अमूमन इतिहासकार 1857 के
सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई मानते हैं लेकिन तथ्यों
की पड़ताल करने पर कई अन्य विद्रोह भी सामने आते हैं जो सिपाही विद्रोह से पहले के
हैं और इन विद्रोहों की भूमिका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज़मीन तैयार करने में
कमतर नहीं रही है। इन्हीं विद्रोहों में से एक विद्रोह है झारखण्ड का हूल विद्रोह
जिसका नेतृत्व सीधो, कान्हू, चांद और भैरव ने किया था।
आदिवासी समाज स्वतंत्रता का पोषक रहा है। जल, जंगल और ज़मीन के साथ वो अपने
तरीके से स्वतंत्र जीने में विश्वास करता है। हूल विद्रोह की पृष्टभूमि पर सरसरी
निगाह डालें तो तथ्य कुछ यूं निकलकर सामने आते हैं – आदिवासियों ने यह महसूस किया
कि उनकी आज़ादी के ऊपर लगाम लगाया जा रहा है। उन्हें मालगुज़ारी, बंधुआ मज़दूरी और
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा था। ब्रिटिश राज में मालगुज़ारी
नहीं देने पर आदिवासियों की ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी। 30
जून 1855 को भोगनडीह नामक जगह में लगभग 28000
आदिवासियों की सभा हुई जिनमें संताल, पहाडिया व अन्य जनजातीय समुदाय के लोग शामिल
हुए। इस सभा में सिदो को राजा, कान्हो को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को
सेनापति नियुक्त करते हुए यह घोषणा की गई कि “अंग्रेज़ी राज गया और अपना राज कायम
हुआ”। लोगों ने अंगेज़ी राज को मालगुज़ारी देना बंद किया और अंग्रेज़ी राज के खिलाफ़
अपने पारंपरिक हथियारों के साथ विद्रोह शुरू कर दिया। 11-13
जुलाई 1855 को अंग्रेज़ों ने इस विद्रोह को कुचल दिया। सिद्धो,
कान्हू और भैरव महेशपुर के युद्ध में शहीद हो गए। इस क्रांति में लगभग 30,000
लोग शहीद हुए, इसमें कई लड़ाका महिलाएं भी थीं।
भारतीय इतिहास की किताबों में भले ही इस विद्रोह को सम्मानित स्थान प्राप्त
नहीं है किन्तु झारखण्ड के आदिवासी आज भी अपने इस विद्रोह और उनके नायकों को अपने
गीतों और संस्कृति में याद रखते हैं। सिद्धो, कान्हू, भैरव और चांद को लेकर आज भी
ये अपने गीतों में बड़े ही आदर से याद करते हैं। स्थानीय निवासी आज भी अबुआ राज के
इस संघर्ष को भूले नहीं हैं बल्कि उसे अपनी संस्कृति का अंग बना चुके हैं। आज
इतिहासकार इन्हीं गीतों के माध्यम से इन वीरों की गाथा सुनते, लिखते और गुनते हैं।
वैसे भी असली नायक वह है जो जन के दिलों में ज़िंदा रहे, वह नहीं जिन्हें व्यवस्था
बार-बार जीवित करे और उनकी उपलब्धियों का रट्टा मरवाए।
किसी ने सच ही कहा है कि राजा-महाराजा, नेता-अभिनेता का इतिहास तो है लेकिन
जनता और जननायकों का इतिहास अभी लिखा जाना बाकी है।
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