Tuesday, April 23, 2013

प्राण को दादा साहेब फाल्के सम्मान |



हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ साल होने के अवसर पर दादा साहेब फाल्के सम्मान के काबिल अभिनेताओं का नाम यदि इमानदारी से लिया जाय तो उनमें से प्राण का नाम निश्चित रूप से होगा | प्राण अर्थात प्राण कृष्ण सिकन्द, जो इस पुरस्कार के हकदार कई दशक पहले ही हो चुके थे | प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी प्राण हिंदी सिनेमा के सबसे सफल, चर्चित, नफ़ीस, रौबीले व स्टायलिश खलनायक माने जातें हैं | जिस प्रकार दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के नायक की कसौटी हैं ठीक वैसे ही प्राण खलनायक की कसौटी तय करतें हैं | कई दशक तक हिंदी सिनेमा में अपनी लाजवाब अदाकारी से इनके चरित्रों ने इतनी नफ़रत कमाई कि कोई भी आदमी उनके नाम पर अपने बच्चे का नाम नहीं रखता | यह एक अदाकार की सफलता है और समाज की रुढिवादिता (मासूमियत भी) है कि अभिनेता द्वारा निभाए चरित्र और अभिनेता के व्यक्तित्व में फर्क करना नहीं आता | ये वही मुल्क है जहाँ लोग नहा-धोके टीवी पर रामायण देखते हैं और अरुण गोबिल और दीपिका को राम-सीता के अलावा कोई और भूमिका में देखने को तैयार ही नहीं | इसमें भारतीय मीडिया भी कम नहीं है जो अभिनेताओं को एक खास प्रकार के इमेज में कैद करने में कोई कसर नहीं छोडती | वैसे, पिछले कई सालों से प्राण का नाम दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया जा रहा था |
इनका नाम एक वक्त सफलता का पर्याय बन गया था और मेहनताना नायक के बराबर था | नायक – नायिका कोई हो खलनायक प्राण होते | मैं यहाँ प्राण के उस कमाल की बात करूगां जिस पर अभी तक किसी का ध्यान (शायद) नहीं गया है, वो है गानों में उनका अभिनय | प्राण पर फिल्माए कुछ गीत अभिनेताओं, निर्माता, निर्देशकों को कुछ ज़रुरी पाठ सिखातें हैं | संगीत हमारे हिन्दुस्तानी सिनेमा का इतना ज़्यादा ज़रूरी और मुनाफेदार अंग है कि गाने की कोई परिस्थिति न होने पर भी डाल ही दिए जातें हैं | ऐसी स्थिति में अमूमन अभिनेता ज़्यादा दिमाग नहीं लगाते और चरित्र के बाहर आकार सीन निपटा देते हैं | किन्तु एक सोचने समझनेवाले अभिनेता की स्थिति खराब हो जाती है | उसे समझ नहीं आता कि अपने चरित्र में रहते हुए इन गानों को कैसे निभाए | हिन्दुस्तानी सिनेमा के अभिनेता-अभिनेत्री अमूमन चरित्रांकन ( Characterization ) पर कोई खास घ्यान नहीं देते और यदि देते भी है तो ऐसे बहुत कम अभिनेता और गाने हैं जिन्हें चरित्र में रहते हुए निभाया हो | प्राण के तीन गाने - कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या (उपकार), यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी (जंजीर) और आके सीधी लगी दिल पे जैसे कटरिया (चलती का नाम गाड़ी) इस बात के उदाहरण के लिए देखे जा सकतें है कि एक अभिनेता अपने चरित्र में रहते हुए गानों को कैसे निभाता है | यह पोएटिक से नैरेटिव और नैरेटिव से पोएटिक फॉर्म में समाहित होने की प्रक्रिया भी है |
युवावस्था में स्टिल फोटोग्राफी में कैरियर के लिए प्रयासरत प्राण का जन्म पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान (कोट्गढ़) में 12 फरवरी 1920 को हुआ | उनकी पहली फिल्म पंजाबी भाषा में थी जट यमला (1940, निर्देशक मोती बी. गिडवान) | सन 2001 में पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित प्राण ने अपनी बढ़ती उम्र को सम्मान देते हुए सन 1998 में सिनेमा से सन्यास लेने की घोषणा की | उनकी आखिरी फिल्म तुम जियो हज़ारों साल (2002) है | वर्तमान में 94 वर्षीय प्राण का फ़िल्मी सफ़र लगभग छप्पन वर्षों का रहा | इस दौरान उन्होंने हिंदी, पंजाबी, बंगला भाषा की लगभग 400 से भी ज़्यादा फिल्मों में अभिनय किया जिनमें – चोरी-चोरी, हलाकू (1956), मधुमती (1958), जिस देश में गंगा बहती है (1960), जब प्यार किसी से होता है (1961), हाफ टिकट (1962), शहीद, गुमनाम, खानदान (1965), लव इन टोकियो, दो बदन (1966), राम और श्याम, पत्थर के सनम, उपकार (1967), आदमी, साधू और शैतान (1968), आंसू बन गए फूल (1969), जॉनी मेरा नाम, भाई-भाई (1970), विक्टोरिया नंबर 203, परिचय, बे-ईमान (1972), जंज़ीर, बॉबी (1973), अमर अकबर अंथनी (1977), डान ((1978), दोस्ताना (1980), नसीब, कालिया (1981), नौकर बीबी का, अंधा कानून, नास्तिक (1983), दुनियां, शराबी (1984) आदि इनकी कुछ चर्चित फ़िल्में हैं | उपकार, आँसू बन गये फूल और बेईमान नामक फिल्म के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला | वे अपनी फिल्मों बर्खुरदार नामक शब्द का अक्सर प्रयोग करते थे, कहा जाता है कि ये उनका प्रिय शब्द है | पर्दे पर बुरे चरित्रों को निभानेवाले प्राण व्यक्तिगत ज़िंदगी में एक सहज, सरल और मददगार व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध हैं |  
