Tuesday, January 29, 2013

झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन का क्रिकेट !


इधर झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगने की घोषणा हुई उधर झारखण्ड की राजधानी राँची में झारखण्ड स्टेट क्रिकेट एशोसिएशन ( जेएससीए ) के स्टेडियम का सामूहिक उद्घाटन किया गया | भारतीय क्रिकेट महानगरों से निकलकर छोटे शहरों की ओर उन्मुख हो रहा है ये कितना शुभ और अशुभ संकेत है ये तो समय ही बताएगा लेकिन इसके पीछे कहीं न कहीं अत्याधिक क्रिकेट खेलना और छोटे शहरों को भी क्रिकेट बाज़ार की गिरफ़्त में लेकर अपना साम्राज्य स्थापित करना भी है | कारपोरेट क्लब क्रिकेट के आज के युग में ये कहना कि क्रिकेट केवल एक खेल है बाकी कुछ नहीं, समसामयिक वक्तव्य नहीं लगता | अब यहाँ अर्थ, काम, मदिरा, सट्टेबाजी के साथ जोड़-तोड़ की एक सामानांतर सत्ता है और महिला क्रिकेट - पुरुष क्रिकेट, लोकल क्रिकेट - कारपोरेट क्रिकेट - अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का भेद भाव भी है |
एक क्षेत्रीय पार्टी के दिवासपनों की वजह से अगर सरकार न गिरी होती तो इस स्टेडियम का उद्घाटन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के महान ‘उदारवादी’ नेता करनेवाले थे ! भारतीय राजनीति में इधर कुछ ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व और वर्चस्व बढ़ा है जिनका मूल सिद्धांत सत्ता सुख भोगना है | इसके लिए वे किसी से भी हाथ मिला सकते हैं | ज्ञातव्य हो कि विधायकों की खरीद फरोख्त और बंधक बनाने का हास्यापद खेल भी यहाँ खेला जा चुका है | बहरहाल, आज से बारह साल पहले झारखंडी अस्मिता के नाम पर बिहार से अलग होकर झारखण्ड अस्तित्व में आया था | इस दौरान कुल आठ सरकारें बनी और अब तक तीन बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है, वहीं एक से एक बड़े नेताओं ने छोटे-बड़े घोटालों में अपना नाम शामिल करके दिखा दिया कि हम किसी से कम नहीं है | राष्ट्रपति शासन लगने के साथ ही साथ भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान और झारखण्ड के ‘सपूत’ महेंद्र सिंह धोनी ने टॉस जीता और भारतीय दल के फिल्डिंग करने के फैसले के साथ ही राँची में नवनिर्मित स्टेडियम में क्रिकेट का जूनून भरा खेल शुरू हो गया |
हेवी इंजीनियरिग कारपोरेशन ( एचआईसी ) द्वारा प्रदत् ज़मीन पर निर्मित इस स्टेडियम के उद्घाटन कार्यक्रम में स्टेडियम का शिलान्यास करने वाले झारखण्ड के एक कद्दावर नेताजी तक को नज़रंदाज़ कर दिया गया | हाईकोर्ट का निर्देश था कि इस स्टेडियम से आम जन को दूर नहीं रखा जायेगा और उन्हें भी अभ्यास करने दिया जायेगा |  स्टेडियम के नामकरण में एचईसी और उसके लोगो के प्रयोग किये जाने का भी वादा था, पर वादे हैं वादों का क्या ! अब वर्तमान व्यवस्था में जो संस्थान नेताओं और एचईसी जैसों को भाव नहीं देता वो गरीबी, भुखमरी, शोषण की मार झेलते आमजन को कितना भाव देगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है | जिस राज्य के हुक्मरानों को मुफ़्तखोरी की आदत पड़ चुकी हो वहाँ आमजन की चिन्ता है ही किसे !
मुफ़्त के टिकट और पास पाके अपने को विशिष्ट समझना एक बीमार समाज और मानसिकता का घोतक है | राँची स्टेडियम की कुल क्षमता करीब 38,000 दर्शकों की है जिसमें लगभग आधी सीटों की मुफ़्तखोरी हुई | इस मुफ़्तखोरी में शासक वर्ग बेशर्मी की हद तक शामिल हुआ | जैसा कि ज़ाहिर है कि शासकवर्ग की अय्याशियों की कीमत भी आम आदमी ही चुकता है सो जो टिकट बेचे गए वो ज़रूरत से ज़्यादा मंहगे थे | ऐसी ख़बरें भी आई कि कुछ लोगों ने अपने पासों की कालाबाज़ारी भी की और उन्हें कई गुना बढ़ी कीमत पर बेचा | इस कृत में  कुछ मीडियाकर्मियों के संलग्न होने की खबरें भी आईं |
क्रिकेट के लिए ये भी सही 
दफ्तर, स्कूल, कॉलेज आदि में छुट्टी का माहौल रहा, जैसे कोई राष्ट्रीय पर्व हो | राष्ट्रपति शासन के लिए न सही क्रिकेट मैच के लिए ही सही | छुट्टी तो छुट्टी होती है | चाहे जिस भी एवज में हो ! जन्मदिन पर हो या मरणदिन, क्रिकेट हो या राष्ट्रपति शासन | 
सरकार गिर गई, राष्ट्रपति शासन लग गया, क्रिकेट मैच के लिए जनता दीवानी हो गई पर आश्चर्य कि इस मुद्दे पर किसी तरह की कोई प्रखर जन प्रतिक्रिया देखने या सुनने को नहीं मिली ! तो क्या यह जनता की सरकार नहीं थी, या क्रिकेट का जूनून किसी भी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक मुद्दे से बड़ा है | इस प्रजातंत्र में विश्वास करने वाले तो चुनाव से जीती सरकार को अंधभक्त की तरह जनता की सरकार मानतें हैं और सरकार की जनविरोधी नीतियों के लिए नेताओं और तंत्र को दोषी मानतें हैं, व्यवस्था को नहीं ! तो क्या प्रजातंत्र के वर्तमान बुनावट में ही कोई खतरनाक समस्या नहीं है कि जहाँ जनता की ज़रूरत वोट बैंक और यदा-कदा जनसेवा करके जनता की सरकार कहलाने की मान्यता के लिए है ! जनता भी समय-समय पर कुछ कम कमाल नहीं करती ! क्रिकेट सितारों को देखने और क्रिकेट मैच के टिकट कटाने के लिए तो कड़कड़ाती ठण्ड को भी मात दे देती है पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मुद्दे पर यही जूनून बेचारगी में बदल जाती है | प्रतिरोध के स्थान पर कोरी भावुकता और मासूमियत का बोलबाला हो जाता है और हम निरीह आमजन क्या कर सकतें हैं का एकालाप शुरू हो जाता है | वर्तमान समय में भारतीय राजनीति ( संसदीय व गैर संसदीय ) ने जनता का विश्वास खो दिया है ? वर्तमान में ऐसी हवा भी चलने लगी है जहाँ लोग बिना किसी पार्टी के झंडे के सड़कों पर उतारे, पुरज़ोर आंदोलन भी किया और पार्टियों के पास अंगूर खट्टे हैं का जाप करने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा |
माना की राँची में पहली बार क्रिकेट मैच का आयोजन हो रहा था पर लोगों ने जिस तरह से इस हाड़ कांपती कडकती सर्दी में टिकट के लिए आधी रात को कम्बल लेकर और आग जलाकर लाईन लगाया वो अपने-आप में अद्भुत और अविश्वसनीय था | नेतागन भी पास और टिकट के जुगाड़ में रूठते और मानते रहे बजाय झारखण्ड और राजनीति की चिंता करने के | टिकट काउंटर खुलने के दिन से लेकर मैच के दिन तक प्रशासन के सामने ही खुलेआम टिकटों की कालाबाज़ारी चलती रही | 1200 रु. के टिकट 5000 रु. तक में बेचे गए | वहीं लोकतंत्र के चौथे खम्भे ने इन दिनों अपने पन्नों पर लोक की जगह क्रिकेट का जूनून और तंत्र की जगह पर गिल्ली, डंडा, बल्ले और गेंद को बैठा दिया है | जब से भारत और इंग्लैड के खिलाड़ी राँची में आए तब से पल-पल की खबरों और क्रिकेट के दीवानों की तस्वीरों से भर गया है सारा अखबार और राष्ट्रपति शासन समेत तमाम ख़बरों ने विज्ञापनों से बची जगहों को भरने का काम किया | यहाँ तक कि बलात्कार का मुद्दा भी गेंद और बल्ले की कशमकश में गुम हो गया |
कोई किसी से कम नहीं 
यह कैसा संकेत है ? जीवन की मूलभूत समस्यायों के प्रति एक तरफ इतनी उदासीनता वहीं उन्माद में इतनी संलग्नता से क्या कोई संकेत नहीं मिल रहा कि समाज आज किस दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा है ? भारतीय राजनीति मानवता के किस धरातल पर खड़ी है | वोट बैंक वाली जैसी राजनीति आज हमारे मुल्क में हो रही है उससे एक न एक दिन मोहभंग होना ही है | पर निराशावादी राजनीति का जवाब आशावादी राजनीति से दिया जाना चाहिए नहीं तो जो चीज़ मुल्क को गिरफ़्त में लेगी उसे दुनियां अराजकता के नाम से जानती है और अराजकता किसी भी समाज के लिए एक अभिशाप हो सकता है आदर्श नहीं ? जहाँ उन्माद तो बनाया जा सकता है पर जन की मूलभूत समस्याएं को सुनाने वाला कोई नहीं होगा | जहाँ तिरंगा लहराकर स्टेडियम शोर पैदा करनेवाले को देशभक्त और तटस्थ होकर खेल का आनंद लेनेवाले को देशद्रोही करार दिया जाएगा |
बहरहाल, राँची में भारतीय क्रिकेट टीम ने शानदार तरीके से जीत दर्ज़ किया और एक बार फिर दुनियां में नंबर एक बन गयी | इस उपलब्धि को हासिल करने के एवज में लोगों ने जम के जश्न मनाया, नागरिकों ने अखंड कीर्तन तक का आयोजन कर डाला | वहीं देसी-विदेशी खिलाडियों को एक नज़र देख भर लेने के लिए लोगों ने पत्थर फेकें, पुलिस के डंडे खाए | धोनी के घर के आगे भीड़, होटल के आगे भीड़, रास्ते में भीड़, भीड़ ही भीड़ | जिसकी जैसे चली सबने अपना रोब चलाया | आरक्षित सीटों पर सेना ने रिज़र्व का स्टिकर चिपकाया और दूसरों के उधर आने पर जमकर रोब कटा | मंत्री-विधायक, अख़बारों के सम्पादक, पत्रकार, अधिकारीगण, ठेकेदार, उद्योगपति आदि पास के लिए मुंह फुलाए रहे | बिना इस बात की चिंता किये कि गरीबी, बदहाली, कुशासन, राष्ट्रपति शासन आदि झेलता झारखण्ड दिन ब दिन किस अँधेरी गुफा में जा रहा है | बहरहाल, क्रिकेट टीम झारखण्ड से फुर्र हो चुकी है और राष्ट्रपति शासन को सुचारू रूप में चलाने के लिए अधिकारियों का आगमन हो चुका है | इधर नेताओं के लिए अब भी रास्ता खुला है कि बहुमत साबित करें और सत्ता सुख का आनंद लें |

