Monday, November 19, 2012

सामाजिक परिवर्तन का इतिहासकार रामशरण शर्मा

19 नवंबर 1919 – 20 अगस्त 2011.

वे दुखों से मुक्ति चाहते थे पर उससे जूझते नहीं, लड़ते नहीं. वे ऐसा निर्वाण चाहते थे कि उन्हें न जीना पड़े न मरना पड़े.- रामशरण शर्मा.

हकीकत से समाज को रु-ब-रु करनेवाले, अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त इतिहासकार रामशरण शर्मा भारतीय इतिहासकारों में एक ऐसे नाम हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास को वंशवादी कथाओं से मुक्त कर सामाजिक और आर्थिक इतिहास लेखन की प्रक्रिया की शुरुआत करनेवालों में से एक हैं. 20 वीं सदी के पांचवें दशक तक इतिहास का मतलब था राजाओं का गद्दी पर बैठना, युद्ध, प्रशासन, शाही शादियाँ, विद्रोह, दूसरे राजा का गद्दी पर आसीन होना आदि का कथा पाठ. इतिहास यहीं से शुरू होता और यहीं खत्म हो जाता था. इतिहास का निर्माण कुछ महान विभूतियां ही करतीं हैं इस इतिहास लेखन के पीछे शायद यही अवधारणा और मानसिकता थी, जिसे मार्क्सवाद की इस चुनौती से टकराना पड़ा कि इतिहास के निर्माता समाज के वर्ग होतें हैं कोई एक व्यक्ति नहीं.
विश्व इतिहास की भूमिका ( 1951-52 ), सम इकानामिकल एस्पेक्ट्स ऑफ द कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया ( 1951 ), रोल ऑफ प्रोपर्टी एंड कास्ट इन द ओरिजिन ऑफ द स्टेट इन एंशिएंट इंडिया ( 1951-52 ), शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया एवं आस्पेक्ट्स ऑफ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया  ( 1958 ), आस्पेक्ट्स ऑफ पोलिटिकल आइडियाज एंड इंस्टीच्यूशन इन एंशिएंट इंडिया ( 1959 ), इंडियन फयूडलीजम ( 1965 ), रोल ऑफ आयरन इन ओरिजिन ऑफ बुद्धिज्म ( 1968 ), प्राचीन भारत के पक्ष में ( 1978 ), मेटेरियल कल्चर एंड सोशल फार्मेशन इन एंशिएंट इंडिया ( 1983 ), पर्सपेक्टिव्स इन सोशल एंड इकोनौमिकल हिस्ट्री ऑफ अर्ली इंडिया ( 1983 ), अर्बन डीके इन इंडिया - 300 एडी से 1000 एडी  ( 1987 ), सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या ( 1990-91 ), राष्ट्र के नाम इतिहासकारों की रपट ( 1991 ),  लूकिंग फॉर द आर्यन्स ( 1995 ), एडवेंट ऑफ द आर्यन्स इन इंडिया ( 1999 ), एप्लायड साइंसेस एंड टेक्नोलाजी ( 1996 ), अर्ली मेडीएवल इंडियन सोसाइटी : ए स्टडी इन फ्यूडलाईजेशन ( 2001 ) आदि सहित लगभग अस्सी प्रसिद्द पुस्तकों, आलेखों के रचयिता रामशरण शर्मा का जन्म बेगुसराय ( बिहार ) ज़िला के बरौनी फ्लैग गाँव के एक निर्धन परिवार में हुआ था. उनके दादा और पिता बरौनी ड्योडी वाले के यहाँ चाकरी करते थे. उनकी स्कूली पढ़ाई बरौनी एवं बेगुसराय में हुई. सन 1937 में पटना कॉलेज में दाखिला लिया. इतिहास से एमए की शिक्षा सन 1943 में पूरी की. एचडी जैन कॉलेज आरा और टीएनबी कॉलेज भागलपुर में कुछ दिन पढ़ाने के पश्चात् पटना कॉलेज में इतिहास के लेक्चरर रहे. सन 1958 से 1972 तक पटना विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख, सन 1972 में भारतीय अनुसन्धान परिषद् के गठन के साथ इसके पहले संस्थापक अध्यक्ष, सन 1973 में दिल्ली विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख, स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़, लन्दन विश्वविद्यालय में छः साल तक विजिटिंग फेलो, सन 1965-66 में टोरेंट विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर रहे. भारत शास्त्रियों को दिया जानेवाला सर्वोत्तम केम्प्वेल मेमोरियल गोल्ड मेडल सम्मान, एशियाटिक सोसायटी, कोलकाता द्वारा हेमचंद राय चौधरी जन्मशताब्दी स्वर्ण पदक सम्मान, सारनाथ के उच्चतर तिब्बती अनुसन्धान संस्थान एवं वर्धमान विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट, पटना विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एमेरिटस, सन 1958 में बिहार-बंगाल सीमांकन आयोग के सदस्य, विज्ञान के इतिहास प्रोजेक्ट में राष्ट्रीय आयोग के