Sunday, September 23, 2012

लहरें गिनकर माल बनाते हैं साहेब !





पुंज प्रकाश

एक कहानी है. बचपन में सुनी थी. किसी मुल्क का एक कारकून घूसखोर हो गया. राजा बड़ा परेशान हुआ कि इसका क्या किया जाय. उसे जहाँ भी लगाये वो वहीं घूसखोरी शुरू कर देता. राजा उसे निकाल सकता नहीं था और कठोर सजा भी नहीं दे सकता था क्योंकि रिश्ते में वो राजा का साला लगता था. साले के आगे तो बड़े बड़ों की नहीं चलाती फिर राजा की क्या औकात. साला को कुछ बोले तो पटरानी का मुंह लटक जाता. राजा ने अपने सबसे काबिल मंत्रियों की सभा बुलाई और अपनी ये समस्या सह-मजबूरी शरमाते हुए उनके सामने रखी. मंत्रियों ने काफी माथापच्ची के बाद ये तय किया कि राजा के साले की पोस्टिंग ऐसी जगह कर दी जाय कि जहाँ से किसी प्रकार की उपरी आमदनी की उम्मीद ही न हो. सोच विचार कर तय किया गया कि उसे समुद्र की लहरों को गिनने का काम में लगा दिया जाय. वहाँ कोई इंसान होगा नहीं तो राजा का साला घूस किससे लेगा! राजा को ये सुझाव अच्छा लगा और अन्तः राजा के साले को समुद्र की लहरों को गिनने के काम में लगा दिया गया. राजा का साला अपने इस तबादले से ज़रा दुखी तो हुआ पर काम पर लग गया. एक दिन वो लहरें गिन रहा था कि उधर से एक नाव गुज़रने लगी. राजा के साले ने चिल्लाकर उस नाव को रोका और उधर से गुज़रने को मना किया कारण पूछने पर बताया कि राजा ने उसे लहर गिनने के काम में लगाया है. नाविक ने अपनी मजबूरी ज़ाहिर किया कि उसे तो इसी रास्ते से जाना है. राजा के साले ने कहा ठीक है जाओ पर चढावा चढ़ाते जाओ. नाविक ने चढ़ावा चढ़ाया और आगे बढ़ गया. अब जो भी वहाँ से गुज़रता चढ़ावा चढ़ा के ही आगे बढ़ता. इस तरह ये तय हुआ कि एक सच्चा घूसखोर लहरें गिनकर भी माल बना सकता है.
ये एक ईमानदार राजा और उसके एक घूसखोर साले की कहानी है. आज तो न राजा ईमानदार रहा ना ही उसके सालों की संख्या एक रही. आज जिस विभाग में जाएँ वहीं राजा के साले भरे पड़े हैं या यूँ कहें कि राजा आज खुद इन सालों की बहाली करता है. इस सठियाये लोकतंत्र में और कोई तरक्की हुई हो या न हुई हो राजा के सालों की जनसंख्या में दिन दुगनी रात चौगुनी उन्नति हुई है और राजा भी प्रसन्न है इनकी संख्या देखकर. राजा को भी पता है कि इन्हीं सालों की बदौलत तो उसकी सत्ता है नहीं तो ऐसे ऐसे देशद्रोही पैदा हो चुके हैं इस पवित्र धरती पर कि पल भर में वो राजा की सत्ता की नीव हिला दें.
अब वक्त है इसी कहानी को रीमेक करके आज के सन्दर्भ में व्यक्त करने की. चलन के हिसाब से ज़रा नया मसाला भी डालना पड़ेगा तो चलिए कोशिश करतें हैं. आप अगर महिला हैं तो किसी पुरुष और पुरुष हैं तो किसी महिला ‘मित्र’ के साथ किसी न किसी पार्क, मैदान या किसी सार्वजनिक जगह पर ज़रूर ही बैठे होंगें. पुरुष से पुरुष और महिला से महिला ‘मित्रों’ पर अभी बात नहीं करेगें नहीं तो झूठ मूठ का दिशा भ्रम हो जायेगा और दिशा भ्रम का शिकार होना कोई अच्छी बात नहीं. हाँ तो पार्क की बात हो रही थी. आप अपने मित्र के साथ पार्क में बैठे होतें हैं. थोड़े दूर, थोड़े पास. हल्की मुस्कुराहट के साथ बातों का सिलसिला नज़रें नीची किये हुए चलता है, दूरी ज़रा कम होती है कि कहीं से ताली पीटता हुआ “उनलोगों” का दल आ धमकाता है और आपके गाल छूकर एक खास अंदाज़ में ताली पिटते हुए आपको लाख-लाख दुआएं देने लगता(ती) है. उनकी दुआओं को सुनकर आप और मित्र दोनों एक दूसरे को कनखियों से देखकर मुस्कुराने लगतें हैं. फिर आप या मित्र दोनों में से कोई एक अपने पर्स से दस-बीस का नोट निकालकर ताली पीटनेवाले (वाली) को थामतें हैं और वो खुशी से उस नोट को अपने पसीने से लथपथ ब्लाउज के अंदर डालके आपको पुनः ढेर सारी दुआएं देते हुए अगली जोड़ी की तरफ़ बढ़ जातें हैं. ये सारा काम (कुछ अपवादों को छोड़कर) अमूमन बड़े ही प्यार से अंजाम दिया जाता है. उनकी दुआएं सच हो न हो, आपकी जोड़ी सलामत रहे न रहे पर उन ताली पीटनेवालों का स्नेह हर जोड़ी पर रोजाना ऐसे ही फुहार बनके दुआओं के रूप में बरसता है. जिसे याद करके आपके होठों पर मुस्कान अपने आप ही आ जाती है.