Saturday, January 26, 2013

शासकवर्ग का उत्सव जनता का उत्सव हो सकता है बशर्ते ......


गणतंत्रता दिवस | देश का हर नागरिक इसे हर्ष-उल्लास के साथ मनाता है या सबको मनाना चाहिए, ऐसा माना जाता है | सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों में यह राष्ट्रीय अवकाश का दिवस होता है, यहाँ कार्यरत लोग अपने परिवार के साथ छुट्टी मनातें हैं, टीवी पर झंडोतोलन देखतें हुए | वहीं मजदूरवर्ग रोज़ की भांति इस दिन भी काम पर या कम की तलाश में निकलता है | जिनका जीवन रोज़ कमाना और रोज़ खाना है, उन्हें राष्ट्रीय छुट्टी भी छुट्टी नहीं दिला पाती | बुज़ुर्ग कहतें हैं कि यह एक पवित्र दिन है, लोगों को तमाम बातें भूलकर इसे मनाना चाहिए | इसके लिए देश की आज़ादी, आज़ादी की लड़ाई की कुर्बानी आदि के सैकड़ों प्रेरणादायक किस्से भी सुनातें हैं | पर सवाल ये है कि जो आवाम सालों से अभाव, दुःख, दर्द सहन करने को अभिशप्त है वो साल के दो दिन ( पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी )  सब भूलकर उत्सव कैसे, कहाँ और क्यों मनाये ? ये तर्क यहाँ बड़ा ही बचकाना, यथास्थिवादी और अंधविश्वास को प्रेरित करनेवाला लगता है कि जीवन दुखों की खान है हमें इन्हीं दुखों के बीच खुश रहना सिखाना चाहिए | यह लगभग वही बात हुई कि देश में हत्या, क्रूरतम से क्रूरतम सामूहिक बलात्कार, फर्ज़ी मुठभेड़, अमीरी-गरीबी, घोटालों, जनवादी ताकतों पर प्रतिबन्ध, असहमति का बलपूर्वक दमन, कट्टरपंथियों का मौन समर्थन, अभिव्यक्तियों पर सेंसर आदि जो कुछ भी चल रहा है, सब भूलकर आज के दिन जनतंत्र का उत्सव मनाओ !
हालांकि कोशिश हमेशा यही होती है कि राज उत्सव जन-उत्सव भी माना जाय पर यह कत्तई ज़रुरी नहीं कि शासकवर्ग का उत्सव जनता का उत्सव हो | इस दिन देश तथा राज्य के हर राजधानी, संस्थानों आदि में राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है, लड्डू बांटी जाती है ( बचपन में हमारे स्कूलों में लड्डू या बुंदिया बंटता था, जो हम जैसे साल में एकाध बार मिठाई के दर्शन करनेवाले बच्चों के लिए ज़्यादा उपयोगी था, तात्कालिक ही सही. ) और हमारे नेतागन और हुक्मरान भाषण देतें हैं ! हमारे घरों के छतों पर भी यह झंडा केवल एक दिन के लिए ही सही पर लहराता है | इस दिन देशभक्त हो जाना लगभग सबको अच्छा सा लगता है | कारों, मोटरसाइकिलों पर भी तिरंगे का कब्ज़ा हो जाता है और घोटालों की ढेर पर बैठी सरकारें भी देशभक्ति का नारा बुलंद करने और संविधान के प्रति आस्थावान होने का ज़ोरदार दावा ठोकने लगती है | दिल्ली के आयोजन में आज भी किसी देश के राजा-रानी, सामंतवाद के प्रतीक के रूप में अतिथियों की कुर्सियों पर सुशोभित रहतें हैं | प्रजातंत्र के उत्सव में राजा-रानी का क्या काम ?
आज टीवी खोला तो परेड के शक्तिप्रदर्शन के प्रसारण से पूर्व राष्ट्रीय चैनल ( दूरदर्शन ) पर बिस्मिल्ला खां शहनाई बजा रहे थे और लाइव लिखा हुआ था | बिस्मिल्ला खां साहेब आज इस दुनियां में नहीं है, फिर ये लाइव प्रोग्राम का फंडा समझना ज़रा सुपर-नैचुरल हो गया | अखबार खोला तो पन्ने का पन्ना बधाई संदेशों से भरा पड़ा है | अधिकतर ऐसे लोग जनता को गणतंत्र दिवस की बधाई दे रहे हैं जो सालों भर लूट और भ्रष्टाचार में संलग्न रहें हैं | कुछ अच्छे लोगों का भी नाम है इस लिस्ट में, पर इसे अपवाद जैसा ही कुछ माने | एक ऐसा व्यक्ति जो देशद्रोही नहीं है जिसे इस देश पर गर्व हो या न हो पर प्यार किसी से कम नहीं है, क्या उसे आज के दिन सब कुछ भूलकर सहृदयता का जीता-जगता पुतला बनके इन बधाई संदेशों को बेशर्मी पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए ? ये सन्देश अख़बारों में कैसे छापतें हैं इसका एक पूरा चक्रव्यूह है | अखबार और विज्ञापन का एक बड़ा ही मजेदार खेल है, मेल-ब्लैकमेल से भरा हुआ ! अख़बारों से जुड़े लोग मज़ाक में ही सही इसे वसूली दिवस भी कहतें हैं |
बहरहाल, आज बहुत से लोग को राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया जायेगा | उसमें वैसे लोग भी होगें जिन्होंने राष्ट्र के लिए कौन सा योगदान किया है इसका पता नासा भी नहीं लगा सकता |
अंधभक्ति और राष्ट्रभक्ति, मासूमियत और मूर्खता, संविधान का अनुपालन और व्यवस्था के अनुपालन में फर्क है और वर्तमान व्यवस्था यह कतई नहीं चाहेगी कि आवाम इस फर्क को पहचाने | धीरे-धीरे यह दिवस रीढविहीन और मात्र एक उत्सव बनाता जा रहा है, कारण कि इस मुल्क का प्रजातंत्र अपने उद्देश्य में बहुत ज़्यादा सफल नहीं कहा जा सकता | देश की अधिकतर आबादी आज भी मूल ज़रूरतों से महरूम है | अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ी है | जब तक समाज का आखिरी व्यक्ति तक खुशहाल न हो और अच्छे व्यकि के साथ बेचारा ( बेचारा अच्छा आदमी था/है ! ) शब्द हट न जाए तबतक किसी भी दिवस की उत्सवधर्मिता की कोई सार्थकता पर शक है | वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण आदि के वर्तमान दौर में जन समस्यायों का समाधान सरकारी तरीके से हो पायेगा, इस पर सहज विश्वास करने का दिल, अब नहीं करता | ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी नामक गीत आखों में आंसू तो लाता है पर उसका असर अब वैसा नहीं होता जैसा होना चाहिए | ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का नामक गीत अब देशभक्ति से ज़्यादा शादियों में नाचने के काम आता है |  हम वर्तमान में एक ऐसे मुल्क में रह रहें हैं जहाँ  कफ़न, ताबूत, बोफोर्स, वर्दी आदि तक का घोटाला होता है और मुल्क का तंत्र भ्रष्टाचार की आंधी में बुरी तरह से गिरफ़्त है, वहीं आमजन और स्त्रियां भय में जीने को अभिशप्त हैं  | जब तक समतामूलक और भयविहीन समाज का निर्माण नहीं होता तब तक तमाम शक्ति प्रदर्शन और मोटे-मोटे ग्रंथ उत्सवधर्मिता का तो कार्य बखूबी अंजाम दे सकतें गौरव का नहीं | मिसाइल, तोप और मिलिट्री देश की सुरक्षा तो कर सकतें हैं देशवासियों की सुरक्षा नहीं |

