Monday, November 19, 2012

सामाजिक परिवर्तन का इतिहासकार रामशरण शर्मा

19 नवंबर 1919 – 20 अगस्त 2011.

वे दुखों से मुक्ति चाहते थे पर उससे जूझते नहीं, लड़ते नहीं. वे ऐसा निर्वाण चाहते थे कि उन्हें न जीना पड़े न मरना पड़े.- रामशरण शर्मा.

हकीकत से समाज को रु-ब-रु करनेवाले, अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त इतिहासकार रामशरण शर्मा भारतीय इतिहासकारों में एक ऐसे नाम हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास को वंशवादी कथाओं से मुक्त कर सामाजिक और आर्थिक इतिहास लेखन की प्रक्रिया की शुरुआत करनेवालों में से एक हैं. 20 वीं सदी के पांचवें दशक तक इतिहास का मतलब था राजाओं का गद्दी पर बैठना, युद्ध, प्रशासन, शाही शादियाँ, विद्रोह, दूसरे राजा का गद्दी पर आसीन होना आदि का कथा पाठ. इतिहास यहीं से शुरू होता और यहीं खत्म हो जाता था. इतिहास का निर्माण कुछ महान विभूतियां ही करतीं हैं इस इतिहास लेखन के पीछे शायद यही अवधारणा और मानसिकता थी, जिसे मार्क्सवाद की इस चुनौती से टकराना पड़ा कि इतिहास के निर्माता समाज के वर्ग होतें हैं कोई एक व्यक्ति नहीं.
विश्व इतिहास की भूमिका ( 1951-52 ), सम इकानामिकल एस्पेक्ट्स ऑफ द कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया ( 1951 ), रोल ऑफ प्रोपर्टी एंड कास्ट इन द ओरिजिन ऑफ द स्टेट इन एंशिएंट इंडिया ( 1951-52 ), शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया एवं आस्पेक्ट्स ऑफ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया  ( 1958 ), आस्पेक्ट्स ऑफ पोलिटिकल आइडियाज एंड इंस्टीच्यूशन इन एंशिएंट इंडिया ( 1959 ), इंडियन फयूडलीजम ( 1965 ), रोल ऑफ आयरन इन ओरिजिन ऑफ बुद्धिज्म ( 1968 ), प्राचीन भारत के पक्ष में ( 1978 ), मेटेरियल कल्चर एंड सोशल फार्मेशन इन एंशिएंट इंडिया ( 1983 ), पर्सपेक्टिव्स इन सोशल एंड इकोनौमिकल हिस्ट्री ऑफ अर्ली इंडिया ( 1983 ), अर्बन डीके इन इंडिया - 300 एडी से 1000 एडी  ( 1987 ), सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या ( 1990-91 ), राष्ट्र के नाम इतिहासकारों की रपट ( 1991 ),  लूकिंग फॉर द आर्यन्स ( 1995 ), एडवेंट ऑफ द आर्यन्स इन इंडिया ( 1999 ), एप्लायड साइंसेस एंड टेक्नोलाजी ( 1996 ), अर्ली मेडीएवल इंडियन सोसाइटी : ए स्टडी इन फ्यूडलाईजेशन ( 2001 ) आदि सहित लगभग अस्सी प्रसिद्द पुस्तकों, आलेखों के रचयिता रामशरण शर्मा का जन्म बेगुसराय ( बिहार ) ज़िला के बरौनी फ्लैग गाँव के एक निर्धन परिवार में हुआ था. उनके दादा और पिता बरौनी ड्योडी वाले के यहाँ चाकरी करते थे. उनकी स्कूली पढ़ाई बरौनी एवं बेगुसराय में हुई. सन 1937 में पटना कॉलेज में दाखिला लिया. इतिहास से एमए की शिक्षा सन 1943 में पूरी की. एचडी जैन कॉलेज आरा और टीएनबी कॉलेज भागलपुर में कुछ दिन पढ़ाने के पश्चात् पटना कॉलेज में इतिहास के लेक्चरर रहे. सन 1958 से 1972 तक पटना विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख, सन 1972 में भारतीय अनुसन्धान परिषद् के गठन के साथ इसके पहले संस्थापक अध्यक्ष, सन 1973 में दिल्ली विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख, स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़, लन्दन विश्वविद्यालय में छः साल तक विजिटिंग फेलो, सन 1965-66 में टोरेंट विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर रहे. भारत शास्त्रियों को दिया जानेवाला सर्वोत्तम केम्प्वेल मेमोरियल गोल्ड मेडल सम्मान, एशियाटिक सोसायटी, कोलकाता द्वारा हेमचंद राय चौधरी जन्मशताब्दी स्वर्ण पदक सम्मान, सारनाथ के उच्चतर तिब्बती अनुसन्धान संस्थान एवं वर्धमान विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट, पटना विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एमेरिटस, सन 1958 में बिहार-बंगाल सीमांकन आयोग के सदस्य, विज्ञान के इतिहास प्रोजेक्ट में राष्ट्रीय आयोग के सदस्य, सभ्यता के इतिहास पर शोध समिति के वरिष्ट सदस्य की उपाधि प्राप्त. जाति-सम्प्रदायिकता-सामंतवाद आदि समकालीन मुद्दों पर तर्कपूर्ण लेखन, गहन अध्ययन  तथा विचार-विमर्श, एक व्यावहारिक शिक्षक व प्रसाशक, बदलाव के व्यापक एजेंडे में अपने एतिहासिक ज्ञान का इस्तेमाल करनेवाले व्यावहारिक मार्क्सवादी इतिहासकार, देश-विदेश की 15 भाषाओं में इनकी किताबों का अनुवाद, संकीर्णतावादी व सांप्रदायिक ताकतों के लिए आँख की किरकिरी बनने पर भी हार न माननेवाला और तर्क का दामन न छोडनेवाला इतिहासकार, सत्ता के हस्तक्षेप व इतिहास को अपने हक में इस्तेमाल करनेवालों का विरोध करनेवाले इतिहासकार, वैज्ञानिक नज़रिए तथा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को लेकर आखिरी समय तक तार्किक व व्यावहारिक संघर्ष करनेवाले इतिहासकार.
