Thursday, July 30, 2015

प्रगतिशील और क्रांतिकारी लोग गलती नहीं बल्कि ऐतिहासिक गलतियां करते हैं!

कार्ल मार्क्स ने प्रिय कवि के रूप में ग्रीक नाटककार और कवि एक्सकिलस, विश्वप्रसिद्ध अँगरेज़ कवि व नाटककार शेक्सपियर, और गेटे का नाम लिया और प्रिय गद्य लेखक के रूप में दिदारो का। फ्रेडरिक ऐंगल्स कवि के रूप में दे वोस, शेक्सपियर, आरिओस्टो और गद्यकार के रूप में गेटे, लेसिंग, ड़ॉ. जामेलसन का ज़िक्र करते हैं। लेकिन "भारतीय अति-क्रांतिकारियों" और "ज़रूरत से ज़्यादा प्रगतिशील" लोगों को इन सभी के अलावे वेद, पुराण, बुद्ध, महाबीर, तुलसी, कबीर, सूर, व्यास, वाल्मीकि, भास, शूद्रक, कालिदास, ग़ालिब, मीर, मोमिन, भारतेंदु, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि से बिना जाने, पढ़े, गुने ही लगभग नफ़रत है। वे इन्हें बुर्जुआ, यथास्थितवादि, सामंती मानसिकता से ग्रसित और पता नहीं किन किन मूर्खतापूर्ण उपाधियों से बिना पढ़े ही नवाज़ देते हैं। वो यदा कदा पाश, मुक्तिबोध, धूमिल, परसाई, गोरख पांडे आदि के नाम तो ले लेते हैं लेकिन यहाँ भी लगभग एहसानी मुद्रा ही अपनाए रहते हैं; जैसे इनके प्रमाणपत्र के बिना उपरोक्त लेखकों की सार्थकता ही मैली हो जाएंगीं। वैसे प्रमाणपत्र बाँटते इन महानुभावों को इनकी बस उन चार-चार पंक्तियों से ही स्नेह है जो यदा-कदा इन्हें अपनी बात को सही साबित करने के लिए कोट करने के काम आते हैं। उदाहरणार्थ - अब उठाने ही होंगें अभिव्यक्ति के खतरे। इन पंक्तियों के अलावा मुक्तिबोध आज भी इनके लिए अँधेरे में ही हैं।
अब ऐसे महाविद्वान लोग यदि पंडित रविशंकर और कलाम को सशर्त श्रद्धांजलि प्रस्तुत करने का सहस करते भी हैं तो इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पंडित रविशंकर इनके लिए एक कलाकार नहीं बल्कि सामन्ती कला के पोषक हैं और कलाम एक वैज्ञानिक, शिक्षक और भारत के राष्ट्रपति नहीं बल्कि मिडिया द्वारा प्रसिद्द किया गया नाम यानी मिसाइल मैन हैं।
मार्क्स सादगी और एंगेल्स प्रफुल्लता को इंसान का मूल्यवान गुण मानते हैं लेकिन यह बेचारे अतिक्रान्तिकारी-प्रगतिशील अपनी मूढ़ता और अज्ञानता में ही प्रसन्न हैं। उनके लिए मार्क्स का यह कथन कि Nihil humani a me alienum puto (सब मानवीय गुण-अवगुण मेरे लिए पराए नहीं हैं।) और एंगेल्स का यह कथन का कि "सब सहजता से ग्रहण करो।" का कोई अर्थ नहीं रह गया है शायद।
अब इन्हें कौन बताए कि बिना मानवतावादी हुए न तो कोई क्रांतिकारी हो सकता है ना ही प्रगतिशील। समय निकालकर भगत सिंह को ही पढ़ लेते तो यह छोटी सी बात न जाने कब की समझ में आ जाती। वैसे इनसे सार्त्र, कामू आदि पढने की चाहत भी रखना मूर्खता का ही परिचायक है। इन्होंने मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ भी पढ़ा होगा और पढ़ा तो समझा भी होगा, इसपर मुझे गहरा संदेह हैं।
मार्क्स ने सही कहा है - De omnibus dubitandum (सब कुछ संदेह योग्य है।) लेकिन यह तो मार्क्स के भी पिताश्री हैं। कहते हैं "सबकुछ संदेह योग्य है सिवाए मार्क्सवाद के। शायद ऐसे ही मूढ़ों पर खिन्न होकर मार्क्स को कहना पड़ा था - यदि ऐसे है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।
बाकि अन्य लकीर के फ़क़ीर पिटनेवाले विचारों और व्यक्तियों की पूजा करनेवालों के लिए क्या कहा जाय उनके लिए तो महामूर्खता और पिछलग्गूपना ही सबसे बड़ा संविधान और देशभक्ति का प्रमाणपत्र है। जो इनसे अलग सोचता है वो देशद्रोही है और उसे फ़ौरन ही पाकिस्तान चले जाना चाहिए!
खैर, अब यह किससे कहा जाय कि आलोचनात्मक समीक्षा एक निहायत ही ज़रूरी चीज़ है लेकिन उसके लिए सही समय, काल, परिस्थिति आदि का चयन करना ज़रूरी है। एक सीनियर कॉमरेड ने किस्सा सुनाया था - चीन में जैसे ही क्रांति हुई लाल सेना ने "धर्म जनता का अफ़ीम है" नामक सूक्ति से प्रेरणा लेकर तमाम धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। अपने पूजा और पूज्यनीय स्थलों को ध्वस्त होते देख स्थानीय जनता लाल सेना के विरुद्ध प्रतिकार करने को खड़ी हो गई। यह बात जब माओ को पता चली तो उन्होंने फ़ौरन इन स्थलों को तोड़ने से यह कहते हुए रोका कि इन स्थलों में जनता का विश्वास है। पहले एक लंबी प्रक्रिया में इनके मन में बसी सदियों पुरानी मान्यतायों और विश्वास को ख़त्म करो। यदि हम यह करने में सफल हुए तो जनता खुद ही इन स्थलों को ध्वस्त कर देंगीं। और यदि हम ऐसा न कर सके तो जनता हमारे विरुद्ध खड़ी हो जाएगी।
इतिहास हमें सुन्दर भविष्य गढ़ने की शिक्षा देता है और अपनी गलतियों से प्रेरणा भी। लेकिन इसके लिए खुले दिल और दिमाग से अध्ययन करने की आवश्यकता है। मूर्खतापूर्ण व्यवहार और वक्तव्य सनसनी तो पैदा कर सकते हैं लेकिन शायद ही कोई सुन्दर और सार्थक बदलाव का सहयात्री बन सके।
पुनश्च - माओ के बारे में उपरोक्त किस्सा सुना सुनाया है। इसकी ऐतिहासिक सत्यता का दावा करने में तत्काल मैं असमर्थ हूँ।