Tuesday, January 22, 2013

कथादेश वाले हरिनारायण बाबू को मालूम हो कि ....


आज हरिनारायणजी सम्पादित और अर्चना वर्माजी द्वारा सहसम्पादित - साहित्य, संस्कृति और कथा का समग्र मासिक कथादेश का दिसम्बर 2012 का अंक मिला | पत्रिका में प्रकाशित सामग्री पर कोई विचार दूँगा तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला होने लगेगा, तो रचना और रचनाकार पर बात नहीं करेंगें | पर इतना ज़रूर कहेंगें कि किसी एक व्यक्ति को किसी पत्रिका में लगातार एक ही विषय पर नहीं लिखना चाहिए | यह एक बोझ जैसा भी हो जाता है लिखनेवाले और पढ़नेवाले के लिए भी | पाठक किसी खास व्यक्ति के किसी खास विषय पर विचार बार-बार पढ़कर बोर भी होने लगता है | फिर ऐसे आलेखों में अमूमन एकपद्दो ( एक पद वाले ) राग का गायन भी होता है | कथादेश में ऐसा कॉलम है जिसे वर्षों से एक ही व्यक्ति लिखे जा रहा हैं, ये ‘छप ही जाऊंगा’ का अति-आत्मविश्वास भी बड़ा घातक होता है | सो ऐसी बातों पर पत्रिका के सम्पादक मंडल व स्वंय लेखक को भी लेखकीय ईमानदारी बरतते हुए विचार करते रहना चाहिए |  भले ही जीवन की मूलभूत समस्याएं आज भी मुंह बाये खड़ी है पर युग बदला है, बदलता है | चीज़ें सत्तर के दशक के मापदंडों से आगे बढ़ीं हैं | कई युवा लोग इस वजह से कथादेश में उस खास विषय पर अपने आलेख नहीं भेजते कि वहाँ तो फलां आदमी शालिग्राम की तरह स्थापित है | वहाँ किसी और के लिए जगह ही कहाँ है | एक तरफ़ आज कथादेश में कई कॉलम के लेखक फिक्स  हैं वहीं पुनर्प्रकाशन के दिन से आज तक सम्पादकीय नामक पन्ने की तलाश जारी है | वैसे रोज़ एक कहानी के साथ मंटो जैसा लेखक जब न्याय नहीं कर सका तो ..|
कथादेश का यह अंक पलटने पर ऐसा लगा जैसे जूठे बर्तन में ताज़ा खाना परोसा गया हो | इतना घटिया कागज़ कि इस पन्ने का मैटर उस पन्ने पर ऐसे झांक रहा है जैसे बादल से चाँद झांकता है और छपाई ऐसी कि ‘क’ फैलकर न जाने कब चुपके से ‘छ’ बन चुका है और ‘भ’ तथा ‘म’ में विषमता समाप्त हो कर इस प्रकार समता स्थापित हो गई है कि इसे फ़िल्मी अंदाज़ में दो जिस्म एक जान होना भी कह सकतें हैं  | पन्ने भारतीय सामंतवाद की तरह बेदर्दी से अकड़े ऐसे मुडे हैं कि अक्षर ने छपने की हिम्मत कहीं दिखाई है और कहीं आदाब बजाके ही निकल लिया | किसी–किसी पन्ने पर तो अक्षर खून टपकाते हुए प्रतीकों में तबदील हो चुकें हैं, वो तो शुक्र मानिये कि काले रंग की छपाई है वरना पुरी पत्रिका अक्षरों के लहू से लाले-लाल हो जाती | किसी-किसी पन्ने पर शब्दों के फेड इन, फेड आउट का खेल चल रहा है तो कहीं अक्षर डबल, ट्रिपल रोल निभा रहें हैं | तस्वीरों को तो ऐसे छापा गया है कि जिनकी भी तस्वीरें हैं वो खुद पहचानने से इनकार कर दे ! हो सकता है कि अपनी कुरूपता पर डर भी जाए |
सवाल यह है कि 25 रूपये मूल्य और केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की सहायता से प्रकाशित यह मासिक पत्रिका अपने पाठकों के साथ ऐसा क्यों कर रही है ! पाठकों के साथ ही नहीं बल्कि उन रचनाकारों के साथ भी जो अपना खून जलाकर रचना करते हैं, चाहे उन रचनाओं का स्तर जो भी हो | क्या पत्रिकाओं ने झोला छाप नेताओं की तरह सौंदर्य ( लुक ) को सामंतवाद का पर्याय मान लिया है | आखिर किस बात की कमी है कथादेश को ? पैसों की ? सूचना एवं प्रसार निदेशालय, ओएनजीसी और मध्यप्रदेश सरकार का पूरे पन्ने का रंगीन विज्ञापन भी क्या पत्रिका निकालने और पत्रिका से जुड़े लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं हो रहा ? अगर कोई प्रजातांत्रिक देश और देश का आवाम किसी साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक पत्रिका के चंद हज़ार प्रति भी प्रकशित करने का संसाधन नहीं देती तो लानत है और यदि तमाम संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद कोई स्तरहीनता और भद्देपन का शिकार है तो उतनी ही मात्रा में लानत यहाँ भी है |
हो सकता है कि यह एक संयोग मात्र हो कि मुझे जो प्रति मिली केवल उसकी ही हालत ऐसी हो ! पर ऐसी एकलौती कॉपी का भी बाज़ार में आना और किसी के पास 25 रुपये के एवज में पहुँचाना कैसे उचित हो सकता है ? वैसी कागज़ और छपाई में इस्तेमाल स्याही का जो स्तर है उससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अधिकतर प्रतियाँ कैसी होगीं |
एक ज़माना था कि हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल आदि साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ाने-संग्रह करने का काम एक जूनून के तहत अंजाम दिया जाता था | जेब के खालीपन के बावजूद नए अंक का कौन कहे पुराने अंक तक पढ़े बिना दिल है कि मानता नहीं था | मित्रों में आपस में बंटवारा भी था कि किसे कौन सी पत्रिका खरीदनी है और सब बारी-बारी मिल बाँटके पढेंगें, कभी अकेले कभी सामूहिक | अच्छी रचनाओं को पढ़ना और दूसरे को पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी आदत में शुमार था | चीज़ें नया ज्ञानोदय, तदभव, पहल सहित कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं तक पहुंची | फिर कुछ समयाभाव और कुछ पत्रिकाओं के स्तर का कमाल था कि ज़्यादातर मामला उलटने-पलटने तक ही सीमित हो गया | हां, कुछ अच्छा जैसा दिखता या कोई पढ़ने को कहता तो जैसे-तैसे समय निकालकर या रात की नींद हराम कर ज़रूर ही पढ़ लेता | यात्रा करते वक्त सुबह शाम बस, ऑटो और मेट्रो के धक्कों के बीच भी पढ़ाई चालू रहती | इसी दौरान कई ऐसी रचनाएं भी पढ़ने को मिली जिसके पढ़ते ही लेखक को फोन करके बधाई देने का मोह नहीं त्यागा जा सका | पर साहित्यिक कबाड़ ही ज़्यादा पढ़ने को मिला | एक तरफ़ जहाँ पत्रिकाओं की संख्या बढ़ रही है वहीं गुणवत्ता का आलम हवा-हवाई हो रहा है | ब्लॉग, वेब के वर्तमान दौर में ऐसा नहीं है कि अच्छा लिखनेवाले नहीं हैं, पर पत्रिका गुणवत्ता के आधार पर निष्पक्षता से चीज़ों का प्रकाशन करती हैं, ऐसा वही मानते हैं जो लगातार छपास सुख का आनंद ले रहें हैं !