वे किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं थे किन्तु मार्क्सवाद का अध्ययन, चिंतन, मनन इनके प्रमुख कार्यों में से एक था. जिसका सीधा प्रभाव उनके लेखन में देखने को मिलता है. भारतीय इतिहास लेखन में 1940 में प्रकाशित आधे भारतीय एवं आधे स्वीडिश, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव रजनी पाम दत्त की पुस्तक इंडिया टुडे, 1956 में दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी ( डी.डी. कोसाम्बी ) की एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इडियन हिस्ट्री एवं 1958 में रामशरण शर्मा की शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया और आस्पेक्ट्स ऑफ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया एवं 1965 में इरफान हबीब की औरगंजेब की कट्टर धार्मिकता पर केंद्रित द अग्रेरियान सिस्टम ऑफ मुगलस आदि पुस्तकों को भारतीय इतिहास को मार्क्सवादी प्रभाव के परिपेक्ष में देखने का एक सफल प्रयास के रूप में माना जाता है, जिसकी पुरज़ोर स्थापना सन 1965 प्रकाशित रामशरण शर्मा की पुस्तक इंडियन फ्यूडलिज्म से हो जाती है, ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.
इतिहासकार रामशरण शर्मा अर्थात वर्तमान परिघटनाओं के प्रति प्रखरता, सजगता के साथ सहजता, सरलता और शालीनता का एक ऐसा नाम जिन्होंने पहली बार प्राचीन भारत में समाज में निचली कही जानेवाली जातियों ( शुद्र ) की स्थिति के बारे में गहराई से अध्ययन किया, एक सजग व्यक्ति को विरोध का समाना न करना पड़े ऐसा भारतीय इतिहास में बहुत कम ही हुआ है, रामशरण शर्मा भी इससे बचे नहीं. “सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा.” का नारा बुलंद करनेवाले लोग कांग्रेस को पछाड़कर जब सत्ता में आए तो ऐसे ऐसे कारनामों को अंजाम दिया कि कांग्रेस तक शर्मा गई. खैर तत्काल बात शर्मा जी के सन्दर्भ में; सन 1977 में जनसंघ के दबाव में आकर जनता पार्टी की सरकार ने ग्यारहवीं क्लास में पढ़ाई जा रही इनकी पुस्तक प्राचीन भारत को पाठ्यक्रम से हटा दिया. तर्क था कि इस पुस्तक में हिंदू धर्म और संस्कृति के खिलाफ़ बातें लिखी गई हैं पर असली बात ये थी अपने धर्मनिरपेक्ष तेवर की वजह से वो हमेशा से ही जनसंघ के निशाने पर रहे. रोमिला थापर और बिपिन चन्द्र की किताबों के साथ भी यही किया गया. उसी ज़माने में शर्मा जी यूनेस्को द्वारा आयोजित गोष्ठी में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व करते हुए पेरिस जा रहे थे कि विमान पर चढ़ाने के ठीक पहले उन्हें ये सूचना दी गई कि भारत सरकार ने उनको पेरिस जाने से मना कर दिया. उन्हें आपस लौटना पड़ा. सुमित सरकार व द्विजेन्द्रनाथ झा के दिल्ली विश्विद्यालय में नियुक्ति करने पर शर्मा जी के विरुद्ध जनसंघ ने नारा लगाया आरएस शर्मा भगाओ, हिंदू धर्म बचाओ. तभी तो जेपी आंदोलन पर व्यंग करते हुए हरिशंकर परसाई लिखतें हैं डाकू भी अगर कांग्रेस विरोधी है तो वो बड़े से बड़ा समाजवादियों से ज़्यादा श्रेष्ठ है. वहीं बाबा नागार्जुन भी ये कहने को मजबूर हो गए कि खिचड़ी अच्छी नहीं होती.

रामशरण शर्मा का मानना था - अगर दक्षिणपंथ का प्रभाव बढ़ेगा तो वामपंथ का घटेगा और वामपंथ का प्रभाव बढ़ेगा तो दक्षिणपंथ का घटेगा. मार्क्सवाद की प्रासंगिकता के विषय में रामशरण शर्मा के विचार कम महत्वपूर्ण नहीं है. वो जहाँ एक तरफ़ लकीर के फकीर बनने की बात से इंकार करतें हैं वहीं मार्क्सवाद को प्रासंगिक पर इनका कथन है कि कोई भी विचारधारा पैदा होती है तो उसका सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवेश होता है. आप दुनियां को समझाने का वह तरीका अपनाएं जो मार्क्स ने अपनाया था तो लाभ होगा. दुनिया का परिवेश बदला है तो नया अध्ययन ज़रूर होना चाहिए. लेकिन मार्क्सवाद की जगह ले सकने वाली कोई दूसरी उसी हैसियत की विचारधारा मेरी जानकारी में सामने नहीं आई है. मार्क्स के देखने में जो कमी थी, उसे आप पूरा करें. दुनियां में जो अंतर आया है उसका गहन और विस्तृत अध्ययन कीजिए. फिर मोडिफाई कीजिये. विचारधारा भी तो बदलती है. लेकिन ऐसा नहीं होता कि नई विचारधारा आती हैं तो सभी पुरानी विचारधाराएं बिलकुल हट जाती हैं. असल बात है बेहतर और बेहतर, निरंतर बेहतर बनाने की कोशिश चलती रहती है. इसलिए मूल श्रोत-सामग्री और तरीके का महत्व है. मेरी समझ में मार्क्सवादी दृष्टि को रिप्लेस करना संभव नहीं है. वैसे ये बात भी सही है कि सब कुछ सिर्फ मार्क्सवाद से नहीं जाना जा सकता. लेकिन मार्क्सवाद की समझ तो काम आएगी ही. जबतक सामाजिक समानता पूरी नहीं होगी तब तक तो मार्क्सवाद की प्रासंगिकता बनी ही रहेगी. इतिहास में प्रगति और दुर्गति साथ-साथ चलती है. सामाजिक न्याय का सवाल मरनेवाला नहीं है. बुनियादी सवालों को खत्म करना असंभव है. मार्क्सवाद हमें विरासत से काटता नहीं है. उल्टे विरासत को समझाने में मदद करता है. एक मार्क्सवादी होने के कारण अपनी परम्परा और विरासत के सम्बन्ध में बहुत सारे सवाल आप पूछने लगेंगे. इससे अपनी विरासत के सम्बन्ध में आपकी बेहतर वैज्ञानिक समझ बनेगी. आप विरासत के उन पहलुओं को स्वीकार करेंगें जो प्रगति में सहायक हैं और उन्हें अस्वीकार करेंगें जो प्रगति में सहायक नहीं हैं.