केन्द्र सरकार के द्वारा सिनेमा के क्षेत्र में संवर्धन और विकास में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिए जानेवाले इस पुरस्कार की स्थापना सन 1969 में दादा साहेब फाल्के की सौवीं जयंती के अवसर पर की गई | 1969 से 2011 तक इस पुरस्कार की क्रमवार सूची में देविका रानी, बी. एन. सरकार, पृथ्वीराज कपूर, पंकज मल्लिक, रूबी मेयर्स, बोमिरेद्दी नरसिम्हा रेड्डी, धीरेन्द्रनाथ गांगुली, कानन देवी, नितिन बोस, रायचंद बोराल, सोहराब मोदी, पी. जयराज, नौशाद अली, एल. बी. प्रसाद, दुर्गा खोट, सत्यजित राय, वी. शांताराम, वी. नागी रेड्डी, राजकपूर, अशोक कुमार, लता मंगेशकर, ए. नागेश्वर राव, भालजी पेंढारकर, भूपेन हजारिका, मजरूह सुलतानपूरी, दिलीप कुमार, राजकुमार, शिवाजी गणेशन, प्रदीप, बी. आर. चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी, आशा भोसले, यश चोपड़ा, देव आनंद, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, तपन सिन्हा, मन्ना डे, वी. के. मूर्ति, डी. रामानायडू, के. बालाचंदर, सौमित्र चटर्जी के नाम आतें हैं | मोहम्मद रफ़ी, व्ही शांताराम, किशोर कुमार, ऋत्विक घटक, मणि कौल आदि नामों का इस सूची में अब तक शामिल न होना चकित करता है | क्या यह उचित नहीं होता कि भारतीय सिनेमा के सौ साल होने के अवसर पर एक से अधिक लोगों को ये सम्मान प्रदान किया जाता | वहीं, सम्मानित होनेवालों में अभिनेता-अभिनेत्री, गायक-गायिका, संगीतकार-गीतकार, निर्माता-निर्देशक, छायाकार, पटकथा लेखक के नाम तो हैं पर अभी तक किसी फिल्म समीक्षक को यह पुरस्कार नहीं मिला है | क्या फिल्म समीक्षा को क्रिएटिव काम नहीं माना जाता या सच में अभी तक कोई ऐसा फिल्म समीक्षक हुआ ही नहीं जिसे सम्मानित किया जा सके ?
बहरहाल, आज प्राण की शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे मुम्बई से दिल्ली आकर पुरस्कार ले सकें | ऐसे में फिल्म अभिनेता मनोज कुमार की यह मांग एकदम जायज है कि प्राण को यह पुरस्कार मुंबई में ही प्रदान किया जाय | यह न केवल एक बेहतरीन अदाकार को सम्मान होगा बल्कि यह सिनेमा का भी सम्मान होगा | ज्ञातव्य हो कि यह सम्मान राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है और इससे पहले ऐसा हो चुका है, सत्यजित राय को यह सम्मान कोलकाता जाकर दिया गया था |

Friday, April 19, 2013

रामनौमी की पूर्वसंध्या और धर्म की स्थापना !

भारत विचित्रताओं से भरा देश है इसलिए भारतीय संस्कृति का व्यावहारिक अध्ययन करना एक ज़रुरी अंग बन जाता है | किताबों में बातें जितनी कोमल और सुन्दर लगती हैं, ऐसा हो सकता है कि यथार्थ जगत में मामला एकदम ही उल्टा हो | इतिहास पलटके देखें तो हमारे देश की सबसे बड़ी सेकुलर ताकतों और पार्टियों के हाथ भी मासूमों के खून से सने हैं | जिन्हें इस बात पर ज़रा भी संदेह है वो 1947 के बाद के भारतीय इतिहास के पन्ने पलट के नज़र डाल लें !
कल रामनौमी है अर्थात आज उसकी पूर्व संध्या कही जा सकती है | रामनौमी अर्थात बजरंगबली का दिन | रामनौमी अर्थात धर्मध्वजा की स्थापना का दिन | बचपन को याद करता हूँ तो यह दिन दो वजहों से खास तौर पर याद आता है | पहला कि उस दिन किसी भी घर में मांस-मछली नहीं बनता था और दूसरा कि पूजा के बाद खाने के लिए लडुआ ( एक खास प्रकार का घर में बनाया लड्डू ) मिलाता था | इन दोनों वजहों में धर्म कहाँ है, मुझे नहीं मालूम | तब कहाँ पता था कि धर्म इतना मासूम नहीं होता |
अन्य धर्मों के मुकाबले हिंदू धर्म ज़्यादा सहिष्णु है ऐसा अक्सर ही पढ़ने-सुनने में आता है | ये बात और है कि हर धर्म के अनुयायी उस धर्म को सबसे ज़्यादा सहिष्णु और यहाँ तक कि वैज्ञानिक घर्म तक घोषित करने में तनिक भी नहीं हिचकते | टीवी डिबेट देखिये लोग आतंकवाद तक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने से नहीं शर्माते ! कहा भी गया है – जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी !!