झारखण्ड की राजधानी राँची में आजकल यही काम पुलिस द्वारा अंजाम दिया जा रहा है. बस अंदाज़ ज़रा बदला है. बाकि सारा सेटअप वैसे का वैसा है बस ताली पीटनेवालों की जगह ले ली है झारखण्ड पुलिस ने. अब पुलिस आएगी तो काम करने का अंदाज़ भी निश्चित है बदलेगा ही. आप वैसे ही हंसते, मुस्कुराते, शरमाते आदि आदि राँची के किसी पार्क में बैठे हैं कि एक हवलदार आपके पास आता है और कहता है कि साहेब बुला रहें हैं. आप सवालिया नज़रों से अपने मित्र की तरफ देखतें हैं और उस हवलदार के साथ चल पड़ते हैं. साहेब अपनी जिप्सी में तोंद निकले कचर-कचर पान के साथ काला, पीला, तीन सौ ( ज़र्दा ) की खुशबूदार बदबू छोड़ते विराजमान हैं. आप पहुंचतें है. साहेब कड़क आवाज़ में आपको नैतिकता का पाठ पढाते है, आपको थाने चलने को कहते हुए जीप में बैठने को भी कहते हैं. आपकी सारी दलील वर्दी के पसीने की बदबू में बाप-बाप करते हुए वहीं की वहीं आत्महत्या कर लेती है. तभी एक सिपाही साहेब का इशारा पाकर आपकी जेब में हाथ डालता की कोशिश करता है. डर के मारे आप खुद ही पर्स निकालकर सामने रख देतें हैं. खुदरा-खुदरी मिलाकर जितना भी होता है सब साहेब की जेब में चला जाता है और बदले में आपको नसीहत मिलती है कि आज छोड़ रहा हूँ फिर दिखा तो अंदर कर दूँगा. आप अपने मित्र के साथ वहाँ से निकलने में हीं अपनी भलाई समझतें हैं और यहाँ के बाद जो पिज्ज़ा खाने का प्लान था वो पैसे के लूट जाने के कारण दम तोड़ देता है इसे आप अपनी इच्छाओं की भ्रूण हत्या भी कह सकतें हैं. आप दोनों मुंह लटकाए अपने अपने घर पहुंचतें हैं पुनः कभी उस पार्क या मैदान में न बैठाने की कसम खाते हुए.
अब ज़रा लगे हाथ कुछ नैतिक बातें कर लेना ही चाहिए. क्या ज़रूरत है लड़के-लड़किओं को ऐसे खुलेआम बैठाने की, पता नहीं वहाँ बैठके क्या-क्या कर रहे होंगें. क्या ज़रूरत है पुलिस से डरने की और पुलिस को पैसा देने की. अड जाना चाहिए. आप पैसा देतें हैं तभी तो कोई लेता है आदि आदि. इन नैतिक तर्कों का जवाब आपको भी पता है. हमारा अर्ध-सामंती मानसिकता वाला समाज प्रेम को कितना मान्यता देता है वो अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है. आए दिन ऑनर किलिंग की खबरें कई बातों की पुष्टि करने के लिए काफी है. समाज अगर किसी लड़का-लड़की के मिलाने, बात करने, एक दूसरे के प्रति स्नेह ज़ाहिर करने को सहजता पूर्वक स्वीकार करता तो इनको पार्कों, साईबरकैफ़े, सुनसान जगहों, झाडियों, मकबरों, किलों आदि में मिलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. लगे हाथ ये जानकारी भी जोड़ लें कि राँची में पार्कों, डैमों, झरनों के आसपास खुलेआम कानूनी और गैरकानूनी शराबें मिलाती और सेवन की जातीं हैं. पुलिस की गश्त भी रूटीनीरूप से चलती ही रहती है. इन जगहों पर हर तरह की देसी विदेशी बोतलें सरेआम मिल जायेगी. साथ ही साथ शोहदों की नज़रें तो हर जगह की तरह यहाँ भी अक्सर ही लड़कियों के उदभव और विकास का रसास्वादन करती ही रहतीं हैं. नैतिकता का इतना तड़का काफी है अब ज़रा बात मुद्दे की.
इसमें ऊपर जो राजा वाली घटना है वो कहानी है और नीचे जो साहेबवाली घटना है वो हकीकत. वैसे कहानी कब हकीकत और हकीकत कब कहानी बन जाए कहना मुश्किल है. हकीकत है तो कहानी है, कहानी है तो हकीकत. दोनों एक दूजे से अलग भी है और एक दूसरे में पूरक और समाहित भी.
यहाँ एक तरफ़ है वो समाज जो सदियों से हमारे सभ्य समाज से वहिष्कृत है और दूसरी तरफ़ है समाज का वो अंग जो पढ़ लिखकर, कम्पटीशन देकर बहाली पाता है और जिसपर कानून व्यवस्था बनाये रखने की ज़िम्मेदारी है. दोनों में कौन ज़्यादा असहनीय और सामंती मानसिकता से सराबोर है ये बताने की ज़रूरत नहीं. एक प्यार को दुआएं देता है तो दूसरा अंदर डाल देने के नाम पर वसूली करता है. आए दिन शहर में ‘मजनू भगाओ’ कार्यक्रम के नाम पर किसी भी नौजवान पर डंडा बरसाने से ज़रा भी नहीं हिचकती. अब बेचारे मजनू को क्या पाता था कि प्यार के बदले उसका नाम एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जायेगा वो भी 21वीं सदी में. वैलेंटाइन डे के दिन अमूमन इनका रवैय्या किसी कठमुल्ले से कम नहीं होता. ये यही पुलिसिये हैं जो अपने भूख हड़ताल के आंदोलन के दिन जमके खाते हुए कैमरे में कैद होतें हैं. रात को थानों में ताला मरके जमके सोतें हैं और तब तक उस स्थान पर नज़र नहीं आते जबतक कोई घटना घट न जाय. बात ज़रा फ़िल्मी लग सकती है पर इनकी सच्चाई ज़रा फिल्मी ही है या ये कह सकतें हैं कि फ़िल्मी हो गई है. तभी हमारे देश का एक मशहूर टेक्स्ट बुक लेखक भी इन्हें वर्दी वाला गुंडा कहता है. ये होते जन सेवा के लिए हैं पर जनता की ये कैसे सेवा करतें हैं वो आप भी जानतें हैं. सरकारी संरक्षण प्राप्त इन महानुभावों की कथा का सागर अथाह और सर्वव्यापी है. वैसे बात केवल इस विभाग की ही क्यों, हिंदुस्तान का कोई भी कोना और विभाग आज लहर गिनकर माल कमा लेने वालों से खाली नहीं. 
आखिरी बात ये कि लहरें गिनने वाले इन पुलिसवालों की कुछ तस्वीरें लहरें गिनते हुए एक अखबार में छप गई है सो पुलिस डिपार्टमेंट की भी कुछ नैतिक ज़िम्मेदारी बनाती है. सो दो लोगों को निलंबित किया गया है तत्काल. मामला शांत पड़ते ही हो सकता है इन्हें फिर से लहरें गिनने के काम पर लगा दिया जाय. 

Sunday, September 16, 2012

संसद का मानसून सत्र उर्फ़ आओ सखी चोर सिपाही खेलें.



पुंज प्रकाश 

भ्रष्टाचार भारतीय जन जीवन का हिस्सा बन चुका है. अब घूस को ' सेवा शुल्क ' के रूप में मान्यता दे देनी चाहिए. - सुप्रीम कोर्ट की एक व्यंगात्मक टिपण्णी.