रामशरण शर्मा की ख्याति प्राचीन भारत पर लिखी पुस्तकों के लिए है इसमें कोई दो राय नहीं पर जिन्होंने भी उन्हें विभिन्न गोष्ठियों, सभाओं, नुक्कड़ सभाओं में सुना है, बैठकी में उनसे गप्पें लड़ाई वो भली भांति जानते हैं कि उनके चिंतन के दायरे में मध्यकालीन और आधुनिक भारत भी हमेशा रहा है. प्रगतिशील तबके के बीच वे वर्तमान को बदलने की लड़ाई में वैचारिक शक्ति के श्रोत के रूप में भी जाने जातें हैं. रामशरण शर्मा एक धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार थे. उनकी राय थी – आज की समस्या इतिहास से नहीं सुलझा करती है. अगर किसी समस्या का पुरानी बातों से सम्बन्ध है तो इतिहास इसपर रौशनी डाल सकता है, सच्चाई को सामने रख सकता है.इतिहास बता सकता है कि जाति प्रथा, छुआछूत आदि शुरू कैसे हुए. इसके जड़ के मूल कारण क्या है. कारण सुन लीजिए. उसे हटा दीजिए. समाधान हो जायेगा. इतिहास लेखन के विषय में श्रोतों का विस्तार और साक्ष्यों की छानबीन के लिए एतिहासिक भौतिकवाद पर आधारित एक विश्लेष्णात्मक पद्धति का प्रयोग, ये दो ऐसे क्रांतिकारी बदलाव थे जिसके एक वाहक बने रामशरण शर्मा. पहले केवल लिखित पथ का प्रयोग होता था अब उसे पुरातात्विक साक्ष्यों, शिलालेखों भी से जोड़कर देखा जाने लगा. अब केवल घटनाओं या बदलाव की सूचना भर से काम नहीं चलानेवाला था बल्कि क्यों और कैसे का विश्लेषण के साथ ही साथ उस घटना या बदलाव से निकलकर क्या आया आदि के लेखन पर भी बल दिया जाने लगा. अब शिलालेखों को केवल राजा-रानी की तिथियों के लिए नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक इतिहास दर्ज़ करनेवाले दस्तावेज़ के रूप में पढ़ा जाने लगा. इसे भौतिक, सांस्कृतिक एवं लिखित साक्ष्य से तालमेल बिठाने का संघान और छानबीन की विश्लेष्णात्मक पद्दति का इस्तेमाल कहा गया.
उनके दरवाज़े किसी भी जिज्ञासू और ज्ञानपिपासु के लिए सदैव खुले रहते थे. वे स्वं भी लोगों से मिलने-जुलने उनसे बात करने का कोई मौका नहीं चुकते थे. सुबह टहलने के लिए भी ज़रा देर से जाते, किसी पार्क या कोई सुनसान जगह के वजाय भीड़भाड़ वाली सड़कों का चयन करते, जहाँ वो घूमते-टहलते लोगों से बातचीत भी करते रहते. विदेश से लौटते तो मज़े और सैर-सपाटों के किस्सों के बजाय वहाँ के आवाम के किस्से उनकी ज़बान पर होते. वे किताबी नहीं बल्कि एक एक्टीविस्ट इतिहासकार थे. जिन्हें आपातकाल, बाबरी मस्ज़िद विध्वंश, नरसंहारों जैसी घटनाएँ परेशान करती. जनता को प्रगतिशील चेतना से सुसजित करना उनके चिंतन का प्रमुख विषय होता. वे अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक और एक कर्मठ शिक्षाविद थे. उनका साफ़ मानना था कि समाज सुधार के कार्यों या सामाजिक समस्याओं और उसके समाधान की गतिविधियों में संलग्न शिक्षाविद ही समाज के लिए कुछ कर रहें हैं. अन्यथा समाज को उनसे क्या लाभ. आपने बहुत काम किया है, प्रतिष्ठा अर्जित की है, उसे आप लेके रहिए. आपका कुछ सामाजिक दायित्व है न. समाज के प्रति प्रतिबद्धता तो होनी ही चाहिए और प्रतिबद्धता के साथ साथ एक्टिविटी भी होनी चाहिए. अंतिम सत्य तलाशने का दावा कोई भी वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति नहीं करता, रामशरण शर्मा ने भी नहीं किया.
अपने तरह के सोचवाले इतिहासकारों को बढावा देने, वैदिक परम्पराओं को अनदेखा करने, हिंदी के बजाय अंग्रेज़ी में अपना लेखन कार्य को अंजाम देने सहित कई आरोप इनपर लगे पर इस सत्य से किसी का कोई इंकार नहीं हो सकता कि वो भारत के उन इतिहासकारों में से हैं ( थे ) जिन्होंने इतिहासकारों को खुद नए, तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से सोचना सिखाया. साथ ही ये भी बताया कि इतिहास का अर्थ केवल बीती हुई कहानी कहना नहीं होता. इतिहास अथवा इतिहास लेखन का कर्म मात्र राजवंश, युद्ध और भारतीय साम्राज्य का इतिहास मात्र नहीं है. इतिहासकार यह एहसास करें कि इतिहास का विषय यह भी है कि इतिहास के वे सबक क्या हैं जिनके सहारे आज की चुनौतियों का सामना कल्पनाशीलता और सूझबूझ के साथ किया जा सके. इतिहासकारों ने अतीत को बस समझने की कोशिश की है. ज़रूरत है कि इस समझदारी का इस्तेमाल वर्तमान को बदलने के लिए किया जाय.
दुखद सच यह है कि इतिहास के नाम पर आज भी हमारे पाठ्यक्रम ज़्यादातर राजा-रानी की कहानियों से ही भरे पड़े हैं. ऐसे समय में रामशरण शर्मा को पढ़ना-पढ़ाना और ज़्यादा ज़रुरी हो जाता है. इन्हें पढ़ने-पढ़ाने का अर्थ है प्राचीन भारत के वैज्ञानिक इतिहास से परिचय प्राप्त करना. आज के समय में यह केवल इतिहास के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं वरन तमाम इंसाफपसंद संवेदनशील इंसानों के लिए एक नितांत ही ज़रुरी कार्यों में से एक बन जाता है. सच्चे ज्ञान से ही अज्ञानता दूर हो सकती है, गलत व अल्प ज्ञान हमें और ज़्यादा अज्ञानी, मूढ़ और दकियानूस बनाता है. रामशरण शर्मा कहा करते थे सामंती सोच में बदलाव के बगैर सामाजिक परिवर्तन की कल्पना बेकार है. खूब पढ़िए लेकिन उससे भी ज़्यादा चिंतन मनन कीजिये और गुनिये. तभी सही ज्ञान प्राप्त हो सकता है.