गत दिनों हिंदी के अखबार पर कुछ आपत्ति ज़ाहिर की गयी तो किसी अखबारी लेखक ने फाटक से मोर्चा सँभालते हुए जवाब दिया हिंदुस्तान में अखबार पाठक के बदौलत नहीं, विज्ञापन के बदौलत चलता है, ये एक धंधा है समाज सेवा नहीं | तो साहित्यिक पत्रिकाओं का आलम भी क्या कुछ ऐसा ही है ? ये पत्रिकाएं आज भी जहाँ दिखे उलट-पलट लेना और मौका देखकर खरीद लेना आदत में शुमार है | बिहार तो बदनाम है ऐसे कारनामों के लिए | यह जूनून भी है और आशिकी भी, पर इतनी ईमानदारी तो बरतो सनम कि मैं तुम्हें और तुम मुझे बे-शर्त प्यार कर सको |
पुनश्च – मालूम हो कि यह एक विनम्र शिकायत है, आलोचना नहीं | जल्दी से स्वस्थ हो जाओ | Get well soon.

Sunday, January 13, 2013

राष्ट्र का तिरंगा बनाम कांग्रेस का तिरंगा बनाम तिरंगा गुटखा.


गुजरात चुनाव के मातहत कांग्रेस पार्टी का विज्ञापन. उम्मीद है आपने भी देखा होगा. मेरे बगल में बैठे एक सामाजिक चिन्तक ने विज्ञापन खत्म होते ही कहा – वाह, नतीज़ा चाहे जो भी निकले पर कांग्रेस ने बड़ा ही काव्यात्मक विज्ञापन बनाया है. मसलन कि गुजरात में कोंग्रेस जीतेगी ऐसी उम्मीद तो शायद कांग्रेस समर्थकों को भी नहीं थी. बहरहाल विज्ञापन खत्म हो चुका था और मैं उस विज्ञापन में दिखाए आखिरी इमेज पर अटक गया था. इस इमेज में भारत का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा आता है पर बीच का चक्र गायब है. चक्र की जगह हाथ है. जिसे कांग्रेस पार्टी ‘आम आदमी’ का हाथ कह रही है. ये बहस का एक अलग मुद्दा है कि आम आदमी का क्या है और क्या नहीं, क्योंकि इस देश में सारे अच्छे- बुरे काम में आम आदमी का नाम घसीट ही दिया जाता है और बेचारा आम आदमी कल जहाँ था आज भी वहीं मर खप रहा है. कांग्रेस ने इस देश की जो हालत की है उसमें ये मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि कांग्रेस ने आम आदमी का हाथ उड़ाके अपने झंडे पर चिपका दिया है और हम 1947 के बाद से लगातार उस हाथ पर ठप्पा लगा-लगाकर देश की तक़दीर सुधरने का इंतज़ार कर रहें हैं.
खैर, तो तत्काल मूल मामला है राष्ट्रीय झंडे के ऊपर चक्र की जगह हाथ का आ जाना. क्या यह राष्ट्रद्रोह का मामला नहीं बनाता ? अभी कुछ दिन पहले एक कार्टूनिस्ट ने अशोक स्तंभ से सिंह का चेहरा हटाकर भेडिया का चेहरा लगा दिया तो देश में ऐसा भेडियाधसान मच गया जैसे देश की आज़ादी ही खतरे में हो. देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम स्टेट पर घंटों प्रवचन बांचते रहे. उस प्रकरण से कुछ हुआ या नहीं पर एक साधारण सा कार्टूनिस्ट अपने को महान क्रांतिकारी ज़रूर समझाने लगा.
खैर, एक बात पर लगभग हर कोई सहमत है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए, इससे देश की भावना आहत हो जाती है. वैसे ये भावना बड़ा ही मूर्त सी चीज़ है जो पता नहीं किस – किस चीज़ पर आहात होती रहती है. इस दुनियां में ऐसे भी मुल्क हैं जो अपने झंडे के प्रति इतने रुढिवादी सोच से ग्रसित नहीं हैं, तो क्या ये मान लेना चाहिए कि उस देश की भावना नहीं है. चलिए कुछ देर के इस बात को सच मान लेतें हैं कि राष्ट्रीय प्रतीक के साथ कोई छेड-छाड नहीं होना चाहिए. फिर तो ये बात सब पर लागू होना चाहिए न ? पर ये जो कांग्रेस खुलेआम राष्ट्रीय ध्वज का अपमान कर रही है उसका क्या ? कहनेवाले कह सकतें हैं कि राष्ट्रीय झंडा बनाने से पहले तिरंगा कांग्रेस का झंडा था. ठीक है माना. पर जैसे ही कोई चीज़ राष्ट्रीय घोषित हो जाती है तो उसपर से किसी की भी निजी मिलकियत स्वतः ही समाप्त हो जानी चाहिए. वैसे भी अशोक स्तंभ राष्ट्रीय चिन्ह होने से पहले अशोक का धरोहर था, पर अब ये देश की निशानी है. अब सवाल ये पैदा होता है की क्या किसी को भी अपने विज्ञापन में राष्ट्र से जुड़ी चीज़ों का प्रयोग करने का अधिकार मिलाना चाहिए ? वैसे जो भी पान ज़र्दा के शौक़ीन हैं वो भली भांति जानतें हैं कि पिछले कई सालों से तिरंगा नामक गुटखा खुलेआम बिकता है जिस पर तिरंगा बना होता है, बिलकुल राष्ट्रीय झंडे जैसा. लोग, जिसे हम आम आदमी भी कह सकतें हैं एक रूपया में उस गुटखे को खरीदतें हैं, तिरंगा बना पाउच को फेंकतें हैं और गुटखा चबाते और थूकते हुए मस्त हो जातें हैं. अब इसे किस रूप में देखा जाय. यहाँ कौन राष्ट्रद्रोही है ? गुटखा बनाने वाली कंपनी ? उसे इस तरह का पाउच में पैक करके बेचने का परमिट देने वाला सरकारी महकमा या वो आम आदमी तो रोज़ दर्जनों तिरंगा फाड़ता और थूकता हुआ मस्त हो जाता है ? इसे इस रूप में भी देख सकतें हैं कि राष्ट्रीय भावना के प्रति आम आदमी की सोच इतनी संकीर्ण नहीं जितनी कि सरकार, राजनीतिज्ञों और सरकारी कारकुनों की.

