Thursday, February 6, 2014

विज्ञापनों का भ्रमजाल और दायरा।

सेन्ट्रल कंज्यूमर प्रोटेक्शन काउन्सिल (सीसीपीसी) ने यह निर्णय किया है कि झूठे विज्ञापनों और विज्ञापन करनेवाले सेलिब्रिटीज़ पर नकेल कसने के लिए जल्द ही एक कमिटी का गठन किया जाएगा और उपभोक्ताओं को यह अधिकार होगा कि विज्ञापन में किए दावे पूरे न होने पर वो सेलिब्रिटी और कंपनी दोनों के खिलाफ हर्जाना के लिए मुकद्दमा दायर कर सकते हैं। तो, आनेवाले दिनों में बहुत सारे सेलिब्रिटी, जिनमें फिल्म स्टार और खिलाडियों की संख्या ज़्यादा होगी, के ऊपर हर्ज़ाने का मुकद्दमा होना तय है। चूंकि लोकप्रियता के पैमाने पर सबसे ऊपर यही लोग होते हैं इसलिए विज्ञापन के लिए अमूमन कंपनियों की पहली प्राथमिकता में यही रहते हैं। सेलिब्रिटीज़ के लाइफस्टाइल की नक़ल करना एक परम्परा है इस बात को जानते हुए ये सेलिब्रिटीज़ विभिन्न विज्ञापनों को ऐसे पेश करते हैं जैसे यह विज्ञापन उनके व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित हों, जबकि सच्चाई इसके एकदम उलट होती है। अब कोई करोड़ों में खेलनेवाला शख्स भारतीय मध्यवर्ग को टारगेट करके बनाए उत्पादों का इस्तेमाल क्यों करेगा भला। चाहे खाने, पीने, पहनने की चीजें हों, सौंदर्य प्रसाधन हों, या कुछ और हो।  
पेप्सी और कोक के कैसे-कैसे विज्ञापन हैं हम सब जानते हैं, तो डर आगे जीत है वाला डरावना स्टंट भी है। सोडा के नाम पर शराब का विज्ञापन भी होता ही है। मोबाइल फोन के विज्ञापन भी याद कीजिए और जूतों, बाल उगाने-कलर करने, टूथपेस्ट, ब्रश के विज्ञापन भी। भारत जैसे देश में गोरे रंग के लेके जो पागलपन है उसे कैश करने में कोई किसी से कम नहीं। औरतों के गोरेपन के लिए अलग और मर्दों के गोरेपन के लिए अलग-अलग क्रीम है। वहीं “मर्द होकर औरतोंवाली क्रीम लगाते हो” जैसी वाहियात टिपण्णी भी है। त्वचा को निखारने का दावा करने में साबुन भी किसी से पीछे नहीं हैं। लगे हाथ नहाने के साबुनों के विज्ञापन भी याद कर लीजिए। दमकती त्वचा, महकती त्वचा और पता नहीं क्या-क्या। साबुन या तो रूप निखारने के काम आते हैं या फिर कीटाणु मारने के। कुछ साबुन तो ऐसे दावे के साथ बाज़ार में उपलब्ध हैं जैसे वो साबुन नहीं बल्कि कोई जादू हों। डियो और परफ्यूम के विज्ञापन तो लड़के-लड़कियों के पटने-पटाने और बिस्तर तक घसीट ले जाने की गारंटी का पर्याय ही बन गए हैं। लगे हाथ डिटरजेन्ट पाउडरों और टिकिया के विज्ञापन भी याद कर लीजिए। क्या-क्या और कैसे कैसे दाग छुड़ाने के दावे नहीं किए जाते। टीवी पर टिकिया इधर से उधर गई नहीं कि कपड़े झकाझक सफ़ेद। सीमेंट के विज्ञापन देखिए, ट्रक दिवार से टकरा जाती है पर दिवार नहीं टूटतीमोबाइल, टेलीफोन, इंटरनेट सेवा प्रदान करने वालीं कम्पनियां उपभोक्ता से जैसे-जैसे दावे करती हैं कि क्या कहना। हवा की रफ़्तार से इंटरनेट ब्राउज़िंग का विज्ञापन करनेवाली कंपनी अन्तः रुलाकर रख देने वाली कंपनी ही साबित होती हैं। कार और मोटरसाइकल्स के विज्ञापन रफ़्तार और माइलेज का स्टंट पेश करता है मर्दानगी और संतानोत्पत्ति की गारंटी वाले विज्ञापन तो हैं ही।
