहीं की जा सकती | औद्योगिक विकास के पागलपन में एग्रीकल्चर (कृषि) की बात तो खींच तानके कभी-कभार हो भी जाती है पर कल्चर (संस्कृति) की बात ? समाज का कोई भी अंग यदि अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो निरर्थक है | सार्थक मीडिया और सार्थक रंगमंच का मूल काम व्यवसाय से ज़्यादा लोगों की चेतना जागृत और कोमल करने का होता है, यह पारस्परिक सहयोग से चलनेवाली प्रक्रिया है | निरपेक्षता का भाव समर्थन होता है और विरोध भी | इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहें वो रंगकर्मी हो, समाज हो या मीडियाकर्मी | विकास का आधार केवल आर्थिक नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी होता है जिसकी प्रक्रिया अंदर से शुरू होती है, जो विकास बाहर से थोपा जाय वो विनाश, अराजकता और विस्थापन को बढ़ावा देता है | सनद रहे, मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं बल्कि सबके साथ होती है |
इप्टानामा नामक पत्रिका में प्रकाशित.


Tuesday, August 27, 2013

कथाकार मधुकर सिंह एक सपना देखते हैं.

मधुकर सिंह 
वैसे तो हिंदी साहित्य में रुचि रखनेवाले लोग मधुकर सिंह के नाम से भली भांति परिचित होगें ही फिर भी संभव है कि कुछ लोग यह सवाल करें कि ये कौन हैं बिहार के भोजपुर जिला के धरहरा गाँव के निवासी मधुकर सिंह कई प्रसिद्ध कहानियां और उपन्यास लिख चुके हैं. 2 जनवरी, 1934 को बिहार के एक ग्रामीण अंचल में जन्मे मधुकर सिंह की प्रमुख कृतियां पूरा सन्नाटाभाई का जख्मअगनुकापड़पहला पाठमाई (कहानी संग्रह)सबसे बड़ा छल, ‘सोनभद्र की राधासीताराम नमस्कारसहदेव नाम का इस्तीफाजंगली सूअरमनबोध बाबूबेमतलब बदनाम ज़िन्दगियाँउत्तरगाथाआगिन देवी (उपन्यास) तथा सन् साठ के बाद की कहानियॉंग्राम्य जीवन की श्रेष्ठ कहानियॉं का संपादन सहित कई नाटक भी इनके नाम हैं. लेखन के लिए कई सम्मान से सम्मानित भी हैं. देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी है. इस बार नामक पत्रिका का संपादन भी किया.
यही मधुकर सिंह पिछले कई साल से लापता ज़िंदगी जी रहे थे. एकाएक राजभाषा विभाग द्वारा जोहांसबर्ग में आयोजित हो रहे विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए इनके नाम का चयन किया जाता है और अधिकारीगण मधुकर सिंह नामक व्यक्ति की खोज में निकाल पडतें हैं. तमाम खोजबीन करने के बाद जब ये मिलते हैं तो पता चलता है कि इनकी हालत विदेश क्या किसी भी यात्रा के लायक नहीं है. आगे की कथा आप मधुकर सिंह की ही ज़ुबानी सुनिए – “मैं सात साल से बिस्तर पर पड़ा हूं. पैसे के अभाव में इलाज नहीं हो पा रहा है. मैं साहित्यकार हूं. भारत का प्रतिनिधित्व भी करना चाहता हूं. लेकिन साहित्यकारों को आज पूछ कौन रहा है. केवल हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिए ही साहित्यकारों को सरकारें याद करती हैं. यदि मेरी खोज-खबर राज्य सरकार ने पहले की होतीतो आज मैं विदेश जाने में सक्षम होता. सरकार विदेश भेजने के प्रक्रम में जो राशि मुझ पर खर्च करना चाहती हैवह मुझे दे दे. ताकि मैं अपना इलाज करा सकूं.