सदस्य, सभ्यता के इतिहास पर शोध समिति के वरिष्ट सदस्य की उपाधि प्राप्त. जाति-सम्प्रदायिकता-सामंतवाद आदि समकालीन मुद्दों पर तर्कपूर्ण लेखन, गहन अध्ययन  तथा विचार-विमर्श, एक व्यावहारिक शिक्षक व प्रसाशक, बदलाव के व्यापक एजेंडे में अपने एतिहासिक ज्ञान का इस्तेमाल करनेवाले व्यावहारिक मार्क्सवादी इतिहासकार, देश-विदेश की 15 भाषाओं में इनकी किताबों का अनुवाद, संकीर्णतावादी व सांप्रदायिक ताकतों के लिए आँख की किरकिरी बनने पर भी हार न माननेवाला और तर्क का दामन न छोडनेवाला इतिहासकार, सत्ता के हस्तक्षेप व इतिहास को अपने हक में इस्तेमाल करनेवालों का विरोध करनेवाले इतिहासकार, वैज्ञानिक नज़रिए तथा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को लेकर आखिरी समय तक तार्किक व व्यावहारिक संघर्ष करनेवाले इतिहासकार.
वे किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं थे किन्तु मार्क्सवाद का अध्ययन, चिंतन, मनन इनके प्रमुख कार्यों में से एक था. जिसका सीधा प्रभाव उनके लेखन में देखने को मिलता है. भारतीय इतिहास लेखन में 1940 में प्रकाशित आधे भारतीय एवं आधे स्वीडिश, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव रजनी पाम दत्त की पुस्तक इंडिया टुडे, 1956 में दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी ( डी.डी. कोसाम्बी ) की एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इडियन हिस्ट्री एवं 1958 में रामशरण शर्मा की शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया और आस्पेक्ट्स ऑफ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया एवं 1965 में इरफान हबीब की औरगंजेब की कट्टर धार्मिकता पर केंद्रित द अग्रेरियान सिस्टम ऑफ मुगलस आदि पुस्तकों को भारतीय इतिहास को मार्क्सवादी प्रभाव के परिपेक्ष में देखने का एक सफल प्रयास के रूप में माना जाता है, जिसकी पुरज़ोर स्थापना सन 1965 प्रकाशित रामशरण शर्मा की पुस्तक इंडियन फ्यूडलिज्म से हो जाती है, ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.
इतिहासकार रामशरण शर्मा अर्थात वर्तमान परिघटनाओं के प्रति प्रखरता, सजगता के साथ सहजता, सरलता और शालीनता का एक ऐसा नाम जिन्होंने पहली बार प्राचीन भारत में समाज में निचली कही जानेवाली जातियों ( शुद्र ) की स्थिति के बारे में गहराई से अध्ययन किया, एक सजग व्यक्ति को विरोध का समाना न करना पड़े ऐसा भारतीय इतिहास में बहुत कम ही हुआ है, रामशरण शर्मा भी इससे बचे नहीं. “सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा.” का नारा बुलंद करनेवाले लोग कांग्रेस को पछाड़कर जब सत्ता में आए तो ऐसे ऐसे कारनामों को अंजाम दिया कि कांग्रेस तक शर्मा गई. खैर तत्काल बात शर्मा जी के सन्दर्भ में; सन 1977 में जनसंघ के दबाव में आकर जनता पार्टी की सरकार ने ग्यारहवीं क्लास में पढ़ाई जा रही इनकी पुस्तक प्राचीन भारत को पाठ्यक्रम से हटा दिया. तर्क था कि इस पुस्तक में हिंदू धर्म और संस्कृति के खिलाफ़ बातें लिखी गई हैं पर असली बात ये थी अपने धर्मनिरपेक्ष तेवर की वजह से वो हमेशा से ही जनसंघ के निशाने पर रहे. रोमिला थापर और बिपिन चन्द्र की किताबों के साथ भी यही किया गया. उसी ज़माने में शर्मा जी यूनेस्को द्वारा आयोजित गोष्ठी में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व करते हुए पेरिस जा रहे थे कि विमान पर चढ़ाने के ठीक पहले उन्हें ये सूचना दी गई कि भारत सरकार ने उनको पेरिस जाने से मना कर दिया. उन्हें आपस लौटना पड़ा. सुमित सरकार व द्विजेन्द्रनाथ झा के दिल्ली विश्विद्यालय में नियुक्ति करने पर शर्मा जी के विरुद्ध जनसंघ ने नारा लगाया आरएस शर्मा भगाओ, हिंदू धर्म बचाओ. तभी तो जेपी आंदोलन पर व्यंग करते हुए हरिशंकर परसाई लिखतें हैं डाकू भी अगर कांग्रेस विरोधी है तो वो बड़े से बड़ा समाजवादियों से ज़्यादा श्रेष्ठ है. वहीं बाबा नागार्जुन भी ये कहने को मजबूर हो गए कि खिचड़ी अच्छी नहीं होती.