Wednesday, January 9, 2013

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का अनु-शासन


"मैंने देखा कि बुद्धिमान के लिए जिनकी ख्याति शिखर पर है, प्रायः उन्हीं में उनका अभाव सबसे ज़्यादा है. लेकिन जिन्हें जन साधारण कहके लोग नीची निगाह से देखतें हैं, वे सिखने के अधिक योग्य थे." - सुकरात. 

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( रानावि ) के नए निदेशक की घोषणा होनी है, कमिटी नए निदेशक की खोज में लगी है. पर पिछले कई दिनों ये खबर और चर्चा उफान पर है कि रानावि ने अपने नए निदेशक का चयन चुपके से कर लिया है. अब केवल ओपचारिकताएँ ही बची हैं. तत्काल रानावि में माहौल मुखिया के चुनाव की तरह है जहाँ हर उम्मीदवार दुनाली टांगे मूंछ पर हाथ फिरते हुए विरोधियों को अपनी लाल-लाल आँखों से घूर रहा हो. वैसे भी, रानावि में अधिकतर चयन की प्रक्रिया एकदम जादुई है. यहाँ उम्मीदवार पहले तय हो जाता है फिर ये सोचा जाता है कि उसे कैसे फिट किया जाय, पूरे कानूनी तरीके से, राजनीति, गुटबाज़ी के भरपूर तडके के साथ. यहाँ कानून है तो उसका सही-गलत इस्तेमाल भी है. ये पुरानी परम्परा है जिसका पालन बड़ी ही सफाई के साथ होता है. यहाँ भारतीय लोकतंत्र की ही तरह तीन मुख्य गुट सदा सक्रिय रहें हैं – सत्ता के साथ चिपका ग्रुप, सत्ता के विरुद्ध खड़ा ग्रुप और अपना काम बनाता, भाड़ में जाए जनता वाला ग्रुप. इधर कुछ सालों से छद्म संभ्रांत ( स्यूडो-एलिट ) नारीवाद ने भी रफ़्तार पकड़ी है. कभी रानावि के मंच पर पांच पुरुष और एक महिला दिखाई पड़तीं थी आज पांच महिला और एक महिलानुमा पुरुष दिखाई पड़ता है. ये उपलब्धि अमल अलाना और अनुराधा कपूर की देन है, जिन्हें कुछ ‘अ’भूतपूर्व निदेशकों और किंग मेकरों का समर्थन है. जिस प्रकार स्त्री निर्देशकों द्वारा निर्देशित नाटकों को महिला रंगमंच मान लेना एक संकीर्ण सोच है उसी प्रकार रानावि के निदेशक और अध्यक्ष का शारीरिक रूप से नारी होने भर से नारीवाद का झंडा बुलंद नहीं होता.
अनुराधा कपूर के काल को इतिहास कैसे याद करेगा, तुगलक के काल या इंदिरा गांधी के आपातकाल की तरह ? जब अनुराधा कपूर के निदेशक बनाने की घोषणा हुई तो सब बड़े उत्साहित हुए. लगा अब रानावि में बेहतरीन बदलाव देखने को मिलेगा. गुटवादी परम्परा का अंत होगा और आलोचनाओं को आराधना से ऊपर स्थान मिलेगा. इस सोच के पीछे बतौर शिक्षिका उनकी शानदार छवि थी. पर किसे पता था कि ये भी उसी परम्परा की और तेज़ रफ़्तार वाहक निकलेंगी और अनुशासन और अनु-शासन में फर्क नहीं कर पाएंगीं. ये बात शायद कालू ( रानावि में पलनेवाला एक कुत्ता ) जानता था तभी तो उनके निदेशक बनते ही काट लिया और कालू की इस हरकत पर रानावि के एक प्रोफ़ेसर ने चटकारा लेते हुए कहा – चलो जो काम मैं न कर सका वो कालू ने कर दिया. वैसे किसी ने ठीक ही कहा है कि व्यक्ति की सही पहचान तब होती है जब उसके पास ताकत हो.
बदलाव से यदि सार्थक परिणाम आता है तो आपकी तारीफ़ होती है नहीं तो आलोचना. अनुराधा कपूर ने उन सारी आवाज़ों को बड़े ही स्नेह से कुचला जो उनके सुर में सुर नहीं मिलाते. कुछ को निकाला तो कुछ के लिए ऐसे माहौल बना दिए कि वो खुद ही या तो छोड़ के चला जाएं या फिर लंबी छुट्टी ले लें. इसे मैदान साफ़ करना कहते हैं. इस बात को हम रानावि रंगमंडल के मार्फ़त समझतें हैं. इनकी मान्यता थी कि रंगमंडल स्कूल में रहते हुए भी स्कूल का अंग नहीं लगता. उन्होनें सबसे पहले अपनी पसंद के अभिनेताओं का चयन किया. प्रस्तुति समन्वयक को बदल कर एक ऐसे व्यक्ति को लाया गया जो पहलेवाले से बेहतर तो कतई नहीं था. ये बदलाव केवल इसलिए हुआ कि वो अनुराधा गुट के नहीं थे और रंगमंडल में कार्यरत इनके कुछ भक्त कलाकारों को भी नापसंद थे. रंगमंडल के कुछ कलाकारों ने इस बदलाव का लिखित रूप में विरोध करते हुए मांग की कि यदि इनको विदा करना ही है तो सम्मानित तरीके से विदा किया जाय. ये एक लंबे अरसे तक ( लगभग 12 साल ) विद्यालय से जुड़े रहें हैं. इस मांग को शर्मनाक तरीके से अनदेखा कर दिया गया. फिर बारी आई रंगमंडल प्रमुख की. ऐसा माहौल बना दिया गया कि वो भी बच्चे की तरह रोते हुए लंबी छुट्टी पर जाने को अभिशप्त हो गए. उनपर अनुराधा कपूर के काम में असहयोग करने का आरोप था ( शायद ). वैसे असहयोग के तुगलकी दिवास्वपन उन्हें अक्सर ही आते रहतें हैं. इसीलिए इन्हें रानावि के मामले में भी अपने सहकर्मियों से ज़्यादा अपने कद्रदानों पर भरोसा है. रानावि के कई महत्वपूर्ण काम ये इनके ही मार्फ़त ही किया करतीं हैं.
बहरहाल, रंगमंडल में उन्होंने बदलाव के नाम पर उपरोक्त कामों के अलावा अभिनेताओं के चाय के दो ब्रेक पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जिसके पीछे का बचकाना तर्क था कि एक निदेशिका जो खुद कभी समय पर नहीं आई अपने नाटक के पूर्वाभ्यास में, ने शिकायत की है कि रंगमंडल के कलाकार केवल चाय पीते रहतें हैं, जैसे ही काम करने का मूड बनता है ये टी ब्रेक करने लगतें हैं. खैर, वादा किया गया कि एक चाय की मशीन ही लगा दी जायेगी. जो आज तक न लगी. किसी 'महान' विचार के तहत एक सामानांतर रंगमंडल की स्थापना की गई, जिसका नाम रखा गया यायावर रंगमंडल. जिसकी यायावरी की हवा साल भर के अंदर ही निकल गई. बस हाथ में रह गया एक और प्रस्तुति समन्वयक और एक-दो पसंदीदा अभिनेता. आज एक रंगमंडल में दो-दो प्रस्तुति समन्वयक हैं. कई सारे और पोस्ट बनाकर उसपर भक्तों को ठुंसा गया. जिनका मूल काम सुबह हाजरी बनाना और दिन भर भक्तिरस में डूबकर स्तुतिगान करने और शाम में भरत वाक्य गाके ही घर जाना है.
महिला-पुरुष का अनुपात देखिये 
आज रंगमंडल की दशा उस एकलव्य की तरह है जिसका अंगूठा काट दिया गया है. कई बार आश्चर्य होता है कि क्या कोई इंसान इतना मुर्ख हो सकता है कि उसे पता ही न चले कि वो एक ठीक-ठाक रंगमंडल की और ज़्यादा लुटिया डुबोने पर लगा है. कई बार लगता है कि ये सब जानबूझकर किया जा रहा है. अनुराधा कपूर के कार्य-काल में जितने रंगमंडल के कलाकारों ने रंगमंडल से त्यागपत्र दिया वो अपने आप में एक नायाब रिकॉर्ड है. जो इनकी कीर्ति पर एक और चाँद लगता है.