इस घटना के बाद जब मीडिया ने बिहार के कुछ साहित्यकारों के मुंह से बात निकलवाई तो बेचारे प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढने की मजबूरी से कैसे बच सकते थे. झट से व्यवस्था और समाज को कोसने लगे ये भूलकर कि स्वयं इन्होनें भी इतने सालों में मधुकर सिंह की कोई खोज खबर नहीं ली. कुछ नहीं तो कम से कम मधुकर जी के ये महान समकालीन प्रगतिशील मित्रगण इनके बारे में एक आलेख तो लिख ही सकते थे या किसी प्रकार की कोई अपील कर हिंदी साहित्य जगत और आम जन से कोई मदद तो मांग सकते थे. पर लिखे तब न जब कुछ पता होकोई खोज खबर ली हो, और अगर पता होते हुए भी जिन्होंने चुप्पी साध रखी हो, वे किसी मिट्टी के बने हैं, वही बता सकते हैं.
ऐसा प्रतीत होता है कि सब जैसे हाथ में गेंदे का फूल लेकर लोगों के मृत्यु का इंतज़ार कर रहे हों, ताकि तस्वीर पर पुष्प अर्जित करते इनकी तस्वीर अखबारों में छपे. क्या श्रद्धांजलि सभाओं में मरनेवाले से जुड़े संस्मरणों को सुनाने में इन जैसे साहित्यकारों को शर्म नहीं आनी चाहिए ? कहा जाता है कि कला और साहित्य समाज का दर्पण होते हैं और कलाकार, साहित्यकार दुनियां की सबसे संवेदनशील विरादरी होती हैं. जिस समाज के साहित्यकारकलाकार इतने संवेदनहीन हों वहाँ कैसी कला और साहित्य की रचना होगी इसका अनुमान आराम से लगाया जा सकता है. जब हमारे अंदर इतनी भी संवेदना नहीं है तो क्या कला और क्या साहित्य ! दुनिया में परिवर्तन जब होना होगा तब हो जायेगा पर संवेदनशीलता, प्रगतिशीलता आदि का दावा करनेवाले लोग आज कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं ?
पटना के अखबारों में इससे संबंधित सूचना प्रकाशित हुई तो मदद के नाम पर कुछ खानापूर्ति भी हो गई. निश्चित रूप से कुछ लोग ऐसे भी होंगें ही जो तहे दिल से मधुकर सिंह की मदद में लगे होंगें. मुझे उनकी जानकारी नहीं है. ब्लॉग और फेसबुक पर इनको लेकर कुछ लोगों ने चिंताएं ज़ाहिर की हैं और मदद की गुहार भी लगाई है. एक ब्लॉगर ने सहायता के लिए इनका बैंक एकाउंट भी डाला है. किसने कितनी सहायता की, की भी या नहीं मुझे इसकी जानकारी नहीं है. मैं एक रंगकर्मी हूँ, मधुकर को कई साल पहले पटना में नाटक व साहित्यिक आयोजनों में आते जाते देखा है. व्यक्तिगत रूप से हम एक दूसरे से परिचित नहीं हैं, ना ही उनसे मेरा कोई सीधा संपर्क ही है.  
सरकारों की बात क्या करे कोई ! सरकारें ऐसे मामलों में कितनी संवेदनशील है ये बात किसी से छुपी नहीं है. ज़्यादा दवाब होगा तो भिखारी की तरह चंद रुपये फेंककर मुक्त हो जायेगी या जुगाड़ होगा तो कोई सम्मान पकड़ा देगी. मात्र पेट चलाने के लिए किसी कलाकार व साहित्यकार को कैसे-कैसे काम करने पडते हैं, यह हम सब जानते हैं. आज़ादी और प्रजातंत्र के बड़े-बड़े दावे के बीच कला और साहित्य की सेवा करते हुए कितनो का पेट भरा है ? आज देश के कितने मंत्री, विधायक, अधिकारी को कला-संस्कृति-साहित्य की चिंता है ? कला-साहित्य के बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों में पैसे का बंदरबांट के अलावा होता क्या है ? जिन कलाकार, साहित्यकार का जुगाड़ है वो सालों भर मलाई का मज़ा लें, किसी को कोई आपत्ति नहीं ! बाकि जाएँ भाड़ में ! अभी पिछले दिनों हिंदी दिवस के मौके पर झारखण्ड के विधायकों से उनकी व्यक्तिगत रुचि जानने के लिए उनके पसंदीदा लेखक का नाम बताने को कहा गया तो अधिकतर लोगों ने प्रेमचंद का नाम बताकर खानापूर्ति भर करके किसी प्रकार अपनी जान बचाई.