Friday, November 16, 2012

स्पेशल सेल के खतरनाक खेल का खुलासा करती किताब


समाचारों में एक खबर आए दिन प्रकाशित-प्रसारित होती रहती है कि ‘फलां’ आतंकवादी संगठन के ‘इतने’ आतंकवादी ‘इतने’ गोलाबारूद, हथियार और पैसे के साथ पकड़े गए और हम ये जानते हुए कि कानून के रखवालों का दामन भी पाक-साफ़ नहीं है, इन बातों पर सहज ही यकीन कर लेतें हैं. पर क्या सच केवल उतना ही होता है जितना कि प्रचारित, प्रसारित, प्रस्तावित किया जाता है? यक़ीनन नहीं. इसी विषय की पड़ताल करती ‘आरोपित, अभिशप्त और बरी: स्पेशल सेल का खोखला सच’ जामिया टीचर्स सौलिडैरिटी एसोसिएशन द्वारा प्रकाशित एक अत्यंत ही पठनीय पुस्तक है. इस पुस्तक में स्पेशल सेल से वर्ष 1992 से लेकर 2012 तक के कुल 16 मामलों की तफसील पेश किया गया है जिसमें हुजी, लश्कर-ए-तैयबा व अल-बदर जैसे समूहों के आतंकवादी होने के आरोप में पकडे गए लोगों के केस की पूरी जानकारी है, जिन पर देशद्रोह, राज्य के खिलाफ़ युद्ध, आपराधिक षडयंत्र, बम धमाकों की योजना और क्रियान्वयन, आतंकवादियों को प्रशिक्षण, हथियार और गोलाबारूद जमा करना, आतंकी कार्यों के लिए धन स्थानान्तरण आदि संगीन आरोप लगाते हुए ज़्यादातर मामलों में फंसी की सजा की मांग की गई थी, जिसमें अदालत अंततः उन्हें बरी करती है साथ ही मामले को गढ़कर पेश करने की बात पर कई बार पुलिस और स्पेशल सेल को फटकार भी लगाती है तथा सेल के खिलाफ़ सी.बी.आई. जाँच के आदेश के साथ ही साथ एफ.आई.आर. दर्ज़ करने और विभागीय जाँच किये जाने के निर्देश भी देती है.
इस पुस्तक में (1) राज्य बनाम तनवीर अहमद, शकील अहमद, इश्तियाक अख्तर दार, मो. अख्तर दार, मो. युसूफ लोन, अब्दुल रॉफ, और गुलाम मोहम्मद (2) राज्य बनाम फारुख अहमद खान आदि (3) राज्य बनाम आमिर खान (4) राज्य बनाम खोंगबेतबम ब्रोजेन सिंह एवं अन्य (5) राज्य बनाम हामिद हुसैन, मो. शरीक, मो. इफ़्तिखार अशन मालिक, मौलाना दिलावर खान, मसूद अहमद रशीद (6) राज्य बनाम इरशाद अहमद मालिक (7) राज्य बनाम अयाज अहमद शाह (8) राज्य बनाम साकिब रहमान, बशीर अहमद शाह, नाजिर अहमद सोफ़ी, हाजी गुलाम मुइनिद्दीन दार, अब्दुल कयूब खान और बिरेन्द्र कुमार (9) राज्य बनाम खुर्शीद अहमद भट्ट (10) राज्य बनाम सलमान खुर्शीद कोरी तथा अन्य (11) राज्य बनाम मॉरिफ़ कमर तथा अन्य (12) राज्य बनाम गुलज़ार अहमद गनी तथा मो. अमीन हजाम (13) राज्य बनाम तारिक डार (14) राज्य बनाम मो. इमरान अहमद (15) राज्य बनाम मो. मुख्तार अहमद खान (16) राज्य बनाम मो.इकबाल उर्फ़ अब्दुर्रहमान, नजरुल इस्लाम तथा जलालुद्दीन नामक केस की रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है. इन 16 में से 15 मामले दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल से सम्बंधित हैं. 
इन आरोपों का विस्तृत विश्लेषण करने पर स्पेशल सेल का एक बहुत ही डरावना और घिनौना चेहरा हमारे समक्ष प्रकट होता है, जिसमें अधिकारीगण पदोन्नति, मैडलों और इनामों के लालच में किसी भी हद तक जाने को तत्पर दिखाई पडतें हैं. इस किताब के पन्नों से गुज़रते हुए भय सा लगता है और विश्वास नहीं होता कि हम आज़ाद भारत के आतंक विरोधी एजेंसी में से सबसे बेहतर मानी जा रही एजेंसी के बारे में पढ़ रहें हैं जो अपनी असफलता छुपाने के लिए एक सोची समझी साजिश के तहत बेगुनाहों को लगातार फंसा रही है, उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है. जिसके शिकार कई आम नागरिकों के साथ ही साथ मानवाधिकार कार्यकर्त्ता भी बने हैं. हम और आप इसलिए नहीं बचे है कि हम कोई गैरकानूनी हरकत नहीं करते वल्कि इसलिए बचे हैं कि हम पर अब तक इनकी नज़र नहीं पड़ी है.
एक बात स्पष्ट कर देना ज़रुरी है कि यहाँ जितने भी लोग बरी हुए वो सबूतों के अभाव के कारण नहीं बल्कि पुलिस के उन तौर तरीकों की वजह से जो पूरी तरह गढे गए, हास्यास्पद और विकृत थे. यहाँ एक अविश्वसनीय, संदिग्ध और काल्पनिक कहानी गढ़ी गई थी जिस पर सहज विश्वास करना दुनिया के किसी भी कानून के लिए संभव न था. एक नमूना इसी किताब से  – 15 मार्च 2002 को ए.सी.पी. मेहता द्वारा गिरफ्तारी के समय लिया गया बयान और उपयुक्त उज्जवल मिश्रा द्वारा पोटा की धारा 32 के तहत दर्ज़ किया गया उसका हलफनामा एक ही था. अदालत ने कहा कि “ कॉमा और पूर्णविराम सहित पूरा का पूरा बयान ज्यों का त्यों है...इससे पता चलता है कि इंसानी तौर पर ऐसा हलफनामा देनेवाले और दर्ज़ करनेवाले दोनों व्यक्ति के लिए इस तरह का एक जैसा हू-ब-हू शब्द-दर-शब्द हल्फिया बयान दर्ज़ करना असंभव है.”