ज़माना सूचना-तकनीक का है तो इस पर बात किए बिना बात कैसे पूरी हो सकती है। टीवी उद्योग टीआरपी का रट्टा मारकर अपने और सिर्फ अपने कार्यक्रम को नम्बर एक, सबसे आगे, सबसे तेज़ आदि होने का विज्ञापन करता है जबकि टीआरपी का पूरा खेल ही फरेब है और यदि इसमें सच्चाई है भी तो अंश मात्र की। टीवी, अखबार, इंटरनेट, मोबाइल और पत्र-पत्रिकाएँ ही आज विज्ञापन को आम जनता तक पहुँचाने का प्रमुख माध्यम हैं पर ये खुद विज्ञापन पर किसी प्रकार की कोई जवाबदेही तो दूर नैतिक ज़िम्मेदारी तक का निर्वाह करने से कतराते हैं। अख़बारों में बलात्कार की खबरों के नीचे ही अंग मोटा-पतला करने के विज्ञापनों का मिलना और बाबाओं के पोल खोलने वाले न्यूज़ चैनल पर रोज़ किसी बाबा का प्रवचन होना एक आम बात है। वैसे, आजकल एक नया ट्रेंड भी देखने को मिलता है रियल लाइफ हीरोज़ से विज्ञापन करने का जो आसानी से अपनी हीरोपन को चंद पैसों के चक्कर में आके विज्ञापनों के सुपुर्द कर देते हैं।
होडिंग, पंफलेट, पोस्टर, बैनर, समाचार पत्र, पत्रिकाएं, इंटरनेट, रेडियो, टेलिविज़न आदि के मार्फ़त विज्ञापन हम तक पहुंचाते हैं। आज हर वो चीज़ विज्ञापन के दायरे में है जो बाज़ार का हिस्सा बन बिक सकती है। विज्ञापन हमारी इन्द्रियों से होते हुए हमारे दिल-दिमाग पर राज़ करते हुए हमारे चयन को भी प्रभावित करने लगे हैं। बाज़ार अब मदर डे, फादर डे, वेलेंटाइन डे, ये डे, वो डे के विज्ञापन करके हमारी संवेदनाओं को कैश करने तक से नहीं चूकता।
विज्ञापनों से परहेज़ नहीं, लेकिन विज्ञापनों का उद्देश्य उत्पादन व चीज़ों के बारे में लोगों को सही-सही जानकारी देना है ना कि भ्रम और आकर्षण फैलाकर अपनी गिरफ़्त में लेना। सच है कि कुछ विज्ञापन सुन्दर, संवेदनशील और सच्चे भी हैं किन्तु यह भी सच है कि ज़्यादातर झूठ का मायाजाल व वस्तुओं को ज़रूरत से ज़्यादा चमकदार बनाकर प्रस्तुत करते हुए तिलस्म बुनने का काम कर रहे हैं यह किसी सेलिब्रिटी के माध्यम से एक झूठ को बार-बार और अलग-अलग तरीके से बोलकर सच बनाने की साजिश है जिस पर निश्चित रूप से लगाम लगनी ही चाहिए। साथ ही जिस माध्यम से यह विज्ञापन आम जनता तक पहुंचाते हैं उनकी भी जवाबदेही तय होनी चाहिए । पत्र-पत्रिकाओं, टेलिविज़न आदि के मामले में यह भी तय होना चाहिए कि विज्ञापनों का अनुपात क्या होगा, न केवल तय बल्कि उसका कड़ाई से पालन भी होना चाहिए। वैसे विज्ञापनों का यह दायरा केवल बाज़ार और उत्पादों तक ही सीमित नहीं है। सत्ता पाने के लिए अधिकतर राजनीतिक पार्टियां भी एक से एक भ्रामक और लोकलुभावन दावे करती रहीं हैं। जो भ्रामक विज्ञापन नहीं तो और क्या हैं ? इस पर कौन रोक लगायेगा ? 