बहरहाल, वर्तमान में मधुकर सिंह पैरालिसिस से ग्रस्त हो अपने गांव में रह रहे हैं और तमाम उपेक्षाओं और शारीरिक कष्टों के बावजूद अपनी आत्मकथा ‘आवारा मसीहा का सफरनामा’ लिखने की कोशिश में लगे हैं. सिजोफ्रेनिया नामक बिमारी से पीड़ित महान गणितग्य वशिष्ट नारायण सिंह का हाल भी किसी से छुपा नहीं है. वर्तमान में वे अपने गाँव (बसंतपुर, भोजपुर) में परिवार के सहारे किसी तरह जीवनयापन रहें हैं. भारतीय सिनेमा की अज़ीम-ओ-शान फिल्म मदर इंडिया में ज़मींदार की ये छोटी-सी भूमिका निभाने वाला अभिनेता संतोष कुमार खरे लखनऊ की सड़कों पर और भिखारी ठाकुर जैसे भारतीय पारंम्परिक रंगमंच के अग्रणी कर्ता के नाट्य दल का एक सदस्य सीताराम पासवान भीख मांगकर गुज़ारा करने को अभिशप्त हैं. वो ज़िंदा भी हैं या नहीं ये जानने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं.
आम जनता सहित, पता नहीं कितने साहित्यकाररंगकर्मीलोक-कलाकारसमाजसेवी आदि आज इस प्रकार की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त हैं. कम से कम इनकी खोज खबर लेते रहने का नैतिक दायित्व के निर्वाह करने की चेष्ठा तक अब नहीं रही ? क्या आज हम इतने मजबूर हैं कि केवल हाथ पर हाथ धरे और कभी-कभार फेसबुक और ब्लॉग पर ज़िक्र भर कर देने के सिवा कुछ नहीं कर सकते ? ये मानने को दिल नहीं करता कि हम सच में इतने मजबूर हैं. हाँ, ये माना जा सकता है कि हमारी संवेदना को किसी की नज़र लग गई है, शायद अपनी ही. तभी तो ऐसी बातें भी हमें उद्वेलित नहीं करती. या करती भी हैं तो हम कुछ खास नहीं करते. हम अपने लिए जब संघर्ष करने से कतराने लगे हैं तो दूसरों और समाज के लिए क्या खाक लड़ेंगें. हम व्यक्तिगत सच से ही भय खा जाते हैं सामाजिक सच तो दूर की बात है. शर्मनाक है. साथ ही जिस देश का साहित्यकार, कलाकार भूखो मरने को अभिशप्त है वहां कला-साहित्य के बड़े-बड़े जलसों के नाम पर उत्सवधर्मिता इनकी हालत और गरीबी का मजाक नहीं तो और क्या है और हमारा मौन एक प्रकार से सहमति और मजबूरी का ही घोतक है. इस खतरनाक मौन का नाश हो. खैर, मधुकर सिंह एक सपना देखते हैं कि उन्हें साहित्य अकादमी की ओर से दस लाख का पुरस्कार मिला है और पुरस्कार समारोह में शीला दीक्षित भी हैं.

Tuesday, August 13, 2013

रंगमंच का एक सार्थक गढ़ - डोंगरगढ़

ऐसा दिखता है डोंगडगढ़ 
“हमें हिम्मत नहीं हारनी है. काम करते रहना है और बढ़ते रहना है, लेकिन खराब नाटक नहीं करना है, खराब गाने नहीं गाना है. लगातार नई चीज़ों को, नए लोगों को रंगमंच से जोड़ना है.” – ए के हंगल.