जिस मुल्क की नीति ही निजीकरण केंद्रित और सारी सरकारी मिशिनरी लगभग चरमरा चुकी है, जहाँ गुंडों और पुलिस से एक समान डर लगता हो, उस देश में प्राकृतिक सम्पदा की लूट का मामला कोई नई बात नहीं है, ना ही नया है हमारे देश में घोटालों का इतिहास. आज़ादी के साल भर के अंदर ही हमने घोटालों में अपना खाता खोल लिया था. आज हम हर नए घोटाले पर या तो झूठमूठ के चौंकने की ओवरएक्टिंग करतें हैं या फिर हमारी यादाश्त बहुत ही क्षणिक हो गई है. पिछले कई सालों से भारत के कई जानेमाने बुद्धिजीवी व दल इसके खिलाफ़ बोलते और आवाज़ उठाते रहें हैं. लेकिन उनकी आवाज़ सुनाने में हमें तटस्थ होने के सुकून का आनंद नहीं मिल पाता, इसलिए उस ओर हम जानबूझकर अपना ध्यान नहीं जाने देना चाहते. हम खेल का आनंद लेने में अव्वल लोग हैं, खेलने में नहीं. कम्फर्ट ज़ोन में रहने का आनंद ही कुछ और है. यहाँ मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू-थू करने का मज़ा आराम से लिया जा सकता है. हमें विकल्प शब्द अच्छा तो लगता है पर इसका इस्तेमाल करते वक्त हम अपना नफा-नुकसान देखना भी नहीं भूलते. देश और समाज की बारी हमेशा हमारे बाद ही आती है. देश में हर तरह की क्रांति हो हमें कोई आपत्ति नहीं शर्त बस इतना है कि हमें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए. हम झट से उस पार्टी और नेता से अपनापा जोड़ लेतें हैं जो हमारे हित की बात करता है ये बात जानते हुए कि ये हित की बात करनेवाला एक रंग स्यार है जो चेहरा देखकर मुँह खोलता है. इनका कोई नुमाइंदा किसी एक चुनावी महोत्सव में हमारे दरवाजों पर फौज के साथ हाथ जोड़कर घूमता है और हम अपने तारनहार की सूरत उसके अंदर देखते हुए उसकी चिकनी चुपड़ी बातों में जानबूझकर फंस जातें हैं. फिर कम से कम अगले चुनाव तक वो हमसे हाथ जुडवाता है. अभागा है वो देश जहाँ नायक पैदा नहीं होते / अभागा है वो देश जिसे नायक की ज़रूरत पड़ती है, ब्रेख्त की ये दोनों बातें एक दूसरे के परस्पर विरोधी होते हुए भी यहाँ एक साथ सच प्रतीत होतें हैं. हमारा पसंद-नापसंद हम क्या हैं इससे निर्धारित होता है न कि जिसे हम चुन रहें हैं उसके गुण और दोषों से. हम अपनी इसी चयन की नीति के तहत दलों या प्रतिनिधियों का निर्धारण करतें हैं. कहने का अर्थ ये कि चयन की हमारी नीति की चाभी अक्सर ही हमारे स्वार्थ रूपी संदूकची में कैद रहती है. हम ये देखने में कभी नहीं चुकते कि हमें क्या सूट करता है, वो देश को भी सूट कर जाए तो अच्छी बात है.
कोयले के आवंटन के मुद्दे पर इतना हाय तौबा मचा है वो क्या निःस्वार्थ है ? क्या हर पार्टी अपना फायदा नुकसान देखकर अपनी गोटियां नहीं फेंक रही  ? हम समाचार चैनलों पर तमाशा देखने और गप्पें मार-मारकर अपने बाल नोंचने के सिवा और क्या कर रहें हैं ? संसद में जो भी हैं हमारे ही चुने हुए प्रतिनिधि हैं ( ऐसा कहा जाता है. ) तो क्या हमारी कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं बनाती ? क्या हम केवल वोट डालने और तमाशा देखने के लिए बनाये गए हैं ? क्या किसी प्रजातंत्र में प्रजा की भूमिका केवल वोट बैंक की होती है ? यदि सरकार को जनविरोधी कार्यों में लिप्त होने का अधिकार है तो क्या जनता को सरकार विरोधी कार्यों में लिप्त होने का भी अधिकार नहीं चाहिए ? क्या जनता को ये अधिकार नहीं कि वो सरकार को अयोग्य घोषित करे, इसके लिए चुनाव का इन्तेज़ार क्यों. कहनेवाले कहतें हैं कि इस तरह तो देश में अराजकता फैल जायेगी. तो क्या अभी जो हालात हैं क्या वो कम अराजक हैं ? क्या कोई सरकार देश द्रोही नहीं हो सकती ?
कण-कण में व्याप्त भ्रष्टाचार का भार उठाये ये संसद चले न चले किसको परवाह है ? जनता का रोज़ाना 9 करोड़ पानी में जा रहा है किसको परवाह है ? ऐसी हवा बनाई गई कि सत्ताधारी पार्टी तो बहस चाहती है पर विरोधी दल ऐसा नहीं करने दे रही है. अगर ऐसा ही था तो सत्ताधारी दल के किसी एक नुमाइंदे को पहले ही दिन स्पीकर के कान में ये फुसफुसाने की क्या ज़रूरत थी कि सदन भंग कर दो, विपक्ष हंगामा करेगा. सनद हो कि ये जादूगरी पुरे देश ने देखा है. उम्मीद थी कि दो-चार दिन में सब सामान्य हो जायेगा. वहीं विपक्ष को ये भी पता था कि अगर बहस हुई तो कोयले का कुछ कालापन उनके आस्तीन पर भी पड़ेगा. ये है बेशर्मी की हद कि सब के सब एक-दूसरे की ओर उंगली करके चोर चोर चिल्ला रहें हैं और सरदार अपने मौन पर कवितापाठ आयोजित करके मज़ा ले रहा है. सबको पाता है संसद में न सही कोर्ट में मामला रफा-दफा हो ही जायेगा. अदालत तो सांसद, मंत्री, अफसर के मामले में मौन धारण या मामले को सालों लटकाने में ही अपनी भलाई समझाता है और फिर साबूत भी तो चाहिए. आम आदमी पर जब कोई मुकद्दमा चलता है तो आम आदमी को ये सावित करना होता है कि उसने ये गुनाह नहीं किया जब सांसद, मंत्री आदि पर कोई मुकद्दमा चलता है तो मामला उल्टा होता है. अगर वो सत्ताधारी हो तब मामला भगवान भरोसे ही समझिए. भारतीय घोटालों और घोटालों में हुई सजा का इतिहास पलटके देखने पर घोटालेबाजों का ही सीना चौड़ा हो जाता है.