उत्पादों, सेवाओं और विचारों को बढ़ावा देने के नाम पर 1 जुलाई 1941 से शुरू हुआ विज्ञापन नामक चीज़ आज एक बृहद कारोबार की शक्ल ले चुकी है, जिसका दायरा आज इतना व्यापक है कि कई उद्योग इस विज्ञापन उद्योग पर निर्भर हैं। पत्र-पत्रिकाएँ, चैनल्स आदि तो विज्ञापनों के सहारे ही चलते हैं यदि विज्ञापन न हों तो यह सब वर्तमान मूल्य से काई गुना ज़्यादा कीमत पर ही आम जन को उपलब्ध हो पाएगें। इन विज्ञापनों के मायाजाल से नियम, कानून, कमिटी आदि बना देने मात्र से मुक्ति मिल जायेगी, यह सच नहीं है जनजागृति के बिना यह काम अधूरा ही रहेगाजब तक उपभोक्ता भ्रम के शिकार होते रहेगें इस गलाकाट प्रतियोगिता के समय में लोग भ्रम का मायाजाल रचते रहेंगें।     

Sunday, February 2, 2014

गुरुशरण सिंह : इन्कलाब का जुझारू संस्कृतिकर्मी .

गुरुशरण सिंह
जन्म - सन 1929, निधन - 28 सितम्बर 2011

हमारे समाज की यह कठोर, दुखद और त्रासदपूर्ण सच्चाई है कि जिन्हें हमारा आदर्श होना था उनकी स्थिति अधिकांशतः या तो दयनीय है, या हास्यास्पद या फिर उपेक्षित ! सदियों से वर्गों-वर्णों में विभाजित, रोटी-कपड़ा-मकान की जद्दोजहद में पिसता, पूंजी से संचालित होता तथा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की तरफ़ ललचाई दृष्टि से देखता अर्ध-सामंती और अर्ध-उपनिवेशिक मानसिकता वाले भारतीय समाज में दोष किसका कितना है, ये बताने की आवश्यता नहीं।
जहाँ तक सवाल मनुष्य की संवेदना का है तो वो हुकमरानों की साजिश का शिकार होकर क्षणिक सुख के चक्कर में यांत्रिकता की ओर अग्रसर है। आज लगभग हर गतिविधि बस एक खबर है। ख़बरों के इस मायाजाल में सिनेमा के किसी नायक के मुकाबले जीवन के नायक की छवि धुंधली हो चुकी है या कर दी गई है। तमाम नैतिकताएं सिक्के की खनक की गुलामी में कैद की जा रहीं हैं। समाज का अधिकतर तंत्र तमाम जनपक्षीय आदर्श और सोचने-समझने के खिलाफ़ साजिश में लगा है। इन तमाम नैतिक पतनों के बीच कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनमें समाज की बनी-बनाई सफलता के मापदंडों की धारा के विपरीत अपना रास्ता तय करने का माद्दा, जूनून और जज्बा होता है। जो समाज से जितना लेतें हैं उससे कहीं ज़्यादा समाज को वापस करतें हैं। ये समाज पर अपनी विद्वता और ज्ञान का आतंक नहीं फैलाते बल्कि समाज से सीखते हुए सिखाने और सिखाते हुए सीखने की एक खूबसूरत प्रकिया का पथ चुनते हैं। ऐसे ही कुछ दुर्लभ नामों में से एक नाम थे गुरुशरण सिंह।
कला को राजनीति से दूर रखो। जबकि आज की कठोर सच्चाई ये है कि मानव से जुड़ा कोई भी पहलू राजनीति से अलग हो ही नहीं सकता। क्या यह भी एक राजनीति नहीं है कि राजनीति से कला और कला से राजनीति का कोई सरोकार नहीं ? ऐसा मानने वाले लोग क्या यथास्थिवाद के पोषक नहीं होते ? मुखर रूप से न भी हों पर मौन रूप से होते ही हैं। ज्ञातब्य हो कि राजनीति का अर्थ केवल बुराई ही नहीं होती। वहीं अपने को क्रांतिकारी कहनेवाली जमात नाटक, गीत, नृत्य आदि को राजनीति से जुड़ा कार्य तो मानती है पर दोयम दर्ज़े का काम ही मानते हुए। ये पार्टी सर्कुलर में भले ही सांस्कृतिक क्रांति की बात पुरजोर तरीके से उठाते हों परन्तु व्यावहारिक धरातल पर मामला दयनीय ही है। कारण साफ़ है कि इन दलों के कार्यकर्त्ता भी इसी समाज से ही आतें हैं और जब तक उनका सांस्कृतिक विकास नहीं होता, तब तक बुनियादी तौर पर कुछ खास नहीं बदलने वाला। नाटक या सांस्कृतिक कर्म के दौरान पार्टी का झंडा लहराने से चीज़ें क्रांतिकारी नहीं होती, कोई भी कला अपने विचार की वजह से क्रांतिकारी होतीं हैं प्रतीकों के वजह से नहीं।