इस पुस्तक में जिन व्यक्तियों के मामले प्रस्तुत किये गए हैं भले ही वो आज अदालत द्वारा मुक्त कर दिए गए हों पर उनकी गिरफ़्तारी, पूछताछ के नाम पर उत्पीडन आदि की वजह इनकी ज़िदगी का संतुलन असामान्य हो गया है. उनके व्यापार खत्म हो गए, परिवार के सदस्यों को सामाजिक अपमान, आघात व मानसिक बीमारियों तक का सामना करना पड़ा. उनके कई परिजन तो इस गम को सह न सके व उनके बच्चों का जीवन प्रभावित हुआ. इन सबके बाद भी किसी भी केस में, किसी भी सरकारी कारकून ने आज तक इनसे न माफ़ी मांगी ना ही इनके पुनर्वास का कोई प्रयास ही किया गया, उल्टे इन मामलों में सीधे-सीधे संलग्न अधिकारियों ने दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की की है. इस किताब में वर्णित किसी भी मामले में किसी भी अधिकारी पर किसी तरह की कोई कार्यवाई नहीं की गई है. अदालत द्वारा कही गई ये बात कब की आई-गई हो गई कि “ किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किसी निर्दोष व्यक्ति को झूठे आपराधिक मामले में फंसाने से ज़्यादा गंभीर और संगीन अपराध नहीं हो सकता. पुलिस अधिकारियों में इस तरह कि प्रवृति दिखाई नहीं देनी चाहिए और इस ओर हल्के ढंग से किन्तु पूरी कठोरता से लगाम कसने की ज़रूरत है.” अब यहाँ सवाल ये भी उठता है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकियां मारते और मजबूरी की सरकारें झेलते इस देश में ये लगाम कसे भी तो कौन ! हाँ, जिनके पास पैसा और पावर है उनकी तो हर दिन ईद और रातें दिवाली हैं.
नाजिम हिकमत की “कैद में रिहाई के बाद” शीर्षक कविता से शुरू हुई रिपोर्ट आधारित इस पुस्तक में इरशाद अली का प्रधानमंत्री, भारत सरकार के नाम खत का भी प्रकाशन किया गया है. जिसमें इरशाद अली स्पेशल सेल के खतरनाक खेल का पर्दाफाश करतें हैं. इस खत के अनुसार इरशाद अली दिल्ली के स्पेशल सेल के लिए मुखबिर का काम करते थे और जिन्हें आईबी तथा स्पेशल सेल दिल्ली ने झूठे मुकद्दमे में फंसाया था. इस खत को पूरा पढाने पर एक अत्यंत ही डरावने सच से हमारा समाना होता है कि कैसे ये सरकारी एजेंसियां नकली आतंकवादी खड़ा करती है और आतंकवाद के खिलाफ़ जंग को एक मज़ाक के रूप में परिवर्तित तथा इनाम और पदोन्नति के चक्कर में बेकसूरों को फांसकर फर्ज़ी इनकाउंटर और अपहरण जैसे अपराधों तक को बड़ी आसानी से अंजाम देतीं है. यहाँ दूसरे राज्यों से कैदियों की अदला-बदली का भी खुलासा है जिससे ये साफ़ तौर पर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कैसे कश्मीर का कोई व्यक्ति दिल्ली में गिरफ्तार किया जाता है.
स्पेशल सेल ने आज तक इस तरह के जितने भी केस पेश किये  हैं उसमें केवल 30% केसों में ही किसी को सजा हो पाई है, बाकी 70% मामलों में लोग बरी हुए, अब इसका क्या मतलब निकाला जाय ? भले ही वो बरी हो गए हों पर जो यातना या प्रताड़ना उन्होंने झेली है उसका क्या कोई निवारण हो सकता है ? वो इस देश के प्रति कौन सा नज़रिया रखेंगे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.
पुस्तक के अंत में राष्ट्रीय जाँच आयोग गठित करने, मुआवजा एवं पुनर्वास, सार्वजनिक माफ़ी, सेल भंग करो, मामले में संलग्न अधिकारियों के खिलाफ़ कार्यवाई जैसी चंद मांगें भी हैं जो पुस्तक में प्रकाशित रिपोर्ट को पढने के पश्चात् कहीं से भी गैरज़रूरी नहीं लगतीं.  
अब थोड़ी सी बात इस पुस्तक के प्रकाशक की. लोकतान्त्रिक एवं प्रगतिशील शक्तियों के समूह के रूप में सन 2008 में बटला हाउस मुठभेड़ के बाद गठित जामिया टीचर्स सौलिडैरिटी एसोसिएशन ( मूलतः जामिया टीचर्स सौलिडैरिटी ग्रुप ) का मूल उद्देश्य इस मुठभेड़ की न्यायिक जाँच की मांग थी लेकिन आज शासन के अन्य अन्यायपूर्ण मामलों के खिलाफ़ भी इनकी सक्रियता देखने को मिल रही है. जिसमें फैक्ट फाईंडिंग, जाँच पड़ताल, रिपोर्टों का प्रकाशन, क़ानूनी सहायता में शामिल होना तथा लोकतंत्र, न्याय और नागरिक अधिकारों के मुद्दे पर अन्य सामाजिक संगठनों के साथ साझेदारी आदि महत्वपूर्ण कार्य समाहित हैं. इन्हें info.jtsa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. साथ ही इनकी गतिविधियों के बारे में इनकी वेबसाइट www.teacherssolidarity.org  देखी जा सकता है.
ऐसी पुस्तकें बहुत कम ही प्रकाशित होतीं है. तमाम इंसाफपसंद नागरिकों को इसे एक बार अवश्य ही पढ़ना चाहिए. 

Thursday, November 8, 2012

सीताराम शास्त्री की हत्या और आत्महत्या के बीच मस्तराम बनके ज़िंदगी के दिन गुज़ार दो !


सीताराम शास्त्री 
Who says it failed? You or him? The movement was not a failure. Rather, the society failed. The literature failed. They failed to understand us. But that doesn’t matter at all. If they don’t understand simply then, we have other ways.  – Baishe Srabon नामक बंगला फीचर फिल्म का एक संवाद. 

कई प्रगतिशील आंदोलनों को अपनी उर्जा से सीचनेवाले सीताराम शास्त्री जी ने 24 अक्टूबर 2012 को चलती ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या कर ली. मोबाइल पर उनके आखरी शब्द थे मेरी तलाश करो मैं लौटकर वापस नहीं आने वाला. चारु मजुमदार, एके राय, शंकर गुहा नियोगी, शिबू सोरेन, बीपी केसरी जैसे कई अन्य लोगों के साथ चालीस साल लगातार ईमानदारी की राजनीति करने के बाद कोई इंसान राजनीति के लिए अघोषित रूप से अनुपयोगी घोषित कर दिया जाय, इससे खतरनाक बात और क्या होगी ?
