Sunday, January 31, 2016

रंगमंच पर भीष्म साहनी की लीला नंदलाल की

भीष्म साहनी की कहानी 'लीला नंदलाल की' का मंचन जब पटना के कालिदास रंगालय में हुआ तो दूसरे दिन एक प्रमुख अखबार में कमाल की पूर्वाग्रह भरी समीक्षा प्रकाशित हुई। प्रस्तुति के समाचार के बीच में अलग से एक कॉलम का शीर्षक था – ऐसी रही निर्देशक की लीला। आगे जो कुछ भी एफआईआर जैसा दर्ज़ था शब्दशः पेश कर रहा हूँ – “पटना : आज की प्रस्तुति में कुछ खास नज़र नहीं आया। एक दो पात्रों को छोड़कर सबकुछ अति-नाटकीय। कॉस्टयूम पर भी ध्यान नहीं दिया गया। प्रकाश व्यवस्था कामचलाऊ रही। रौशनी से कलाकार के कदम कभी आगे कभी पीछे। (अब रौशनी से कदम आगे पीछे कैसे होता है वह तो लिखनेवाला ही जाने।) ऐसा लगा जैसे नाटक की ग्राउंड रिहर्सल (जी हां, ग्राउंड रिहर्सल ही लिखा है ग्रैंड रिहर्सल नहीं।) भी नहीं कराई गई। लीला नन्दलाल की शीर्षक नाटक में जज को चलते फिरते दिखाया गया है। जबकि सब जानते हैं कि किसी भी अदालत में जज चलते फिरते सुनवाई नहीं करते। खैर कुछ भी हो कुछ न कुछ कमियां हर प्रोडक्शन में होतीं हैं। लोग कहते हैं, यह तो प्रयोग है। लेकिन ऐसे प्रयोग का क्या मतलब जो आसानी से हजम न हो। वह भी नामी-गिरामी नाट्य निर्देशक के चेलों की ओर से।”
अब समीक्षा का यह स्तर पढ़कर ठहाका लगाने के अलावा और किया भी क्या जा सकता है। हास्य, व्यंग्य, फार्स, छायावाद, यथार्थवाद आदि को एक ही तराजू से तोलनेवाले इन महान रंग-समीक्षकों की जय हो। वैसे भी समय का खेल ही कुछ ऐसा है कि पुर्वआग्रहपुर्ण निंदा या प्रसंशा को ही लोग समीक्षा मान बैठे हैं। अब ऐसे मूढ़ नाट्य-समीक्षक को कौन समझाए कि यदि कोई भी कला यथार्थ की नक़ल मात्र ही करे तो फिर उस कला की उपयोगिता ही क्या है। वैसे भी रंगमंचीय यथार्थ और यथार्थ जगत में फर्क होता है। बहरहाल, भीष्म साहनी की इस कहानी से मेरा जुड़ाव कुछ दूसरे किस्म का भी रहा है। इसे भावनात्मक जुडाव भी कहा जा सकता है। सन 1997 की बात है। महाजन जिस रास्ते चलें सही रास्ता वही है की तर्ज़ पर देश भर में, खासकर हिंदी प्रदेशों में कहानी मंचन की धूम मची थी। अभिव्यक्ति नामक जिस नाट्य दल के साथ मैंने पटना के नुक्कडों पर नाटक करना शुरू किया था उससे किसी कारणवश मोह भंग हो चुका था। मैं अब एक नए और ऐसे ठिकाने की तलाश था; जहाँ रहकर रंगमंच की बारीकियां सीख सकूँ। यह ठिकाना बना विजय कुमार द्वारा संचालित मंच आर्ट ग्रुप। विजय कुमार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) से प्रशिक्षित थे। हालांकि उस वक्त मैं रानावि के अस्तित्व से पुरी तरह अपरिचित था। मेरी मुलाकात विजय कुमार से हुई और उन्होंने मुझे दूसरे दिन प्रेमचंद रंगशाला आने को कहा। नाटक का पूर्वाभ्यास उस वक्त खंडहरनुमा प्रेमचंद रंगशाला में हो रहा था। मंच आर्ट ग्रुप के बैनर तले विजय कुमार के निर्देशन में भीष्म साहनी की इस कहानी का पूर्वाभ्यास शुरू हुआ। मैं पुरे नाटक में मंच पर ही रहता था किन्तु केवल एक ही संवाद बोलता था, वो भी जैसे-तैसे। इस प्रस्तुति ने ही मेरे वास्ते पटना रंगमंच के तथाकथित मुख्यधारा में प्रवेश का द्वारा खोला इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