एकाएक मन किया चलो कल रामनौमी है तो आज शहर घूमा जाय | देखें तो सही आदिवासी लैंड झारखण्ड की राजधानी इस पर्व को कैसे मनाती है | बाहर निकला तो कांके रोड से बिरसा कृषि विश्विद्यालय की तरफ़ चल पड़ा | मुझे बताया गया कि बीच में कहीं अस्त्र-शस्त्र संचालन प्रतियोगिता का आयोजन होता है, जहाँ अलग-अलग दल आके अस्त्र-शस्त्र संचालन का प्रदर्शन करते हैं और  पुरस्कृत होते हैं | लगभग ग्यारह बजे प्रातः का समय था | वैसे गर्मी के दिन में इसे प्रातः कहना उचित नहीं | मैं अपने दुपहिया का कान ज़ोर से अमेठता अस्त्र-शस्त्र प्रतियोगिता आयोजन स्थल की ओर चल पड़ा | रास्ते में लाल रंग के बड़े-बड़े पताके (तिकोना झंडा) बड़े-बड़े और ऊँचे बांस के सहारे खूब ऊँचे हवा में फहरा रहे थे और उन पर राम भक्त हनुमान विराजमान हो हवा में फुर्र-फुर्र उड़ रहे थे |  मुझे अपना गाँव याद हो आया जहाँ रामनौमी की शाम किसी ऊँची छत से गाँव को निहारना एक अलग ही अनुभूति का हिस्सा हुआ करता था | लगभग हर घर में खूब ऊँचे-ऊँचे बांस के सहारे पताका फहरा रहा होता था | खुला आसमान, फहराते लाल-लाल पताके और खपड़ैल घरों से उठता धुआं | उसे निहारना एक काव्यात्मक अनुभव हुआ करता था और इस काव्यात्मकता में धर्म कहीं नहीं था |
खैर, आगे बढ़ा तो पाया कि झंडे तो एक से एक हैं पर रंग बहुतेरे हो गए हैं | हनुमान अब केवल लाल रंग के नहीं रहे | वो केसरिया, नीला, पीला आदि पता नहीं कितने रंग से भर गए थे पर हरा नहीं था कहीं भी | अब ये हरे रंग का झंडा कहीं क्यों नहीं लगा था इस सवाल का जवाब देनेवाला कोई नहीं था | वैसे शायद जवाब की ज़रूरत नहीं है, हम सब जानतें हैं | अब जानबूझकर अनजान बने रहने का अभिनय करें तो बात और है |
बड़े-बड़े कटआउट में हनुमान अपनी छाती फड़के राम और सीता का दर्शन करा रहे थे | तो कहीं राम बाल लहराते राम जन्मभूमि – बाबरी मस्ज़िद विवाद की याद ताज़ा कर रहे थे | कल एक बुज़ुर्ग कह रहे थे कि अब अयोध्या नाम लेते ही डर लगता है | रुकिए एक बहुत पुराना चुटकुला याद आ रहा है | एक ने पुछा – सबसे पहला मार्क्सवादी कौन था ? दूसरे ने जवाब दिया – हनुमान, क्योंकि वो कच्छा भी लाल रंग का पहनते थे |
अस्त्र-शास्त्र प्रतियोगिता स्थल पर पहुंचकर जो कुछ भी देखा उसे कैसे परिभाषित करूँ समझ में नहीं आ रहा | ढेर सारे लोग एक बड़े से गोल दायरे में जमा थे और बीच में नुक्कड़ नाटक के प्रदर्शन नुमा एक परफोर्मेंस चल रहा था | जिसका मूल मन्त्र ये था कि पाप और शैतान से मुक्ति चाहिए तो बजरंगबली का मंदिर बनाना और उनकी आराधना करना ज़रूरी है | इस आग्रह से मुझे व्यक्तिगत तौर पर कोई आपत्ति नहीं पर यहाँ यह बात आग्रह पूर्वक नहीं बल्कि डराकर कही जा रही थी | जो प्रस्तुति दिखाई जा रही थी वो पूरी तरह से अंधविश्वासों पर आधारित थी | एक बीस साल का लड़का इस प्रदर्शन में शैतान बना था | उसके पूरे शरीर पर काला रंग पोत दिया गया था और उसे सांप खाते हुए दिखलाया जा रहा था | जी हां, ज़िंदा सांप, सचमुच का सांप | उसने मेरी आँखों के सामने दो ज़िंदा सांपों को अपने दांतों से काट दिया | एक सांप के कुछ टुकड़ों को तो वो खा भी गया | फिर आम आदमी बने कुछ अभिनेताओं ने हनुमान से गुहार लगाई | हनुमान प्रकट हुए और उसने उस शैतान का वध कर दिया और धर्म की स्थापना कर दी | फिर कुछ देर तक तलवार और लाठी के सहारे असत्य पर सत्य की विजय की कहानी दिखाई गई | वहां बहुत कुछ और चल रहा था | लगे हाथ उस प्रस्तुति में इस्तेमाल की जा रही भाषा पर भी कर लेतें हैं | उस पर बस इतना कह देना काफी होगा कि संवादों में कब हनुमान स्त्रीलिंग और कब पुल्लिंग हो जा रहे थे पता ही नहीं चल रहा था | वैसे हम कह सकतें हैं कि भाषा हिंदी थी | सबका निचोड़ ये कि धर्म के नाम पर की गई हत्या, हत्या नहीं कहलाती |