रामशरण शर्मा का मानना था - अगर दक्षिणपंथ का प्रभाव बढ़ेगा तो वामपंथ का घटेगा और वामपंथ का प्रभाव बढ़ेगा तो दक्षिणपंथ का घटेगा. मार्क्सवाद की प्रासंगिकता के विषय में रामशरण शर्मा के विचार कम महत्वपूर्ण नहीं है. वो जहाँ एक तरफ़ लकीर के फकीर बनने की बात से इंकार करतें हैं वहीं मार्क्सवाद को प्रासंगिक पर इनका कथन है कि कोई भी विचारधारा पैदा होती है तो उसका सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवेश होता है. आप दुनियां को समझाने का वह तरीका अपनाएं जो मार्क्स ने अपनाया था तो लाभ होगा. दुनिया का परिवेश बदला है तो नया अध्ययन ज़रूर होना चाहिए. लेकिन मार्क्सवाद की जगह ले सकने वाली कोई दूसरी उसी हैसियत की विचारधारा मेरी जानकारी में सामने नहीं आई है. मार्क्स के देखने में जो कमी थी, उसे आप पूरा करें. दुनियां में जो अंतर आया है उसका गहन और विस्तृत अध्ययन कीजिए. फिर मोडिफाई कीजिये. विचारधारा भी तो बदलती है. लेकिन ऐसा नहीं होता कि नई विचारधारा आती हैं तो सभी पुरानी विचारधाराएं बिलकुल हट जाती हैं. असल बात है बेहतर और बेहतर, निरंतर बेहतर बनाने की कोशिश चलती रहती है. इसलिए मूल श्रोत-सामग्री और तरीके का महत्व है. मेरी समझ में मार्क्सवादी दृष्टि को रिप्लेस करना संभव नहीं है. वैसे ये बात भी सही है कि सब कुछ सिर्फ मार्क्सवाद से नहीं जाना जा सकता. लेकिन मार्क्सवाद की समझ तो काम आएगी ही. जबतक सामाजिक समानता पूरी नहीं होगी तब तक तो मार्क्सवाद की प्रासंगिकता बनी ही रहेगी. इतिहास में प्रगति और दुर्गति साथ-साथ चलती है. सामाजिक न्याय का सवाल मरनेवाला नहीं है. बुनियादी सवालों को खत्म करना असंभव है. मार्क्सवाद हमें विरासत से काटता नहीं है. उल्टे विरासत को समझाने में मदद करता है. एक मार्क्सवादी होने के कारण अपनी परम्परा और विरासत के सम्बन्ध में बहुत सारे सवाल आप पूछने लगेंगे. इससे अपनी विरासत के सम्बन्ध में आपकी बेहतर वैज्ञानिक समझ बनेगी. आप विरासत के उन पहलुओं को स्वीकार करेंगें जो प्रगति में सहायक हैं और उन्हें अस्वीकार करेंगें जो प्रगति में सहायक नहीं हैं.
रामशरण शर्मा की ख्याति प्राचीन भारत पर लिखी पुस्तकों के लिए है इसमें कोई दो राय नहीं पर जिन्होंने भी उन्हें विभिन्न गोष्ठियों, सभाओं, नुक्कड़ सभाओं में सुना है, बैठकी में उनसे गप्पें लड़ाई वो भली भांति जानते हैं कि उनके चिंतन के दायरे में मध्यकालीन और आधुनिक भारत भी हमेशा रहा है. प्रगतिशील तबके के बीच वे वर्तमान को बदलने की लड़ाई में वैचारिक शक्ति के श्रोत के रूप में भी जाने जातें हैं. रामशरण शर्मा एक धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार थे. उनकी राय थी – आज की समस्या इतिहास से नहीं सुलझा करती है. अगर किसी समस्या का पुरानी बातों से सम्बन्ध है तो इतिहास इसपर रौशनी डाल सकता है, सच्चाई को सामने रख सकता है.