छः साल बाद पुनः एक मौका मिला कि भीष्म साहनी की कोई रचना को मैं निर्देशित करूँ। इन छः सालों के दरमियां मैंने दस्तक नाम से अपना नाट्य दल गठित कर नाटकों को निर्देशित करना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही उक्त दिनों मैं पटना के विभिन्न नाट्यदलों के साथ ही साथ प्रसिद्द नाट्य निर्देशक संजय उपाध्याय द्वारा संचालित निर्माण कला मंच से भी जुड़ा था और भीष्म साहनी कौन हैं इस बात से अब अपरिचित भी नहीं था। सन 2003 का साल था। इसी वर्ष 11 जुलाई को भीष्म साहनी का निधन हुआ था। इसलिए तय हुआ कि इन्हें श्रधांजलि देने के लिए निर्माण कला मंच से जुड़े तीन लोग इनकी तीन कहानियों का एक सेट तैयार करेंगें जिसका मंचन निर्माण कला मंच की पन्द्रवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित होने वाले वार्षिकोत्सव’03 में किया जाएगा। इसीलिए शारदा सिंह ने चीफ़ की दावत, प्रशांत कुमार ने अमृतसर आ गया और मैंने लीला नंदलाल की नामक कहानी का चयन किया। अब मेरा यह चयन महज एक संयोग तो नहीं ही हो सकता है। वैसे भी जिस कहानी की एक छोटी सी भूमिका से मैंने पटना रंगमंच पर अपनी मंचीय यात्रा शुरू की थी आज उसी कहानी को निर्देशित करना एक रोमांचक अनुभव होने वाला था। वैसे मुझे इनकी यह कहानी आज भी बेहद प्रिय है और यदि मौका मिले तो इसे बार-बार अलग-अलग तरीके से निर्देशित भी करना चाहूँगा। वैसे पटना में ही इनके नाटक कबीरा खड़ा बाज़ार में, हानूश और माधवी का सफल मंचन देखने का अवसर मिल चुका था और इनकी अन्य रचनाएं जैसे मुआबज़े, तमस, मय्यादास की माड़ी आदि पढ़ भी चुका था।
तो आखिर क्या खास है इस कहानी में? यह कहानी स्कूटर चोरी जैसी एक अति साधारण सी प्रतीत होनेवाली घटना के माध्यम से किस-किस की खबर नहीं लेती। परिवार, समाज, कानून-व्यस्था आदि आदि। तो किस्सा यह कि एक व्यक्ति का स्कूटर चोरी हो जाता है। फ़ौरन पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने के पश्चात् जब यह बात वो अपने घरवालों को बताता है तो घरवाले इस घटना के लिए उसे ही ज़िम्मेदार मानते हैं। फिर शुरू होता है बीमा कंपनी और पुलिस का चक्कर। पुलिसवाले इस मामले को पहले तो टालते हैं फिर पैरवी लगाने के पश्चात् थोड़ा भाव देते हैं। स्कूटर की तलाश शुरू होती है। पता चलता है कि एक बाड़े में कई अन्य वाहनों के साथ स्कूटर रखा हुआ है। वो व्यक्ति बाड़े में जाता है तो वहां उसकी मुलाकात दयाराम नामक वाहन चोर से होता है। दयाराम को अपने कृत्य पर शर्म नहीं बल्कि गर्व है। फिर शुरू होता है पुलिस, कोर्ट का ऐसे घुमावदार चक्कर जिसके भंवर में फंसकर सब सफ़ेद वालों के मालिक हो जाते हैं और स्कूटर पेशी दर पेशी पेश होता हुआ एक खटारा में तबदील हो जाता है। पर पेशियों का सिलसिला बदस्तूर कायम है।
इस कथा के माध्यम से भीष्म साहनी ने हल्के-फुल्के हास्य के द्वारा क्या एक गंभीर कथा नहीं कहते हैं? यह कहानी इस बात का घोतक भी नहीं है कि वे एक ऐसे गंभीर लेखक हैं जिनकी पकड़ हास्य-व्यंग नामक विधा पर भी है? वैसे यह एक बहुत ही गलत मान्यता है कि हास्य-व्यंग्य एक गंभीर विषय नहीं है।
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि को बिना उसके फॉर्म में कोई बदलाव किए मंचित करना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। क्योंकि इनकी रचना व्यक्तिगत पाठ के लिए होता है सामूहिक प्रदर्शन के लिए नहीं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि व्यक्ति से व्यक्तिगत रूप से साक्षात्कार करती है जबकि नाट्य-प्रदर्शन एक सामूहिक कला है। यहाँ लेखक के लिखे शब्दों को निर्देशक और परिकल्पक के निर्देशों और परिकल्पनाओं को आत्मसाथ करते हुए अभिनेता दर्शक समूह के लिए एक सामुहिक कला का सृजन कर रहा होता है। इसलिए कह सकते हैं कि जब कोई नाट्य-दल या निर्देशक कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि को मंचित करने का निर्णय लेता है तो वह चीज़ों को व्यक्तिगत से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रूप का रूपांतरण कर रहा होता है। वैसे भी मेरी रूचि हमेशा से ही लिखे-लिखाए नाटकों से ज़्यादा कविता, कहानियों, उपन्यासों को मंच पर उतारने में रही है। बहुत अच्छे से लिखा नाटक अपने आप ही एक दायरा बनाता है और मुझे दायरे पसंद नहीं।