कोयला आवंटन के मुद्दे पर संसद के मानसून सत्र में कुल 19 दिनों में केवल 6 दिनों का ही मामूली कामधाम हुआ. यानि की 13 दिन तू चोर मैं सिपाही के खेल में ही गए. मूक मोड धारक प्रधानमंत्री के नेतृत्ववाली पंद्रहवीं लोकसभा का यह दूसरा सत्र है जिसमें सबसे कम काम हुआ है. यह सत्र 8 अगस्त 2012 को शुरू हुआ था जिसमें कुल 30 विधेयक पारित होने थे पर हंगामें के बीच के केवल चार विधेयक ही पारित हो पाया, वो भी बिना बहस किये. ये तो हम सब भली भांति जानतें हैं कि ये पैसा आम जनता का ही है और दूध का घुला तो कोई भी दल नहीं.
संसदीय कार्य मंत्री का कथन है कि सदन की कार्यवाई न चलने से प्रतिदिन नौ करोड़ रुपये का नुकसान है. इस हिसाब से 13 दिन के हो गए कुल 117 करोड़ रूपये. ये केवल रूपये के नुकसान का मामला नहीं है बल्कि इसे देश के समय की बर्वादी का भी मामला है. क्या कोई पक्ष या विपक्ष इसकी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार है ? वैसे कोई क्यों ले ज़िम्मेदारी. भाई काम हो चाहे न हो. मंत्री-विधायक का भत्ता और वेतन में कौन सी कटौती होने जा रही है. प्रजातंत्र के इस महासंग्राम में जनता के नाम पर एक बार किसी भी तरह जो जीत गया उसकी सारी सुख सुविधा तबतक के लिए एकदम तय है जबतक कि दूसरा चुनाव लोकतंत्र की कुण्डी  खटखटाकर नींद न तोड़ दे. अगर यही हमारा लोकतंत्र है और खीजते-कुढते, अपनों से झगड़ते, समाचार चैनलों पर चल रही बहसों पर अपना खून जलाते, रोटी-कपड़े के लिए बैल की तरह काम पर चले जाने को ही हमने अपनी नियति चुन ली है तो फिर कहने सुनाने को बचता ही क्या है!
स्पीकर मीरा कुमार तक से न रहा गया तो वो फूट पड़ीं  – “हमारे लोकतंत्र में विरोध जताने के कई ऐसे तरीके हैं जो कई बार मन में अशांति पैदा करतें हैं.”  हमारा मन कब अशांत होगा और अगर अशांत है तो उसे सही दिशा कब मिलेगी ? क्या हमें यहीं पहुँचाना था आज़ादी के 63वें साल में ? कुछ हो न हो हमारी सहने की शक्ति कमाल की है, जब तक कोई हमारी गर्दन न पकड़ ले हम मौन ही रहतें हैं. अच्छाई के प्रति हो न हो बुराई के प्रति तो हम महा-उदार हैं हीं.
ले देकर हम उन्हीं तीन चार पार्टियों को घुमा-फिराकर विकल्प के रूप में चुनतें रहतें हैं जो स्वं बड़े बड़े धन्ना सेठों की कमाई पर चलतें हैं. अभी पिछले दिनों प्रकाशित एक खबर पर नज़र मारतें हैं. गैरसरकारी संगठन एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ( एडीआर ) एवं नेशनल इलेक्शन वाच ( एनईडब्लू ) ने आयकर विभाग एवं चुनाव आयोग से देश के तमाम बड़े दलों के आय के बारे सूचना के अधिकार के तहत जानना चाह तो कोंग्रेस ने पिछले सात साल में 2008 करोड़, भाजपा ने 994 करोड़, बसपा ने 484 करोड़, भाकपा ने 417 करोड़, सपा ने 279 करोड़ बता तो दिया पर कोई भी दल ये नहीं बता रहा कि इतने पैसे आए कहाँ से! कांग्रेस 11.89% , भाजपा 22.76%, राकांपा 4.69%, माकपा 1.29%, भाकपा 57.02% आमदानी का ही हिसाब दे पा रही है. बहुजन समाज पार्टी ने 20 हजारा नियम का फ़ायदा उठाते हुए साफ़ कह दिया कि उसे किसी ने भी 20,000 से ज़्यादा की रकम दी ही नहीं. कानून ये कहता है कि कोई अगर 20,000 रुपये से ज़्यादा की रकम किसी पार्टी को चंदा अथवा दान में देता है तो उसका व्योरा चुनाव आयोग को देना ज़रुरी है. कमाल तो ये है कि 21 क्षेत्रीय दलों में से केवल पांच ( सपा, ए आई ए डीएमके, जद-यू, शिवसेना और टीडीपी ) दलों ने थोड़ी बहुत जानकारी दी बाकि 18 जिनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, तृणमूल कोंग्रेस, केरल कोंग्रेस, इनेलो आदि दल शामिल हैं, ने तो आरटीआई को महत्व देना ही ज़रुरी नहीं समझा. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ये पार्टियां जितनी आय दिखा रहीं है हकीकत इससे कई गुना बड़ा है.
इस पुरे मुद्दे पर इलेक्शन वाच का कथन ये है “ राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर हो रही फंडिंग ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा ज़रिया है. कुछ बड़े ओद्योगिक घरानों ने चुनाव सुधार न्यास बना रखा है. ये राजनीतिक दलों को धन देतें हैं बदले में निजी सरकारी भगीदारी के तहत बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के ठेके लेतें हैं.” ज्ञातव्य हो इसके लिए कोई कड़ा कानून नहीं है. वर्ष 1968 में इंदिरा गांधी की सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को कारपोरेट डोनेशन पर रोक लगा दी. तत्पश्चात पार्टियां अवैध रूप से मिलनेवाले चंदे पर आश्रित होने लगीं. इसे राजनीति में ब्लैक मनी का विस्तार माना जाता है. 1985 में इसे फिर से वैध कर दिया गया. वर्ष 2003 में एक कानून बनाया गया जिसके तहत पार्टियों के लिए उद्योगपतियों से चन्दा लेना और आसान हो गया. इस कानून के तहत व्यावसायिक कम्पनियाँ किसी भी पार्टी को अपने लाभ के पांच प्रतिशत से कम की रकम चेक द्वारा चंदे के रूप में दे सकती है. ऐसा करने के एवज में उन कंपनियों को आयकर में शत-प्रतिशत छूट का भी प्रावधान किया गया है. ये हैं जनता की पार्टियों का हाल, अब आप खुद ही तय करिये कि ये घरानों की सुनें या जनता की. वर्तमान की ही अगर बात करें तो रोज़ एक से एक खुलासे हो रहें हैं कि किस-किस वैध-अवैध कंपनी को कैसे-कैसे कोल ब्लॉकों का आवंटन किया गया है.