Wednesday, July 29, 2015

बिना मंच के भारतीय रंगमंच!

कला, संस्कृति और रंगमंच के विकास और बढ़ावा के नाम पर हर ना जाने कितने रूपए स्वाहा होते हैं; किन्तु विकास के सारे दावे ध्वस्त हो जातें हैं जब यह पता चलता है कि देश के अधिकांश शहरों में सुचारू रूप से नाटकों के मंचन के योग्य सभागार तक नहीं हैं. महानगरों में जो हैं भी वे या तो बहुत मांगें हैं या फिर जैसी-तैसी अवस्था में हैं। इसलिए इन पैसों से चंद गिने-चुने जुगाडू रंगकर्मियों और संगीत नाटक अकादमियों में बैठे बाबुओं के व्यक्तिगत विकास के अलावा शायद ही कुछ खास हो पता है। ऐसा कहा जाता है कि कला और संस्कृति किसी भी समाज का आईना होता है। यदि यह सच है तो वर्तमान में समाज और कला संस्कृति की स्थिति क्या है आप स्वयं ही अनुमान लगा सकतें हैं। हमारे भारतीय समाज की ज़रूरतों में रंगमंच का स्थान न्यूनतम से न्यूनतम है। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पुरे देश का रंगमंच मूलभूत सुविधाओं तक से अब तक महरूम है।
मानकता के पैमाने पर भारत में बहुत ही कम ऐसे सभागार हैं जो रंगमंच की दृष्टि से एकदम सही माने जा सकतें हैं। जो भी हैं उनमें से ज़्यादातर सभागार जुगाड़ भिड़ाकर नाटक के लायक किसी तरह बना भर लिए गए हैं। यहाँ जितने भी सभागार बनाये गए हैं वे मूलतः बहुआयामी उपयोग के लिए हैं। भारत के चंद गिने चुने शहरों में जहाँ रंगमंच में एक निरंतरता है वहाँ की स्थिति आंशिक रूप से कुछ बेहतर कही जा सकती है, पर वहाँ भी केवल एक या दो सभागार ही काम लायक हालत में कहे जा हैं। कई सभागार तो रख-रखाव के आभाव में धूल के भंडार में तबदील हो गए हैं। प्रकाश के उपकरण इतने बेदर्दी से टंगे होतें हैं कि कब अभिनेताओं के ऊपर गिर पड़ें पता नहीं। जहाँ तक सवाल पूर्वाभ्यास के स्थलों का है तो कभी कोई पार्क, कोई मैदान, कोई सरकारी, गैर-सरकारी स्कूल का खाली कमरा, खँडहर पड़ा कोई मकान या किसी आस्थावान रंगकर्मी का घर ही अमूमन पूर्वाभ्यास स्थल बनते हैं। आइये कुछ शहरों का जायजा लिया जाय, हिन्दुस्तानी रंगमंच का नंगा यथार्थ भी इसी के आसपास है।
मध्यप्रदेश का शहर जबलपुर। तीन सक्रिय रंग-मंडलियां हैं। साल में तीन राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव का आयोजन होता है। समागम रंगमंडल द्वारा रंग-समागम, विवेचना द्वारा रंग-परसाई व विवेचना द्वारा आयोजित राष्ट्रीय नाट्य समारोह। इन नाट्योंत्सवों में देश के अलग-अलग शहरों के नाट्यदल अपने नाटकों का प्रदर्शन करतें हैं। यहाँ कुल तीन सभागार हैं। पहला, शाहिद स्मारक ट्रस्ट का सभागार है, उसका किराया लगभग पन्द्रह हज़ार रूपया प्रतिदिन है। दूसरा, तरंग जो मध्यप्रदेश पावर मैनेजमेंट कंपनी का सभागार है, इसका किराया तीस हज़ार रुपये प्रतिदिन और तीसरा नगर निगम का सभागार मानस भवन है, जिसका किराया पच्चीस हज़ार रूपया प्रतिदिन है। किसी भी सभागार में प्रकाश और ध्वनि यंत्रों की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। जहाँ तक सवाल पूर्वाभ्यास के स्थानों का है तो उसका कोई निश्चित स्थान नहीं है। कभी किसी स्कूल का मैदान, कभी कोई हॉल यहाँ पूर्वाभ्यास स्थल बनता है।
डोंगरगढ़, मध्य प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा है। कोई सभागार नहीं है । मंच अस्थायी बनता है व पंडाल लगाना होता है । साउंड सिस्टम नजदीकी जिले से आता है तथा लाइट भिलाई से मंगाना पड़ता है। वास्तविक खर्च पचास हजार से ज्यादा बैठता है जो जनसहयोग से जैसे-तैसे जुटाया जाता है। पूर्वाभ्यास के लिए कोई जगह नहीं है।
रायगढ़, छतीसगढ़। चार-पांच लाख की आबादी वाले इस शहर में कोई रंगशाला नहीं है। पॉलिटेक्निक कॉलेज का ऑडिटोरियम है जिसे पक्के तौर पर एक सामान्य हॉल कहा जा सकता है। ऑडिटोरियम के निर्माण में किसी भी तरह की तकनीकी जरुरत का ध्यान नहीं रखा गया। वहाँ किसी भी कार्यक्रम का आयोजन आयोजक की मजबूरी है। आज उसे बने लगभग 30-32 वर्ष हुए। कभी कोई बड़ा मेंटेनेंस नहीं किया गया। सीट, ग्रीन रूम की हालत खराब है। लाइट, साउंड किसी तरह लगाया जाता है। सभागार में वेंटीलेशोंन भी नहीं है सो गर्मी के दिनों में अभिनेता-दर्शक सब पसीने में सराबोर होतें हैं। किराया है तीन हज़ार है लेकिन नाटक लायक बनाने में 12-15,000 पड़ता है। इन जुगाड़ को करने में जो मानसिक त्रास से आयोजकों को गुजरना पड़ता है उसकी कोई कीमत नहीं। इप्टा साल में दो एक आयोजन करती है , राष्ट्रीय नाट्योत्सव खुले मैदान में एक चालू हाल बना कर किया जाता है जिसमें 600-700 लोगों के बैठक व्यवस्था होती है। 5 दिनों का खर्च आता है 1,20,000 रु., याने एक दिन का खर्च 24,000 रु.। यह पूरा खर्च जन-सहयोग से जुटाया जाता है। यह आयोजन पिछले 17 साल से लगातार किया जा रहा है। जिस शहर में ऑडिटोरियम नहीं है तो पूर्वाभ्यास के लिए जगह की उम्मीद नही की जा सकती। वो तो भला हो नगर-निगम वालों का जिन्होंने अपना सभाकक्ष रिहर्सल के मुफ्त में उपलब्ध कराया है। जिस दिन इस सभागार में कोई कार्यक्रम होता है उस दिन रिहर्सल बंद। हाँ, अभी  6-7 माह पहले एक सरकारी सभागार के निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ है।