चारों ओर से छोटी-छोटी पहाड़ियों और हर पहाड़ी पर विराजमान देवी-देवताओं और गुरुओं के आश्रमों के क़ानूनी व गैर-क़ानूनी कब्ज़ों से घिरा छत्तीसगढ़ का एक छोटा सा क़स्बा है डोंगरगढ़. यह घोषित रूप से एक धार्मिक नगरी है जहाँ शराबखोरी पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है. इस छोटे से कस्बे में जन सवालों से सरोकार रखता हुआ रंगमंच का अपना ही एक इतिहास है यह जानना किसी भी कलाप्रेमी के लिए अपने आपमें एक सुखद अनुभूति देता है. जिस प्रकार भारत का दिल गाँव में बस्ता है ठीक उसी प्रकार सच्चा रंगमंच तमाम ग्रांटों, एनजीओ छाप रंगमंच से दूरी बनाये रंगमंच में ही धडकता है. रंगमंच पेशा से ज़्यादा पैशन है. ‘हम इसके बिना नहीं रह सकते’ यह कथन है इप्टा के डोंगरगढ़ इकाई के एक सदस्य का.
“जनता के रंगमंच की असली नायक जनता है” इस सूत्रवाक्य एवं सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद की कृति ‘नगाडावादक’ से सुसाज्जित इप्टा का गठन 25 मई 1943 को हुआ था. इप्टा यानि इंडियन पीपुल्स थियेटर एशोसिएशन (भारतीय जन नाट्य संघ), यह नामकरण करने का श्रेय विश्वविख्यात वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा के नाम है. सामाजिक सरोकार से जुड़े तमाम कलाकारों को एक मंच प्रदान करना इप्टा के मूल मकसदों में से एक है. समय के साथ कई उतार चढाव का दौर आया फिर भी आज पुरे देश में इप्टा की लगभग 600 इकाइयां कार्यरत हैं, जो अपने-आपमें एक विश्व कीर्तिमान माना जाना चाहिए.
“कला कला के लिए हो सकती है. मगर हम केवल ‘थियेटर’ नहीं करते, ‘मूवमेंट’ करते हैं और इसलिए यह ज़रुरी हो जाता है कि आज के समय के सबसे बड़े शत्रु के विरुद्द धर्मयुद्ध को ज़रिया बनायें और असल ज़िंदगी में जबरन सूत्रधार की भूमिका अपनाकर बैठे हुए विदूषकों को मंच से उठाकर बाहर फेंक दें. प्रत्यक्ष शत्रु से लड़ना आसान होता है, लेकिन लड़ाई तब मुश्किल हो जाती है जब दुश्मन की पहचान का संकट हो. वे हमारे ही भेष में होते हैं और कब-कैसे वार करेंगें इसका कोई अंदाज़ा नहीं होता.” – ये चंद पंक्तियाँ हैं डोंगरगढ़, इप्टा के रजत जयंती समारोह के अवसर पर आयोजित प्रांतीय सम्मलेन के स्मारिका के. उपरोक्त बातों से गुज़रते ही इस संस्था का उद्देश्य की एक स्पष्ट झलक मिलाने लगती है.
मानवीय सरोकारों के प्रति समर्पित डोंगरगढ़ इप्टा के सफ़र की शुरुआत सन 1983 में स्व. चुन्नीलाल डोंगरे के नेतृत्व में हुई. तब से लेकर अब तक लगातार सक्रिय इस जनवादी नाट्य दल ने कई प्रमुख नुक्कड़ तथा मंच नाटकों का प्रदर्शन अपने सीमित संसाधनों के बावजूद सफलतापूर्वक संपन्न किये. जिसमें मुर्गीवाला, विरोध, महंगाई की मार, सड़क पर गड्ढा, सदाचार का तावीज़, तलाश, सबसे सस्ता गोश्त, अंधेर नगरी चौपट राजा, जमराज का भांटो, देश आगे बढाओ, रेल का खेल, मशीन, अंधे-काने, जनता पागल हो गई है, घर कहाँ है, रोटी नाम सत्य है, ठाढ़ द्वारे नंगा, जंगीराम की हवेली, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर, किस्सा कल्पनापुर का, प्लेटफार्म नम्बर चार, राजा का बजा, चार बहरे, अकड गयो, अभिशाप, अनपढ़ के फजीता, शहर के बोली, अंते तंते आदि नाटक प्रमुख हैं. वहीं समय-समय पर स्मारिकाओं का प्रकाशन भी होता रहा. जनगीतों के कुछ ऑडियो सीडी भी संगीतकार व गायक मनोज गुप्ता के निर्देशन में निकाला गया.
