पुंज
प्रकाश
समाज
आज विज्ञापनों से घिरा है, हर चीज़ आज विज्ञापन के दायरे में है. होडिंग, पंफलेट, पोस्टर, बैनर, समाचार पत्र, पत्रिकाएं, इंटरनेट, रेडियो, टेलिविज़न आदि के मार्फ़त विज्ञापनों समाज तक पहुंचतें हैं. हम घर से बाहर निकलतें हैं हज़ारों होडिंग अनचाहे हमारी आँखों में रास्ते दिमाग में घुस जातें हैं. सुबह-सुबह समाचार से वाकिफ़ होने के लिए समाचार पत्र उठातें हैं और मिनटों में सैकड़ों विज्ञापन कीटाणु की तरह घर में फैल जातें हैं. इंटरनेट खोलते ही विज्ञापन का वाइरस आक्रमण कर देता है. रेडियो अपने कार्यक्रमों के बीच-बीच में विज्ञापन हमारे कानों में ठूंसना कभी नहीं भूलता. टेलिविज़न का स्क्रीन तो जैसे विज्ञापनों के अधीन ही होकर रह गया है जो बड़े ही प्यार से हमारी तमाम इन्द्रियों पर कब्ज़ा जमाकर हमें लुभा रहा है.
उत्पादों, सेवाओं और विचारों को बढ़ावा देने के लिए 1 जुलाई 1941 से शुरू हुआ विज्ञापन के इस कारोबार का दायरा आज इतना व्यापक है कि कई उद्योग इनपर
निर्भर हैं. विज्ञापनों का उद्देश्य एक तो उत्पादन के बारे में लोगों को जानकारी देने के साथ ही साथ ही साथ कैसे भी उपभोक्ताओं को अपनी गिरफ़्त में लेना होता है. आज बाज़ार में चल रहे गलाकाट प्रतियोगिता में सारी हदें पार कर ली गई हैं. कानून की उदारता का फ़ायदा उठाते हुए आज बड़ी-बड़ी कंपनियां बड़े-बड़े सेलिब्रिटी के चहरे और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए वैसे विज्ञापनों का भी खुलेआम प्रसारण राष्ट्रीय चैनलों पर करतें हैं जिसका विज्ञापन करना क़ानूनी तौर पर पूरी तरह प्रतिबंधित है. अब कौन नहीं जनता कि सोडा, म्युज़िक सीडीज़ और पान मसाले के नाम पर दरअसल शराब और गुटखे का भी विज्ञापन किया जाता है. पर कमाल की बात है कि कानून को ये नहीं पता! उसे बताये भी तो कौन? जिनके ऊपर ये ज़िम्मेदारी है वो तो उपरी आमदनी द्वारा कमाई नोटों की गर्माहट का मज़ा ले रहें हैं.
विज्ञापन
फ़िल्में जानबूझकर भ्रामक, बढ़ा-चढाकर और ज़रूरत से ज़्यादा आकर्षक बनाई जातीं हैं . इधर कुछ दिनों से एक अजीब सा ट्रेंड देखने को मिल रहा है – सेलिब्रिटी के साथ ही साथ किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत सफलता-असफलता, संघर्ष आदि के सहारे किसी चीज़ को विज्ञापित करने की. जो इस बात को ही और मजबूत करता है कि आज की दुनियां में हर चीज़ बिकती है, संवेदनाएं, सफलता, असफलता, बीमारी सब. ज़रा याद कीजिये सौरव गांगुली, युवराज सिंह, दीपिका कुमारी और राजेश खन्ना वाले विज्ञापन. यह एक तरफ़ विज्ञापनों की अमानवीय दुनियां को पूरी बेरहमी से सरेआम महिमामंडित करती हैं वहीं ये भी इशारा करती हैं कि हम जिसे अपना ‘हीरो’ मानतें हैं वो पैसे के वास्ते बहुतेरे ऐसी चीज़ें कर सकतें है जिसकी हम उनसे उम्मीद न करतें हों. ये बात अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये बड़े-बड़े फिल्म स्टार, खिलाड़ी आदि स्वं इन चीजों का प्रयोग शायद ही करते
हों, जिनका विज्ञापन करतें हैं.
अब शाहरुख खान मर्दों वाली सस्ती क्रीम, जो दरअसल मध्यवर्ग के नवयुवकों की कुंठाओं का दोहन करती है, को अपने चहरे पर क्यों पोतने लगे या कटरीना कैफ रसिया-रसिया क्यों करने लगेगीं जब दुनियां का एक से एक ड्रिंक उनके कदमों में बिछाने को तैयार हो.