रायपुर, छत्तीसगढ़ की राजधानी। पूरी दुनियां में भारतीय रंगमंच का परचम लहरानेवाले हबीब तनवीर की कर्मभूमि। सभागार के नाम पर महाराष्ट्र मंडल का प्रेक्षागृह, कालीबाड़ी का रवीन्द्र मंच, शहीद स्मारक का प्रेक्षागृह, मेडिकल कालेज का प्रेक्षागृह और रंगमंदिर है, किन्तु इनमें से एक भी तकनीकी दृष्टि से नाट्य मंचन के लिए उपयुक्त नहीं । उसका किराया और प्रबंधकों का व्यावसायिक नजरिया रंगकर्मियों को निराश करता  है।
राँची, झारखण्ड। खनिज पदार्थों से भरे इस राज्य की राजधानी में कोई लगातार सक्रिय रंगमंच की गतिविधि नहीं है ना ही रंगमंच के लिए कोई सभागार ही है। साल में दो-चार नाटक जैसे-तैसे, जिस तीस सभागार में किसी तरह हो जातें हैं। नाटकों के पूर्वाभ्यास अमूमन किसी के घर या किसी उपलब्ध जगह पर संपन्न किया जाता है। ऐसा सुनाने में आता है कि किसी ज़माने में राँची रगमंच काफी सक्रिय था। राँची का रंगमंच हर तरह से जर्जर हालत में है। किन्तु आज भी कुछ जुनूनी लोग जैसे-तैसे साल में एकाध नाटक कर लेतें हैं।
कोटा, राजस्थान में एक रिवोल्विंग स्टेज है जो पिछले कई सालों से बंद पड़ा है। कहा तो ये भी जाता है कि यह हिंदुस्तान का पहला रिवोल्विंग स्टेज था, किन्तु इस बात में कितनी सच्चाई है इसकी परख होनी अभी बाकि है। कोटा के पास ही जबलपुर सिटी है। यहाँ भवानी नाट्यशाला हैं। जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी। आज ये भी बंद है। किसी ज़माने में यहाँ बड़े-बड़े नाटक और ऑपेरा का मंचन हुआ था। कोटा में कुल पांच सभागार हैं। सब के सब प्राइवेट। जिनका किराया 15,000 -30,000 रूपया प्रतिदिन है। वर्तमान में, केवल एक नाट्य दल एक्टिव है – पेरफिन। दर्शकों की कोई कमी नहीं है। रिहर्सल के लिए स्कूलों से मदद ली जाती है।
झाँसी और ग्वालियर, मध्यप्रदेश। झाँसी में केवल एक सभागार है जो रंगमंच क्या किसी भी कार्यक्रम के लिए उपयुक्त नहीं है। ग्वालियर में दो सभागार हैं – मेडिकल सभागार एवं एमएलबी सभागार। इनका एक दिन का किराया तीस से चालीस हज़ार रूपया है। उसपर भी लाईट और साउंड की कोई व्यवस्था नहीं है। जहाँ तक सवाल नाटकों के पूर्वाभ्यास का है तो वो किसी पार्क या किसी के घर पर की जाती है। सक्रिय नाट्य दल भी ज़्यादा नहीं हैं।
हिसार, कुरुक्षेत्र, सोनीपत हरियाणा। यहाँ जितने भी सभागार हैं वो सब स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के हैं। दो-तीन के लाईट और साउंड ठीक हैं पर वो नाटकों के लिए बहुत कम ही उपलब्ध हो पातीं हैं। सभागार का किराया दस हज़ार है पर बहुत शिफारिश के बाद ही उपलब्ध हो पाती है। नाटकों के पूर्वाभ्यास किसी छत पर, स्कूल में या कुरुक्षेत्र में मल्टी आर्ट में होतें हैं। हरियाणा में कुल सात-आठ नाट्यदल हैं किन्तु स्थिति अनुकूल नहीं है। यहाँ किसी भी शिक्षण संस्थान में रंगमंच नहीं पढ़ाया जाता।
पटना और बेगुसराय, बिहार। बिहार आजकल सुशासन की आंधी में उड़ रहा है। बेगुसराय का रंगमंच का मुख्य केंद्र दिनकर भवन है। ये भी एक कामचलाऊ सभागार है जहाँ नाटकों के प्रदर्शन और पूर्वाभ्यास होता है। प्रकाश और ध्वनि की कोई व्यवस्था नहीं है। वैसे, रिफायनरी टाउनशिप में जुबली हॉल और ऑफिसर्स क्लब में एक सभागार है जहाँ कभी-कभी नाटक होतें हैं। दिनकर भवन का एक दिन का किराया एक हज़ार रुपया है जिसे अब प्रसाशन 5000 रूपया करने जा रहा था पर स्थानीय रंगकर्मियों के विरोध की वजह से ये फैसला वापस ले लिया गया। पटना में वैसे तो नवनिर्मित प्रेमचंद रंगशाला, भारतीय नृत्य कला मंदिर, रविन्द्र भवन आदि सभागार हैं किन्तु रंगमंच का केन्द्र अभी भी कालिदास रंगालय ही है। यहाँ प्रकाश और ध्वनि की सुविधा तो है किन्तु तकनीक बहुत पुरानी है। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बिहार आर्ट थियेटर का कालिदास रंगालय पटना रंगमंच को हर संभव सहायता प्रदान करता है। वहीं तमाम आधुनिक सुविधाओं और कलाकारों के एक लंबे संघर्ष के बाद मुक्त हुआ राजकीय प्रेमचंद रंगशाला इतना ज़्यादा मंहगा और रंगमंच के प्रति उदासीन है कि बहुत कम ही रंगकर्मी वहां अपने नाटकों के प्रदर्शन के बारे में सोचतें हैं।
ये विकास का नारा बुलंद किये हिंदुस्तान के कुछ शहरों की तस्वीर है। गाँव की स्थिति का अंदाज़ा अपने आप ही लगाया जा सकता है। हिंदुस्तान का रंगमंच आज कहाँ खड़ा है।
यह है कुछ शहरों में साभगारों की स्थिति। आप अपने शहर का हाल बताइए।
आलेख में सहयोग के लिए समागम रंगमंडल (जबलपुर), दिनेश चौधरी (डोंगरगढ़), अपर्णा श्रीवास्तव (रायगढ़), मोना सिन्हा (राँची), राजेन्द्र पंचाल (कोटा), हिमांशु द्विवेदी (झाँसी), रवि मोहन (हिसार), दीपक सिन्हा (बेगुसराय) को आभार.