आत्महत्या की नैतिक ज़िम्मेदारी किसकी है ? आत्महत्या एक प्रवृति है जिसकी तरफ़ इंसान धकेला जाता है. ये अभाव और मजबूरी का मार्ग है, स्वेच्छा और हर्ष का नहीं. इस चयन के पीछे के बहुत सारे कारक ज़िम्मेदार होतें हैं. आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत आदि. केवल कायरतापूर्ण हरकत कहके शुतुरमुर्ग बन जाने से बोलनेवाला तो अपने आपको नायक जैसा समझता है पर साथ ही साथ उन महत्वपूर्ण सवालों को एक ही झटके में गटक भी जाता है जो इसके मूल कारक थे. क्योंकि कोई भी कायर या हारे हुए लोगों के बारे में बात करना पसंद नहीं करता. क्या सीताराम शास्त्री एक कायर का नाम था ? जो भी उन्हें अच्छे से जानते हैं वो उनके अद्भुत साहस के कायल हैं. सीताराम शास्त्री अपने जीवन में किसी इंसान और परिस्थिति से डर के अपना रास्ता बादल दिया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता.
मनुष्य परिस्थितियों को गढ़ता है ये बात जितना सच है उतना ही ज़्यादा यह भी सच है कि मनुष्य परिस्थितिओं से संचालित और प्रभावित भी होता है. ये सिक्के के दो पहलू हैं. ये प्राकृतिक प्रदत् मानवीय स्वभाव है. इंसान चाहें किसी भी वाद को मानता हो वर्तमान स्थिति में ( जैसा हमारा सामाजिक परिवेश है ) वो अपने इस स्वाभाविक गुण से बच नहीं सकता.
आखिर वो कौन सी परिस्थितियां हैं जिसमें फंसकर समाज के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने की सीख देने वाले लोग भी आत्महत्या करने को अभिशप्त हो जातें हैं ? क्या इस दिशा में बात करने की ज़रूरत नहीं है ? क्या शास्त्री जी चाहते तो केवल अनुवाद के सहारे लाखों प्रगतिशील झंडाबरदारों की तरह आराम से एक मध्यवर्गीय ज़िंदगी नहीं जी सकते थे ? क्या इन बातों पर बात करें ? ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा ? आत्महत्या की थोड़ी सी ज़िम्मेदारी हमारे कंधों पर भी आएगी, यही ? हमारी विफलता हमें मुंह चिढ़ाकर हमारी आराम से चल रहीं ज़िंदगी में खलल पैदा कर देगी, और क्या ? वैसे भी कड़वे सच से मुंह फेरकर किसी को क्या हासिल होना है ? दुनियां को बदलने से पहले उसे जानना समझना होगा. ये सवाल और है कि क्या हम कुछ हासिल करना या बदलना भी चाह रहें हैं या इसका दिखावा करते हुए अपने ही दडवे में कुढते-चिढ़ाते मस्तराम बनके ज़िंदगी के दिन गुज़ार भर रहें हैं. मानव मन बड़ा चंचल है. फ्रायड कहतें हैं मनुष्य स्वभाव नापसंद बात को सदा जूठी मान लेना चाहता है, और इसके बाद इसके खिलाफ़ दलीलें भी आसानी से तलाश कर लेता है. इस प्रकार समाज जो बात नहीं मानना चाहता, उसे झूठी बताता है.
जीवित रहते भले ही कोई, किसी की छाया तक से नफ़रत करता हो परन्तु हत्या हो चाहे आत्महत्या हमारा समाज श्रद्धांजलि देने और अमरता का नारा लगाने में कभी पीछे नहीं रहता. हम दुश्मन की मौत पर भी मातम करनेवाले लोग हैं. महान मध्यवर्गीय संवेदना है ये. दरअसल ये प्रमाणपत्र है कम से कम ज़िम्मेदारी लेकर इस समाज का एक सजग और सामाजिक नागरिक होने का. इस प्रमाण पत्र को कोई भी आसानी से खोना नहीं चाहता. आखिर कभी एकांत में हमें अपने-आप को भी तो जवाब देना होता है. हाँ मुसीबत तब जाती है जब कोई ज़िम्मेदारी की बात करने लगे.  
एक व्यक्ति जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी सामाजिक कार्यों और एक बेहतर समाज के सपने में लगा दी हो उसके आत्महत्या पर क्या केवल सरकार, सामाजिक ढांचे आदि को चिल्ला-चिल्लाकर रस्मी तौर पर कोस भर देने से ही सवाल हल हो जाता है ? जिस जिस को दोषी ठहराने की परम्परा है उस उस को दोषी ठहरा भर देने से काम हो गया ? वैसे क्या कोई इन सवालों के जवाब भी चाहता है ? इन सब बातों पर अमल करने का अर्थ है अपने को किसी मिशन पर झोंकना और मिशन त्याग की मांग करता है आरामचैन की नहीं. वैसे आजकल कम्फर्ट क्रांतिकारिता सह प्रगतिशीलता का चलन ज़ोर पर है.