आजादी से फौरन बाद ही देश ने घोटाले से अपना नाता जोड़ा लिया था. नीचे ( विकिपीडिया के सौजन्य से ) भारत में हुए बड़े घोटालों का संक्षिप्त विवरण है, घोटालों की पूरी लिस्ट तो इससे कई गुना बड़ी है. जिस तक आप इंटरनेट की सहायता से आराम से पहुँच सकतें हैं. किसी भी तरह का घोटाला प्रकाश में आते ही जाँच और कानून व्यवस्था पर भरोसा रखने का स्वर भी तेज़ हो जाता है. नीचे दिए लिस्ट आप खुद पढ़िए और तय करिये कि न्याय उतना निष्पक्ष नहीं है जितना कि दिखाया जाता है.
जीप खरीदी 1948 आजादी के बाद भारत सरकार ने एक लंदन की कंपनी से 2000 जीपों को सौदा किया. सौदा 80 लाख रुपये का था. लेकिन केवल 155 जीप ही मिल पाई. घोटाले में ब्रिटेन में मौजूद तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन का हाथ होने की बात सामने आई. लेकिन 1955 में केस बंद कर दिया गया. जल्द ही मेनन नेहरु केबिनेट में भी शामिल हो गए.
साइकिल आयात 1951 तत्कालीन वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सेकरेटरी एस.ए. वेंकटरमन ने एक कंपनी को साइकिल आयात कोटा दिए जाने के बदले में रिश्वत ली. इसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा.
मुंध्रा मैस 1958 हरिदास मुंध्रा द्वारा स्थापित छह कंपनियों में लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के 1.2 करोड़ रुपये से संबंधित मामला उजागर हुआ. इसमें तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी, वित्त सचिव एच.एम.पटेल, एलआईसी चेयरमैन एल एस वैद्ययानाथन का नाम आया. कृष्णामचारी को इस्तीफा देना पड़ा और मुंध्रा को जेल जाना पड़ा.
तेजा ऋण 1960 में एक बिजनेसमैन धर्म तेजा ने एक शिपिंग कंपनी शुरू करने के लिए सरकार से 22 करोड़ रुपये का लोन लिया. लेकिन बाद में धनराशि को देश से बाहर भेज दिया. उन्हें यूरोप में गिरफ्तार किया गया और केवल छह साल की कैद हुई.
पटनायक मामला 1965 में उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. उन पर अपनी निजी स्वामित्व कंपनी ‘कलिंग ट्यूब्स’ को एक सरकारी कांट्रेक्ट दिलाने केलिए मदद करने का आरोप था.
मारुति घोटाला मारुति कंपनी बनने से पहले यहां एक घोटाला हुआ जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम आया. मामले में पेसेंजर कार बनाने का लाइसेंस देने के लिए संजय गांधी की मदद की गई थी.
कुओ ऑयल डील 1976 में तेल के गिरते दामों के मददेनजर इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने हांग कांग की एक फर्जी कंपनी से ऑयल डील की. इसमें भारत सरकार को 13 करोड़ का चूना लगा. माना गया इस घपले में इंदिरा और संजय गांधी का भी हाथ है.
अंतुले ट्रस्ट 1981 में महाराष्ट्र में सीमेंट घोटाला हुआ। तत्कालीन महाराष्ट्र मुख्यमंत्री एआर अंतुले पर आरोप लगा कि वह लोगों के कल्याण के लिए प्रयोग किए जाने वाला सीमेंट, प्राइवेट बिल्डर्स को दे रहे हैं.
एचडीडब्लू दलाली 1987 जर्मनी की पनडुब्बी निर्मित करने वाले कंपनी एचडीडब्लू को काली सूची में डाल दिया गया. मामला था कि उसने 20 करोड़ रुपये बैतोर कमिशन दिए हैं. 2005 में केस बंद कर दिया गया. फैसला एचडीडब्लू के पक्ष में रहा.
बोफोर्स घोटाला 1987 में एक स्वीडन की कंपनी बोफोर्स एबी से रिश्वत लेने के मामले में राजीव गांधी समेत कई बेड़ नेता फंसे. मामला था कि भारतीय 155 मिमी. के फील्ड हॉवीत्जर के बोली में नेताओं ने करीब ६४ करोड़ रुपये का घपला किया है. बोफर्स घोटाला- 64 करोड़ रु., मामला दर्ज हुआ - 22 जनवरी, 1990, सजा - किसी को नहीं, वसूली – शून्य, (सीबीआई ने अब मामला बंद करने की अनुमति मांगी है) सजा - किसी को नहीं, वसूली – शून्य. (1981 में जर्मनी से 4 सबमरीन खरीदने के 465 करोड़ रु. इस मामले में 1987 तक सिर्फ 2 सबमरीन आयीं, रक्षा सौदे से जुड़े लोगों द्वारा लगभग 32 करोड़ रु. की कमीशनखोरी की बात स्पष्ट हुई।)
सिक्योरिटी स्कैम (हर्षद मेहता कांड) 1992 में हर्षद मेहता ने धोखाधाड़ी से बैंको का पैसा स्टॉक मार्केट में निवेश कर दिया, जिससे स्टॉक मार्केट को करीब 5000 करोड़ रुपये का घाटा हुआ.
इंडियन बैंक 1992 में बैंक से छोटे कॉरपोरेट और एक्सपोटर्स ने बैंक से करीब 13000 करोड़ रुपये उधार लिए. ये धनराशि उन्होंने कभी नहीं लौटाई. उस वक्त बैंक के चेयरमैन एम. गोपालाकृष्णन थे.
चारा घोटाला 1996 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और अन्य नेताओं ने राज्य के पशु पालन विभाग को लेकर धोखाबाजी से लिए गए 950 करोड़ रुपये कथित रूप से निगल लिए. केस चल रहा है. चारा घोटाला- 950 करोड़ रुपए, मामला दर्ज हुआ - 1996 से अब तक कुल 64, सजा - सिर्फ एक सरकारी कर्मचारी को, वसूली – शून्य (इस मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव हालांकि 6 बार जेल जा चुके हैं.)
तहलका इस ऑनलाइन न्यूज पॉर्टल ने स्टिंग ऑपरेशन के जारिए ऑर्मी ऑफिसर और राजनेताओं को रिश्वत लेते हुए पकड़ा. यह बात सामने आई कि सरकार द्वारा की गई 15 डिफेंस डील में काफी घपलेबाजी हुई है और इजराइल से की जाने वाली बारक मिसाइल डीलभी इसमें से एक है.