Tuesday, July 28, 2015

अनुदान के अँधेरे का ब्रह्मराक्षस

अपवादों को छोड़ दिया जाय तो हिंदी समाज में रंगमंच आर्थिक मामलों में कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया और ना हीं कभी आवाम की ज़रूरतों में ही शामिल हो पाया है। इसीलिए टिकट खरीदकर नाटक देखने की प्रथा का विकास होना संभव ही नहीं हुआ। इसके केन्द्र में रंगमंच का अव्यावसायिक चरित्र के साथ ही साथ रंगकर्मियों के अंदर स्वयंतसूखाय विशिष्टताबोध है। वहीं कला और संस्कृति के प्रति समाज और सरकार का क्या नज़रिया है यह बात भी किसी से छुपी नहीं है।
तमाम खूबियों खामियों के बावजूद कभी पारसी रंगमंच और नौटंकी जैसी विधा अपने पैरों पर खड़े थे लेकिन सभ्य और आधुनिकता का चोला धारण किए महानगरीय रंगकर्मियों ने अमूमन इसे हेय दृष्टी से ही देखा और पश्चिम की हास्यास्पद और बेलगाम नक़ल करने में ही अपनी महानता समझी। हालांकि यह भी सच है कि व्यावसायिक कला की अपनी शर्तें, ज़रूरतें, जोड़-तोड़ और खूबियां-खामियां हैं जिसे स्वीकार करना सबके वश की बात नहीं। किन्तु समय-समय पर ऐसी नाट्य मंडलियां विकसित हुईं जिसने अपनी शर्तों पर भारतीयता से सराबोर रंगमंच किया और व्यावसायिक सफलता भी अर्जित किया। बिहार के लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के रंगमंच को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि देश भर में भीखारी ठाकुर जैसे अनगिनत कलाकार हुए। किन्तु समस्या यह है कि हमने रंगमंच की इस परम्परा को विकसित करना तो दूर, ओपनिवेशिक मानसिकता से सराबोर हो इसे ‘नचनियां-बजनियां’ जैसी घटिया उपाधियों से ज़्यादा भाव नहीं दिया।
जिस प्रकार भारतीय समाज में कई वर्ग, वर्ण आदि हैं ठीक उसी प्रकार भारतीय रंगमंच के अंदर ही अघोषित रूप से वर्गों वर्णों का निर्धारण है। यहाँ रंगमंच की कई धाराएं प्रवाहित होतीं हैं - कोई ब्रह्मण है, कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य तो कोई शुद्र। इन सबमें एक बात कॉमन है कि जितनी भी नाट्य संस्थाएं कार्यरत है उनका मूल चरित्र अमूमन व्यक्ति केंद्रित है। एक खास व्यक्ति उस संस्था पर मालिकाना हक रखता है और बाकि या तो वहां सहयोगी की भूमिका में होते हैं या फिर मज़दूर की भूमिका में। किसी ज़माने में उस व्यक्ति को मलिकजी की उपाधि प्राप्त थी और आज निर्देशक की। इनकी इच्छा ही संस्थाओं का संविधान है। जो इसका सम्मान करता है वह साथ है नहीं तो बाहर।
संस्कृत नाटकों के काल में कला और संस्कृति ‘राज’ के संरक्षण में पोषित था वहीं कुछ को धार्मिक स्थलों का संरक्षण भी मिला। बाकि जो पारंपरिक कलाएं थी उनके संरक्षण और विकास पर कभी ढंग से बात ही नहीं होती। अंग्रेज़ी राज में भारतीय कला-संस्कृति कलाकारों के जुनून के सहारे ज़िंदा रही और यही जूनून आज भी कायम है। किन्तु जहाँ तक अर्थ यानि मुद्रा का सवाल है वहां स्थिति आज भी दैनीय ही है। 1947 के बाद कई सारी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं अस्तित्व में आईं और कला-संस्कृति के विकास और प्रश्रय देने के लिए विभिन्न प्रकार के अनुदान देने की घोषणा की गईं। खैरात की तरह यह अनुदान बांटे जाने लगे और कमिशनखोरी नामक सांस्कृतिक भ्रष्टाचार बड़े ही शान से पनपने लगे। लोग बड़े गर्व के साथ अपने शिष्यों या शिष्य के शिष्यों को अनुदान से अनुग्रहित करने लगे और शिष्य इसे भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करने लगे। भगवान को प्रसाद चढ़ाने की महान भारतीय परम्परा का विकास यहाँ भी ज़ोर-शोर से होने लगा। जिन्हें प्रसाद मिला वो जय-जयकार में और जिन्हें नहीं मिला वो ‘मुर्दाबाद’ में व्यस्त हो गए। इस बात से भी कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोग और संस्थाएं आज भी है जो अनुदान के पैसे का समुचित और लोकतांत्रिक इस्तेमाल करतीं है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अर्ध-सामंती, अर्ध-ओपनिवेशिक और पूंजीवादी समाज में पूँजी की भूमिका निर्णायक होती है। इस प्रभाव से हमारे व्यक्तिगत सम्बन्ध भी अछूते नहीं रहते। संस्थाएं चुकी व्यक्तिगत इच्छा से संचालित हैं इसलिए इनको मिला अनुदान पर भी किसी एक व्यक्ति का मालिकाना हक हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। अब यह उस व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर होने लगा है कि वह ग्रांट रूपी प्रसाद का अकेले सेवन करे या सामूहिक। नैतिकता के पतन, सामूहिकता का गर्वपात और भ्रष्टाचार की सामूहिक स्वीकृति वाले वर्तमान समय में नाट्य संस्थानों का एक एनजीओ के रूप में परिवर्तित हो जाना दुखद तो है किन्तु आश्चर्यजनक नहीं।