एक नाटक खुलेआम लोगों में अंधविश्वास को बढ़ावा और धर्म के नाम पर हत्या करने की प्रेरणा दे रहा था और किसी को इसकी कोई चिंता नहीं | वहां न प्रशासन का कोई आदमी था ना ही समाज का ठेका अपने सड़े कंधों पर उठाये कोई समाज का ठेकेदार | अरुण गोबिल को राम माननेवाली जनता तो हिंसा और नफ़रत से भरे इस प्रदर्शन को देखकर गदगद थी | कैसे इस मुल्क में किसी एक व्यक्ति के आह्वान पर लोग रामराज स्थापित करने के लिए एक खास समुदाय को समूल नष्ट करने को तत्पर हो जातें है, ये सब देखने के बाद बहुत कुछ समझ में आ जाता है |
क्या यह शक्ति प्रदर्शन था ? क्या यह भक्ति प्रदर्शन था ? क्या ऐसे आयोजन अन्य धर्म या समुदाय के लोग नहीं करते ? गौर करिये, दूध का धुला कोई नहीं है | बहरहाल, कल रामनौमी है और शहर के पुलिसकर्मियों को तैनात रहने को कह दिया गया है कि कहीं कुछ गडबड न हो जाए ! पर्व चाहे हिंदू का हो, मुसलमान का हो, आदिवासी का हो या किसी और का, गडबड़ी की संभावना रहती ही है !

Sunday, April 14, 2013

आखों देखा पहला सरहुल !


सुबह-सुबह बिजली गायब | पता चला कि आज सरहुल है इसलिए बिजली नहीं रहेगी | हर बार ऐसा होता है | पर्व-त्यौहार के दिन बिजली न रहे, आश्चर्य है | बताया गया कि  चूंकि आज के दिन आदिवासी लोग बड़े-बड़े बांस में सरना झंडा लेके निकलतें है जो बिजली के तार में फंस सकतें हैं | कोई दुर्घटना न हो इसलिए पूरे शहर की बिजली काट दी जाती है | बिजली की कटाई रामनवमी और मुहर्रम में भी होती है | लोग इन पर्वो में भी लंबे और बड़े झंडों को लेकर जुलूस निकालते हैं | अच्छी बात है, फिर भी पर्व-त्यौहार के दिन बिजली का न होना पता नहीं क्यों मुझे सामान्य नहीं लग रहा था | मैं बड़े शिद्दत से सोच रहा था कि क्या सावधानी के नाम पर बिजली काटने के अलावा कोई और व्यवस्था नहीं हो सकती !
सरहुल आदिवासियों के दो मुख्य पर्वों में से एक है | सरहुल पर राँची में रहने का पहला मौका था तो सरहुल देखने का लोभ त्याग पाना संभव न था | सो निकल पड़ा | दिन के लगभग तीन बजे मैं सड़क पर था | सड़क पर इक्का दुक्का वाहन और खूब सारे सरना झंडे के अलावा था केवल सन्नाटा | एकदम रोज़ाना की तरह | जो दुकाने दोपहर में खुलती थी वो खुली थीं | कोई अलग दिन का आभास अभी तक नदारत था | मुझे तो बताया गया था कि पारंपरिक परिधानों में मांदल और नगाडे की धुन पर खूब सारे लोग नाचते गाते सड़कों पर निकलतें हैं | पर यहाँ तो दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं | चल पड़ा फिरायलाल चौक की तरफ़ | शहर का मुख्य चौराहा फिरायलाल चौक |
रातु रोड़ से सिधु-कानू पार्क फिर आदिवासी छात्रावास | स्थिति जस की तस | आदिवासी हॉस्टल के मैदान में लगा पंडाल पूरी तरह खाली पड़ा था | आगे बढ़ाने पर राजभवन के पास भीड़ दिखी | थोड़ा करीब जाने पर सबसे पहले जो साफ़-साफ़ दिखा वो अत्याधुनिक हथियारों से लैश जवान | महिला-पुरुष दोनों | दर्जन भर आगे और लगभग उतने ही पीछे और बीच में ताल पर थिरकते आदिवासी हॉस्टल के लड़के-लड़कियां | सच कहिये तो भयभीत हो गया कि इतने सारे बंदूकों के बीच में कोई उत्सव कैसे मना सकता है ? क्या उन्हें इस प्रकार बंदूकों के साये में सरहुल मनने पर मजबूर करना ठीक है ?
