Saturday, August 30, 2014

एक मठ का जवाब एक और मठ नहीं हो सकता

किसी भी सार्थक साहित्य का दायरा इतना सीमित कभी हो ही नहीं सकता कि वह एक खास वर्ग,जाति, समुदाय द्वारा ही लिखा-पढ़ा, समझा-समझाया जाय। यदि कोई समूह या व्यक्ति ऐसा करता है तो यह उसकी संकीर्णता है, उसकी मंशा पर संदेह किया जाना चाहिए। इन दिनों ऐसे फतवे देने वाले, विचार-प्रक्रिया को एकालाप या स्वगत कथन में परिवर्तित करनेवाले लोगों की कोई कमी नहीं जो यह कहते हुए पाए जाते हैं कि जो लोग जन्मजात बहुजन समुदाय (दलित-आदिवासी) से नहीं हैं वो इनके सवालों पर सच्चा साहित्य रच ही नहीं सकते, यदि रचते हैं तो वो “टॉप एंगल साहित्य” या “मर्सी-पिटीशन” होता है। ऐसे विचार उसी ब्राह्मणवादी मानसिकता के परिचायक नहीं तो और क्या है? इस प्रकार के सिद्धांत के समर्थक अमूमन नफ़रत का बीजारोपण कर मुहीम को वैचारिक के स्थान पर व्यक्ति केंद्रित करने का काम ज़्यादा करते हैं।
यह संभव है कि व्यक्तिगत अनुभव साहित्य को और ज़्यादा धनी बनाता हो किन्तु केवल अनुभव मात्र से ही साहित्य सृजन संभव नहीं। साहित्य में शिल्पगत रूप से व्यक्तिगत सच सामूहिक सच में भी परिवर्तित होता है। जहाँ यह प्रक्रिया घटित नहीं होती वहां साहित्य व्यक्तिगत प्रलाप-एकालाप बनकर रह जाता है। यह अपने आप में एक असाहित्यिक वक्तव्य है कि किसी चीज़ पर रचना करने से पहले रचनाकार का उस विषय का व्यक्तिगत अनुभव होना ज़रुरी है। यह तर्क ज्ञान, बुद्धि, विवेक, कल्पना और प्रतिभा के विरुद्ध है। क्या मनुष्य केवल अनुभव मात्र से ही पीड़ा, संघर्ष, सुख-दुःख आदि की अनुभूति करता है? यदि ऐसा होता तो मानव एक चेतनशील प्राणी नहीं माना जाता। साहित्य क्या कोई भी कला केवल अनुभव मात्र की मोहताज़ कभी नहीं रही। यहाँ ज्ञान, कल्पना, शिल्प, बिम्ब, प्रतीक आदि-आदि का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। ऐसे उदाहरणों से विश्व साहित्य भरा पड़ा है जहाँ लेखकों ने अपने समुदाय, वर्ग, लिंग आदि से परे जाकर कालजई और प्रेरक रचनाएँ रची हैं। अनुभव से एक खास प्रकार का साहित्य (आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत इत्यादि) रचा जाता है किन्तु इसके लिए भी लेखकीय प्रतिभा का होना अनिवार्य है।
साहित्य की कलात्मकता और रचना प्रक्रिया पर बहुत सी बातें हो चुकी है, होती रहती हैं, यहाँ अलग से उस विषय पर बात करना ज़रुरी नहीं। साहित्य की सार्थकता को हम ओ हैनरी  की एक विश्वप्रसिद्ध कहानी आखिरी पत्ता  से समझ सकते हैं जहाँ रचनाकार स्वयं होम होकर एक मानवीय मास्टरपीस रचता है। जो साहित्य समाज के लिए आशा की किरण और संघर्ष की शक्ति को प्रस्फुटित नहीं करता, उसकी सार्थकता संदेहास्पद है। उसे समाज का हर तबका रचे इसमें क्या बुराई है। आज इसका साहित्य, उसका साहित्य, उसके लिए साहित्य नाम पर जितने भी मठ-गढ़ चल रहे हैं, उससे रचनाकार का भला भले ही हो जाय, रचना और समाज का भला शायद ही होगा। दूसरे को कमतर और अपने और अपने जैसों को श्रेष्टतर मानने की प्रवृति से न समाज अछूता है ना ही रचनाकार। मेरी कमीज़ तेरी कमीज़ से सफ़ेद है के व्यर्थ प्रलाप से ज़्यादा ज़रुरी है अमानवीयता के विरुद्ध सृजनात्मक योगदान की दिशा में रचना और रचनाकार को प्रयासरत होना। नए मापदंडों और व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण के साथ अनेकता में एकता भी साहित्यिक आंदोलन का उद्देश्य हो सकता है। बांटों और राज करो का नारा तो सदियों से बुलंद है ही।