मनोज गुप्ता द्वारा संगीतबद्ध किये और गए जनगीतों को सुनकर एवं संगीत तैयार करते समय उनके द्वारा अपनाये क्राफ्ट को समझकर उनकी प्रतिभा का आभास अपने-आप ही मिलता है. परम्परा और प्रयोग का उचित मिश्रण से लबरेज़ इनका संगीत सुनाने के बाद यह विश्वास और प्रखर हो जाता है कि भारतीय रंग संगीत का दायरा केवल चंद गिने-चुने प्रसिद्द नामों तक ही सीमित नहीं है बल्कि शहर-शहर और गाँव-गाँव में फैला हुआ है. प्रसिद्धि, प्रतिभा का मोहताज़ हो सकती है किन्तु प्रतिभा प्रसिद्धि की मोहताज़ हो यह ज़रुरी नहीं.
वर्तमान में डोंगरगढ़ इप्टा का कार्यभार मूलतः तीन व्यक्तियों के कंधों पर है. राधेश्याम तराने (अभिनेता, निर्देशक), मनोज गुप्ता (गायक, संगीत निर्देशक) एवं दिनेश चौधरी (अध्यक्ष, इप्टा, डोंगरगढ़). दिनेश चौधरी अपनी नौकरी से वीआरएस ले चुके हैं और पुरी तरह इप्टा के समर्पित हैं. बाकि दोनों नौकरी करते हुए रंगमंच की गाड़ी लगभग पिछले तीन दशक से अनवरत चला रहे हैं. इप्टा के बाकि सदस्य दिन भर जीवनयापन के लिए काम-धाम करते हैं और शाम को नाटक. इस दौरान इन्होनें बतौर कलाकार अच्छे-बुरे सारे दिन देखे पर कभी अपने अंदर की कला और कलाकार को स्थिर नहीं बैठने दिया. परिस्थिति चाहे जैसी हो लगातार सक्रियता ही इनके कला जीवन का मूल मन्त्र है. इन्हें कोई मलाल नहीं कि ‘तथाकथित’ मुख्यधारा तथा सरकारी रंगमंच में इनके नाम का जाप नहीं होता या ग्रांट पानेवाले रंगकर्मियों की लिस्टों में इनका नाम शामिल नही है. दर्शकों का स्नेह और उनके प्रति ज़िम्मेदारी ही इनकी सबसे बड़ी दौलत और इनके कला का मूल उद्देश्य है. देखनेवाले के चहरे पर संतुष्टि के भाव मात्र से ही इनकी कला सार्थक हो जाती है. ये दर्शकों का मनोरंजन नहीं बल्कि सार्थक और अर्थवान मनोरंजन करते हैं. वे अपनी कला के माध्यम से जनता के बीच सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि हस्तक्षेप प्रस्तुत करते हैं जिसके जनता का मनोरंजन मात्र नहीं होता बल्कि उसकी सांस्कृतिक चेतना का भी विकास होता है.
डोंगडगढ़ का रंगमंच पुरी तरह से जनसहयोग से चलता है. हर साल यहाँ एक राष्ट्रीय स्तर का नाट्य समारोह का आयोजन किया जाता है. पुरे शहर में कोई उपयुक्त प्रेक्षागृह न होने के कारण इसका आयोजन बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण में किया जाता है. नाटक करने के लिए यह प्रागंण इन्हें लगभग निःशुल्क मिल जाता है. जहाँ इन्हें मंच, टेंट, कुर्सियां, लाईट, साउंड आदि की व्यवस्था करनी पड़ती है. साउंड सिस्टम नजदीकी जिले से तथा लाइट भिलाई से आता है. टेंट और कुसियाँ लगाने का ज़िम्मा राधेकृष्ण कन्नौजिया का होता है जो खुद टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और इप्टा के सदस्य भी हैं, सो इस काम के लिए वो इप्टा से कोई पैसा नहीं लेते. बाहर से आनेवाली नाट्य दल लगभग समान्तर सोच की होती है इसलिए मूलभूत सुविधाओं में भी हर साल यहाँ अपने नाटकों का प्रदर्शन करना इनकी दिली चाहत होती है, जिसका मूल कारण है यहाँ के आयोजकों और दर्शकों का अपार स्नेह. आयोजन का खर्च जनता के बीच जाकर चंदे से इकठ्ठा किया जाता है.
