Sunday, October 28, 2012

अंक के मंच पर दिनेश ठाकुर



गत 20 सितम्बर 2012 को गुर्दे में आई खराबी के कारण जाने माने रंगकर्मी व मुंबई स्थित नाट्य दल अंक के संस्थापक 65 वर्षीय दिनेश ठाकुर का निधन हो गया. जीवन में कुछ चीज़ें ऐसी होतीं हैं जिनका सीधा-सीधा कोई सम्बन्ध आपसे नहीं होता फिर भी कुछ ऐसा होता है जो आपको और उस चीज़ को एक डोर में बंधा देता है. हमलोग उन दिनों पटना के मंच आर्ट ग्रुप के साथ पुरे आक्रामक तेवर के साथ नाटक कर रहे थे. इसी तेवर की वजह से कुछ लोग हमारा मज़ाक बनाते हुए मंच आर्ट गिरोह भी कहते थे. तभी मैंने कहीं किसी रंगमंच की पत्रिका में पढ़ा कि मुंबई में ‘अंक’ नामक कोई संस्था है और वो संस्था भी नाटक ही करती है, वो भी हिंदी में. ‘मंच’ और ‘अंक’ नाम के बीच एक तरह की समानता होने के कारण यह नाम उन दिनों ज़ेहन में बस गया. फिर तो जहाँ कहीं भी ‘अंक’ के बारे में कोई जानकारी होती उसे उत्सुकता से पढ़ना एक आदत सी हो गई. ठीक यही बात 'थियेटर यूनिट' नामक समूह के साथ भी हुई, मंच आर्ट ग्रुप से जुड़ाने के पहले हम भी पटना में इसी नाम के एक रंग समूह के सदस्य थे, यह रंग समूह आज भी पटना में कार्यरत है और समय समय पर अपने नाटकों का मंचन करता रहता है.
ये कहना ज़रा मुश्किल है कि किससे कौन प्रभावित था. अंक से मंच या मंच से अंक. एतिहासिक परिदृश्य में अगर हम आकलन करें तो मुंबई का 'अंक' समूह पहले अस्तित्व में आया पटना का 'मंच' बाद में. ऐसा भी संभव है कि अंक, मंच और दोनों थियेटर यूनिटों का परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से कोई सम्बन्ध न हो. यह सम्बन्ध केवल मेरे मन की कपोल कल्पना हो. खैर, कुछ भी हो इसी बहाने ये दोनों रंग समूह अक्सर मेरी जिज्ञासा का एक हिस्सा हो गए. इसका कारण निश्चित रूप से मंच और थियेटर यूनिट पटना से मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानसिक और शारीरिक जुड़ाव ही था, जो वर्तमान में परिस्थितिवश केवल मानसिक जुड़ाव होकर रह गया है.
सन 1976 में स्थापित, विगत 36 वर्षों से 80 के लगभग सार्थक और लोकप्रिय नाटकों की 6,000 से ज़्यादा प्रस्तुतियों का इतिहास अपने दामन में समेटे 'अंक' मुंबई में हिंदी नाटक करनेवाली नाट्य संस्था है जिसका संचालन दिनेश ठाकुर करते थे. दिनेश ठाकुर का जन्म सन 1947 को हुआ था और जिनका देहांत गत 20 सितम्बर 2012 को हो गया. करोड़ीमल कॉलेज से ग्रेजुएशन, ओम शिवपूरी द्वारा संचालित दिल्ली की दिशांतर नाट्य दल के सक्रिय सदस्य, तत्पश्चात् दिनेश ठाकुर कुछ फिल्मों के लेखन और अभिनय से जुड़े. अंक के सफल संचालन के पीछे ओम शिवपुरी से सीखी निम्न बातों को तो जैसे उन्होंने गांठ सा बाँध लिया था कि “ नाट्यदल बनाना बहुत आसान है, पर उसे सुचारू रूप से संचालित करने के लिए एक बहुत अच्छा अभिनेता या निर्देशक होना ही काफी नहीं है. कोई भी नाट्य दल तभी तक चलता है जब तक कोई धर्यवान, लगन का पक्का, सहृदय और दूरदर्शी व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से उसे चलता है. रंगकर्मी में स्वार्थ और अहम् ही अमूमन किसी भी नाट्य दल को डूबा देता है.” हालांकि अंक को सुचारू रूप से चलने के लिए दिनेश ठाकुर ने समय-समय पर कुछ कठोर फैसले भी लिए और समूह के सदस्यों के लिए कुछ कड़े नियम भी बनाये पर समूह चलाने का उनका मूल मन्त्र वही था जो उन्होंने ओम शिवपुरी के साथ कार्य करते हुए सिखा और अनुभव किया था.