मेरे जेहन में बार-बार इन बातों के साथ ही साथ गोरख पाण्डे, चंद्रशेखर, कानू सान्याल, महेन्द्र सिंह, बी एन शर्मा जैसे कई अन्य नाम घूम रहे हैं. आजतक गोरख पाण्डे और कानू सान्याल जैसे लोगों की आत्महत्याओं की सही पड़ताल क्यों नहीं की गई. इनपर खुलके बात क्यों नहीं होती ? कई बामपंथी नेताओं के गुरु और किसी वक्त एक बड़े वामपंथी समूह के महासचिव रहे बीएन शर्मा की दर्दनाक और गुमनाम मौत और पटना के एक महान वामपंथी नेता की नींद और टट्टी की कथा लिखने का साहस क्या किसी के पास नहीं है ? पड़ताल तो दूर की बात नाम तक नहीं लेते लोग. ऐसी बातों को नाजायज गर्भ की तरह छुपकर खत्म कर देना सामाजिक सत्य की भ्रूण हत्या से कम जघन्य अपराध नहीं है. परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करके आखिर कोई क्या साबित करना चाहता है और इससे आखिर किसका स्वार्थ सधता है ? सच चाहें कितना भी कड़वा हो उसे स्वीकार किये बिना क्या कोई भी व्यक्ति या दल सही रास्ते पर आगे बढ़ सकता है ? वैसे भी हम अपनी असफलताओं से ज़्यादा सिखातें है बशर्ते हमारे अंदर ये अहम् घर कर गया हो कि हम संसार के सबसे सही लोग है. किसी भी धर्म, वाद या विचार का तमगा ही अब सही गलत साबित करने के लिए काफी नहीं हैं. वर्ग, चरित्र, समाजवाद, साम्यवाद, अराजकतावाद, हिंसा, अहिंसा, प्रतिहिंसा, सही रास्ता, गलत रास्ता, वाममार्गी, मध्यमार्गी, दक्षिणमार्गी से भी ज़्यादा ज़रुरी है मानवीय संवेदना की बात करना, वैज्ञानिक और प्राकृतिक दृष्टिकोण की बात करना. बिना इसके इन सबका कोई अर्थ नहीं. बिना प्राकृतिक ( नेचुरल ) हुए हम तार्किक और वैज्ञानिक नहीं हो सकते. हाँ, इसका ढोंग ज़रूर कर सकतें हैं.
शास्त्री जी रोज़ाना मॉर्निग वॉक पर जाते थे. उस दिन भी गए. लेकिन वापस नहीं आए बल्कि उनका शव रात करीब आठ बजे आदित्यपुर स्टेशन से एक किलोमीटर आगे रेलवे पुल के नीचे से बरामद किया गया. शास्त्रीजी को इलाज के लिए दोपहर को दिल्ली के लिए रवाना होना था. सीताराम शास्त्री को हाल ही में गले का कैंसर पता चला था, जिसके कारण परिवार के सदस्यों ने दिल्ली में उनका बेहतर इलाज कराने की योजना बनायी थी. सीताराम शास्त्री को शायद अपने बीमारी के बारे में पता चल गया था, इसलिए वे जाना नहीं चाह रहे थे, लेकिन परिवारवालों की जिद के आगे कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे. उन्होंने घर से निकलने के पहले सुसाइडल नोट में लिखा कि वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते हैं. उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को एमजीएम मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों को शोध के लिए दान में सौंप दिया जाए.
आंध्र प्रदेश के मूल निवासी सीताराम शास्त्री का जन्म जमशेदपुर में ही हुआ था. उनकी पढ़ाई मेसर्स केएमपीएम स्कूल से हुई. वे हिंदी और अंग्रेजी भाषा के अनुवादक थे. उन्होंने वाम विचारधारा के साथ आंदोलन शुरू किया. इसके अलावा वे पीयूसीएल, मानवाधिकार, झारखंड आंदोलन के साथ भी विभिन्न मंचों पर जुड़े रहते थे. वर्तमान में वे झारखंड मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर आंदोलन चला रहे थे. कई किताबें भी लिखी है. मेहनत, झारखंड दर्शन, नितांत, हिरावल, उलगुलान संबंधित कई पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया. आदिवासियों की राष्ट्रीयता पर उन्होंने एक किताब भी लिखी. वे झारखंड आंदोलन के जनक भी माने जातें हैं.  झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन में भी उनका विशेष योगदान रहा.
अख़बारों ने यहाँ तक लिखा कि झारखंड आदोलन में महती भूमिका निभाने वाले सीताराम शास्त्री झारखंड की धरती पर ही अंतिम सांस लेना चाहते थे. उनका कहना था कि जिस धरती पर मैंने जन्म लिया, उसी धरती पर अंतिम सांस भी लूंगा. तुम लोग तो हजारों लाखों खर्च कर मेरा इलाज करा दोगे पर यह सोचो कि ऐसे हजारों लोग हैं जो इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं. मैंने अपनी ज़िंदगी जी ली, मुझपर इतना रूपया क्यों खर्च हो, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता.
हमारा कानून आत्महत्या करनेवाले को या इसके प्रयास करनेवाले को दोषी मानता है. लोग इसे एक कायराना या झक्कीपूर्ण हरकत भी कहतें हैं. पर क्या कोई ये पड़ताल करने की हिम्मत दिखने को तैयार है कि पूरी ज़िंदगी समाज को समर्पित कर देनेवाला और अपने आखिरी पलों में भी हज़ारों-लाखों लोगों के प्रति चिंता जतानेवाला एक इंसान अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अकेला और हरा हुआ कैसे महसूस करने लगता है. उनके कई करीबी मित्र ये बताते हैं कि वर्तमान स्थिति से शास्त्रीजी बड़े द्रवित थे. वर्तमान में जिनके साथ भी जुड़कर वो काम कर रहे थे उनसे भी इनका वैचारिक मतभेद चल रहा था. शास्त्रीजी कैंसर से डर गए ऐसा सोचना मामले को एक निहायत ही हल्का अंत देना होगा, उनके संघर्ष को कायरता का जमा पहनना और सच कहें तो अपने आप को किसी भी जवाबदेही से मुक्त करना होगा. मैंने अपनी ज़िंदगी जी ली, मुझपर इतना रूपया क्यों खर्च हो, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता. ये सब शास्त्रीजी की सोच मान भी ले फिर भी क्या इस सोच के सहारे उन्हें अकेला छोड़ देना उचित था ? क्या इन बातों के अंदर दबी निराशा और निरर्थकता के एहसास को लोग समझ नहीं पा रहें हैं या समझाना नहीं चाहते ? अगर ये निराशा है तो क्या यह निराशा निहायत ही व्यक्तिगत है या सामूहिक ? इस निराशा की नैतिक ज़िम्मेदारी क्या कोई लेने को तैयार है ?  सफलता पर सब फ्रेम में खड़े होकर मुस्कुराते हुए तस्वीर खिंचवाना चाहतें हैं पर असफलता का क्या अब भी कोई साझेदार नहीं मिलेगा ?