अपने दादा की बात मानेंगें न आप ? : थोड़ी उथल पुथल के बाद सौरव गांगुली को पहले कप्तानी से हटाया गया फिर भारतीय क्रिकेट टीम से निकल दिया गया. दादा के चाहनेवालों और कोलकाता के लोगों के लिए यह बड़ा इमोशनल मुद्दा हो गया था. दादा पुनः टीम में वापस आने के लिए ज़िद्द ठाने बैठे थे. उसी दौरान पेप्सी वाले पहुँच गए दादा के पास और दादा के प्रति खेल प्रेमियों की भावनाओं को कुछ इस तरह भुनाया. ज़रा संवाद पढ़िए – हाय, मेरा नाम सौरव गांगुली है. भूले तो नहीं ? जो हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, ये सब सोचके दुःख भी होता था गुस्सा भी आता था, पर अब नहीं. मैं टीम में वापस आने के लिए बहुत-बहुत प्रैक्टिस कर रहा हूँ. क्या मालूम हवा में शर्ट घुमाने का मुझे और एक मौका मिल जाए. जो भी हो मैं टीम के अंदर और बाहर, मैं चुप बैठानेवाला नहीं. हू हा इण्डिया आ या इण्डिया. इण्डिया के हर मैच में मैं ऐसे ही चिल्लाऊंगा, आप भी चिल्लाएं, मेरी टीम को अच्छा लगेगा. अपने दादा की बात सुनेंगें न?
ये
हैं उस विज्ञापन का पूरा संवाद जो कि क्रिकेट के स्टेडियम में फिल्माया गया है जहाँ दादा कभी दर्शक दीर्घा में तो कभी मैदान में अकेले हैं. कभी हाथ में बैट है तो कभी पिच रोलर पर सबको कुचलने के लिए तैनात. ध्यान रहे किसी भी विज्ञापन में किसी ‘प्रोप्स’ का प्रयोग यूँ ही नहीं होता. जैसे ही ‘अपने दादा की बात सुनेंगें न’ वाला संवाद आता है साथ ही साथ एक और टेक्स्ट भी अवतरित होता है स्क्रीन पर – JOIN THE
BLUE BILLION तत्पश्चात अवतरित होता है पेप्सी का लोगो.
यानि कि दादा अपनी हार न माननेवाली प्रवृति, अपना गुस्सा, अपना टेंशन, अपनी संवेदना, देश प्रेम, उल्लास आदि की बात केवल इसलिए कर रहें हैं क्योंकि पेप्सी इसके लिए उन्हें ढेरों पैसे दे रहा है. फिर ये तो कारोबार हुआ. फैन्स की चिंता है ही किसे? जहाँ तक सवाल पेप्सी का है तो एक से एक विज्ञापन बनातें हैं ये लोग. अभी टी20 विश्व कप का विज्ञापन ही देखिये, जिसमें इनका मानना है कि ये टी20 क्रिकेट है जो न तमीज़ से खेली जाती है न देखी. ज्ञातव्य हो कि क्रिकेट को जेंटल मैन गेम भी कहा जाता है.
बाबूमोशाय, मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता. खन्ना साहेब को कौन भूल सकता है. जी हाँ भारतीय सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना. दर्जन भर लगातार सुपरहीट फिल्मों देने वाले अभिनेता. जिनकी एक अदा पर दुनियां फ़िदा थी. जिनके चाहने वालों/वालियों के सच्चे झूठे किस्से किवदंती बन चुके हैं. उनका सुपरस्टारी काल भले ही चंद सालों का ही रहा पर वो स्वं कभी उस काल से बाहर नहीं निकल पाए. अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले उन्होंने एक विज्ञापन सूट किया जिसमें उन्होंने अपने फैन्स ( चाहनेवालों ) को फैन्स ( पंखे ) में बदल दिया. काका के नाम से विख्यात इस स्टार से कौन पूछे की उन्होंने अपने चाहनेवालों का ऐसा मज़ाक क्यों बनाया. अपने इस हास्यास्पद और सहानुभूति छलकाऊ विज्ञापन में खन्ना साहेब कहतें हैं – फैन्स क्या होते हैं मुझसे पूछो. प्यार का वो तूफान, मोहब्बत की वो आंधी, वो जज्बा, वो जूनून. हवा बदल सकती है लेकिन फैन्स हमेशा मेरे रहेंगें. बाबूमोशाय ( उसके बाद एक हल्की सी व्यंगात्मक हसीं ) मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता. ( फिर गर्दनवाला विश्वप्रसिद्ध स्टाइल, जो उम्र के साथ नहीं जमता. )
सबसे
पहले एक बात कोई बुढ़ापे में अपनी जवानी की कॉपी करे तो कैसा लगेगा? हास्यापद न! इस विज्ञापन में एक तो ये बात और ज़्यादा स्थापित किया गया है कि खन्ना साहेब की सुई एक वक्त पर अटक गई थी. वो कभी अपने सुपरस्टार के ताज़ के मोह को त्याग न सके. दूसरे अब इस महान अदाकार के लिए फैन्स का मतलब पंखा हो गया है! क्योंकि उगते सूरज डूबते सूरज वाली कहावत को उनसे बेहतर और कौन महसूस कर सकता था. तभी तो इस विज्ञापन में वो कहतें हैं ‘मेरे फैन्स’ और अनगिनत पंखे स्क्रीन पर हवा छोड़ने लगतें हैं. ये बात खुद खन्ना साहेब और उनके सच्चे चाहनेवालों की शान में गुस्ताखी है, ये बात बाज़ार को कौन समझाये! एक सवाल और, जिस तरह एक सुपरस्टार ने अपने फैन्स के साथ इस विज्ञापन में सुलूक किया अगर यही सलूक कोई फैन सुपरस्टार के साथ करता तो क्या मानहानी का मुकद्दमा नहीं बनता है ?