मैं आगे जाऊं कि नहीं | भय के कारण ज़रा असमंजस में था | मैंने अपने को समझाया चल भाई दुनिया इतनी बुरी भी नहीं है कि एक जुलूस को पार करने के एवज में तुम्हें जान गवानी पड़े | गुजरने के क्रम में देखा कि सारे लड़के-लड़कियां आम पहनावे (पैंट, शर्ट, सलवार सूट) में अपने में मगन होकर एक दूसरे को कमर से पकड़े नाचने में मस्त हैं | यहाँ कोई भी डंडा लेकर आनेजाने वालों को धमका नहीं रहा था | जैसा कि पार्टी की रैलियों में होता है | लोग आराम से वाहन ले कर गुज़र रहें हैं और नाचनेवाले गाड़ियों को निकल जाने की जगह भी दे रहे हैं | एक बार मैं दशहरे में राँची में निकला था सडकों पर आस्था के नाम पर ऐसी गुंडागर्दी थी कि कई बार जी किया कि सीधी गाड़ी उन पर चढा दूँ | कोई कहीं भी बैरिकेट लगा के रास्ता बंद किये बैठा था |
आगे राजभवन के मुख्य द्वार के पास जा कर रुक गया | आदिवासी संस्कृति के पारम्पिक परिधान में सजा धजा एक विशाल समूह राजभवन के द्वार पर नाच रहा था | राजभवन के गेट के ठीक सामने के स्टैंड पर एक साधु लेटा था | उसके पैर के पास एक छोटा सा बोर्ड तिरछा खड़ा था | उस बोर्ड को पढ़कर ये पता चला कि ये कोई बाबा हैं जो धरती पर बढ़ते पाप से बड़े ही उद्वेलित हैं और 16 या 17 साल के मौन व्रत पर हैं | ये उनका पन्द्रहवां साल चल रहा है | बोर्ड पर लिखा था कि रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई ! अब मुझ जैसे नास्तिक को ये कभी समझ में नहीं आएगा कि मौन रहने से पाप कैसे कम हो जायेगा ! खैर, राजभवन वाला दल इतना ज़्यादा सजा धजा था कि मुझे सहज ही यकीन नहीं हुआ, लगा जैसे कोई अभिनेता बना ठना अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा है | हॉस्टल वाला समूह जब करीब पहुँचने ही वाला था कि ये जोश से भरके नाचने लगे | इन्होंने नाचते-नाचते हॉस्टलवाले समूह का स्वागत किया, फिर थोड़ी देर दोनों मिलकर नाचे, उसके बाद हॉस्टलवाला समूह कचहरी की तरफ़ बढ़ चला और राजभवन वाला समूह वहीं रुक गया | शायद किसी दूसरे समूह का स्वगत करने के लिए | सवाल ये कि ये कौन लोग थे और किसके द्वारा नियुक्त ? खैर मैं इनके वीडियो बनाने में मस्त था, इस क्रम में एक एके 47 वाला मुझे ऐसे घूरा जैसे मैं यहाँ बम लगाने आया हूँ |  मैंने भी डरने का अभिनय बखूबी किया | वो खुश हो गया | उसकी आत्मा तृप्त हो गई |
मैं अपने दोपहिये का कान तेज़ी से अमेठ रहा था | गाड़ी तेज़ी से फिरायलाल चौक की तरफ़ जा रही थी | रास्ते में हॉस्टल वाला समूह फिर मिला | जगह जगह लोग चना, गुड़ और शरबत बाँट रहे थे | ये सब किसी न किसी कमिटी के लोग थे | मैंने जीवन में पहली बार इतने आदिवासी लोगों को थिरकते देखा | एकदम साक्षात् | एकाएक मेरे जेहन इनकी दशा-दुर्दशा का ख्याल आया और आँखें नम होते होते बची | ऐसा पूरे दिन में कई बार हुआ | आज कौन चिंता करता है आदिवासी संस्कृति की ? जो भी चिंता करने का दावा करते हैं सब नकली हैं और अपनी अपनी दुकान चला रहें हैं |
फिरायलाल चौक, भीड़, पुलिस, पत्रकार, फोटोग्राफर, नाचनेवाले, बजानेवाले, देखनेवाले, आदिवासी, गैर-आदिवासी | वाहनों का आवागमन भी अपनी गति से चल रहा था | सबका अपना-अपना अस्तित्व और सहअस्तित्व भी | एकाध को समस्या हो रही थी, वो खीज रहा था, मगर ये लोग झारखण्ड के नहीं हैं | बाहर से आके बसे हैं या किसी ज़रूरी काम से कहीं जा रहे होंगें | किन्तु अधिकतर मज़े में मस्त | तीन चार बड़े-बड़े मंच बने हैं | बड़ा-बड़ा हिंदी में बैनर बना है | खूब तेज़-तेज़ आवाज़ में भोंपू बज रहा है, इतना तेज़ की उसमें नगाड़े की आवाज़ का कुछ पता ही नहीं चल रहा | नाचनेवाले किस ताल पर नाचे ? जितने मंच उतना संगीत | सबका अपना ही राग | उद्घोषणा की भाषा हिंदी साथ में कुछ अंग्रेज़ी के शब्दों का तड़का | गुलाब के फूलों से स्वागत |  घोटालों में फंसे नेता भी बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर प्रकृति पर्व सरहुल की बधाई दे रहें हैं, इन होर्डिंग्स की भाषा भी हिंदी है | यहाँ की अपनी भाषा और लिपि में कोई कुछ क्यों नहीं कर रहा | सारी दुकाने खुली थी | किताब की दूकान पर गया, वो पत्रिका उपलब्ध नहीं जो मुझे चाहिए | दूसरी दुकान बंद है | एक व्यक्ति पुलिसवाले के सामने अकेले झूम-झूमके नाच रहा है | देखनेवाले मुस्कुरा रहे हैं | व्यक्ति मासूम हो और नशे में हो फिर वो किसी की परवाह नहीं करता | बहुत देर तक मेरा ध्यान उस व्यक्ति पर लगा रहा बहुत सारे वीडियो भी बनाये और फिर चल पड़ा मोरहबादी मैदान की तरफ़ | हां, इस बीच दो बार दो महिलायों ने मेरे सामने सूप कर दिया | सूप कपड़े से ढंका था और उसमें चंद सिक्के भी पड़े थे | महिलाएं गैर आदिवासी थीं | सरहुल से इसका क्या कोई सम्बन्ध है ? कैसे हो सकता है भीख मागने की यहाँ परम्परा नहीं है ! फिर एकाएक याद आया ओ हो चैती छठ ! मामला कुछ कुछ पिरान्दलो जैसा होने लगा | यथार्थ कल्पना और कल्पना यथार्थ में गडमड होने लगी | खैर, शाम होने को आ रही थी और हर तरफ़ जुलुस ही जुलुस | अपने में मस्त | हां एक स्थान पर एक नशे में धुत व्यक्ति टेम्पो चालाक का कॉलर पकड़के कुछ बोल रहा था और कुछ पुलिसवाले उस व्यक्ति को प्यार से समझा रहे थे | आज पुलिस भी ज़रूरत से ज़्यादा सभ्य लग रही थी | वैसे बड़ी मेहनत लग रही थी बेचारों को सभ्य लगने का अभिनय करने में | कोई और दिन होता तो डंडे कब के चल चुके होते |
मोराबादी मैदान में कोई अलग मेला चल रहा था तभी रास्ते में एक जुलुस आता दिखाई पड़ा | पर ये क्या बिना मांदर के | वैसे इससे पहले भी कई ऐसे समूह मिले जो मंदर के थाप पर नहीं बल्कि एक बड़े से टेम्पो या छोटे से ट्रक या ट्रेक्टर पर जनरेटर सहित रखे लाउडस्पीकरों और साउंड-बॉक्स के मार्फ़त बजाये जा रहे गीतों पर थिरक रहे थे | कई लड़के लड़कियां काफी मॉडर्न कपड़ों में थे | कुछ लोग पारंपरिक कपड़ों के साथ कला चश्मा धारण किये हुए थे | परम्परा एक बहती हुई नदी की तरह है जिसमें बहुत सी चीज़ों का समावेश होता रहता है इसमें कोई आश्चर्य नहीं | किन्तु जब चीज़ों का स्वरूप विकृत होने लगता है तब दुःख होना स्वभाविक है | पर कोई करे भी तो क्या जब सबको विकृति में ही आनंद मिल रहा हो तो ! लोग कहते हैं कि यह विकृति कहीं और से आई है | हो सकता है कि मेरा चश्मा खराब हो गया हो | चश्में में एक समस्या ये है कि जिस रंग का पहनों दुनिया उसी रंग की दिखती है | वैसे कोई भी संस्कृति आज अप-संस्कृति से अछूती नहीं है |
मोराबादी मैदान के एक कोने पर पहुँचा | सामने पेड़ों के झुरमुट और कई जगह पर चार पेड के बीच में बांधकर बनाया गया प्लास्टिक की छत और उस छत के नीचे रोज़ की तरह आज भी हडिया बेचती एक महिला और हडिया पीते लोग | परम्परा है |
मैं वापस चल पड़ा | रास्ते में जुलुस ही जुलुस | सन्नाटा अब इलेक्ट्रोनिक संगीत के शोर में उत्सव मनाते समूहों में परिवर्तित हो चुका थी | नगाड़े और मांदल की आवाज़ से मन जिस प्रकार उद्वेलित हो रहा था कानफाडू इलेक्ट्रोनिक संगीत सुनकर उतना ही कुढ़ भी रहा था | क्या यह आनेवाले वक्त का संकेत नहीं है कि हमारी अगली पीढियां इतिहास की किताबों में ये पढ़े कि सरहुल नामक पर्व किस प्रकार से मनाया जाता था |
दुखी मन से सब्ज़ी की दूकान पर गया | आदिवासी महिला थी | रोज़ सब्ज़ी बेचती हैं | पर आज सरहुल के दिन भी ? मैं झूठ मूठ बौधिकता बखान रहा था वो महिला तो मस्त थी अपने काम में | खैर, मैंने उनसे पांच रुपये का पचास ग्राम मिर्च ख़रीदा और मन में बहुत सारा उत्साह और सवाल लिए वापस आ गया | हां, बिजली रात में दस बजे आई और फिर देर रात आई आंधी के कारण पूरी रात आँख मिचौली खेलती रही | उसे सामान्य होने में लगता है अभी और वक्त लगेगा |  

Sunday, April 7, 2013

वाह ! फिल्मवाले करतें हैं नाट्योत्सव का उद्घाटन !!


एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है | दरियो फ़ो, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित रंगकर्मी.

असहमति सृजन की जननी है और लोकतंत्र के मूल विचारों में से एक भी | रंगमंच, साहित्य, कला और संस्कृति का उपक्रम एक सृजन ही तो है | सरकार की ओर से इन उपक्रमों के विकास के नाम पर तरह-तरह के योजनाओं, उत्सवों आदि का क्रियान्वयन सालों भर चलता रहता है | इन उपक्रमों में रंगमंच भी एक है | वर्तमान में रंगकर्म में ग्रांटों और रंगोत्सवों के नाम पर अपने या अपने जैसों को लाभान्वित करने की प्रथा ज़ोर पर है | असहमति अब विद्रोहियों की कवायत मान ली गई है | बहरहाल, प्रत्येक वर्ष आयोजित होनेवाला हिंदुस्तान का सबसे समृद्द और सुविधासंपन्न नाट्योत्सव भारत रंग महोत्सव ( भारंगम ) के पन्द्रहवें संस्करण का भव्य शुभारंभ और समापन हो चुका है | जिसका उद्घाटन प्रसिद्द फ़िल्म निदेशक श्याम बेनेगल ने किया | ज्ञात हो कि इसके पूर्व के भारंगम का उद्घाटन भी फिल्म अभिनेत्री शर्मिला टैगोर ने किया था | रंगमंच के क्षेत्र में इन दोनों फ़िल्मी हस्तियों का योगदान क्या है ? क्या भारत में रंगमंच से जुड़ा ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो इस महोत्सव का उद्घाटन करे ? उद्घाटन सत्र के लगभग सारे वक्ताओं का वक्तव्य भारंगम पर कम और रानावि पर ज़्यादा केंद्रित था, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे रानावि का स्थापना दिवस चल रहा हो |
भारंगम में इस बार नाटकों के प्रदर्शन के इतर भी कुछ पहली बार घटित हुआ | कुछ ऐसी बातें जिनका प्रभाव दीर्घकालिक होगा | यह पहला मौका था जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( रानावि ) ने दो पाकिस्तानी नाटकों को रद्द कर दिया | भारंगम के दौरान रानावि के एक वरिष्ठ कर्मचारी और शिक्षक की आपस में ही किसी बात पर भिडंत हो गई, परम्परानुसार कर्मचारी को दण्डित किया गया बदले में रानावि कर्मचारी यूनियन ने भारंगम के समाप्ति के उपरांत होनेवाले महाभोज से अपने आपको अलग कर लिया | वहीं एक पत्रिका के लोकार्पण के मंच पर ही रंगमंच के बड़े-बड़े महारथी ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ के वाकयुद्ध में कूद पड़े | हालांकि इस आयोजन का भारंगम से सीधे-सीधे कुछ लेना देना नहीं था, पर था यह भारंगम के दायरे के अंदर ही |
रंगमंच के प्रति रानावि का ‘अनाटकीय’ नज़रिया इस भारंगम में एक बार फिर खुलकर सामने तब आया जब भारत-पाक सीमा पर हुई हिंसा की वजह से पाकिस्तान से आए दो नाटकों को भारंगम में मंचित करने से रोक दिया जाता है, वो भी तब जब टीम दिल्ली में आ चुकी थी | घोषणा किया गया कि यह निर्णय भारत सरकार के संकेत पर लिया गया | लेकिन सरकार ने इस फैसले से झट से अपना पल्ला झाड लिया | रही सही कसर दिल्ली के कुछ युवाओं ने उसी नाटक का मंचन भारंगम आयोजन स्थल से कुछ ही दुरी पर कराके निकाल दिया, फिर जेएनयू भी इसका प्रस्तुति का मंचन स्थल बना | कोई अतिरिक्त सुरक्षा नहीं थी और कहीं कोई परेशानी नहीं हुई | यह नाटक मंटो की कहानियों पर आधारित थे और इस बार के भारंगम के केन्द्र में मंटो ही थे | सनद रहे कि रानावि अपने छात्रों को द शो मस्ट गो ऑन का पाठ पढ़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ता !