लीला नंदलाल की कहानी को मंच पर रूपांतरित करते हुए सबसे पहली इस बात का ध्यान रखना था कि यह मेरे द्वारा पूर्व में अभिनीत प्रस्तुति की कार्बन कॉपी ना हो और दूसरी बात यह कि हमें केवल कहानी का पाठ नहीं करना बल्कि ऐसे नाटकीय दृश्यबंध भी तैयार करने हैं जो प्रस्तुति को नाटकीयता और भव्यता दोनों ही प्रदान करे। फिर बहुत दिनों से मन में पॉपुलर एलिमेंट्स को नाटक में प्रयोग करने की भी दिली इच्छा थी। जिसे विद्वानों द्वारा क्लिशे कहा जाता है। मन में बार-बार यह प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता रहता कि क्या क्लिशे के सावधानी पूर्वक प्रयोग से कोई सार्थक नाट्य प्रस्तुति नहीं गढ़ी जा सकती है। आखिरकार हमने अभिनेताओं के दल के साथ इसका प्रयोग शुरू किया। चंद ही रोज़ में परिणाम भी आने लगा। नायक अपनी पत्नी को स्कूटर पर बैठता है। पत्नी बड़े प्यार से नायक को देखती है और बैकग्राउंड में किशोर दा का गाना बजने लगता है – कोर कागज़ था ये मन मेरा। कहानी स्कूटर की थी तो मंच पर स्कूटर के साथ ही साथ कई अन्य दोपहिया वाहनों का प्रयोग किया गया। कुछ फ़िल्मी और प्राइवेट एलबम के गाने भी जोड़े गए और उन गानों पर कहानी के अनुरूप ही व्यंगात्मक दृश्यबंध तैयार किया गया। विलेन की इंट्री पर पूरा फ़िल्मी माहौल भी बनाया गया – सफ़ेद सूट, छिला हुआ सिर, मंच पर धुँआ और बैकग्राउंड में विलेनियाँ संगीत। कुल मिलाकर यह स्वयं मेरे और मेरे अभिनेताओं लिए एक अनूठा अनुभव था और शायद दर्शकों के लिए भी। यही हमारी भीष्म साहनी को श्रधांजलि भी। आज इस प्रस्तुति को याद करते हुए इसके मुख्य अभिनेता प्रवीण की याद बार-बार आ जाती है जिसकी निर्मम हत्या उसके ही मोहल्ले के कुछ सडक छाप गुंडों ने बेवजह ही कर दिया था।

भीष्म साहनी अर्थात एक ऐसा नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार जिन्हें किसी भी एक बने बनाए सांचे में नहीं डाला जा सकता। इनसे जुड़ी एक और इच्छा जो कई सालों से मेरे अभिनेता मन में पल रही है है वो यह कि इनके नाटक नाटक कबीरा खड़ा बाज़ार में मैं कबीर की भूमिका का करूँ। यह इच्छा मुझ जैसे न जाने कितने अभिनेताओं के दिलों पर आज भी राज कर रहा होगा। हां, यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि आज के समय में भीष्म साहनी जैसे रचनाकार की उपयोगिता पहले से कहीं ज़्यादा है। इनकी रचनाओं को बार-बार पढ़ा-पढ़ाया, समझा-समझाया जाय, इनके नाटकों, कहानियों, उपन्यासों का बार-बार मंचन किया जाय, यही इस रचनाकार के प्रति हमारी सच्ची श्रधांजलि होगी।

Friday, January 29, 2016

हिंदी रंगमंच और महाभोज


हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा, इसकी मुझे और सजा मिलेगी  । – अंधेरे में, मुक्तिबोध
हिंदी रंगमंच के सन्दर्भ में एक बात जो साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती है वो यह कि वह ज़्यादातर समकालीन सवालों और चुनौतियों से आंख चुराने में ही अपनी भलाई देखता है । नाटक यदि समकालीन सवालों को उठता भी है तो उसकी पृष्ठभूमि या पात्र अमूमन इतिहास के पन्नों से निकलके सामने आते हैं और आम बोल-चाल की भाषा के बजाय हिंदी की पंडिताई भाषा और परिवेश से सराबोर होते हैं । नकली एतिहासिकता का चोला धारण किए और दादा की बात पोते से करनेवाले ऐसे नाटक आधुनिक नाटक क्यों