कैंसर भी बिक गया ठाट के चक्कर में – युवराज सिंह मेरे पसंदीदा खिलाडियों में से एक हैं. उनके जानलेवा बीमारी की खबर सुनके मैं भी दुखी हुआ था और उनके स्वस्थ होकर पुनः मैदान में उतरने से जो खुशी का संचार लाखों लोगों के साथ मैंने भी महसूस किया उसे शब्दों में बयान करना ज़रा मुश्किल है. किन्तु जब मैंने उन्हें अपनी बीमारी को भी बेचते देखा तो ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई मेरी संवेदनाओं का मज़ाक उड़ा रहा है कि देख बे जिस चीज़ से तू दुखी हो रहा है मैं उसे बाज़ार में खड़ा कर रहा हूँ. क्या उनकी बीमारी का सारा खर्चा बिड़ला ने उठाया ? अगर उठाया हो तो भी कैंसर जैसी बीमारी को किसी लाइफ इंश्योरेंस के प्रचार का माध्यम बनाना क्या उचित है ?
अब
देखिये युवराज क्या कहतें हैं – लाइफ में मेहनत सभी को करनी पड़ती है. आप सुबह उठाकर ऑफिस भागतें हैं तो मैं ट्रेनिंग ट्रैक पे. 28 साल के इंतज़ार के बाद हमने वल्ड कप जीता. मैं मैन आफ टूर्नामेंट भी बना, फिर लगा सब सेट है. पर लाइफ भी ऐसी गुगली डालती है कि...सेलिब्रेशन तो दूर की बात है. हेल्थ खराब हुई तो टीम से बाहर. तो बात तो फिर वहीं आ गई न कि जब तक बल्ला चल रहा है ठाट है, जब बल्ला नहीं चलेगा तो....Birla Sun
Life Insurance के Wealth with Protection Solutions. ज़िंदगी के उतार चढाव में जियो विश्वास के साथ.
इस विज्ञापन में भी अकेलापन और डार्कनेस है. भीड़ भी है पर युवराज उस भीड़ में भी अकेले हैं. युवराज एक फिटिंग स्पिरिट वाले मेहनती खिलाड़ी हैं और सिलेब्रिटी भी हैं इसमें कोई दो राय नहीं. पर ऐसी भी क्या मजबूरी की अपनी बीमारी, जो कि एक निहायत ही निजी बात थी, को भी विज्ञापनों के हवाले कर दिया.
केवल खिलाड़ी और फिल्मस्टार ही नहीं विज्ञापन फिल्मों ने आजकल उन सबको अपने दायरे में कैद करने की कोशिश में लगा है जिन्होंने समाज के लिए कुछ बेहतर या अलग किया हो. क्या ये मान लिया जाय कि फ़िल्मी हीरो के साथ ही साथ रियल लाइफ हीरो भी विज्ञापन फिल्मों के निशाने पर हैं? क्या इन रियल लाइफ हीरो से ये उम्मीद की जाय कि अपने जीवनभर की मेहनत को किसी पेप्सी, कोक, टाटा, बिड़ला आदि के प्रचार का माध्यम नहीं बनायेंगें. इन विज्ञापनों और विज्ञापनों का असर को देखने के बाद ये संभावना ज़रा कम ही
लगती है.
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