रद्द किये गए नाटक की निदेशिका, प्रसिद्ध पाकिस्तानी रंगकर्मी मदीहा गौहर इस घटना की तीब्र भर्त्सना करते हुए कहतीं हैं – “ एक ग्रुप जो कला प्रेमियों के बीच अपनी प्रस्तुति देने आया है, उसे किसी से क्या खतरा हो सकता है ? नाटक कैंसिल करना आपसी भाईचारे और मुहब्बत की भावना का मजाक उड़ाना और उस रवायत को बढ़ावा देना था जिसके खिलाफ वह ताउम्र कलम चलाते रहे ? स्थिति दोनों जगह खराब है | मैं यहां लाहौर से अधिक सुरक्षित महसूस करती हूं | अगर सरकार वाकई खुद को सेक्युलर मानती है तो उसे गलत दबाव के आगे झुकना नहीं चाहिए था |”
रानावि और भारंगम एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं | रानावि के हाथ में भारंगम नामक एक ऐसा तुरुप का पत्ता है जिसकी वजह से वो अब केवल नाटक का प्रशिक्षण देने वाला संस्थान नहीं है वरण आज वो हिंदुस्तान ही नहीं एशिया का सबसे बड़ा और समृद्ध रंग-महोत्सव का आयोजक होने का गर्व भी रखता है | भारंगम की शुरुआत किस सोच के तहत की गई थी | इसका औचित्य क्या है ? इस विषय पर स्वयं रानावि घोषणा करता है कि इससे पूरे मुल्क के रंगमंच का विकास होगा ! हिंदुस्तान की जितनी प्रतिशत आबादी गाँव में रहती है उसके अनुपात में अब तक हुए भारंगमों में नाट्य दलों में भागीदारिता देखें तो जो स्थिति बनती है उसमें हम पातें हैं कि भारंगम से भारत लगभग गायब ही है और भारतीय रंगमंच के नाम पर अब वहाँ जो कुछ भी बचा है वो सब रानावि के आस पास ही चक्कर लगाकर समाप्त हो जा रहा है | कुछ डिप्लोमा प्रस्तुति, कुछ शिक्षकों, रानावि रंगमंडल और रानावि पर आश्रितों की तथा दो चार इधर उधर का नाटक बस यही है भारतीयता के नाम पर ! अब ये आकलन होना भी बेहद ज़रुरी हो गया है कि पिछले पन्द्रह भारंगमों ने भारतीय रंगमंच के विकास में क्या योगदान है और विकास के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है वो कहाँ तक जायज है ?
पहले यह महोत्सव गर्मी के दिनों में होता था, जो भारतीय रंगकर्मियों के लिए एक आदर्श मौसम था | अब यह जनवरी महीने में आयोजित किया जाता है | इस महीने में दिल्ली की सर्दी का जो आलम है वो हिंदुस्तानियों के लिए कम यूरोपियन के ज़्यादा अनुकूल होता है | हिन्दुस्तानी नाट्य दल ट्रेन के द्वितीय श्रेणी में किसी प्रकार कांपते ठिठुरते दिल्ली की सर्दी से जूझते हुए अपने नाटकों का प्रदर्शन करने आतें है वहीं हवाई जहाज से उड़कर आनेवाले यूरोपीय नाट्यदलों के लिए यह घरेलू वातावरण होता जैसा होता है | ज्ञातव्य हो कि भारंगम में नाटकों की प्रस्तुति दिन के ढाई बजे से रात के लेकर लगभग ग्यारह बजे रात तक चलाती है | तो इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस कड़कड़ाती ठण्ड में दर्शक भारंगम का कितना लुत्फ़ उठा पातें हैं | इसी कड़ी में एक बात और; अमूमन नाटकों के तकनीकी कार्य रात में ही निपटाए जातें हैं | जिसमें रानावि के कारपेंटरी और प्रकाश विभाग कुछ रेगुलर व कुछ दैनिक मजदूरों की सहायता से पूरा करता है | अब इस बात का भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस दौरान इन मजदूरों की हालत क्या होगी ! ठण्ड लगा जाना आदि तो आम बात है, इस दौरान किसी मजदूर की मौत भी हो जाए तो भारंगम की उत्सवधर्मिता को कोई फर्क नहीं पड़ता |
भारंगम इस बार दिल्ली और जयपुर में ठीक उस वक्त मनाया जा रहा था जब दिल्ली और हिंदुस्तान की फिज़ा में सामूहिक बलात्कार का प्रतिरोध पुरे जोश से विधमान था | यहाँ प्रदर्शित नाटकों में बड़ी-बड़ी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौधिकता से भरपूर व्यक्तिगत बातें की जा रहीं थी पर इस बलात्कार पर किसी तरह की कोई चर्चा नहीं थी | हिंदुस्तान में ही कई ऐसे नाट्य समूह और शहर हैं जिनके रंगकर्मी अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग रहतें हैं | आश्चर्य तब और बढ़ जाता है जब ये पता चलता है कि इस बार का भारंगम सहादत हसन मंटो जैसे लेखक को केंद्रित किया गया था और वर्तमान ने रानावि के निदेशक, अध्यक्ष समेत कई महत्वपूर्ण पोस्ट उन महिलायों के पास है जो रंगमंच में नारीवाद के पक्षधर हैं |
अगर कोई उत्सव या रंगकर्म समाज से कोई मतलब नहीं रखता तो फिर समाज भी ऐसे उत्सवों से कोई मतलब नहीं रखता | फिर इतना सब तामझाम किसके लिए और क्यों ? कला और संस्कृति समाज का प्रतिनिधित्व करतें हैं और संस्कृतिकर्मी समाज के अग्रणी तबकों में से एक हैं; ऐसी मान्यता है | रंगमंच जो अपने मूल स्वरूप में एक सामूहिक कला है, भी इस मान्यता से परे नहीं है | किसी भी करणवश रंगमंच यदि समाज के ज्वलंत सवालों से अपने आपको विमुख करता है तो वो समाज का प्रतिनिधित्व करने और अग्रणी कहलाने का हक खोकर केवल उत्सवधर्मिता, विलासिता और आत्ममुग्धता रूपी पतन के रास्ते पर बड़ी तेज़ी से अग्रसर हो जाता है | 

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...