रंगमंच के प्रति उत्साह दिनेश ठाकुर के मन में युवावस्था से ही था. रामजस स्कूल, करोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली से होते हुए कुछ प्रयासों के बाद उनकी यात्रा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक पहुंची. सन 1967 में बी ए करने के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला पाने की कोशिश की. पर दाखिला नहीं मिला. लेकिन अलकाजी ने शायद रंगमंच के प्रति इनके समर्पण को देखते हुए उन्हें पुस्तकालय, पुर्वाभ्यासों, कार्यशालाओं में आने जाने की अनुमति दे दी थी. तत्पश्चात इनकी यात्रा मुंबई की फ़िल्मी दुनियां से लेकर अंक तक निरंतर चली. 
हमारे यहाँ लोकप्रिय कला बनाम सार्थक कला का बहस बहुत पुराना था. कुछ लोग सस्ती लोकप्रियता के चक्कर से बच ना सके तो कुछ मेरा थियेटर है मैं तो ऐसे ही करूँगा जिसे देखना है देखे जिसे नहीं देखा है न देखे के दंभ से कभी उबर नहीं पाए. ऐसे लोग हर काल में थे और आज भी हैं. वो दिनेश ठाकुर की ही दृष्टि थी कि उन्होंने एक तरफ़ कई विश्वप्रसिद्ध नाटकों को अंक की प्रस्तुतियों का हिस्सा बनाया वहीं हाय मेरा दिल जैसे साधारण किन्तु अतिलोकप्रिय नाटकों के हज़ारों प्रस्तुतियों को भी सफलतापूर्वक मंचित किया. त्रासदी, कॉमेडी, प्रहसन, कालजयी, आधुनिक, एतिहासिक, देशभक्तिपूर्ण, लोकप्रिय हर तरह के नाटक अंक के प्रदर्शन का हिस्सा बने.
मराठी और गुजराती भाषा की बहुलता वाले शहर बोम्बे (मुंबई) में दिनेश ठाकुर ने अंक की स्थापना की और हिंदी नाटक करने की ठानी तो उस वक्त हिंदी नाटक की स्थिति वहाँ कुछ खास अच्छी नहीं थी. नाटक तो अच्छे हो रहे थे पर दर्शकों का कहना था कि हिंदी के नाटक ऊपर से गुज़र जातें हैं और उनमें मनोरंजन का तत्व कम होता है. इसी कारण हिंदी की अच्छी से अच्छी प्रस्तुतियों को भी दर्शकों की कमी का समाना करना पड़ रहा था. शुरू में दिनेश ठाकुर ने भी कुछ अति गंभीर तरह के नाटक किये पर ऐसी स्थिति में किसी भी निर्देशक के सामने सबसे पहली चुनौती ये बनती है कि दर्शकों को नाटकों के सभागार में लाए. जब दर्शक ही नदारत हों तो “महान” नाटकों की प्रस्तुति आखिर किसके लिए और किस काम की ? 