ज्ञातव्य है कि भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर दिए जा रहे यह सरकारी अनुदान जनता की गाढ़ी कमाई का हिस्सा हैं जिन्हें चंद मौकापरस्त लोगों ने बंदरबांट का खेल बना रखा है। अनुदान किसे दिया जा रहा है और सही जगह पर खर्च हो रहें हैं या नहीं इसकी चिंता किसी को नहीं। जैसे-तैसे नाटक करके अनुदान ग्रहण करनेवाली संस्था कुछ प्रमाणों के साथ खर्चे का व्योरा भेज देतीं हैं और अगले अनुदान की चिंता में व्यस्त हो जातीं हैं। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार का बोलबाला नहीं तो और क्या होगा? आखिर यह किसकी ज़िम्मेदारी है कि वो यह देखे कि जिस व्यक्ति या संस्था ने अनुदान के लिए आग्रह किया है वह उसके योग्य भी है या नहीं। वैसे रंगकर्मियों के नैतिक पतन के उदाहरणों की भी आज कोई कमी नहीं है। जिस चीज़ के लिए अनुदान दिया गया है उसकी उस व्यक्ति या संस्था के पास कोई समझ हो न हो, जैसे तैसे नाटक करके, अखबार की कतरन, चंद फोटो, ब्रोशर आदि प्रमाणपत्र के रूप में संलग्न कर दिया जाता है, बस बन गया काम। कहने का अर्थ यह कि सारा काम कागज़ी और यथार्थ हवा-हवाई व कमाई करने का साधन बन गया है।
रंगमंडल अनुदान की हालत तो और भी खराब हैं। इसके तहत किसी समूह को रंगमंडल चलाने के लिए अनुदान दिया जाता है। जिसमें एक निर्देशक समेत कई कलाकारों को आर्थिक सहायता प्रदान किया जाता है। किन्तु कई समूहों में इस अनुदान की हालत यह कि निर्देशक छोड़ किसी भी अभिनेता या अन्य को उतने राशि का भुगतान नहीं किया जाता जितने पर कि वह हस्ताक्षर करता है। निर्देशक इतनी भी राशि इस गर्व के साथ अभिनेताओं को प्रदान करता है जैसे वो अपनी ज़मीन बेचकर दे रहा हो और यह एक एहसान है जिसे इन तुच्छ अभिनेताओं को जीवनभर याद रखना चाहिए। किसी ने मुंह खोला तो बाहर का दरवाज़ा खुला हुआ है। निर्देशक चंद पैसों पर किसी भी अभिनेता को नचा सकता है और अपनी मर्ज़ी सब पर लाद सकता है, ऐसी अघोषित संविधान है। वहीं ऐसे अभिनेताओं की भी कमी नहीं जो पैसे के लिए किसी के पास भी नाच सकते हैं। दुखद सच तो यह है कि इस खेल में राष्ट्रीय स्तर के कई दिग्गज और सम्मानित रंगकर्मी बड़े गर्व से शामिल हैं और नाट्यचिन्तक मौन। ऐसे समय में नैतिकता का सारा भार नई पौध पर नहीं थोपा जा सकता।
जिस समाज और व्यवस्था के कण-कण में भ्रष्टाचार का प्रवेश हो चुका है वहां कोई एक अंग दूध का धुला होगा ऐसा, यह संभव नहीं। इस व्यवस्था के कण-कण में दीमक लग चुका है जिसे केवल पूंजी और ताकत की भाषा सुनाई पड़ती है, बिना इसे बदले किसी भी प्रकार के बदलाव की आशा दिवास्वप्न होगा। जिनलोगों ने विकास का फरेब करके पुरे देश को विदेशी ताकतों के हाथों में गिरवी रख-रखा है उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। इतिहास गवाह है कि इस व्यस्था में चीज़ें ऐसी ही चली हैं और ऐसे ही चलेगीं। सरकारें या सरकारी पदों पर कुछ लोग बदल जाने ने व्यवस्था नहीं बदलती। मूल प्रश्न यह है कि क्या हमें इसी व्यवस्था में जोड़ तोड़ करके जीवनयापन और रंगकर्म करना है या इसे बदलने के लिए अपनी यथासंभव उर्जा लगानी हैं। भ्रष्टाचार का जिन्न ऊपर से नीचे की यात्रा करता है इसलिए जब तक कोई सामाजिक बदलाव नहीं होता तब तक कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए मठ और गढ़ तोड़ने होगें वरना जो कुछ चल रहा है उसे रोकना असंभव है। हां, छोटे-मोटे सुधार हो सकते हैं लेकिन सुधार का अर्थ फटे-सड़े कपड़े पर चिप्पी साटने से ज़्यादा कुछ नहीं होगा।