इतिहास बता सकता है कि जाति प्रथा, छुआछूत आदि शुरू कैसे हुए. इसके जड़ के मूल कारण क्या है. कारण सुन लीजिए. उसे हटा दीजिए. समाधान हो जायेगा. इतिहास लेखन के विषय में श्रोतों का विस्तार और साक्ष्यों की छानबीन के लिए एतिहासिक भौतिकवाद पर आधारित एक विश्लेष्णात्मक पद्धति का प्रयोग, ये दो ऐसे क्रांतिकारी बदलाव थे जिसके एक वाहक बने रामशरण शर्मा. पहले केवल लिखित पथ का प्रयोग होता था अब उसे पुरातात्विक साक्ष्यों, शिलालेखों भी से जोड़कर देखा जाने लगा. अब केवल घटनाओं या बदलाव की सूचना भर से काम नहीं चलानेवाला था बल्कि क्यों और कैसे का विश्लेषण के साथ ही साथ उस घटना या बदलाव से निकलकर क्या आया आदि के लेखन पर भी बल दिया जाने लगा. अब शिलालेखों को केवल राजा-रानी की तिथियों के लिए नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक इतिहास दर्ज़ करनेवाले दस्तावेज़ के रूप में पढ़ा जाने लगा. इसे भौतिक, सांस्कृतिक एवं लिखित साक्ष्य से तालमेल बिठाने का संघान और छानबीन की विश्लेष्णात्मक पद्दति का इस्तेमाल कहा गया.
उनके दरवाज़े किसी भी जिज्ञासू और ज्ञानपिपासु के लिए सदैव खुले रहते थे. वे स्वं भी लोगों से मिलने-जुलने उनसे बात करने का कोई मौका नहीं चुकते थे. सुबह टहलने के लिए भी ज़रा देर से जाते, किसी पार्क या कोई सुनसान जगह के वजाय भीड़भाड़ वाली सड़कों का चयन करते, जहाँ वो घूमते-टहलते लोगों से बातचीत भी करते रहते. विदेश से लौटते तो मज़े और सैर-सपाटों के किस्सों के बजाय वहाँ के आवाम के किस्से उनकी ज़बान पर होते. वे किताबी नहीं बल्कि एक एक्टीविस्ट इतिहासकार थे. जिन्हें आपातकाल, बाबरी मस्ज़िद विध्वंश, नरसंहारों जैसी घटनाएँ परेशान करती. जनता को प्रगतिशील चेतना से सुसजित करना उनके चिंतन का प्रमुख विषय होता. वे अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक और एक कर्मठ शिक्षाविद थे. उनका साफ़ मानना था कि समाज सुधार के कार्यों या सामाजिक समस्याओं और उसके समाधान की गतिविधियों में संलग्न शिक्षाविद ही समाज के लिए कुछ कर रहें हैं. अन्यथा समाज को उनसे क्या लाभ. आपने बहुत काम किया है, प्रतिष्ठा अर्जित की है, उसे आप लेके रहिए. आपका कुछ सामाजिक दायित्व है न. समाज के प्रति प्रतिबद्धता तो होनी ही चाहिए और प्रतिबद्धता के साथ साथ एक्टिविटी भी होनी चाहिए. अंतिम सत्य तलाशने का दावा कोई भी वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति नहीं करता, रामशरण शर्मा ने भी नहीं किया.