दिनेश ठाकुर ने इस स्थिति से उबरने के लिए एक ओर जहाँ हाय मेरा दिल और बीबियों का मदरसा जैसी हास्य और मनोरंजक नाटकों को अपनी प्रस्तुतियों में शामिल किया वहीं लोगों में बीच जाकर टिकट काटने के साथ ही साथ नाटक के बारे में सूचना देना का काम प्रारंभ किया. ज्ञातव्य हो कि दिनेश ठाकुर खुद चौराहों और लाल बतियों पर खड़ी गाड़ियों के बीच जाकर अपने नाटकों के टिकट बेचते थे वो भी तब जब उनकी कुछ फ़िल्में प्रदर्शित हो चुकी थी. इससे लोगों तक नाटकों की सूचना के साथ ही साथ नाटकों के लिए नए दर्शक बने. फलस्वरूप मुंबई के हिंदी नाटकों में टिकट खरीदकर नाटक देखनेवाले दर्शकों की वापसी हुई. बकौल दिनेश ठाकुर हाय मेरा दिल पहला नाटक था जो पृथ्वी थियेटर में हाउसफुल हुआ था. इसके बाद उन्हें कभी पीछे मुड़के नहीं देखना पड़ा. उनकी फेहरिश्त में हाय मेरा दिल और बीबियों का मदरसा के अलावा एक लड़की पांच दीवाने, अंजी, जात ही पूछो साधू की, हमेशा, हम दोनों, जिन लाहौर नहीं देख्या, तुम क्या जानो प्रीत, आधे-अधूरे, खामोश अदालत जरी है, कमला, बाकि इतिहास, कन्यादान, आत्मकथा, एंटीगनी व तुगलक आदि जैसे नाटक, अनुभव, मेरे अपने, विटनेस, वो फिर नहीं आएगी, परिणय, रजनीगन्धा, मीरा, आस्था व फिजा आदि फिल्मों में अभिनय तथा घर जैसी फिल्म का लेखन के साथ ही साथ कई सारे नाट्योत्सव का सफल संचालन शामिल है.
मुंबई का हिंदी रंग जगत ने गत वर्षों में सत्यदेव दुबे, ए.के हंगल और दिनेश ठाकुर जैसे शीर्ष के रंगकर्मी को खोया है. जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत उर्जा से मुंबई के हिंदी रंगमंच को सजाया-संवारा. दिनेश ठाकुर की पहचान एक जुझारू रंगकर्मी की रही है जिन्होंने दर्शकों का बखूबी ध्यान रखते हुए अपनी शर्तों पर नाटक किये. इनके निधन से हिंदी रगमंच ने एक नायब रंगकर्मी खोया है, जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में तो संभव नहीं दिखती. इन तमाम लोगों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि का अर्थ है बेफजूल के उठा-पटक, कलाबाजी और तथाकथित बौधिकता के आसमान में लटके रंगमंच को दरकिनार करते हुए अच्छे नाट्याआलेख आधारित दर्शकों के रंगमंच की स्थापना का पुरज़ोर समर्थन, जो सादा से ही भारतीय रंगमंच की सबसे बड़ी खासियत रही है.

Monday, October 22, 2012

संवेदनाएं, सफलता, असफलता, बीमारियों का बाज़ार.


पुंज प्रकाश

समाज आज विज्ञापनों से घिरा है, हर चीज़ आज विज्ञापन के दायरे में है. होडिंग, पंफलेट, पोस्टर, बैनर, समाचार पत्र, पत्रिकाएं, इंटरनेट, रेडियो, टेलिविज़न आदि के मार्फ़त विज्ञापनों समाज तक पहुंचतें हैं. हम घर से बाहर निकलतें हैं हज़ारों होडिंग अनचाहे हमारी आँखों में रास्ते दिमाग में घुस जातें हैं. सुबह-सुबह समाचार से वाकिफ़ होने के लिए समाचार पत्र उठातें हैं और मिनटों में सैकड़ों विज्ञापन कीटाणु की तरह घर में फैल जातें हैं. इंटरनेट खोलते ही विज्ञापन का वाइरस आक्रमण कर देता है. रेडियो अपने कार्यक्रमों के बीच-बीच में विज्ञापन हमारे कानों में ठूंसना कभी नहीं भूलता. टेलिविज़न का स्क्रीन तो जैसे विज्ञापनों के अधीन ही होकर रह गया है जो बड़े ही प्यार से हमारी तमाम इन्द्रियों पर कब्ज़ा जमाकर हमें लुभा रहा है.