संस्कृत में एक मशहूर कहावत है जिसका अर्थ ये है कि महाजन जिस रास्ते पर चले सही रास्ता वही है. रानावि के सन्दर्भ में यह कहावत इस प्रकार चरितार्थ होता है कि रानावि का निदेशक रंगमंच की जिस धारा को माने यदि वो माना जाय तो ढेर सारे ग्रांट, पुरस्कार, कार्यशालाएं आदि अपनी झोली में. इसे वर्तमान में रानावि के कई उभरते सितारों के काम से समझा जा सकता है. एक युवा निर्देशक की व्यथा उदाहरण के तौर पर पेश है जो किसी महाजन की शैली की नक़ल न करके अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश में लगा था. स्कूल ने उसे सनकी, ज़िद्दी छात्र के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था. एक विदेशी निर्देशक इनके साथ काम करने आया और रानावि प्रशासन ने उस निर्देशक को अपने इस छात्र के बारे में आगाह करते हुए सावधान रहने को कहा. विदेशी निर्देशक ने इनके साथ कुछ दिन काम करने बाद पाया कि उसे गलत गाइड किया गया है तो उसने उस छात्र से पूछा कि तुम्हारे शिक्षक तुम्हारे बारे में इतना गलत क्यों सोचते हैं. छात्र का जवाब था चूंकी मैं इनकी बातों को जस का तस नहीं मानता इसलिए. बाद में इसने अपना डिप्लोमा किया. एकदम नए और अपने तरह का जिसे देखनेवालों ने तो बहुत ही पसंद किया. आज यह युवा निर्देशक अपनी शर्तों पर आभावों के बीच नाटक कर रहा है और वहीं उसका एक सहपाठी जो आँख बंद करके महाजनों की नक़ल कर रहा है वो कई पुरस्कारों सहित लाखों में खेल रहा है और कई भारंगम का लुत्फ़ भी ले चुका है.
खैर, अनुराधा कपूर का ये मानना था कि रंगमंडल को नए तरह के नाटक करने चाहिए. अब ये नए तरह का नाटक क्या होता है ये अलग से बताने की अब ज़रूरत नहीं. इसके लिए उन्होंने ऐसे निर्देशकों को मौका दिया जो उनकी तरह का काम कर रहे थे. पर एकाध नाटक छोड़कर किसी को भी दर्शकों और रंगमंडल के कलाकारों का स्नेह न मिला. वहीं बेगम का तकिया, राम नाम सत्य है और जात ही पूछो साधू की जैसे रंगमंडल के नाटकों के लिए दर्शकों और अभिनेताओं का समर्पण देखकर इनका कुढना स्वाभाविक ही था. ऐसा नहीं कि रंगमंडल के कलाकार किसी तरह के प्रयोग से डरतें हैं, हां केवल प्रयोग के नाम पर प्रयोग से ज़रूर परहेज करतें हैं.
एक ऐसे निर्देशक भी आए जिन्हें न हिंदी आती थी न अंग्रेज़ी. एक दुभाषिये के ज़रिये वो काम कर रहे थे और वो दुभाषिया भी ऐसी की शैतान भी पानी मांगे. नकारात्मक सोच की शानदार उदाहरण. वो अपने ही तरह से चीज़ों का अर्थ निकलती. उनकी खुद की हिंदी माशाअल्लाह ही थी पर हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक ( जोकि उस नाटक के अनुवादक भी थे ) को भी हिंदी सिखाने से परहेज़ नहीं था. जो कलाकार उस नाटक में नहीं थे उन्हें ये ‘चमचा’ कहके पुकारती थीं. एक बार वो मोहतरमा कहने पर भड़क उठीं, उनका मानना था कि ये शब्द सही नहीं है किसी महिला को संबोधित करने के लिए. आखिरकार ऐसा नाटक हुआ कि सब त्राहिमाम कर उठे. इस असफलता का भी ठीकरा रंगमंडल के कलाकारों पर फूटा. वो कहतें हैं न कि अबरा के मौगी सबके भौजी ( कमज़ोर की बीवी सबकी भाभी ). कहा गया कि कलाकारों ने सहयोग नहीं किया. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कलाकार ( जो भी उस नाटक में थे ) सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक कुछ न समझ में आने के बावजूद बैल की तरह मेहनत कर रहे थे, फिर भी नाटक न बना. मौका मिलते ही अनुराधा कपूर ने रंगमंडल के कुछ कलाकारों को कुछ नाटकों में असहयोग करने के लिए दण्डित किया, वो भी बिना उन कलाकारों का पक्ष सुने. कुछ से बात करने का नाटक किया गया ज़रूर.
इस नाटक के निर्देशक महोदय ने पहले ही दिन रंगमंडल के कलाकारों से दो बातें कही थी. पहली, उन्हें केवल उन्हीं कलाकारों से मतलब रहेगा जो उनके नाटक में भूमिकाओं में होगें दूसरी उन्होंने रंगमंडल के समस्त कलाकारों को पूरे कपड़े उतारने को कहा था, पहले तो इस दूसरी बात पर किसी को भी अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हुआ. लगा कोई मज़ाक चल रहा है. पर जैसे ही ये पता चला कि मामला सीरियस है तो कुछ कलाकार तो नौकरी जाने के डर से कच्छे पर आ गए पर अधिकतर ने साफ़ माना कर दिया था. अभिनेत्रियां ( कुछ ) तो रोती हुई पहले रंगमंडल प्रमुख फिर रानावि निदेशक अनुराधा कपूर से मिलने चलीं गयीं. सबलोग नंगे हो जाते तब शायद तन-मन से सहयोग कहलाता ? साथ ही जो कलाकार इनके नाटक में भूमिकाएं नहीं कर रहे थे उनके बारे में द्विभाषिये महोदया ने खुलेआम काफी उल्टा पुलटा बोलना शुरू किया कि रंगमंडल प्रमुख के चमचे है, रंगमंच के क्लर्क है, उनकी वजह से नाटक खराब हो रहा है आदि आदि. जो भी रंगमंडल को जानता है उसे पता है कि वर्तमान में वहाँ कलाकारों की सुननेवाला कोई नहीं. सब लगभग एक सहमे माहौल में काम कर रहें हैं.
जिस देश में हत्या जैसे जघन्य अपराध पर भी फैसला कम से कम दोनों पक्षों की बात सुनाने के बाद ही किया जाता है वहीं एक कला विद्यालय ऐसे हालात में चल रहा है, क्या कोई इस बात पर यकीन करेगा ? असहयोग को कारण बताकर लिए फैसले के विरोध में दो कलाकारों ने रंगमंडल से अपना त्यागपत्र दे दिया और एक को निकाल दिया गया. अनुराधा कपूर ने इन त्यागपत्रों को सहर्ष स्वीकार कर लिया और जिसे निकला गया उसके बारे में इनकी शानदार डिप्लोमेटिक विचार है कि उस कलाकार की भलाई के लिए ही रंगमंडल ये कदम उठाया गया है. इनमें से एक ने अपने त्यागपत्र में लिखा कि मेरी गलती बस इतनी है कि मैं किसी से अपने सही होने का प्रमाणपत्र नहीं लेता, बल्कि चुपचाप अपना काम करता हूँ, जो शायद काफी नहीं है.