कहे जाते हैं और समकालीन भारतीय हिंदी रंगमंच और रंगकर्मी समकालीन सवालों और चरित्रों का सीधा-सीधा साक्षात्कार करने से परहेज़ क्यों करते हैं? यह सवाल एक बार आधुनिक भारतीय नाटक पढानेवाले से पूछा तो टका सा जवाब मिला कि “नाटक एक “कला” है, कोई अखबार की कतरन नहीं कि घटना हुई नहीं कि उसे मंच पर प्रस्तुत कर दिया जाय ।” इस जवाब से संतुष्ट होना संभव नहीं । यह निश्चित रूप से सवाल का सही जवाब नहीं है । यदि होता तो विश्व के प्रसिद्द नॉबेल पुरस्कार विजेता नाटककार दरियो फ़ो यह न कहते  – “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है ।” 
हिंदी रंगमंच सदा ही समकालीन सवालों से कतराता रहता है, ऐसा कहना भी निश्चित रूप से एक अतिशयोक्ति ही होगी । यह समस्या ज़्यादातर तथाकथित मुख्यधारा, महानगरीय और अकादमिक रंगमंच वाले स्थानों की है । कारकों की पड़ताल की जाय तो इसका एक मुख्य कारक जो समझ में आता है वो यह कि वैचारिक शून्यता से सराबोर हिंदी रंगमंच कुछ अपवादों को छोड़कर अमूमन आज भी एक परजीवी के रूप में ही जीवित और सामाजिक सरोकार से लगभग दूर है । वहीं लोग भी यही मानते हैं या उन्हें यह मनवा दिया गया है कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि का कार्य मनोरंजन मात्र है । कलावाद का भी एक समृद्ध और स्वयम्भू इतिहास रहा है, तो इस इतिहास के मोह से निकलना भी उतना आसान भी नहीं । समकालीन सवालों से सीधे साक्षात्कार का अर्थ है जलते अंगारों पर हाथ रखना, अपने लिए और अपनों के लिए चुनौतियों और जिम्मेदारियों का दामन थामना । हो सकता है इन सबके लिए रंगकर्मी और समाज तैयार ना हो । किन्तु सभी ऐसे नहीं हैं । रंगकर्मियों का एक वर्ग रंगमंच को केवल एक कला मात्र नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक हथियार भी मानता है । यह बात अलग है कि इन रंगकर्मियों की स्थिति भी आज निराशाजनक ही है । फिर भी मंच पर समय-समय पर समकालीन सवाल पूरी कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ प्रकट हुए और यह परम्परा आज भी कमोवेश बनी हुई है । इन अभिव्यक्तियों को रंगकर्मियों, दर्शकों और नाट्य-समीक्षकों का अपार स्नेह भी हासिल हुआ । मन्नू भंडारी का नाटक महाभोज समकालीन सवालों और जलते अंगारों को छूने की एक ऐसी ही कोशिश थी/है । 
आज़ादी के जश्न का भोज खत्म हो चुका था । गांधीवाद अनुकरणीय कम, पूजनीय ज़्यादा की उपाधि प्राप्त कर चुका था, साम्यवादी गलियारे या तो कांग्रेस के दरवाज़े पर जाकर खत्म हो जा रहे थे या फिर बारूद के गोदाम में, देश आपातकाल का स्वाद चख रहा था । कई गणमान्य चेहरों से नकाब उतर चुके थे और सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर एक नए किस्म की अराजकता ने अपना पासा फेंक दिया था । मतलब कि महाभोज की पृष्ठभूमि तैयार थी ।  
मन्नू भंडारी लिखित महाभोज पहले उपन्यास के रूप में छपा ततपश्चात नाटक के रूप में आया । यह हिंदी साहित्य की शायद एकमात्र कृति है जो उपन्यास और नाटक दोनों ही रूपों में मंच पर सफलतापूर्वक मंचित हुआ । प्रसिद्द नाट्य निर्देशक और कहानी का रंगमंच नामक विधा के प्रणेता के रूप में विख्यात देवेन्द्र राज अंकुर ने इसे अपने नाट्यदल के साथ उपन्यास के रूप में मंचित किया तो अमाल अलाना के निर्देशन में पहली बार इसे नाटक के रूप में खेला गया । तत्पश्चात देश के कई प्रसिद्द नाट्य निर्देशकों ने भी इसे नाटक के रूप में मंचित किया । लगभग तीस प्रमुख पात्रों और ग्यारह दृश्यों में समाहित इस नाटक को हिंदी प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई नाट्य केंद्र हो जहां मंचन न हुआ हो । बिहार की राजधानी और हिंदी रंगमंच का एक प्रमुख केन्द्र पटना में इसका एक मंचन सन 1984 में इप्टा के बैनर तले परवेज़ अख्तर के निर्देशन में भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुक्ताकाशी मंच पर हुआ था । जिसका इतिहास आज भी बिहार रंगमंच पन्नों और दर्शकों की स्मृतियों में अंकित है । उस प्रस्तुति में दा साहब की भूमिका निभानेवाले चर्चित रंगमंच और फिल्म अभिनेता विनीत कुमार बताते हैं – “वह हिंदी रंगमंच के महानगरीय संस्करण का स्वर्णिम काल था । देश की राजधानी समेत कई अन्य शहरों में रंगमंच अपने जूनून के घोड़े पर सवार हो पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था । पटना के अलग अलग नाट्यदलों के लगभग 80 अभिनेता इस नाटक में कार्यरत थे । भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुक्ताकाश मंच पर विशाल सेट लगाया गया था । मैं खुद जोराबर की भूमिका करना चाहता था लेकिन निर्देशक ने दा साहेब की भूमिका के लिए चयन किया । वैसे इस नाटक के हर चरित्र का अपना एक अलग ही महत्व और सुर है । दा साहेब की भूमिका करते हुए मैंने पाया कि यह चरित्र कठोर से कठोरतम बात भी कोमल स्वर में बोलता है, केवल एक स्थान पर इसका स्वर तीब्र या शुद्ध लगता है । इस नाटक के एक साथ कुल पांच या छः मंचन हुए और सबके सब शो हाउसफुल । जैसे पूरा शहर ही नाटक देखने उमड़ पड़ा हो ।”   
महाभोज नामक यह उपन्यास नाटक का रूप धरकर बेहद चर्चित, सुदृढ़ और सार्थक हुआ । सरोहा नामक गांव की पृष्टभूमि और बिसू की हत्या की विसात पर बिछी इस नाटक की कथा में वर्णित दा साहेब, जमना बहन, जोराबर, बिंदा, रूक्मा, महेश, थानेदार, दत्ता बाबू, सुकुल बाबू, नरोत्तम, सक्सेना, हीरा आदि चरित्र हिंदी रंगमंच के अग्रणी चरित्रों में से एक हैं, जिन्हें अभिनीत करते हुए कोई भी अभिनेता गौरवान्वित महसूस करता है । नई रंगचेतना और हिंदी नाटककार नामक पुस्तक में रंगचिन्तक जयदेव तनेजा लिखते हैं -  “समकालीन जीवन और परिवेश को विविध स्तरों पर प्रामाणिक और निर्धारित करनेवाले सत्ता व्यवस्था के ऊपर से भोले एवं मासूम किन्तु भीतर से क्रूर और घिनौने चेहरे को निर्ममता से बेनकाब करनेवाला सुप्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी का स्थिति प्रधान राजनैतिक उपन्यास महाभोज नाट्य रूपांतरित एवं अभिमंचित होकर अभूतपूर्व चर्चा का विषय बना ।”
लेखिका मूलतः नाटककार नहीं हैं । निश्चित ही नाट्य निर्देशिका अमाल अलाना और महाभोज को मंच पर पहली बार प्रस्तुत करनेवाली नाट्यदल ने नाट्य लेखन में भी भरपूर सहयोग और सलाह दिए होंगें । इसमें कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि नाटक एक सामूहिक कला है । यहाँ हर प्रकार का सृजन समूह में आकर ही अंतिम आकार लेता है । एक सामूहिक कला निश्चित रूप से एक दूसरे के सार्थक सहयोग से ऊर्जा और दिशा ग्रहण करता है । नाट्यालेख नाट्य-प्रस्तुति का मूल-आधार है और कोई भी नाट्य रचना दर्शकों के समक्ष मंच पर प्रदर्शित होकर ही अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त होती है । इसलिए नए नाट्यालेख को एक कुशल और मंचीय आकार बनने के लिए निर्देशक, अभिनेता व अन्य लोगों का सार्थक सहयोग एक अनिवार्य शर्त भी बन जाती है । यह सहयोग निश्चित ही मन्नू भंडारी को मिला और परिणामस्वरूप भारतीय नाट्य साहित्य को महाभोज नामक एक अनुपम और निहायत ही ज़रूरी रचना की जन्म हुआ । जिसे देखना, पढ़ना, सुनना केवल रोचक और कलात्मक ही नहीं बल्कि सत्य से साक्षात्कार और एक तकलीफ़देह अनुभूति भी है । इस अनुभूति के बीज भारतीय व्यवस्था के अंदर ही प्रमुखता से मौजूद हैं और आज तो और भी बेशर्मी की हद तक मुखर हो गए हैं । अभिनेता विनीत कुमार कहते हैं – “अब तो दा साहब नामक चरित्र भारतीय राजनीति में खत्म से ही हो गए हैं, अब जिधर देखिए उधर जोराबर राज कर रहे हैं ।”