अपने तरह के सोचवाले इतिहासकारों को बढावा देने, वैदिक परम्पराओं को अनदेखा करने, हिंदी के बजाय अंग्रेज़ी में अपना लेखन कार्य को अंजाम देने सहित कई आरोप इनपर लगे पर इस सत्य से किसी का कोई इंकार नहीं हो सकता कि वो भारत के उन इतिहासकारों में से हैं ( थे ) जिन्होंने इतिहासकारों को खुद नए, तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से सोचना सिखाया. साथ ही ये भी बताया कि इतिहास का अर्थ केवल बीती हुई कहानी कहना नहीं होता. इतिहास अथवा इतिहास लेखन का कर्म मात्र राजवंश, युद्ध और भारतीय साम्राज्य का इतिहास मात्र नहीं है. इतिहासकार यह एहसास करें कि इतिहास का विषय यह भी है कि इतिहास के वे सबक क्या हैं जिनके सहारे आज की चुनौतियों का सामना कल्पनाशीलता और सूझबूझ के साथ किया जा सके. इतिहासकारों ने अतीत को बस समझने की कोशिश की है. ज़रूरत है कि इस समझदारी का इस्तेमाल वर्तमान को बदलने के लिए किया जाय.
दुखद सच यह है कि इतिहास के नाम पर आज भी हमारे पाठ्यक्रम ज़्यादातर राजा-रानी की कहानियों से ही भरे पड़े हैं. ऐसे समय में रामशरण शर्मा को पढ़ना-पढ़ाना और ज़्यादा ज़रुरी हो जाता है. इन्हें पढ़ने-पढ़ाने का अर्थ है प्राचीन भारत के वैज्ञानिक इतिहास से परिचय प्राप्त करना. आज के समय में यह केवल इतिहास के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं वरन तमाम इंसाफपसंद संवेदनशील इंसानों के लिए एक नितांत ही ज़रुरी कार्यों में से एक बन जाता है. सच्चे ज्ञान से ही अज्ञानता दूर हो सकती है, गलत व अल्प ज्ञान हमें और ज़्यादा अज्ञानी, मूढ़ और दकियानूस बनाता है. रामशरण शर्मा कहा करते थे सामंती सोच में बदलाव के बगैर सामाजिक परिवर्तन की कल्पना बेकार है. खूब पढ़िए लेकिन उससे भी ज़्यादा चिंतन मनन कीजिये और गुनिये. तभी सही ज्ञान प्राप्त हो सकता है.

2 comments:

  1. गहरी पैठ....बहुत हीं बढ़िया आलेख !

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  2. "............ इतिहास के ज्ञान से ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विकास होता है ............. ऐतिहासिक भौतिकवाद के ज्ञान से समाज में व्यापक परिवर्तन किये जा सकते हैं और नयी समाज-व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है । ............... ऐतिहासिक भौतिकवाद कुछ अमूर्त सिद्धान्तों का संग्रह नहीं है, वह मानव समाज के इतिहास का मूर्त ज्ञान है । .......... "

    - डॉ. रामविलास शर्मा

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