यह सच है कि बहुजन साहित्य को पढ़ने, समझने के लिए साहित्य के नैतिकतावादी और बने-बनाए मापदंडों को चुनौती देना पड़ेगा, इस साहित्य की अपनी ही एक भाषा, शिल्प, सौंदर्यशास्त्र आदि है। बकौल राजेन्द्र यादव “दलित लेखन को गुस्ताखी का साहित्य कहा जा सकता है जिसका प्रमुख स्वर है गुस्सा या आक्रोश : यह आक्रोश जहाँ एक ओर सवर्ण व्यवस्था को लेकर है तो दूसरी ओर अपनी स्थिति, नियति और लाचारी को लेकर। यह आरोपपत्र भी है और मांगपत्र भी।” वहीं शरण कुमार लिम्बाले अपने संग्रह का नाम दलित ब्राहमण  रखते हैं। इस संग्रह कीआत्मकथा नामक कहानी में लिम्बाले लिखते हैं “दलित साहित्य पर बेहिसाब बहसें हो रही हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं की बड़ी प्रसिद्धि हो रही है। कोई एक आत्मकथा प्रकाशित हो जाती है और रातोंरात वह लेखक महान बन जाता है। उसे पुरस्कार मिलने लगते हैं। उसके सत्कार-समारोह संपन्न होते हैं। उसकी तारीफ़ में लेख छपने लगते हैं। फिर शासन की समितियों में उसकी नियुक्ति होने लगती है। उसकी पोशाक बदल जाती है। उसकी भाषा बदल जाती है। उसका रहन-सहन बदल जाता है।जो लिखता है लेखक बन जाता है।” यहाँ लिम्बाले जिस प्रवृति का ज़िक्र कर रहें हैं यह प्रवृति किसी भी साहित्य के लिए घातक है। अफ़सोस; आजकल ऐसी ही प्रवृतियों की चपेट में रचनाएं और रचनाकार दोनों हैं।
इससे कतई इनकार नहीं कि साहित्य की बहुजन धारा ने कई कड़वे सच से पर्दा हटाकर एक ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज़ की, नई बहसों को जन्म दिया। किन्तु तमाम वर्गों, वर्णों, समुदायों, संप्रदायों आदि में विभक्त बहुसांस्कृतिक भारतीय समाज में आज बहुजन हिताय के संघर्ष को सर्वजन हिताय में परिवर्तित कर उसकी सार्थकता के दायरे का और ज़्यादा विस्तार हो तो क्या कुछ गलत होगा? क्या इसी में साहित्य और समाज की भलाई नहीं है? एक मठ का जवाब एक और मठ नहीं हो सकता। जिस मानसिकता के विरुद्ध यह आंदोलन खड़ा हुआ वही मानसिकता अगर इसे अपनी चपेट में ले ले इससे दुखद बात और क्या हो सकती है। दुखद है कि आज वैसे लोगों की कमी नहीं जो दलित-आदिवासी के नाम पर ‘अपनी डफली-अपना राग’ अलाप रहे हैं।

हम किस वर्ग-समुदाय के हैं से ज़्यादा ज़रुरी सवाल यह है कि रचनाकर्म का उद्देश्य और रचनाकार की मानसिकता क्या है और इससे किसको लाभ मिल रहा है। संघर्ष मानसिकता से होना चाहिए।जाति से जाति, समुदाय से समुदाय का संघर्ष किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति का मूल लक्ष्य हो भी नहीं सकता और यदि होता है वो वह अमानवीय है। इस अमानवीयता के खिलाफ़ संघर्ष ही मानव और मानवीय अभिव्यक्तियों का अंतिम लक्ष्य हो सकता है और मानवीय कला-साहित्य की सार्थकता भी। डॉ. अम्बेडकर का सन्देश था “बड़ी कठनाई के साथ इस कारवां को यहाँ तक लाया हूँ, इसे आगे बढ़ाना। यदि ऐसा नहीं कर सकते तो इसे यहीं छोड़ देना, पीछे न धकेलना।” 

Friday, August 1, 2014

गोविन्दराम निर्मलकर : एक पारंपरिक आधुनिक भारतीय अभिनेता

गोविन्दराम निर्मलकर