जिस साल ये सब अंजाम दिया जा रहा था उस साल रानावि रंगमंडल की कलाकार चयन प्रक्रिया में ऐसे-ऐसे लोग बैठे थे जिन्होंने रंगमंडल का कोई नाटक शायद ही देखा हो. नए कलाकारों के चयन तक तो मामला ठीक है पर पुराने कलाकारों का भी भविष्य और ग्रेडिंग तक तय कर गए, बिना उसके काम से परिचित हुए. जहाँ तक सवाल रंगमंडल के नाटकों में कास्टिंग का है तो एक नाट्य निर्देशिका के मुंह से एक दिन गुस्से में ये भी निकल ही गया कि अनुराधा ने मुझे गलत कास्टिंग सजेस्ट करके फंसा दिया. इस बात की सच्चाई क्या है वो भी परखी जानी चाहिए की क्या रंगमंडल के नाटकों की कास्टिंग रानावि निदेशक के बंद कमरे में होने लगी हैं ? 
खाना खरीदने के लिए लाइन खड़े रानावि के कर्मचारीगण तथा रंगमंडल
व टीआई कंपनी के कलाकार. 
अनुराधा कपूर ने खुलेआम गुटबाजी को बढावा तो दिया ही दिया साथ ही कई सारे ऐसे फैसले किये जो ऐसे तो देखने में बड़े ही छोटे लगतें हैं पर उनके उस फैसले ने रानावि की पूरी की पूरी संस्कृति ही बदल दी. उदाहरण के लिए रानावि छात्र मेस में छात्रों के अलावा बाकी सबके लिए खाना खाने पर और होस्टल में किसी भी पूर्व छात्र के ठहरने पर पाबंदी. इसकी वजह से छात्र, कर्मचारी और पूर्व छात्रों के रिश्तें में क्या बदलाव आया है उसे अनुराधा कपूर कभी नहीं समझ सकतीं. क्योंकि वो स्वयं इस विद्यालय की छात्रा नहीं हैं. माना कि पूर्व छात्रों के होस्टल में रुकने से कुछ गलत बातें भी होती थी जिनपर नज़र रखके ज़िम्मेदारी पूर्वक खत्म किया जा सकता था बजाय ( अलिखित रूप से ) पावंदी लगने के. भारत रंग महोत्सव की दुर्गति पर पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है. किससे छुपा है कि इसके नाटकों के चयन में भी खुलेआम पक्षपात होता है. कई ऐसे नाटकों को भी शामिल करना शुरू कर दिया गया जिसका पहला शो सीधा भारत रंग महोत्सव में ही होता है. वही डिप्लोमा प्रस्तुति को इसका हिस्सा बनाने के पीछे कौन से महान विचार काम कर रहे हैं पता नहीं. क्योंकि इन प्रस्तुतियों के साथ दोयम दर्ज़े का व्यवहार किया जाता है. ये इसी स्कूल के छात्र होतें हैं पर इन्हें बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ता है मसलन – पूर्वाभ्यास का स्थान, अभिनेताओं के पेमेंट, रहने का स्थान आदि. ऐसा लगता है जैसे इन प्रस्तुतियों को शामिल कर कोई एहसान किया जा रहा हो. अभी पिछले भारंगम में भी इस बात को लेकर रानावि निदेशक और डिप्लोमा में भाग ले रहे पूर्व छात्रों के बीच काफी गरमा गर्म बहस हुई थी. वहीं पिछले भारत रंग महोत्सव के उद्घाटन समारोह में जो अव्यवस्था फैली थी वो भी कम ऐतिहासिक नहीं थी. स्कूल शिक्षक, छात्र, कर्मचारियों की बात कौन करे रतन थियम को भी अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था जबकि उन्हीं के नाटक से समारोह की शुरुआत होनी थी. इस शर्मसार कर देनेवाली घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी क्या रानावि निदेशक अनुराधा कपूर और अध्यक्ष अमाल अलाना को नहीं लेनी चाहिए थी ? पर इनसे क्या उम्मीद करे कोई ये तो आज तक शशिभूषण जैसे प्रतिभाशाली छात्र के मौत की भी नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं लेते. ज्ञातव्य हो कि शशिभूषण की मौत डेंगू की वजह से इलाज में लापरवाही के कारण अनुराधा कपूर के कार्यकाल में ही हुई थी. शशिभूषण उस वक्त रानावि में प्रथम वर्ष का छात्र था. इस दुखद घटना का विरोध पटना के रंगकर्मियों ने पुरज़ोर तरीके से किया और आज भी कर रहे हैं, जो रानावि प्रशासन को पसंद नहीं, जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में बिहार से किसी भी रंगकर्मीं का चयन रानावि में नहीं किया गया. पर इन बातों से शायद ही अनुराधा कपूर को कोई फर्क पड़ता है. उन्होंने पटना आकर अपने नाटक का मंचन भी किया और शशिभूषण के शोक संतप्त परिजनों तथा पटना के नाराज़ रंगकर्मियों से मिलना और खुली बातचीत करना एकदम ज़रुरी नहीं समझा.
इनका पक्षपाती रवैया किसी से छुपा नहीं है. एक बार रंगमंडल के अधिकतर कलाकार व कर्मचारियों ने लिखित रूप से एक कलाकार के व्यवहार के बारे में शिकायत की जिसपर कोई कार्यवाई नहीं की गयी. उल्टे मुख्य शिकायतकर्ता को खरी-खोटी सुनाई गई और साल के अंत में उसे रंगमंडल से निकाल भी दिया गया. उदाहरणों की भरमार है पर फिलहाल इतना ही. हाँ, किसी के विचारों को अपने नियंत्रण में कर लेना एक खतरनाक खेल है. जिससे गुलाम तो पैदा किये जा सकते हैं कलाकार नहीं. अगर कोई गुरु ये काम करता है तो वो एक पूरी की पूरी पीढ़ी को पंगु बना रहा होता है. कला के क्षेत्र में यह एक अपराध है – खतरनाक अपराध.
बहरहाल, नए निदेशक की घोषणा होनेवाली है. अपने आपमें एक इतिहास समेटे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आज जिस वैचारिक दिवालियापन के दौर से गुज़र रहा है उससे केवल कोई एक व्यक्ति निकाल लेगा ऐसा मानना बचपना ही होगी. इसके लिए स्कूल के तमाम छात्रों, कर्मचारियों, प्रोफेसरों को एक सम्मिलित प्रयास करना होगा जिसमे एक खुले विचार के निदेशक का नेतृत्व मिलना बहुत ही ज़रुरी है. पर वर्तमान परिवेश को देखते हुए ये बात जागती आँखों का सपना ही प्रतीत हो रही है. भारत जैसे देश में जहाँ आधी से ज़्यादा आबादी भूखे रहने को अभिशप्त है वहाँ नाटक के नाम पर ऊल-जलूल प्रयोगों को प्रश्रय देना एक सांस्कृतिक अपराध है. ये अपराध तब और जघन्य हो जाता है जब इसके लिए पूरी तरह से सरकारी धन का प्रयोग हो रहा है. रानावि की परिकल्पना व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नहीं हुई है. लोगों को रानावि के मार्फ़त अपने और अपनी कला को स्थापित करने का लोभ त्याग देना चाहिए वरना वह दिन दूर नहीं जब रानावि की सार्थकता पर ही सवाल उठाने शुरू हो जायेंगे. वैसे भी इंसान अपने कर्मों की वजह से याद किया जाता है. ख्याल रहे इतिहास किसी को भी माफ नहीं करता. उन्हें भी नहीं जिन्होंने कभी अपनी ताकत के बल पर दुनिया पर राज किया है.