महाभोज का बीज सूत्र 1977 में घटित बिहार के पटना जिले का बेलछी नरसंहार है । इस नरसंहार में दर्जन भर से ज़्यादा लोगों की निर्मम हत्या की गई थी । कुछ लोगों को ज़िंदा तक जला दिया गया था । यह अंग्रेजों से आज़ादी के बाद दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार था । यह वही काल था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस ने पराजय झेली थी और बिहार में 1974 के आंदोलन के फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी । लेखिका ने बेलछी की इस घटना की रिपोर्ट किसी अख़बार में पढ़ी और महाभोज नामक उपन्यास के बीज उनके मन में अंकुरित होने लगे । वैसे, बेलछी की इस घटना के कई संस्करण हैं । सम्पूर्ण क्रांति के समर्थक इसे जनता पार्टी की सरकार को बदनाम करने की साजिश के तौर पर देखते हैं, तो जानकार बताते हैं कि यह दरअसल राजनीतिक शह प्राप्त दो आपराधिक गुटों की आपसी रंजिश का नतीज़ा था जिसे एक राजनीतिक स्वार्थ के तहत दलित संहार के रूप में भी प्रचारित किया गया । वहीं यह घटना इंदिरा गांधी की अति-नाटकीय बेलछी यात्रा के लिए भी इतिहास में दर्ज़ है, जहाँ श्रीमती गांधी हाथी पर सवार होकर नरसंहार पीडितों के दुःख दर्द बांटने गईं थी । कुल मिलाकर इतना तो कहा जा सकता है कि यह भारत की आजादी के सपनों से मोहभंग, कानून और न्याय व्यवस्था के पतन, सत्ता और व्यवस्था का अपराधीकरण और लोकतंत्र के चौथे खम्भे के शर्मनाक तरीके से चरमराने का काल था । व्यवस्था क्रूरता और अमानवीयता का एक से एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी और जनता केवल वोटर मात्र के रूप में परिणित हो जाने को अभिशप्त कर दिए गए थे । यही बात मन्नू भंडारी के उपन्यास और नाटक के मूल में है । एक ऐसे समय में महाभोज नामक इस कृति का आना अपने आपमें एक सुखद घटना थी । ब्रेख्त के शब्दों को थोड़ा फेरबदल करके कहा जाय तो यह अंधेरे समय में, अंधरे के बारे में गीत था । मन्नू भंडारी की यह कृति भारतीय रंगमंच में एक एतिहासिक महत्व की परिघटना है, लेकिन दुखद सच यह है कि नाटक में वर्णित स्थितियां-परिस्थितियां सुधरने के बजाय कहने, सुनने, देखने, समझने की तमाम सीमाओं को पार कर शर्मनाक रूप से क्रूर से क्रूरतम रूप धारण कर आज ज़रूरत से ज़्यादा खतरनाक और अराजक हो गई हैं । यह ऐसा समय है जब देशभक्ति की परिभाषाएँ बदल दी गई हैं । एक से एक आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक घोटालों और नैतिक पतनों पर फ़ाइल के फ़ाइल भरे पड़े हैं । मूर्खता और उदंडता ने हमारी मौन स्वीकृति के फलस्वरूप क्रूरतापूर्वक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है और मानवता और लोकतंत्र बिसू की लाश के रूप में परिणत होने को अभिशप्त बना दी गई हैं । ऐसे समय में महाभोज जैसी कृति का महत्व और ज़्यादा भी ज़्यादा बढ़ जाता है ।

Friday, January 15, 2016

धूमिल की पटकथा की रंगमंचीय प्रस्तुति

दस्तक की प्रस्तुति सुदामा पांडेय धूमिल लिखित
पटकथा
आशुतोष अभिज्ञ का एकल अभिनय
प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार
ध्वनि संचालन – आकाश कुमार
पोस्टर/ब्रोशर – प्रदीप्त मिश्रा
पूर्वाभ्यास प्रभारी – रानू बाबू
प्रकाश परिकल्पना – पुंज प्रकाश
सहयोग –  हरिशंकर रवि, राहुल कुमार, राग, विश्वा, बिहार आर्ट थियेटर व पटना के तमाम रंगकर्मी.