स्टॉक मार्केट स्टॉक ब्रोकर केतन पारीख ने स्टॉक मार्केट में 1,15,000 करोड़ रुपये का घोटाला किया। दिसंबर, 2002 में इन्हें गिरफ्तार किया गया. स्टाक मार्केट घोटाला- 4100 करोड़ रु., मामला दर्ज हुआ - 1992 से 1997 के बीच 72, सजा - हर्षद मेहता (सजा के 1 साल बाद मौत) सहित कुल 4 को, वसूली – शून्य  (हर्षद मेहता द्वारा किए गए इस घोटाले में लुटे बैंकों और निवेशकों की भरपाई करने के लिए सरकार ने 6625 करोड़ रुपए दिए, जिसका बोझ भी करदाताओं पर पड़ा.)
स्टांप पेपर स्कैम यह करोड़ो रुपये के फर्जी स्टांप पेपर का घोटाला था. इस रैकट को चलाने वाला मास्टरमाइंड अब्दुल करीम तेलगी था.
सत्यम घोटाला 2008 में देश की चौथी बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी सत्यम कंप्यूटर्स के संस्थापक अध्यक्ष रामलिंगा राजू द्वारा 8000 करोड़ रूपये का घोटाले का मामला सामने आया. राजू ने माना कि पिछले सात वर्षों से उसने कंपनी के खातों में हेरा फेरी की.
मनी लांडरिंग 2009 में मधु कोड़ा को चार हजार करोड़ रुपये की मनी लांडरिंग का दोषी पाया गया. मधु कोड़ा की इस संपत्ति में हॉटल्स, तीन कंपनियां, कलकत्ता में प्रॉपर्टी, थाइलैंड में एक हॉटल और लाइबेरिया ने कोयले की खान शामिल थी.
एयरबस घोटाला- 120 करोड़ रु. मामला दर्ज हुआ - 3 मार्च, 1990, सजा - अब तक किसी को नहीं, वसूली – शून्य (फ्रांस से बोइंग 757 की खरीद का सौदा अभी भी अधर में, पैसा वापस नहीं आया.)
दूरसंचार घोटाला- 1200 करोड़ रुपए, मामला दर्ज हुआ – 1996, सजा - एक को, वह भी उच्च न्यायालय में अपील के कारण लंबित, वसूली – 5.36 करोड़ रुपए (तत्कालीन दूरसंचार मंत्री सुखराम द्वारा किए गए इस घोटाले में छापे के दौरान उनके पास से 5.36 करोड़ रुपए नगद मिले थे, जो जब्त हैं। पर गाजियाबाद में घर (1.2 करोड़ रु.), आभूषण (लगभग 10 करोड़ रुपए) बैंकों में जमा (5 लाख रु.) शिमला और मण्डी में घर सहित सब कुछ वैसा का वैसा ही रहा. सूत्रों के अनुसार सुखराम के पास उनके ज्ञात स्रोतों से 600 गुना अधिक सम्पत्ति मिली थी।)
यूरिया घोटाला- 133 करोड़ रुपए, मामला दर्ज हुआ - 26 मई, 1996, सजा - अब तक किसी को नहीं, वसूली – शून्य ( प्रधानमंत्री नरसिंहराव के करीबी नेशनल फर्टीलाइजर के प्रबंध निदेशक सी.एस.रामाकृष्णन ने यूरिया आयात के लिए पैसे दिए, जो कभी नहीं आया. )
सी.आर.बी- 1030 करोड़ रुपए, मामला दर्ज हुआ - 20 मई, 1997, सजा - किसी को नहीं, वसूली – शून्य (चैन रूप भंसाली (सीआरबी) ने 1 लाख निवेशकों का लगभग 1 हजार 30 करोड़ रु. डुबाया और अब वह न्यायालय में अपील कर स्वयं अपनी पुर्नस्थापना के लिए सरकार से ही पैकेज मांग रहा है.)
केपी- 3200 करोड़ रुपए, मामला दर्ज हुआ - 2001 में 3 मामले, सजा - अब तक नहीं, वसूली – शून्य (हर्षद मेहता की तरह केतन पारेख ने बैंकों और स्टाक मार्केट के जरिए निवेशकों को चूना लगाया.)
एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ उनकी रिपोर्ट में यह कहा गया है कि भारतीय भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों एवं उद्योगपतियों के कुल 462 अरब डॉलर की रकम काले धन के रूप में स्विस बैंक में जमा हैं. इधर हमारे प्रधानमंत्री अपने तमाम दरवाज़ें विदेशियों के स्वागत में खोलने को बेचैन है कि प्लीज़ आओ हमें लूटो.

Friday, September 14, 2012

Let’s play हिंदी हिंदी.




पुंज प्रकाश 
हिंदी तुम्हारी मातृभाषा है! पर मेरे घर और गाँव में तो मगही बोली जाती है. इस शब्द का उच्चारण ऐसे करो! हम बचपन से तो ऐसे ही बोलते आयें हैं. अरे यार तुम्हारी हिंदी में बिहारी टच आता है! तो कहाँ का टच आना चाहिए सर? आखिर हिंदी कहाँ की भाषा है सर? किसी के बोलने में बिहारी टच आता है किसी में पंजाबी, किसी में साऊथ इंडियन, किसी में मराठी, किसी में राजस्थानी, किसी में गुजराती, किसी में असमियां किसी में बंगाली, किसी में ये, किसी में वो. तो एकदम खांटी शुद्ध हिंदी कैसे बोली जाय सर?  ये है हिंदी बोलने का संकट. हाँ लिखने का भी एक संकट है, अगर दरवाज़ा खुलता है तो फिर खिडकी खुलती है, अगर यह शुद्ध हिंदी है तो इसका आधार क्या है सर? राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थानों में जहाँ पूरे देश से विभिन्न भाषा भाषी छात्रों का चयन किया जाता है, रंगमंच के प्रशिक्षण के लिए. चयन का आधार हिंदी नहीं होता पर बेचारे गैर हिंदी इलाके ( वैसे हिंदी इलाका कौन है तय नहीं कर पाया.) के प्रतिभाशाली छात्र या तो परिकल्पना(design) नामक विषय चुनतें हैं या अभिनय विषय चुन लिया तो उनके मानसिक संतुलन का भगवान ही मालिक है. भले ही ये अपने बैच के सबसे ज़्यादा प्रतिभावान अभिनेताओं में से एक हों लेकिन इनका पूरा तीन साल मुंह में पेन्सिल डालकर हिंदी ठीक से बोलने की कुंठा से निजात पाने में ही निकल जाता है. इनके लिए छुट्टी के दिन अलग से स्पीच की क्लास लगाई जाती है. इनके लिए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हिंदी स्पीकिंग कोर्स में तबदील हो जाता है. इनमें से जो छात्र ठीक ठाक हिंदी बोल गए वो स्कूल के प्रतिभावान छात्रों की लिस्ट में शामिल कर लिए जातें हैं. चयन का आधार भले ही भाषा न हो पर यहाँ नाटक हिंदी में ही होते हैं और अमूमन हिंदी का कोई भी सफल नाट्य निर्देशक इन्हें कोई बड़ी भूमिका नहीं देता और अगर दे भी दे तो नाटक की पूरी तैयारी के दौरान सबसे पहला नोट्स स्पीच ठीक करो का ही होगा और फिर दर्शक जो हिंदी नाटक देखने आया है, ऐसी हिंदी सुनकर त्रस्त हो जाता है. तात्पर्य ये कि एक अच्छा खासा अभिनेता केवल भाषा की वजह से तनावग्रस्त हो हास्य का पात्र बन जाता है. ये केवल एक उदाहरण है राष्ट्रीय के नाम पर हिंदी के आतंक और वर्चस्व का. तो क्या मान लिया जाय कि विजेता की भाषा ही राष्ट्र की भाषा मानी जाती है. पर यहाँ विजेता कौन है? प्रजातन्त्र में राजतंत्र और सामंतवाद का समावेश या फिर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का वहीं पुराना गणित! आप इस विषय पर ज़रा चिंतन-मनन करें तब तक हम कोई दूसरी बात कर लेते हैं.