उत्पादों, सेवाओं और विचारों को बढ़ावा देने के लिए 1 जुलाई 1941 से शुरू हुआ विज्ञापन के इस कारोबार का दायरा आज इतना व्यापक है कि कई उद्योग इनपर  निर्भर हैं. विज्ञापनों का उद्देश्य एक तो उत्पादन के बारे में लोगों को जानकारी देने के साथ ही साथ ही साथ कैसे भी उपभोक्ताओं को अपनी गिरफ़्त में लेना होता है. आज बाज़ार में चल रहे गलाकाट प्रतियोगिता में सारी हदें पार कर ली गई हैं. कानून की उदारता का फ़ायदा उठाते हुए आज बड़ी-बड़ी कंपनियां बड़े-बड़े सेलिब्रिटी के चहरे और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए वैसे विज्ञापनों का भी खुलेआम प्रसारण राष्ट्रीय चैनलों पर करतें हैं जिसका विज्ञापन करना क़ानूनी तौर पर पूरी तरह प्रतिबंधित है. अब कौन नहीं जनता कि सोडा, म्युज़िक सीडीज़ और पान मसाले के नाम पर दरअसल शराब और गुटखे का भी विज्ञापन किया जाता है. पर कमाल की बात है कि कानून को ये नहीं पता! उसे बताये भी तो कौन? जिनके ऊपर ये ज़िम्मेदारी है वो तो उपरी आमदनी द्वारा कमाई नोटों की गर्माहट का मज़ा ले रहें हैं.
विज्ञापन फ़िल्में जानबूझकर भ्रामक, बढ़ा-चढाकर और ज़रूरत से ज़्यादा आकर्षक बनाई जातीं हैं . इधर कुछ दिनों से एक अजीब सा ट्रेंड देखने को मिल रहा हैसेलिब्रिटी के साथ ही साथ किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत सफलता-असफलता, संघर्ष आदि के सहारे किसी चीज़ को विज्ञापित करने की. जो इस बात को ही और मजबूत करता है कि आज की दुनियां में हर चीज़ बिकती है, संवेदनाएं, सफलता, असफलता, बीमारी सब. ज़रा याद कीजिये सौरव गांगुली, युवराज सिंह, दीपिका कुमारी और राजेश खन्ना वाले विज्ञापन. यह एक तरफ़ विज्ञापनों की अमानवीय दुनियां को पूरी बेरहमी से सरेआम महिमामंडित करती हैं वहीं ये भी इशारा करती हैं कि हम जिसे अपना हीरो’ मानतें हैं वो पैसे के वास्ते बहुतेरे ऐसी चीज़ें कर सकतें है जिसकी हम उनसे उम्मीद करतें हों. ये बात अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये बड़े-बड़े फिल्म स्टार, खिलाड़ी आदि स्वं इन चीजों का प्रयोग शायद ही करते हों, जिनका विज्ञापन करतें हैं. अब शाहरुख खान मर्दों वाली सस्ती क्रीम, जो दरअसल मध्यवर्ग के नवयुवकों की कुंठाओं का दोहन करती है, को अपने चहरे पर क्यों पोतने लगे या कटरीना कैफ रसिया-रसिया क्यों करने लगेगीं जब दुनियां का एक से एक ड्रिंक उनके कदमों में बिछाने को तैयार हो.
अपने दादा की बात मानेंगें आप ? : थोड़ी उथल पुथल के बाद सौरव गांगुली को पहले कप्तानी से हटाया गया फिर भारतीय क्रिकेट टीम से निकल दिया गया. दादा के चाहनेवालों और कोलकाता के लोगों के लिए यह बड़ा इमोशनल मुद्दा हो गया था. दादा पुनः टीम में वापस आने के लिए ज़िद्द ठाने बैठे थे. उसी दौरान पेप्सी वाले पहुँच गए दादा के पास और दादा के प्रति खेल प्रेमियों की भावनाओं को कुछ इस तरह भुनाया. ज़रा संवाद पढ़िएहाय, मेरा नाम सौरव गांगुली है. भूले तो नहीं ? जो हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, ये सब सोचके दुःख भी होता था गुस्सा भी आता था, पर अब नहीं. मैं टीम में वापस आने के लिए बहुत-बहुत प्रैक्टिस कर रहा हूँ. क्या मालूम हवा में शर्ट घुमाने का मुझे और एक मौका मिल जाए. जो भी हो मैं टीम के अंदर और बाहर, मैं चुप बैठानेवाला नहीं. हू हा इण्डिया या इण्डिया. इण्डिया के हर मैच में मैं ऐसे ही चिल्लाऊंगा, आप भी चिल्लाएं, मेरी टीम को अच्छा लगेगा. अपने दादा की बात सुनेंगें ?