दो महीने पहले की बात है : इप्टा डोंगरगढ़ के साथियों के साथ राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) के मोहारा ग्राम निवासी और कभी हबीब तनवीर के नया थियेटर के मुख्य अभिनेताओं में से एक रहे गोविन्दराम निर्मलकर का साक्षात्कार करना है । गोविन्दराम निर्मलकर अर्थात चरणदास चोर नाटक का चरणदास, पोंगा पंडित का पंडित, आगरा बाजार का ककड़ीवाला, लाला शोहरत बेग का शोहरत बेग, देख रहे हैं नैन का दीवान, मिट्टी की गाडी का नटी और मैत्रेय, मुद्राराक्षस में जीव सिद्धि, देख रहे हैं नैन का दीवान, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का बाटम, गांव के नाम ससुरार मोर नाव दमाद का दमाद, जिन लाहौर नई देख्‍या वो जन्‍मई नई का अलीमा चायवाला, वेणीसंघारम का युधिष्ठिर सहित बहादुर कलारिन, शाजापुर की शांतिबाई, सोन सरार, जिन लाहौर नई वेख्‍या वो जन्‍म्या ई नई, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना और ना जाने कितने ही नाटकों के कितने चरित्रों को जीवंत करनेवाला अभिनेता !
50 के दशक से भारतीय रंगमंच पर कार्यरत 85 वर्षीय निर्मलकर से मिलने का अर्थ है भारतीय रंगमंच के एक समृद्ध इतिहास और परम्परा से रु-ब-रु होना । निर्मलकर की रंगयात्रा महानगरीय और अकादमीक चकाचौंध से दूर, भारतीय रंगमंच और अभिनय पद्दति को समृद्दि प्रदान करती है । वे उस पीढ़ी के अभिनेताओं में से एक थे जिन्होंने बाहर से आयातित अभिनय शैलियों से इतर भारतीय पारंपरिक अभिनय शैली को बड़े शिद्दत के साथ रंग पटल पर स्थापित किया । उनकी रंगयात्रा छत्तीसगढ़ी पारंपरिक नाट्यशैली नाचाके जोकर से शुरू होकर हबीब तनवीर के नया थियेटर तक पहुंचती है और देश-विदेश में अपनी खुशबू फैलाती है । ज्ञातव्य हो कि नाचा छत्तीसगढ़ की लोक शैली है, जिसे अमूमन निचली जाति के लोग ही करते हैं । वैसे भारत में जितनी भी लोक परम्पराएं या शैलियाँ हैं वह अमूमन निचली जाति के समपर्ण के कारण ही तो ज़िंदा हैं । ऊँची जाति और समाज के प्रतिष्ठित लोग या तो इन परम्पराओं को नचनियां-बजानियाँका पेशा मानते हैं या फिर इसका उपभोग मात्र करते हैं । वहीं अकादमिक और महानगरीय कलाकार इसे अमूमन देहाती, अनपढ़ और गवांरों की ही कला मानते हैं ।
किन्तु प्रचलित मान्यताओं और रुढियों से ऊपर उठाकर जिस दिन हम थोपी हुई अभिनय सिद्धांतों के इत्तर रंगमंच की सच्ची भारतीयता की चर्चा करेंगें उस दिन पृथवीराज कपूर, गोबिंदराम निर्मलकर, बाल गंधर्व, गिरीश घोष, गुलाब बाई, फ़िदा बाई, भिखारी ठाकुर, भुलवाराम यादव, सावित्री हैशनाम, रामचरण निर्मलकर, नथाराम गौड़, मास्टर फ़िदा हुसैन आदि के योगदान और महत्व को और अच्छे से समझ पाएंगें । वैसे भी कोई भी कला स्थानीय हुए बिना ग्लोबल नहीं हो सकती; यह तर्क सच के ज़्यादा करीब है । 
बहरहाल, हम मोहारा ग्राम पहुंचाते हैं और एक पान की दुकानवाले से निर्मलकर के घर का पता पूछते हैं । वो आगे की तरफ़ इशारा करके हमें उजले रंग के एक दुमंजिले मकान के पास जाने को कहता है । हम वहां पहुंचाते हैं तो दुमंजिले के ठीक सामने मिट्टी का एक खपरैल मकान होता है यही है पद्मश्री, संगीत नाटक अकादमी समेत कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित और अपनी पूरी ज़िंदगी रंगमंच के प्रति समर्पित अभिनेता गोविन्दराम निर्मलकर का घर । चूने में नील मिलाकर पोते इस छोटे से घर की दीवारों पर मटमैली पड़ चुकी तस्वीरों के रूप में भारतीय रंगमंच का सुनहरा इतिहास टंगा पड़ा है और साथ ही लटके पड़े हैं भारत के राष्ट्रपति के हस्ताक्षर युक्त पद्मश्री समेत कई सम्मानों के प्रमाणपत्र । निर्मलकर हाथ में एक पतली सी लाठी लिए आते हैं । दुआ-सलाम के बाद बातों का सिलसिला चल पड़ता है । किसे पता था कि यह उनका आखिरी साक्षात्कार है !