मार्क्स, भगत सिंह के विचारों को अपना आदर्श मानने वाले और तमाम सीमाओं और उतार चढावों के वावजूद वाम राजनीति में सक्रिय जुड़ाव रखनेवाले गुरुशरण सिंह ये माननेवालों में से थे कि अगर कोई कला समाज के ज्वलंत सवालों से रू-ब-रू  और जन संघर्षों के साथ कलात्मक और वैचारिक रूप से खड़ी नहीं होती तो वो निरर्थक है, विलासिता है। कला की सार्थकता भव्यता, वैभव तथा सजावट के आडम्बरों से नहीं विचारों से होती हैं, उससे पैदा होने वाले सवालों से होती है। ऐसा कहते हुए उन्होंने रंगमंच के कलात्मक पक्ष को कभी नकारा नहीं। अगर ऐसा होता तो वो पंजाब में इप्टा के संस्थापकों में से न होते। न नाट्य आंदोलन को संगठित व संस्थागत रूप देने के लिए उन्होंने 1964 में अमृतसर नाटक कला केन्द्र का गठन किया होता। न ही कलाकारों को शिक्षित, प्रशिक्षित तथा शौकिया कलाकार से पूर्णकालिक कलाकार में बदलने तथा उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए उनके पलायन को रोकने के दिशा में ही कार्यरत हुए होते।
अपने समय और परिवेश से सीधा साक्षात्कार करती गुरुशरण सिंह के नाटकों और गीतों में राजनीति कूट-कूट कर भरी है। कई बार तो अतिरेक की हद तक, पर उनके राजनीति लकीर के फकीर वाली नहीं है। उनकी राजनीति को उनके नाटकों के माध्यम से अगर समझा जाय तो स्थिति कुछ यूँ बनेगी। उनका एक बहुचर्चित नुक्कड़ नाटक है “गड्ढा”। उसमें एक साधारण व्यक्ति गड्ढे में गिर जाता है। वो बिना किसी के सहायता के वहाँ से निकल नहीं सकता। एक पत्रकार उससे सवाल करता है – “ आप किसे अपना मानते हैं ?” गड्ढे में गिरा आदमी जवाब देता है – “जो मुझे इस गड्ढे से बाहर निकल दे।” कहने का अर्थ साफ़ है जो आम जन के साथ कदम दर कदम मिला के चले सच्ची कला और सच्चा राजनीति और सच्चा विचार वही है।
अपने करीबी साथियों के बीच 'गुरुशरण भ्राजी' नाम से चर्चित पंजाब के नाटककार, संस्कृतिकर्मी और सामाजिक कार्यकर्त्ता गुरुशरण सिंह का जन्म सन 1929 में मुल्तान में हुआ था। अपने छात्र जीवन में ही वे कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। विज्ञान के विद्यार्थी गुरुशरण सिंह का नाटक के क्षेत्र में आना भी एक मुहिम के तहत ही था। सीमेन्ट टेक्नोलाजी से एम.एस.सी. करने के पश्चात् पंजाब में भाखड़ा नांगल बाँध बनने के दौरान वे इसकी प्रयोगशाला में बतौर अधिकारी कार्यरत थे। कुछ गिने चुने दिन ही वहाँ छुट्टी दी जाती थी। लोहड़ी ( पंजाब का एक प्रमुख पर्व ) का त्योहार आया। मजदूरों ने छुट्टी मांगी, नहीं मिलने पर हड़ताल का रास्ता अख्तियार किया। गुरुशरण सिंह भी इन मजदूरों के साथ थे, इन्होने इन मजदूरों की भावनाओं को आधार बनाकर एक नाटक तैयार किया, खेला जिससे मजदूरों की भावनाओं का प्रचार के साथ ही साथ संघर्ष को भी बल मिला। अंततः मजदूरों की जीत हुई। इस पूरी प्रकिया में गुरुशरण सिंह एक कार्यकर्त्ता और संस्कृतिकर्मी के तौर पर जुड़े थे। पहली बार नाटक लिखा, निर्देशित किया, अभिनय किया और शायद पहली बार ही नाटक की ताकत के सक्रिय परिचय से भी रू-ब-रू हुए ।