शास्त्रीजी वाली इस घटना से कुछ दिनों पहले साम्यवादी क्रांति का सपना पाले एक ईमानदार नेता दिल्ली में सड़क पार करते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गए. गंभीर चोटें आयीं. कहा जाय कि किसी तरह जान भर बच गई. कितने लोग हाल-चाल पूछने आए ? पता चला कि पार्टी से कार्यशैली को लेकर इनका भी कुछ वैचारिक मतभेद चल रहा है. सो विचार की ये लड़ाई व्यक्ति के अहम् की लड़ाई समझ ली गई है. अपनी पूरी ज़िन्दगी इन्होनें जिस सपने को पूरा करने के लिए लगाई उसका ऐसा हश्र कि आज इन्हीं के द्वारा अंगुली पकड़कर चलनेवाले बच्चे ये कहते पाए जातें हैं कि कामरेड, आपको चलना नहीं आता ! ये हाल हैहर चीज़ पर संदेह करो.” ( doubt everything ) की विचारधारा को माननेवाले हिंदुस्तान की सबसे बड़ी और सबसे ज़्यादा ईमानदारी का दावा पेश करने वाली शोषितों के न्याय के लिए संघर्ष करनेवाली क्रांतिकारी लालझंडाधरी पार्टी की. अगर इन्हें कुछ हो गया होता तो सब के सब सबकुछ भूलके लालसलाम और कामरेड फलाने अमर रहें करने पहुँच जाते जिसका मूल अर्थ ये होता कि चलो बुड्ढे में झाक्किपन से पीछा छुटा.
आप क्या करतें हैं ?पहली मृतात्मा.
जी मैं स्वांग रचता हूँ. – दूसरी मृतात्मा.
वो तो सभी रचातें हैं. आप कैसा स्वांग रचातें हैं ?पहली मृतात्मा.
अपने आपको सुरक्षित रखते हुए, सार्थक जीवन जीने का स्वांग.दूसरी मृतात्मा.
अरे वाह फिर तो हम एक ही रह के राही निकले. बड़ी खुशी हुई आपसे मिलाकर.पहली मृतात्मा
सत्तर के दशक में अपनी तमाम दुनियावी खुशियों को तिलांजलि देकर एक बहुत बड़ा युवावर्ग व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में कूद पड़ा. मार्क्स, भगत सिंह, जेपी, गोलवरकर आदि इनके आदर्श थे. कुछ ने अपना कुछ बहुमूल्य समय आंदोलन को दिया फिर उसी व्यवस्था का हिस्सा बन गए जिनके खिलाफ़ कभी खड़े हुए थे. कुछ नागरिक जीवन में वापस लौट आए तो कुछ आज तक इमानदारी-बेईमानी के साथ मैदान में डटें हैं. आज वो पीढ़ी अपने जीवन की अंतिम पारी में प्रवेश कर गई है. ऐसे समय में इन्हें निरर्थकता का एहसास होने का अर्थ है एक पुरे के पुरे इतिहास को निरर्थक कह देना, नक्कार देना. यह निश्चित रूम से एक खतरनाक संकेत है. जो प्रगतिशील और क्रांतिकारी पीढ़ी अपने बुजुर्गों को निरर्थक समझे उनके हाथों किसी भी आन्दोलन का भविष्य सुरक्षित नहीं, वो समाज का सबसे खतरनाक तबका है, जो दरअसल प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता के नाम पर घनघोर अराजकतावादी है. आधुनिकता का एक पैर यदि परम्परा में रहे तो वो हवाई होता है.
अभी हाल ही में ओल्ड एज होम में गरीबी और मुफलिसी की ज़िंदगी गुज़ार रहे सुरेश भट्ट जी का निधन हो गया. वो पिछले कई सालों से दिल्ली के ओल्ड एज होम में ज़िंदगी गुज़ार रहे थे. 1974 आंदोलन की उपज ये भी थे. पटना बिहार का शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जो इन्हें नहीं जानता हो पर शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जिसने इनकी खोज खबर ली हो. कभी सम्पन्न रहे भट्ट जी के यहाँ विनोवा भावे, जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, लालू प्रसाद यादव जैसे कई अन्य राजनीतिक गैरराजनीतिक लोगों की बैठकी लगती थी. पिछले दिनों नितीश कुमार ने जब जेपी आंदोलन में शामिल लोगों को पेंशन देने की घोषणा की तो सुरेश भट्ट के परिजन दौड़ते रहे पर इनका नाम उस लिस्ट में शामिल नहीं हो सका. हद तो ये है कि जेपी आंदोलन के पैदाइश होने की कसमें उठानेवाले कई कद्दर नेताओं को आजतक ये भी नहीं पता कि सुरेश भट्ट ज़िंदा है या नहीं. वैसे ज़िंदा रहने की ख़बरें बने बने पर मौत की खबर कहीं कहीं बन ही जाती है. वैसे सुना है कि 1974 आंदोलन के समय एक नारा लगाया जाता था अगल बगल हट, रहे सुरेश भट्ट. सुरेश भट्ट की बहुत सारी कहानियां हैं जिसे शायद इनका कोई शुभचिंतक ही कलमबद्द करेगा, ऐसा विश्वास है.
ऐसे लोगों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा आखिर ? परिवार ? इतनी बड़ी-बड़ी पार्टियां बनाकर बड़े-बड़े सपनों की बात करनेवाले लोग क्या केवल इन्हें श्रद्धान्जली देकर ही अपनी जिम्मेवारियों से मुक्त हो जायेंगें ? शास्त्रीजी जैसे लोगों ने क्या ऐसे ही कार्यकर्ताओं की परिकल्पना की थी ? क्या हत्या केवल शारीरिक और शरीर की ही होती ? क्या इसका कोई सम्बन्ध सोच और मन ( मानसिकता ) से भी नहीं है ? सवाल तो बहुतेरे हैं पर फिलहाल बस इतना ही. हाँ, ये बात भी सच है कि सबको अराजक कहना भी एक तरह का अराजकता ही है. तमाम गलतियों के बीच भी कुछ अच्छा चलता रहता है, उसे पहचानना और उसका समर्थन करना भी आज निहायत ही ज़रुरी है. जिस रूप में आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहिए उस रूप में आगे बढ़ रहा है ? कभी किसी और पर निर्भर नहीं रहनेवाले शास्त्री जी ने निरर्थक जीवन जीने के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुना, क्या कुछ लोगों के इस बात में कोई सच्चाई है. किसी की भी आत्महत्या अनुकरणीय नहीं हो सकती. इस दुनियां में आशा की किरण हमेशा जलती रहती है, ये बात और है कि लौ कभी बहुत तेज़ तो कभी मद्धम पड़ जाती है. हो सकता है शास्त्रीजी का सच इन सब बातों से भी अलग हो पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक कविता  “अंत मेंहमें कुछ सोचने पर मजबूर तो करती ही है अगर हम जानबूझकर सोचने की कसम खाए बैठे हों तो
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो
अन्यथा
इससे पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन , हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापिस लौट आये
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है
वह बिना कहे मर गया
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से
कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं.

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...