गोष्ठियों, सेमिनारों, नाट्यशालाओं, चाय की दुकानों आदि साहित्यिक- सांस्कृतिक आयोजनों में हमसे लगभग रोज़ मिलने वाले एक महत्वपूर्ण साथी की उपस्थिति एकाएक कम होते होते खत्म हो जाती है. हम सरसरी नज़र से कुछ दिन उसे तलाशतें हैं. याद रहने पर एकाध लोगों से पूछताछ भी कर लेतें हैं. अगर कुछ पता चलता है तो अफसोस ज़ाहिर कर उसे धीरे-धीरे भूल जातें हैं और अगर कुछ नहीं पता चलता तो बिना अफ़सोस के भूल जातें हैं और समाज के अन्यप्रगतिके कार्यों में लग जातें हैं, क्योंकि हमारी पहचान प्रगतिशील लोगों की है और हमेशा प्रगतिशीलता की प्रस्तुति करते रहना हमारी चाहत भी है और मजबूरी भी. आत्मकेंद्रित पूरा समाज ही हुआ है और हम समाज के ही तो एक अंग हैं.
जिस साथी को हम भूल चुके थे या भूला चुके थे उसकी मृत्यु पर श्रद्धांजलियां बनाम शोकसभा आयोजित करना हमारी प्रगतिशीलता की पहली मांग है, उससे हम कैसे बच सकतें हैं! शायद यही वो वजह है कि आज समाज में सहायता करने या खोज-खबर लेनेवाले लोगों से ज़्यादा संख्या श्रद्धान्जलि व्यक्त करनेवालों की है. जान पहचानवाले को तो छोडिये इस विषय पर अनजान भी अखबार में विज्ञप्ति देकर अपना नाम छपवाने से नहीं चूकते, बस शर्त इतनी है कि आप ज़रा लोकप्रिय हों. हम उपरोक्त सारी बातें समाज को एक दिशा देने का बोझ उठाये तबके यानि कलाकार, साहित्यकार, नाटककार, कवि-कथाकार (और भी बहुत सारे लोग जिनके पीछेकारलगा है. ) के सन्दर्भ में कर रहें हैं. मौका भी अच्छा हैहिंदी दिवस.
हिंदी दिवस क्यों मनाया जाता है हमारी पीढ़ी में बहुतों को नहीं पता. मैं भी इसी पीढ़ी का हूँ तो इसे आत्मस्वीकृति ही समझाना चाहिए. दूसरी बात ये भी है कि जिस तरह बाल दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि को बचपन में हीं हमें अपने सरकारी स्कूलों में अलग-अलग तरह से रटवाया गया वैसे हिंदी दिवस पर कुछ हुआ ही नहीं. आखिरकार जो काम हमारे आदरणीय गुरु महाराजों ने नहीं किया वो गूगल बाबा ने पट से कर दिया. वो कहतें हैं हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है. 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी. इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है. स्वतन्त्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो  भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1) में यह वर्णित है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय  होगा.
अब ये तो हो गई क़ानूनी बात. व्यावहारिकता यह है कि भारत एक बहुभाषीय देश है जहाँ हिंदी के अलावा बहुत सारी लिपियों और भाषाओं के अलावा कोस कोस पर बदलती असंख्य बोलियां भी हैं. उन भाषाओँ लिपियों का क्या होगा हमारे संविधान निर्माताओं ने इस महत्वपूर्ण विषय पर घोर चिंतन-मनन निश्चित ही किया होगा और उस चिन्तन मनन से जो बातें निकल के आई होगीं उसे शब्दशः हमें ग्रहण करना ही चाहिए, नहीं तो कानून के पास बहुत से रास्ते हैं संविधान को मनवाने के. जिससे हम सब भली भांति परिचित हैं और आज कल तो खास तौर से. फिर भी वैसे लोगों की भी कोई कमी नहीं जो हिंदी के प्रति कोई खास सम्मान का भाव प्रकट नहीं करते. ये दरअसल हिंदी का विरोध नहीं कर रहे होते हैं बल्कि हिंदी विरोध के बहाने जन भाषाओं एवं लिपियों को बचाने, सुरक्षित करने को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर कर रहे होतें हैं. पर जन भाषा के प्रति मोह रखने के कारण हिंदी के प्रति असम्मान रखना किसी भी सुलझे व्यक्ति या विचार का परिचायक तो कदापि ही नहीं हो सकता. एक को अच्छा कहने के लिए किसी को बुरा कहना जलन का परिचायक है. ऐसे लोगों को किसी भाषा और बोली से ज़्यादा चिंता अपनी उपयोगिता की होती है. हालांकि इनके मुंह से ये अक्सर ही सुनने को मिलेगा कि हमें अपनी कोई परवाह नहीं.
जहाँ तक सवाल सरकारी संरक्षण का है तो कानून और व्यावहारिकता में ज़मीन आसमान का फर्क है. किसी सरकारी कारकून को क्या फर्क पड़ता है हिंदी भाषा, बोलियां, लिपि, कला बचे बचे. अब कारकून ही माने तो कोई क्या करे!