ये हैं उस विज्ञापन का पूरा संवाद जो कि क्रिकेट के स्टेडियम में फिल्माया गया है जहाँ दादा कभी दर्शक दीर्घा में तो कभी मैदान में अकेले हैं. कभी हाथ में बैट है तो कभी पिच रोलर पर सबको कुचलने के लिए तैनात. ध्यान रहे किसी भी विज्ञापन में किसी प्रोप्स’ का प्रयोग यूँ ही नहीं होता. जैसे ही अपने दादा की बात सुनेंगें वाला संवाद आता है साथ ही साथ एक और टेक्स्ट भी अवतरित होता है स्क्रीन परJOIN THE BLUE BILLION तत्पश्चात अवतरित होता है पेप्सी का लोगो. यानि कि दादा अपनी हार माननेवाली प्रवृति, अपना गुस्सा, अपना टेंशन, अपनी संवेदना, देश प्रेम, उल्लास आदि की बात केवल इसलिए कर रहें हैं क्योंकि पेप्सी इसके लिए उन्हें ढेरों पैसे दे रहा है. फिर ये तो कारोबार हुआ. फैन्स की चिंता है ही किसे? जहाँ तक सवाल पेप्सी का है तो एक से एक विज्ञापन बनातें हैं ये लोग. अभी टी20 विश्व कप का विज्ञापन ही देखिये, जिसमें इनका मानना है कि ये टी20 क्रिकेट है जो तमीज़ से खेली जाती है देखी. ज्ञातव्य हो कि क्रिकेट को जेंटल मैन गेम भी कहा जाता है.
बाबूमोशाय, मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता. खन्ना साहेब को कौन भूल सकता है. जी हाँ भारतीय सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना. दर्जन भर लगातार सुपरहीट फिल्मों देने वाले अभिनेता. जिनकी एक अदा पर दुनियां फ़िदा थी. जिनके चाहने वालों/वालियों के सच्चे झूठे किस्से किवदंती बन चुके हैं. उनका सुपरस्टारी काल भले ही चंद सालों का ही रहा पर वो स्वं कभी उस काल से बाहर नहीं निकल पाए. अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले उन्होंने एक विज्ञापन सूट किया जिसमें उन्होंने अपने फैन्स ( चाहनेवालों ) को फैन्स ( पंखे ) में बदल दिया. काका के नाम से विख्यात इस स्टार से कौन पूछे की उन्होंने अपने चाहनेवालों का ऐसा मज़ाक क्यों बनाया. अपने इस हास्यास्पद और सहानुभूति छलकाऊ विज्ञापन में खन्ना साहेब कहतें हैंफैन्स क्या होते हैं मुझसे पूछो. प्यार का वो तूफान, मोहब्बत की वो आंधी, वो जज्बा, वो जूनून. हवा बदल सकती है लेकिन फैन्स हमेशा मेरे रहेंगें. बाबूमोशाय ( उसके बाद एक हल्की सी व्यंगात्मक हसीं ) मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता. ( फिर गर्दनवाला विश्वप्रसिद्ध स्टाइल, जो उम्र के साथ नहीं जमता. )
सबसे पहले एक बात कोई बुढ़ापे में अपनी जवानी की कॉपी करे तो कैसा लगेगा? हास्यापद ! इस विज्ञापन में एक तो ये बात और ज़्यादा स्थापित किया गया है कि खन्ना साहेब की सुई एक वक्त पर अटक गई थी. वो कभी अपने सुपरस्टार के ताज़ के मोह को त्याग सके. दूसरे अब इस महान अदाकार के लिए फैन्स का मतलब पंखा हो गया है! क्योंकि उगते सूरज डूबते सूरज वाली कहावत को उनसे बेहतर और कौन महसूस कर सकता था. तभी तो इस विज्ञापन में वो कहतें हैं मेरे फैन्स’ और अनगिनत पंखे स्क्रीन पर हवा छोड़ने लगतें हैं. ये बात खुद खन्ना साहेब और उनके सच्चे चाहनेवालों की शान में गुस्ताखी है, ये बात बाज़ार को कौन समझाये! एक सवाल और, जिस तरह एक सुपरस्टार ने अपने फैन्स के साथ इस विज्ञापन में सुलूक किया अगर यही सलूक कोई फैन सुपरस्टार के साथ करता तो क्या मानहानी का मुकद्दमा नहीं बनता है ?