सन 1950 का साल था । निर्मलकर लगभग 16 साल के थे । नाचा के दौरान ही हबीब तनवीर से इनकी मुलाक़ात होती है । आगरा बाज़ार नाटक के लिए निर्मलकर को अपने एक और साथी के साथ दिल्ली आने का निमंत्रण मिला तो वे असमंजस में पड़ जाते हैं । सवाल था कि रेल पर चढ़के परदेस जाएँ कि न जाएँ । आखिरकार दिल्ली पहुंचे । वहां शहरी अभिनेताओं के साथ यह दोनों अपने को बड़ा सहमा-सहमा महसूस करते हैं । अनपढ़ निर्मलकर ने सुन-सुन कर अपने संवाद जल्दी याद कर लिया किन्तु नाचा में इम्प्रोवाइजेशन के उस्ताद इन कलाकारों को एकदम तयशुदा काम करना ज़रा अखर सा रहा था । इधर शहरी अभिनेता अपने संवादों का रट्टा मार रहे थे । निर्मलकर बताते हैं कि शहर वाले अभिनेता हमसे पूछते कि तुमलोगों ने कैसे याद किया तो हमने एकदिन मज़ाक में कहा कि हमलोग रात में सोते नहीं बल्कि अपने संवाद याद करते रहते हैं । --- दरअसल वो लोग एक साथ कई जगह काम कर रहे थे और हम केवल एक । एक ही साधे सब साधे ।फिर निर्मलकर आगरा बाज़ार के ककड़ीवाले का गीत गाने की कोशिश करते हैं पर शरीर अब साथ नहीं दे रहा ।
अपने तरह का नया थियेटर की तलाश में जब हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ आ जाते हैं और नाचा के कलाकारों के साथ ही रम जाते हैं तब इन अनपढ़ और देहाती माने-जाने वाले कलाकारों और हबीब तनवीर ने मिलकर भारतीय और विश्व रंगमंच में क्या आयाम हासिल किया यह जग ज़ाहिर है । चलताऊ लहज़े में यदि कहें तो फर्श से अर्श तक की इस यात्रा में नैसर्गिक प्रतिभा के धनी निर्मलकर पल-पल हबीब तनवीर के साथ थे । निर्मलकर अपने और हबीब तनवीर के बारे में बहुत सी बातें करते हैं, बहुत से किस्से सुनाते हैं लेकिन वह सब फिर कभी । तत्काल केवल इतना कि नया थियेटर पहली बार विदेश यात्रा पर जा रहा था । सबको हवाई जहाज़ से जाना है यह जानकार जैसे सांप सूंघ गया । लोग इस फिराक में थे कि किसी भी तरह यात्रा टल जाए । जाने के दिन घर से ऐसे विदा हुए जैसे यह आखिरी विदाई हो । डरते हुए हवाई जहाज़ पर चढ़ा और विदेश पहुंचे तो कहीं खाने लायक कोई चीज़ ही न मिले । जो था वो खाने की आदत नहीं थी या डर भी था कि पता नहीं इसमें क्या चीज़ मिला हो । दल के कुछ लोगों ने तो खाना-पीना छोड़ ही दिया था और खाया भी तो फल या दूध । बाद में जब ऐसी यात्राएं लगातार होने लगीं तो धीरे-धीरे सबको आदत सी पड़ गई । 
निर्मलकर के हिस्से अभावग्रस्त ज़िंदगी ही आया, जिसे देखते हुए उनको दिए गए सारे सम्मान बेमानी से लगते हैं । क्या सम्मान का एक कागज़ भर दे देने से सरकार और समाज का काम खत्म हो जाता है ? पूरी ज़िंदगी रंगमंच की सेवा करने के बाद भी निर्मलकर जैसे कलाकार फकीर के फकीर ही बने रहते हैं तो यह सम्मान क्या कागज़ के एक टुकड़े मात्र में नहीं बदल जाता ? यह कौन नहीं जानता कि आज रंगमंच के ठेकेदार लोग कैसे सरकारी पैसों से अपनी और अपने चमचों की जेबें भर रहे हैं वहीं निर्मलकर सरकार की ओर से मिलने वाली 1500 की पेंशन के सहारे ही इलाज और घर का खर्च चलाने को अभिशप्त थे ! बुढ़ापे के दिनों में लकवाग्रस्त शरीर लेकर उन्‍होंने अपने स्‍वास्‍थ्‍य और आर्थिक समस्याओं के मार्फ़त राज्‍यपाल, मुख्‍यमंत्री और छत्तीसगढ़ के संस्कृति मंत्री तक के से गुहार लगाई किन्तु प्रजातंत्र के कानफाडू शोर में एक निचली जाति के लोक कलाकार की गुहार सुनने की फुर्सत किसी के पास नहीं है ! आखिरकार इन्होने तय कर लिया कि पद्मश्री लौटा देना है । निर्मलकर कहते हैं जो सम्मान न मेरे काम आ रही है, न मेरी कला के उसे धारण करने से क्या लाभ !” 