Monday, July 27, 2015

समकालीन रंगमंच से जुड़े कुछ सवाल-जवाब

मेरा यह साक्षात्कार इप्टानामा के सम्पादक दिनेश चौधरी द्वारा लिया गया। इसे इप्टानामा के नए अंक और कल के लिए नामक पत्रिका के अंक 87-88 में भी पढ़ा जा सकता है।

हिंदी रंगमंच के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
पूंजी, प्रशिक्षण, पूर्वाभ्यास की जगह, नाट्य प्रदर्शन के लिए उचित सभागार आदि मुलभुत ज़रूरतों की कमी एक चुनौती तो है किन्तु हमेशा से ही हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि वह कभी भी जनता की ज़रूरतों में शामिल नहीं हो सका। तमाम वर्गों, वर्णों और जातियों में विभाजित, कला और संस्कृति के प्रति अति-उदासीन हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक नवजागरण के कुछ प्रयास निश्चित रूप से हुए भी लेकिन वह काफी नहीं थे। रंगमंच का यहाँ ऐसा कोई दर्शक वर्ग ही तैयार नहीं हुआ है जो अपनी बदौलत नाटकों और कलाकारों की ज़िम्मेवारी उठाने की क्षमता रखता हो। यहाँ रंगकर्म कभी राजाओं के प्रश्रय में चला तो कभी सामंतो के, तो कभी रंगकर्मियों के जूनून की बदौलत और आजकल सरकारी अनुदानों के तरफ़ हाथ फैलाया जा रहा है।
रंगकर्मी सक्रिय तो हैं किन्तु आज तक इस प्राथमिक सवाल का जवाब नहीं तलाश पाए हैं कि वो रंगमंच कर क्यों रहे हैं! इस महत्पूर्ण सवाल के जवाब के बिना कोई भी कला निरुद्देश्यता का ही शिकार होगा। जो रंगकर्मीं और समूह एक खास विचारधारा के कार्यकर्त्ता बन जनचेतना के लिए काम कर रहे थे, वहां भी बिखराव साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में जब जन आंदोलनों की दिशा ही भटक गई वैसे में इनके मन में भी अपने वैचारिक आदर्शों और सुन्दर समाज रचने के सपनों को लेकर भटकाव होना स्वभाविक ही था।
व्यवहार की जड़ में विचार होता है। वैचारिकता का भटकाव व्यवहार में साफ़-साफ़ देखने को मिलता है। कला और समाज एक दूसरे के पूरक हैं और आज दोनों ही विकट रूप से वैचारिक संकट की चपेट में हैं। जबतक वैचारिक संकट व्यावहारिक रूप से दूर नहीं होता तबतक व्यवहारिक धरातल पर अराजकता का ही राज रहेगा।