मंच और नुक्कड़ नाटकों की विभाजन रेखा को पाटने का काम समय-समय पर रंगकर्मी करते रहें हैं। इनके लिए दर्शक पैसा कमाने और हॉउसफुल के बोर्ड लगाकर निर्देशक का कॉलर खड़ा करने अर्थात अहम् की तुष्टि का साधन नहीं बल्कि सोचने-समझने और चिंतन करनेवाला विवेकशील प्राणी होता है। वो अवाम की ताकत, जो खुद पर  आ जाए तो बड़े से बड़े तख़्त को पलट कर रख दे, पर पुरज़ोर भरोसा रखतें हैं। यहाँ नाटक आत्ममुग्धता या दिखावे का साधन नहीं बल्कि विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम होता है। इन्हीं चंद लोगों में गुरुशरण सिंह का नाम भी शामिल है। इन्होनें गीत लिखे, उसकी धुन बनाई, उसे अपने दल के साथियों के साथ गाया। सादगीपूर्ण तरीके से गीतों के एलबम भी निकाले, जिसे पुरे भारत के संघर्षशील आवाम ने पुरे शिद्दत से सुना और गया। इनके लिखे व मंचित किये गए लगभग पचास नाटकों में ‘जंगीराम की हवेली’, ‘हवाई गोले’, ‘हर एक को जीने का हक चाहिए’, ‘इक्कीसवीं सदी’, ‘तमाशा’, ‘गड्ढ़ा’, ‘इंकलाब जिंदाबादहैं , जिन्हें लोगों ने खूब पसंद किया और इन नाटकों ने देश के विभिन्न जनांदोलनों को एक कलात्मक सहयोग भी प्रदान किया। शायद यही वो वजह थी कि ये नाटक पूरे देश में विभिन्न इंसाफ पसंद, प्रगतिशील सांस्कृतिक समूहों द्वारा खूब मंचित किये गए और आज भी किये जा रहें हैं। 
अस्सी के दशक में भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन का गहरा असर देश के अन्य कई राज्यों की तरह पंजाब में भी था। उन्हीं दिनों गुरुनानक देव का 500 वाँ जन्म दिन आया। इस मौके पर गुरुशरण सिंह ने नानक के प्रगतिशील विचारों को आधार बनाकर गुरुदयाल सिंह सोढ़ी लिखित नाटक जिन सच्च पल्ले होय को समसामयिक परिवेश से जोड़ते हुए, मंचित किया।  नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि पंजाब के करीब 1600 गाँवों में इसका मंचन हुआ। पंजाब और भारत के रंग-इतिहास में इस नाटक का अपना ही एक अनूठा इतिहास है।
इमरजेंसी काल के दौरान इन्होनें अपने नाटक मशाल के द्वारा तानाशाही का विरोध किया। इस कारण इन्हें दो बार गिरफ्तार भी किया गया। अस्सी के दशक में जब पुलिस ने एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार किया तो उन्होंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और एक पूर्णकालिक रंगकर्मी बनने का निर्णय लिया। इसी दशक में पंजाब जब दहक रहा था तो गुरुशरण सिंह को भी धमकियाँ मिल रही थी पर वे इन धमकियों से बेपरवाह हो काम करते रहे और मासिक पत्रिका समता में आतंकवाद के विरोध में लगातार लिखते रहे। उन्हीं दिनों आतंकवाद के विरोध में उनका चर्चित नाटक बाबा बोलता है लिखा। उन्होंने न सिर्फ इसके सैकड़ों मंचन किये बल्कि भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च पर आतंकवाद के विरोध में भगत सिंह के जन्म स्थान खटकन कलां से 160 किलोमीटर दूर हुसैनीकलां तक सांस्कृतिक यात्रा निकाली जिसके अन्तर्गत जगह-जगह उनकी टीम ने नाटक व गीत पेश किये। यह साहस व दृढता जनता से गहरे लगाव, उस पर भरोसे तथा अपने उद्देश्य के प्रति समर्पण से ही संभव है।