राज्य सरकार को लगा कि किरकिरी हो जाएगी तो जैसे तैसे मामले को निपटा भर दिया गया । एक तरफ़ जहाँ अनुदान की राशि का बंदरबांट मचा है वहीं नाचा की दुर्गति से परेशान निर्मलकर नाचा के लिए कुछ करना चाह रहे थे तो सरकार अनुदान देने को तैयार नहीं होती । निर्मलकर कहते हैं- पद्मश्री के बाद कई लोगों ने मान लिया कि मुझे सरकार की ओर से सम्मान के साथ-साथ लाखों रुपये भी मिले होंगे । जबकि सच्चाई यह है कि इस सम्मान पत्र के अलावा मुझे सरकार से एक धेला तक नहीं मिला । मैं चाहता था कि नाचा को मैं नई पीढ़ी को सौंप दूं, लेकिन अब अफसोस के साथ मुझे इस दुनिया से अलविदा करना होगा । निर्मलकर का यह सपना सपना ही रहा ।
श्‍याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्म चरणदास चोर में अभिनय कर चुके निर्मलकर का मन अब अपने किये नाटकों की सीडी देखने को करता है लेकिन उनके पास न ढंग की सुविधा है और ना ही अपने किसी भी नाटक की रिकॉडिंग । नया थियेटर रिकॉडिंग देने को कहता है लेकिन देता नहीं । वैसे भी हबीब तनवीर के देहांत के बाद नया थियेटर अपने पुराने कलाकारों को जैसे भूल सा ही गया है । 
सवाल तो बहुत सारे हैं पर किससे करें ? उस समाज से जिसे केवल कलाकार की कला का रस लेना आता है, ज़िम्मेदारी नहीं ? यदि निर्मलकर किसी कॉरपोरेट के बनाए नकली और सामानबेचू नायक या नेता होते तो क्या उनकी हालत ऐसी ही होती ? परंपरागत भारतीय रंग शैली को पल-पल अपनी सांसों में बसाए गोविन्दराम निर्मलकर एक आधुनिक कलाकार थे जिन्होंने लगभग पन्द्रह दिनों अम्बेडकर अस्पताल में लकवे और मस्तिष्क की फटी नशों से संघर्ष करने के बाद आखिरकार इस नाशुक्रे संसार को अलविदा कर ही दिया । निर्मलकर, अब इस दुनियां में नहीं हैं । जीते जी वो जैसे भी रहे मरने के बाद राजकीय सम्मानदिया ही जायेगा निर्मलकर चाहें न चाहें उनकी मर्ज़ी यहाँ भी नहीं चलेगी । निर्मलकर यदि महानगरीय अभिनेता होते तो देश के कई शहरों में अब तक शोक सभाओं का आयोजन हो गया होता और लोग फूल माला से इनकी तस्वीरों को लाद चुके होते । लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी इन्हें प्रमुखता से स्थान देता । -- जब तक कलाकार और समाज अपने असली नायकों का जिम्मेदारीपूर्वक सम्मान करना नहीं सीखता तब तक सब ऐसे ही चलेगा । यह सब दुखद तो है ही बेहद अफसोसजनक भी है !!!

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...