हिंदी दिवस पर हिंदी का सबसे ज़्यादा रोना वही लोग रोते हैं जो पूरे साल हिंदी के नाम पर मलाई चूस चूसकर तोंदियल होते रहतें हैं. वैसे सच कहें तो साल में एक दिन तो बनता है भाई कि हर तोंदियल इस विषय पर चिंता ज़ाहिर करे. ये प्रक्रिया ठीक वैसी ही है जैसे होली के पर्व में होता है. लोग एक दूसरे का मुंह सुबह सुबह तरह तरह के रंगों से रंग देतें हैं, रंग में रंगे फोटो खिंचवाते हैं और शाम तक नहा धोकर फिर से पहले जैसे हो जातें हैं. इस पर्व को हिंदी दिवस नहीं हिंदी डे कहा जाना चाहिए.
अब ज़रा लगे हाथ हिंदी के लेखकों की ओर भी मुखातिब हो ही लेतें हैं ताकि कम से कम आज के दिन कोई मुद्दा छूट जाए. जहाँ तक सवाल हिंदी के लेखकों का है तो जो लेखक कहीं नौकरी नहीं कर रहा है उसकी हालत किसी से छुपी नहीं है. वैसे हर किसी की किस्मत राग-दरबारी नहीं होती. हमारे महान भारतीय लोकतंत्र में हमारे महान महान लेखकों ने ताउम्र किस मुफलिसी में अपने दिन काटें हैं सबको पता है. जी आज़ादी के बाद की बात कर रहें हैं. छोडिये पुरानी कहानी से आप सब परिचित हैं. आइये नई कहानी सुनतें हैं. पर अफ़सोस के साथ कहना पड़ेगा कि कहानी नई है पर प्लॉट वही पुराना है. बिहार के एक कथाकार हैं मधुकर सिंह. कई प्रसिद्ध कहानियां और उपन्यास लिख चुके हैं. भोजपुर जिला के धरहरा गाँव के निवासी हैं. कई सम्मान से सम्मानित भी हैं. देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी है. हिंदी तबके में लगभग सभी मठ, मठाधीश और बात-बात पर क्रांति कर देने वाले प्रगतिशील संपादकों का तबका इनके नाम से भली भांति परिचित है. यही मधुकर सिंह पिछले कई साल से लापता थे. एकाएक राजभाषा विभाग द्वारा इनके नाम का चयन किया जाता है 22-24 सितंबर को जोहांसबर्ग में आयोजित हो रहे विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए. आगे की कथा आप इनकी ही ज़ुबानी सुनिएमैं सात साल से बिस्तर पर पड़ा हूं. पैसे के अभाव में इलाज नहीं हो पा रहा है. मैं साहित्यकार हूं. भारत का प्रतिनिधित्व भी करना चाहता हूं. लेकिन साहित्यकारों को आज पूछ कौन रहा है. केवल हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिए ही साहित्यकारों को सरकारें याद करती हैं. यदि मेरी खोज-खबर राज्य सरकार ने पहले की होती, तो आज मैं विदेश जाने में सक्षम होता. सरकार विदेश भेजने के प्रक्रम में जो राशि मुझ पर खर्च करना चाहती है, वह मुझे दे दे. ताकि मैं अपना इलाज करा सकूं.”
इस घटना के बाद जब मीडिया ने बिहार के कुछ साहित्यकारों के मुंह से बात निकलवाई तो बेचारे प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढने की मजबूरी से कैसे बच सकते थे. झट से व्यवस्था और समाज को कोसने लगे ये भूलकर कि स्वयं इन्होनें भी इतने सालों में मधुकर सिंह की कोई खोज खबर नहीं ली. कुछ नहीं तो कम से कम मधुकर जी के ये महान समकालीन प्रगतिशील मित्रगण इनके बारे में एक आलेख तो लिख ही सकते थे. पर लिखे तब जब कुछ पता हो, और अगर पता होते हुए भी लिखा तब तो इसे सोने पे सुहागा ही कहा जायेगा. क्या श्रद्धांजलि सभाओं में मरनेवाले से जुड़े संस्मरणों को सुनाने में इन जैसे साहित्यकारों को शर्म नहीं आनी चाहिए. जिस समाज के साहित्यकार, कलाकार इतने संवेदनहीन हों वहाँ कैसी कला और साहित्य की रचना होगी इसका अनुमान कोई भी आराम से लगा सकता है. सरकार की बात तो रहने ही दी जाय. अभी पिछले दिनों एक नए बने राज्य के विधायकों से उनकी व्यक्तिगत रुचि जानने के लिए उनके पसंदीदा लेखक का नाम बताने को कहा गया तो अधिकतर लोगों ने प्रेमचंद का नाम बताकर खानापूर्ति भर करके किसी प्रकार अपनी जान बचाई. हिंदी की पत्रपत्रिकाओं और साहित्य की पुस्तकों की एक सम्मानित बिक्री दर्ज़ करनेवाले राज्य  के मंत्रियों का भी हाल इससे कुछ ज़्यादा अलग नहीं होगा और आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब देश के सांसदों भी हाल ऐसा ही हो. अब इनसे क्या उम्मीद की जाय कि ये किसी नागार्जुन, मुक्तिबोध, निराला, मधुकर आदि की चिंता में अपनी नींद-चैन हराम करें. जिन्हें लोकतंत्र की भी चिंता नहीं वो लोक की चिंता क्या खाक करेंगें.
हिंदी दिवस के मौके पर आयोजित होने वाले विभिन्न प्रकार के कामचलाऊ कार्यक्रम, प्रचार-प्रसार, अख़बारों में राष्ट्रपति, राज्यपाल आदि के संदेशों के विज्ञापन, विभिन्न सरकारी-अर्धसरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं के बैनर-पोस्टर, विदेशों में आयोजित होने वाले सम्मेलनों आदि का खर्च करोड़ों का और लाखों का खेल तो कर ही डालता है. आज एक प्रमुख हिंदी दैनिक की मूर्खतापूर्ण सम्पादकीय पढ़िए, लिखता है –“हिंदी भाषा को भले ही दक्षिण ( भारत ) में मुसीबतों का सामना करना पड़ा हो, लेकिन हमारे सामने अब ऐसा उदाहरण मौजूद है जो दक्षिण की सत्ता को झुकने पर मजबूर करता दिखाई देता है.” अब अखबारों की इस हिंसा और दूसरी भाषा पर विजय स्थापित करने के घमंड का कोई जवाब है किसी के पास. एक बहुभाषीय राष्ट्र में किसी भी भाषा के प्रति ऐसा असम्मान क्या शोभनीय है ? अंत में भारतेंदु हरिश्चंद्र का एक दोहा – 
निज भाषा उन्नति आहे, सब उन्नति को मूल | 
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल || 

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...