गुरुशरण सिंह का कार्यक्षेत्र भले ही पंजाब रहा पर समय – समय पर तमाम जनवादी ताकतों के आह्वान पर जन-संघर्षों पर तमाम प्रकार के दमन के खिलाफ अपनी आवाज़ पंजाब के बाहर भी बुलंद करते रहे। भारतीय आवाम को जब भी ज़रूरत पड़ी गुरुशरण सिंह उनके साथ खड़े मिले। गुरुशरण सिंह की मूल उर्जा भारत की शोषित-पीड़ित जनता और देश की प्रगतिशील आवाम थी। वो इसी से अपनी उर्जा प्राप्त करते और इसे ही वापस अपने नाटकों और गीतों के माध्यम से उर्जान्वित और तमाम प्रकार के शोषण-दमन के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए आंदोलित करते।
समय के साथ-साथ शरीर भले ही कमज़ोर पड़ा पर लगन नहीं। आवाज़ की बुलंदी और बुराई के खिलाफ़ लड़ने की उनकी ताकत कभी कमज़ोर न हुई। तमाम प्रगतिशील ताकतों को एक मंच पर आने की अपील और कोशिश उन्होंने ता-उम्र जारी रखी। कला के क्षणिक और भौतिक सुख – सुविधा से इतर उन्होंने जनता के साथ का रास्ता चुना। हाल के दिनों में झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न प्रकार के अभियानों के नाम पर हुए जन विरोधी कार्यवाईयों के खिलाफ़ उनका साफ़ आह्वान था कि अगर सरकार जन विरोधी अभियान चला सकती है तो जनता को भी चाहिए कि वो सरकार के खिलाफ़ जन-युद्ध छेड दे।
वे पंजाब इप्टा के संथापक सदस्यों में से एक थे। जन संस्कृति मंच के गठन में भी इनका प्रमुख योगदान रहा। जसम के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुने गये। साथ ही समय-समय पर विभिन्न प्रकार के जनवादी सांस्कृतिक संगठनों से जुड़ते रहे। जन संघर्षो के साथ अक्सर खड़े रहने का जज्बा दिल में समेटे इस जन संस्कृतिकर्मी का निधन 28 सितम्बर 2011 को 82 साल की अवस्था में हुआ। वो बीमार चल रहे थे। गुरशरण सिंह पूरी जिंदगी कम्युनिस्ट बने रहे। इंकलाब ही उनके जीवन का उद्देश्य था।
दुखद और शर्मनाक स्थिति ये है कि हमारे देश में जितने भी नाट्य विद्यालय चल रहें हैं उनमें से किसी में भी गुरुशरण सिंह जैसे लोगों के बारे में लगभग कुछ नहीं पढ़ाया या बताया जाता है। गुरुशरण सिंह ही क्यों जन सरोकार से जुड़े किसी भी देसी आदमी की बात नहीं की जाती। ये स्कूल्स केवल तकनीक पढाने को ही अपना उद्येश्य मान बैठे हैं। ऐसा नहीं कि ये सब अनजाने में हो रहा है बल्कि ये उदासीनता जानबूझ पैदा की गयी है, की जा रही है। इसके पीछे कौन सा उद्येश्य काम करता है ये समझना कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं।
हर समाज अपना नायक खुद गढ़ता है। आज हमारे समाज में जो नायक-महानायक थोपे या गढे जा रहें है या जो नायकत्व का चोला धारण किये कुटिल मुस्कान बिखेर रहें हैं, क्या वे सच में नायक बनने के लायक हैं या आम जन को तसल्ली देकर धोखा देने के वास्ते, सूचना और संचार क्रांति के इस तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग ने नायक, खलनायक, विदूषक को मिलाकर कुछ नया मसाला तैयार कर लिया है ? जन नायक और माल बेचने के लिए पैदा किये जा रहे नायकों में आसमान-जमीन का फर्क हैं और सरकारी ग्रांट के भरोसे आत्म-मुग्धता का ज़्यादा और जनता का संस्कृतिकर्म कम ही होता है। 
गुरुशरण सिंह ता-उम्र अपने विश्वास पर अडिग रहे और अपने नाटकों के द्वारा जनता की आवाज़ को बुलंद करते रहे। भले ही इन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया हो पर इनके लिए सबसे बड़ा सम्मान जनता की कराहों और मजबूरियों को ताकत और एकता में बदलकर क्रांति की आवाज़ को सच्चे संघर्ष में बदलना है। गुरुशरण सिंह के सपनों का भारत अभी भी सपना ही है पर हर हकीकत पहले सपना ही तो होती है।

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...