परिकल्पना व निर्देशन - पुंज प्रकाश

पटकथा के बारे में
पटकथा हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक है जो आम अवाम के सपने, देश की आज़ादी और उसके सपनों के बिखराव की पड़ताल करती है। देश की आज़ादी से देश आम आवाम ने भी कुछ सपने पाल रखे थे किन्तु उनके सपने पुरे से ज़्यादा अधूरे रह गए। अब अपनी ही चुनी सरकार कभी क्षेत्रीय हित, साम्प्रदायिकता, तो कभी धर्म, भाषा, सुरक्षा, तो कभी लुभावने जुमलों के नाम पर लोगों और उनके सपनों का दोहन कर रही है। इस कविता के माध्यम से धूमिल व्यवस्था के इसी शोषण चक्र को उजागर करने के साथ ही लोगो को नया सोचने, समझने तथा विचारयुक्त होकर सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की प्रेरणा भी देते हैं। कहा जा सकता है कि पटकथा प्रजातंत्र के नाम पर खुली भिन्न – भिन्न प्रकार के बेवफाई की बेरहम दुकानों से मोहभंग और कुछ नया रचने के आह्वान की कविता है। यह कविता बेरहमी, बेदर्दी और बेबाकी से कई धाराओं और विचारधाराओं और उसके नाम के माला जाप करने वालों के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है; वहीं आम आदमी की अज्ञानता-युक्त शराफत भरी कायरता पर भी क्रूरता पूर्वक सवाल करती है।
नाट्य दल के बारे में
रंगकर्मियों को सृजनात्मक, सकारात्मक माहौल एवं रंगप्रेमियों को सार्थक, सृजनात्मक और उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन प्रदान करने के उद्देश्य से “दस्तक” की स्थापना सन 2 दिसम्बर 2002 को हुई। दस्तक ने अब तक मेरे सपने वापस करो (संजय कुंदन की कहानी), गुजरात (गुजरात दंगे पर आधारित विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे (मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don Quixote पर आधारित नाटक), राम सजीवन की प्रेम कथा (उदय प्रकाश की कहानी), एक लड़की पांच दीवाने (हरिशंकर परसाई की कहानी), एक और दुर्घटना (दरियो फ़ो लिखित नाटक) आदि नाटकों का कुशलतापूर्वक मंचन किया है।
दस्तक का उद्देश्य केवल नाटकों का मंचन करना ही नहीं बल्कि कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को परिष्कृत करना और नाट्यप्रेमियों तक समसामयिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति प्रस्तुत करना भी है। रंगमंच एवं विभिन्न कला माध्यमों पर आधारित ब्लॉग मंडली का भी संचालन दस्तक द्वारा किया जाता है।
लेखक के बारे में
धूमिल का जन्म वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था। उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था। सन् 1958 में आईटीआई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विद्युत अनुदेशक बन गये। 38 वर्ष की अल्पायु मे ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई। मरणोपरांत उन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।
सन 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करने वाले अंत्यत प्रभावशाली कवि है। उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड़ में जो हृदय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं। कवि धूमिल यह भी जानते हैं कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लिये इन सबका उपयोग करती है, इसलिये वे इन सबका विरोध करते हैं। इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रमकता मिलती है। किंतु उससे उनकी कविता की प्रभावशीलता बढती है। धूमिल अकविता आन्दोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। वो अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते है जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है। उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के अधिकाधिक निकट लाती है। इनके कुल तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं - संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।
अभिनेता के बारे में 
आशुतोष अभिज्ञ; पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में ऑनर्स और पिछले लगभग सात वर्षों से नाट्य अभिनय के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस अवधी में इन्होने अब तक कई शौकिया और व्यावसायिक नाट्य दलों के साथ अभिनय किया। रंगमंच के क्षेत्र में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008-10 का यंग आर्टिस्ट स्कॉलरशिप अवार्ड से भी सम्मानित। इनके द्वारा अभिनीत उल्लेखनीय नाटकों में रोमियो जूलियट और अंधेरा, होली, डाकघर, जहाजी, बाबूजी, दुलारी बाई, हमज़मीन, निमोछिया, एन इवनिंग ट्री, अगली शताब्दी में प्यार का रिहर्सल, बेबी, उसने कहा था, नटमेठिया आदि प्रमुख हैं।
निर्देशक के बारे में