कैंसर भी बिक गया ठाट के चक्कर मेंयुवराज सिंह मेरे पसंदीदा खिलाडियों में से एक हैं. उनके जानलेवा बीमारी की खबर सुनके मैं भी दुखी हुआ था और उनके स्वस्थ होकर पुनः मैदान में उतरने से जो खुशी का संचार लाखों लोगों के साथ मैंने भी महसूस किया उसे शब्दों में बयान करना ज़रा मुश्किल है. किन्तु जब मैंने उन्हें अपनी बीमारी को भी बेचते देखा तो ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई मेरी संवेदनाओं का मज़ाक उड़ा रहा है कि देख बे जिस चीज़ से तू दुखी हो रहा है मैं उसे बाज़ार में खड़ा कर रहा हूँ. क्या उनकी बीमारी का सारा खर्चा बिड़ला ने उठाया ? अगर उठाया हो तो भी कैंसर जैसी बीमारी को किसी लाइफ इंश्योरेंस के प्रचार का माध्यम बनाना क्या उचित है ?
अब देखिये युवराज क्या कहतें हैंलाइफ में मेहनत सभी को करनी पड़ती है. आप सुबह उठाकर ऑफिस भागतें हैं तो मैं ट्रेनिंग ट्रैक पे. 28 साल के इंतज़ार के बाद हमने वल्ड कप जीता. मैं मैन आफ टूर्नामेंट भी बना, फिर लगा सब सेट है. पर लाइफ भी ऐसी गुगली डालती है कि...सेलिब्रेशन तो दूर की बात है. हेल्थ खराब हुई तो टीम से बाहर. तो बात तो फिर वहीं गई कि जब तक बल्ला चल रहा है ठाट है, जब बल्ला नहीं चलेगा तो....Birla Sun Life Insurance के Wealth with Protection Solutions. ज़िंदगी के उतार चढाव में जियो विश्वास के साथ.   
इस विज्ञापन में भी अकेलापन और डार्कनेस है. भीड़ भी है पर युवराज उस भीड़ में भी अकेले हैं. युवराज एक फिटिंग स्पिरिट वाले मेहनती खिलाड़ी हैं और सिलेब्रिटी भी हैं इसमें कोई दो राय नहीं. पर ऐसी भी क्या मजबूरी की अपनी बीमारी, जो कि एक निहायत ही निजी बात थी, को भी विज्ञापनों के हवाले कर दिया.
केवल खिलाड़ी और फिल्मस्टार ही नहीं विज्ञापन फिल्मों ने आजकल उन सबको अपने दायरे में कैद करने की कोशिश में लगा है जिन्होंने  समाज के लिए कुछ बेहतर या अलग किया हो. क्या ये मान लिया जाय कि फ़िल्मी हीरो के साथ ही साथ रियल लाइफ हीरो भी विज्ञापन फिल्मों के निशाने पर हैं? क्या इन रियल लाइफ हीरो से ये उम्मीद की जाय कि अपने जीवनभर की मेहनत को किसी पेप्सी, कोक, टाटा, बिड़ला आदि के प्रचार का माध्यम नहीं बनायेंगें. इन विज्ञापनों और विज्ञापनों का असर को देखने के बाद ये संभावना ज़रा कम ही लगती है.

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...