Friday, January 4, 2013

सुशासन का गुटखा, तम्बाकू और शराब.


साम्प्रदायिकता के रथ पर सवार होकर भारतीय राजनीति के शीर्ष पर काविज होते ही फिलगुड फैक्टर में फुस्स हुई एनडीए अभी कुछ राज्यों में सत्ता सुख का आनंद भोग रही है | बिहार के गाँव में इसे राज भोगना कहतें हैं | ये लगभग उन्हीं राज्यों में राज भोग रही है जिनमें कांग्रेस के दफ्तरों में चार-चार मुख्यमंत्री अपने अभूतपूर्व कारनामों के साथ गैस, बदहजमी और बबासीर से शिकार हो खैनी फंकिया कर थू-थू कर रहें हैं | इन्हीं राज्यों में से एक है बिहार | यहाँ आज़ादी के बाद कांग्रेस ने हुम्मच के राज किया, लालू-राबड़ी और फेमली ने खूब माल चभाके नख-दांत विहीन किया और अब एनडीए की सरकार है, नितीश कुमार का नेतृत्व है और सुशासन का नारा है | ये सुशासन का नारा लगभग हर उस राज्य में पसीने की बदबू की तरह विराजमान है जहाँ एनडीए की सरकार है | रामराज, फिल गुड और मंदिर फैक्टर तो चला नहीं अब इन राज्यों में अलोकतांत्रिक गतिविधियों और आए दिन एक से एक घोटालों की रपट पढ़कर ऐसा कुछ कमाल जैसा तो नहीं लगता जैसे कोई सुशासन चल रहा हो | कुछ दिन पहले खबर आई कि जो राज्य बात-बात पर विशेष राज्य का दर्ज़ा पाने के लिए हुयां-हुयां करने लगता है वहाँ आज देश के किसी भी राज्य से ज़्यादा अनाज सड रहा है | ये सुशासन का नारा कुछ-कुछ हिंदुत्ववादियों के रामराज जैसा ही आभास देता है | अब चुकी एनडीए के घटकों में हिंदुत्वादियों के साथ ही साथ आदणीय जयप्रकाश जी के शिष्य भी हैं तो सम्पूर्ण क्रांति का रूपांतरण सुशासन हो गया होगा | ये बात जनता पार्टी सरकार के चंद महीने चला शासनकाल का अध्ययन करने के बाद गलत भी नहीं लगता | उपरोक्त बातों को एक अनुमान माना जाना चाहिए इतिहास नहीं |
विगत दिनों बिहार सरकार ने गुटखे पर पावंदी लगाई | पर राजधानी पटना सहित राज्य के गाँव तक में आराम से और खुलेआम गुटखा उपलब्ध है | वहीं गुटखा कंपनी इतनी चालाक है कि वो गुटखा तो बना ही रही है साथ ही साथ उसने उसी गुटखे का पान मसाला और तम्बाकू अलग-अलग कर बेचना शुरू किया है | जो गुटखा पहले एक रुपये का मिलाता था वो अब दुगुनी से ज़्यादा कीमत वसूल रहा है | कानून है तो उसे तोड़ने का तरीका भी है इसी को शायद लोकतंत्र कहतें हैं हिंदी में | हद तो ये है कि रेलवे स्टेशनों पर भी आप खुलेआम इन गुटखों, पान मसालों आदि के दर्शन और रसास्वादन कर सकतें हैं | पिछले दिनों मैं रेलमार्ग से पटना से बेगुसराय गया | गाड़ी जितने भी स्टेशनों, शहरों, कस्बों, गाँव से गुज़री हर कहीं गुमटियों पर ये गुटखे अपनी दुगनी कीमत के साथ विराजमान थे | कई स्थानों पर तो इसने प्लेटफार्म पर भी अपना कब्ज़ा जमा रखा था, पूर्वत | जहाँ तक सवाल तम्बाकू का है तो भैय्या पान, खैनी तो बिहारी संस्कृति की पहचान है | कमर में चुनौटी और मुँह में पान ( अब गुटखा ) यहाँ श्रृंगार की तरह है | बड़ा से बड़ा राज आया और चला गया पर किसी में इतना दम नहीं दिखा की कैंसर के इस सौदे को जड़ से खत्म कर सके | सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर अधिकतर रस्मी नशाबंदी का अभियान चलता तो रहता है पर न सरकार के हुक्मरान को इससे कोई व्यक्तिगत फायदा नज़र आता है न ही आम आवाम को | इसे इस तरह भी कह सकतें हैं कि नशे का विज्ञापन जितना ग्लैमरस होता है, उसे छुडाने का प्रयास उतना ही नीरस और रूटीनी | एक तरफ़ तम्बाकू-शराब की दुकाने दनादन बढ़ रही हैं और आमजन को बड़ी ही आसानी से उपलब्ध हो जा रहीं हैं ये की जा रहीं हैं वहीं इसे प्रतिबंधित और त्याग देने की कवायत बीच-बीच में करते रहना जनपक्षीय सरकार के छवि को बरक़रार रखने की मजबूरी भर है | अगर हमारे मुल्क की सरकारें इन सवालों पर इतनी ही गंभीर हैं तो क्यों नहीं एक ही साथ पुरे देश से इसे और तमाम नशीली पदार्थों को बैन कर दिया जाता है ? अगर कर दिया जाता है तो सरकारी राजस्व, सरकारी कारकूनों और नशे के सौदागरों के अलावा किसी को कोई नुकसान होगा ? अवाम को बीमार और उसकी सेहत से खिलवाड़ करके राजस्व का रोना-रोना किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को शोभा देता है ? पर यहाँ बात तो फिर वहीं आती है कि आवाम की चिंता है ही किसे ? गर होती तो क्या यही हाल होता ? अगर जनता के बिना कोई सरकार बन सकती तो जनता का वजूद कब का खत्म कर दिया गया होता | लोकतान्त्रिक सरकार का तमगा बनाये रखने के लिए लोक का होना ज़रूरत और मजबूरी दोनों है ! अब ये लोक स्वस्थ हो या अस्वस्थ क्या फर्क पड़ता है |

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...