छोटे शहरों में सब एक दूसरे को जानते हैं और यहाँ रिश्ते जीवंत होते हैं किन्तु समय की चुनौतियों का सामना सबको करना पड़ाता. कभी लंबी सक्रिय सदस्यों की सूचि अपने पास रखनेवाली डोंगडगढ़ इप्टा के सक्रिए सदस्यों की संख्या आज उतनी नहीं है कि गौरवान्वित हुआ जा सके. कुछ पुराने और अति-सक्रिय सदस्यों का निधन हो चुका है, कुछ रंगमंच के प्रति अपार स्नेह रखते हुए भी दाल-रोटी के जुगाड़ में लग जाने को अभिशप्त हो गए, तो कुछ का रंगमंच से मोह भंग भी हुआ. रंगमंच और समाज आज भी रंगकर्मियों को सिवाय तालियों के कुछ और देने की स्थिति में नहीं हैं. तालियों से मन की भूख तो मिट जाती है पर तन की नहीं. फिल्म, क्रिकेट, शराब आदि के लिए ये समाज अपना जेब आराम से खाली करता है किन्तु रंगमंच के लिए भी जेब खाली करनी चाहिए ऐसी सोच अभी-तक हिंदी समाज में पैदा नहीं हो पाया है.
तमाम तरह के रुकावटों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए डोंगडगढ़ इप्टा ने नए-नए रास्ते तलाशने शुरू किये हैं और अपने साथ नए-नए सदस्यों को जोडने की प्रक्रिया भी शुरू की है. साथ ही इन नए सदस्यों के प्रशिक्षण के लिए बाहर से भी किसी प्रशिक्षक को बुलाना शुरू किया है. इसके लिए ये हर साल गर्मी की छुट्टियों में “बाल नाट्य कार्यशाला” का आयोजन करते हैं. जिसमें नाटक के विभिन्न आयामों के व्यावहारिक प्रशिक्षण के साथ ही साथ पेंटिंग आदि की प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है. इस वर्ष यह कार्यशाला 31 मई से आयोजित की गई. जिसका समापन 15 जून को कार्यशाला में तैयार किये नाटक - हम हैं कौए (निर्देशक – अपर्णा), इत्यादि (राजेश जोशी की कविता पर आधारित प्रायोगिक नाट्य प्रस्तुति) एवं अंघेर नगरी चौपट राजा (लेखक - भारतेंदु हरिश्चंद्र) के साथ ही साथ मनोज गुप्ता के संगीत निर्देशन में तैयार जनगीतों के गायन से हुआ. आयोजन के दिन सुबह से ही बर्षा हो रही थी और उस दिन भारत-पाक क्रिकेट मैच भी था फिर भी न अभिनेताओं में उत्साह में कोई कमी थी ना ही दर्शकों में और ना ही आयोजकों में. उपरोक्त कार्यशाला में 3 से 15 साल के कुल लगभग एक सौ बच्चों ने भागीदारी की थी. इनमें से कुछ बच्चों का रंगमंच के प्रति उत्साह देखकर यह सहज ही समझ आता था कि यदि इन्हें अभी से रंगमंच की विधिवत प्रशिक्षण मिले और ये लगातार सक्रिय रहे तो आनेवाले दिनों में इन्हें बेहतर रंगकर्मीं के रूप में विकसित किया जा सकता है.   
गत दिनों डोंगडगढ़ से ही दिनेश चौधरी के संपादन में रंगमच पर केंद्रित ‘इप्टानामा’ नामक 248 पृष्ठों की पत्रिका का प्रकाशन भी हुआ है.

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...