सन 1994 से रंगमंच के क्षेत्र में लगातार सक्रिय अभिनेता, निर्देशक, लेखक, अभिनय प्रशिक्षक। मगध विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में ऑनर्स। नाट्यदल दस्तक के संस्थापक सदस्य। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के सत्र 2004 – 07 में अभिनय विषय में विशेषज्ञता। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में सन 2007-12 तक बतौर अभिनेता कार्यरत। अब तक देश के कई प्रतिष्ठित अभिनेताओं, रंगकर्मियों के साथ कार्य। एक और दुर्घटना, मरणोपरांत, एक था गधा, अंधेर नगरी, ये आदमी ये चूहे, मेरे सपने वापस करो, गुजरात, हाय सपना रे, लीला नंदलाल की, राम सजीवन की प्रेमकथा, पॉल गोमरा का स्कूटर, चरणदास चोर, जो रात हमने गुजारी मरके आदि नाट्य प्रस्तुतियों का निर्देशन तथा कई नाटकों की प्रकाश परिकल्पना, रूप सज्जा एवं संगीत निर्देशन। कृशन चंदर के उपन्यास दादर पुल के बच्चे, महाश्वेता देवी का उपन्यास बनिया बहू, फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास परती परिकथा एवं कहानी तीसरी कसम व रसप्रिया पर आधारित नाटक तीसरी कसम, संजीव के उपन्यास सूत्रधार, भिखारी ठाकुर रचनावली, कबीर के निर्गुण, रामचरितमानस को आधार बनाकर भिखारी ठाकुर के जीवन व रचनाकर्म पर आधारित नाटक नटमेठिया सहित मौलिक नाटक भूख और विंडो उर्फ़ खिड़की जो बंद रहती है का लेखन।
देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं मे रंगमंच, फिल्म व अन्य सामाजिक विषयों पर लेखों के प्रकाशन के साथ ही साथ कहानियों और कविताओं का भी लेखन व प्रकाशन। वर्तमान में रंगमंच की कुरीतियों पर आधारित व्यंग्य पुस्तक आधुनिक नाट्यशास्त्र उर्फ़ रंगमंच की आखिरी किताब की रचना सहित कई नाटकों के अभिनय में व्यस्त हैं। रंगमंच सहित विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक विषयों पर आधारी डायरी (www.daayari.bolgspot.com) नामक ब्लॉग के ब्लॉगर और पठन – पाठन और लेखन में विशेष रूचि रखनेवाले एक स्वतंत्र, यायावर रंगकर्मी, लेखक व अभिनय प्रशिक्षक के रूप में सतत कार्यरत हैं।
निर्देशकीय - पटकथा के बहाने
हिंदी रंगमंच में ग्रुप थियेटर पतन के साथ ही साथ सिखाने सिखाने की समृद्ध परंपरा का भी सबसे ज़्यादा ह्रास हुआ है। विभिन्न प्रकार के महोत्सवों ने एक ओर जहाँ नाटकों की प्रस्तुति की संख्या में इजाफा तो किया है लेकिन एक खास प्रकार का गणित भी रचा है, जिसमें नाटक एक उत्पाद के रूप में विकसित हो रहा है और निर्देशक प्रबंधक के रूप में परिवर्तित होने को भी अभिशप्त हुआ है। नाटकों का आदान प्रदान भी शुरू हुआ है और निर्देशक यात्रा को ध्यान में रखकर भी नाटकों की परिकल्पना करने लगे हैं। वहीं अब लोगों के पास अभिनेता को प्रशिक्षित करने का समय नहीं है। वहीं ऐसे अभिनेताओं की पुरी की पुरी जामत इकठ्ठा हो गई है जो सीखने सीखाने के बजाय खाने कमाने को ज़्यादा तबज्जो देते हैं।
सवाल यह कि एक पेशेवर परिकल्पक और निर्देशक अभिनेता प्रशिक्षण में अपना वक्त जाया क्यों करे? क्या यह उसका काम है? बिलकुल नहीं। फिर ग्रुप थियेटर तो है नहीं कि संस्थाओं के सदस्य होगें और वही इस समूह के नाटकों में अभिनय करेंगें। अब निर्देशक या परिकल्पक अपनी ज़रूरत के अनुसार अभिनेताओं को जमा करता और नाटक रूपी एक प्रोडक्ट तैयार करता है। ऐसे समय में अभिनय प्रशिक्षण का काम निश्चित रूप से अनुभवी अभिनेताओं और अभिनय प्रशिक्षकों को ही करना चाहिए क्योंकि इस तथाकथित पेशेवर समय में परिकल्पक और निर्देशक अभिनय और उससे जुडी समस्याओं के जानकार हों, यह ज़रूरी नहीं। वैसे भी जिसका जो कार्य है उसे ही वह शोभता है; और फिर इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि अभिनय प्रशिक्षण अपने आपमें एक अलग और बृहद विषय है।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमने अभिनेता के साथ अलग से कार्य करना शुरू किया और योजना बनाई कि जो भी अभिनेता सीखने सिखाने की परंपरा में विश्वास रखता हो और पूरी लग्न और मेहनत से रंगमंच की बारीकियां समझने को तत्पर हो, उनके साथ कार्य किया जाय। इसी सोच की परिणति है यह प्रस्तुति। यहाँ प्रस्तुति की सफलता असफलता से ज्यादा महत्व निश्चित रूप से प्रक्रिया की है; कम से कम हमारे लिए तो है ही।
एक कवि ह्रदय अक्खड़ व्यक्ति और वर्तमान राजनितिक परिवेश की विडम्बनाओं को प्रतिविम्बित करता हिंदी के प्रसिद्द कवि धूमिल लिखित इस चर्चित कविता को केवल एक अभिनेता के साथ प्रस्तुत करना निश्चित ही एक दुरूह कार्य है। लेकिन मज़ा तो न सध पाने वाली बातों को ही साधने में है। हमने तो अपनी बुद्दी, विवेक और समझ से इसकी लगाम साधते और कलात्मक चुनौतियों का सामना करते हुए भरपूर पीड़ादायक आनंद और तनावपूर्ण रचनाशीलता का मज़ा लिया। उम्मीद है यह अनुभूति आप तक भी पहुंचे। बहरहाल, महीनों समझने, बुझने, गुनने और पसीना बहाने के पश्चात् जो कुछ भी बन पड़ा अब आपके समक्ष प्रस्तुत है। हाँ एक बात तो निश्चित है कि “मनोरंजन” मात्र हमारा उदेश्य को कदापि नहीं है। प्रस्तुति के उद्देश्य को समझकर अपने विवेक से निर्णय करना आपका अधिकार है और सदा रहेगा। 

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...