बड़ी पूंजी के आगमन से अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों को भी प्रभावित किया है?
अर्ध-सामंती, अर्ध-ओपनिवेशिक और पूंजी की महत्ता वाले समाज में पूंजी जब आपसी रिश्तों तक को प्रभावित करने की क्षमता रखती है तो ऐसे समय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसने रंगमंच को प्रभावित नहीं किया है। लेकिन मैं अपनी बात को ज़रा दूसरे तरीके से कहना चाहूँगा। बल्कि मैं यह सवाल उठाना चाहूँगा कि जो भी लोग सरोकारों से सराबोर हो रंगमंच कर रहे हैं/थे क्या किसी ने उनका ख्याल रखा? क्या किसी ने यह सोचा की रंगकर्मीं भी इंसान होता है जिसकी कुछ मूलभूत ज़रूरतें हैं जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए। भूखे पेट लंबे समय तक किसी भी विचारधारा का झंडा नहीं ढोया जा सकता है। आज रंगकर्मी (खासकर सरोकारवाले) तमाम प्रकार के समझौते कर रहे हैं तो इसके लिए उन्हें दोष देने से पहले एक बार यह भी सोचना चाहिए कि क्या वो ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं या वो इसके लिए मजबूर हैं।
रंगकर्मी और समाज रंगमंच के दो पहिए हैं। किन्तु दुखद सच यह है कि समाज बीमार है और रंगकर्मी खाली पेट। जब अस्तित्व पर संकट हो तो ऐसे समय में सरोकार से पहले अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जाती है। हां, उस लड़ाई की दिशा सार्थक भी हो सकती है और अराजक भी।

क्या “अच्छे दिनों” का राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का आह्वान नहीं कर रहा?
अच्छे दिनों का नारा एक राजनैतिक फार्स है और किसी भी सजग और सामाजिक सरोकार रंगकर्मीं का सरोकार केवल फार्स मात्र नहीं हो सकता। वैसे भी सार्थक रंगमंच का मूल स्वर ही विरोध का है और इस विरोध के दायरे में हर वो चीज़ आती है जो अप्राकृतिक, अमानवीय और झूठ है। सत्ता चाहे किसी के पास हो, संवेदनशील और सजग रंगकर्मियों ने तो हमेशा से ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाए हैं; उठा रहे हैं और उठाते रहेंगें। शायद इसीलिए वो आज किसी के भी प्रिय नहीं हैं। सनद रहे कि मैं यह बात सजग और सामाजिक सरोकार से संपन्न कलाकारों के बारे में कर रहा हूँ लाशों की ढेर पर अपनी रोटी सेंकनेवाले कलाकारों के बारे में नहीं। वैसे भी परजीवी लोग दूसरों की खुराक चूसकर ज़िंदा रहते हैं अपनी खुराक खुद पैदा नहीं करते।

आधुनिक नाटकों में किए जानेवाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
प्रयोगों के माध्यम से कोई भी कला अपने में नवीनता और प्रगति का समावेश करता है इसलिए प्रयोग को लोकप्रियता या स्वीकार्यता के दायरे से नहीं परखा जाना चाहिए। यदि नवीन प्रयोग न हों तो कला और समाज जड़ हो जायेगा। प्रयोग के विरोध का अर्थ यथास्थितिवादी और जो कुछ भी उपस्थित है वहीं अतिंम सत्य है जैसी अवैज्ञानिक विचार को मानना है। जहाँ तक सवाल प्रयोग की सफलता-असफलता का है तो यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर प्रयोग सफल हो ही। केवल रंगमंच ही नहीं बल्कि कृषि, विज्ञान, साहित्य आदि अन्य क्षेत्रों में प्रयोग हो रहें हैं – सफल और असफल हर प्रकार के। प्रयोग होंगें तो वह सफल भी होंगें और असफल भी। इतिहास गवाह है कि मानव ने प्रयोगों के माध्यम से ही प्रगति का रास्ता तय किया है। दुनियां पाषाण युग, लौह युग, स्पेस युग से गुज़रती हुई आज डिजिटल युग में प्रवेश कर गई है। यदि यह प्रयोग नहीं होता तो क्या यह सबकुछ संभव था? मानव ने प्रयोग नहीं किया होता तो हम आज भी जंगलों में रह रहे होते, शिलालेख लिख रहे होते, नंगे घूमते और कच्चा मांस खा रहे होते। मानव पहली बार जो कुछ भी करता है वह प्रयोग ही तो होता है, जो सफल होने पर परम्परा बन जाता है।
जहाँ तक सवाल दर्शकों का है तो उसे अमूमन परिणाम से मतलब होता है प्रक्रिया से नहीं। इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं कि आप इसे दर्शकों तक पहुँचाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, कितना प्रयोग करते हैं; या करते भी हैं कि नहीं। वैसे भी उनके दिमाग में यह गलत धारण बैठा दी गई है कि कला का काम मनोरंजन मात्र करना है। यह सच है कि बोझिलता कोई झेलना नहीं चाहता लेकिन दर्शकों केवल मनोरंजन मात्र ही किसी सार्थक कला का उद्देश्य नहीं हो सकता और दर्शकों को भी इसके लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसा दर्शकवर्ग तैयार करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। यहाँ केवल लकीर के फकीर बनकर मनोरंजन-मनोरंजन और मनोरंजन रटने से काम नहीं चलेगा। मूल समस्या यह है कि हम आज भी नवीनता से खौफ खाते हैं और अमूमन आजमाई हुई चीज़ों को ही खाने, पहनने और देखने में सहजता महसूस करते हैं। वैसे भी जिसे आज हम परम्परा कहते हैं वे भी कभी प्रयोग ही थे। इंसान ने एकाएक ही कोट-पैंट धारण नहीं कर लिया बल्कि यह पत्ते, खाल आदि से होते हुए हज़ारों साल चले प्रयोग का नतीज़ा है। ठीक उसी प्रकार हर काल में रंगमंच ने अपने अंदर प्रयोग के माध्यम से सार्थक बदलाव किए हैं और यह बदलाव कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो हम आज भी किसी राजमहल में नाट्यशास्त्र में वर्णित बातों को ही अंतिम सत्य मानके कालिदास के नाटकों का ही मंचन कर रहे होते। इसीलिए कला और समाज दोनों में नवीन प्रयोग होते रहे इसी में सबकी भलाई है। वैसे भी जमा हुआ पानी सड़ने लगता है। इसलिए प्रयोगों से डरने की ज़रूरत नहीं है। जो प्रयोग सार्थक होंगे वह अपनेआप ही स्वीकार कर लिए जायेंगें और निर्थक प्रयोग का नकार भी स्वतः ही होता रहेगा।

बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होनेवाले रंगकर्म की तरह जन्नोमुख क्यों नहीं है?
इस बात में कोई सच्चाई नहीं कि बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होनेवाले रंगकर्म की तरह जन्नोमुख नहीं है। दर्शक हर जगह के रंगमंच का ज़रूरी अंग है और रहेगा। कहीं का भी रंगमच बिना जन (दर्शक) के संभव ही नहीं है। मैं इस बात को नहीं मानता कि कस्बों और छोटे शहरों में नाटक देखने आए लोग ही जन है बड़े शहरों और महानगरों में नाटक देखने आए लोग नहीं। क्या मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, ब्रेख्त, बर्नार्ड शॉ, सार्त्र, कामू आदि के नाटकों में जन सरोकार नहीं हैं? चरणदास चोर जैसा नाटक यदि छोटे शहरों और कस्बों में खेला जाता है तो जन्नोमुख रंगकर्म हो जाता है और वहीं नाटक बड़े शहरों और महानगरों में खेला जाता है तो विलासिता! यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से यह एक दोहरा मापदंड है जो संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। जन सरोकार का शहर, गांव, क़स्बा से कोई लेना देना नहीं है बल्कि यह एक प्रतिबद्धता और वैचारिकता का सवाल है जिसका अभाव कहीं भी हो सकता है – शहर, गांव, क़स्बा, महानगर कहीं भी।

क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परम्परा को और क्षीण किया है?
बिलकुल नहीं। नाटक में दुनियां की सारी कलाएं समाहित हैं – गीत, संगीत, पेंटिंग, साहित्य सब। इससे नाटक समृद्ध होता है क्षीण नहीं। पेंटिग, संगीत, नृत्य की कई शैलियां हो सकती हैं तो रंगमंच की क्यों नहीं? यदि हम केवल नाटक की बात करें तो इसके भी प्रकार हैं। नाट्यशास्त्र में भारत ने इसे दसरूपक कहा है जिसमें नाटक, प्रकरण, प्रहसन, व्यायोग, भाण, डिम, वीथि, ईहामृग, समवकार, अंक नामक दसरूपकों का वर्णन है।

रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिए?
एक ऐसे देश में जहाँ कला और संस्कृति हासिए पर हो, बाज़ारवाद के प्रभाव में संस्कृतियां इतिहास में विलीन होने को अग्रसर हो, तमाम सरकारी नीतियां के कण-कण में भ्रष्टाचार का वास हो और संस्कृति के नाम पर अप-संस्कृति का बोलबाला हो व जहां हवा और सुनामी में सरकारों की अदलाबदली हो जाती हो वहां बिना किसी सांस्कृतिक नवजागरण के सांस्कृतिक नीति की उम्मीद कैसे की जा सकती है? केवल नीति बना भर देने से क्या होगा? मनरेगा जैसे नीति का क्या हाल हुआ क्या हम नहीं जानते?
क्या किसी भी पार्टी के प्रमुख एजेंडे में कला-संस्कृति नामक चीज़ है? यह विचार का दिवालियापन है कि आप नीति बनाने की बात करेंगें तो उनकी समझ में आर्थिक सहायता आता है! क्या केवल आर्थिक सहायता भर प्रदान कर देने से कला-संस्कृति का विकास हो जाएगा? बिलकुल नहीं, बल्कि इसके लिए एक ऐसा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवेश बनाना होगा जहाँ कला-संस्कृति समाज का एक अभिन्न और ज़रूरी अंग बनकर कंधे से कंधा मिलाकर चले और सहज रूप से अपना विकास कर सके। जहाँ संस्कृतियों का आदान-प्रदान तो हो लेकिन लोगों को अपनी कला और संस्कृति पर भी गर्व हो, न कि इसे नचनियां-बजानियाँ का पेशा समझें।
अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद होने के इतने साल बाद भी यदि हमारे देश में कोई संस्कृति नीति नहीं है तो क्या किसी को इसकी चिंता भी है? लोकतंत्र के नाम पर यहाँ जो कुछ अलोकतांत्रिक चल रहा है क्या हम उससे अनजान हैं? क्या लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव का अधिकार होता है? क्या यह सच नहीं कि लोकतंत्र का नगाडा खूब ज़ोर-ज़ोर से पीटनेवाली पार्टियों की कार्यशैली इतनी ज़्यादा अलोकतांत्रिक कि वो अपने चंदा देनेवालों के नाम तक सावर्जनिक नहीं करना चाहती। तब क्या यह सवाल नहीं उठता कि आखिर यह पार्टियां किसके इशारे पर नाचतीं हैं? यदि इसका जवाब जनता है तो मुझे इस जवाब पर कतई यकीन नहीं।
आज सरकार जो रंगमंच को बढ़ावा देने के नाम पर अनुदान बांट रहीं है उससे रंगमंच का एनजीओ करण हो रहा है न कि विकास। जनता की गाढ़ी कमाई का (कुछ अपवादों को छोड़कर) कैसा बंदरबांट मचा है यह जग ज़ाहिर है। सांस्कृतिक संस्थानों में कैसे-कैसे असंस्कृतिक व्यक्तित्व विराजमान है यह भी अब किसी से छुपा नहीं हैं। किन्तु सबसे दुखद सच यह कि अब रंगकर्मी भी अपना हक़ नहीं बल्कि अपना हिस्सा मांगने तक में ही संतुष्ट होने लगे हैं।
इसलिए केवल सरकार के नीति बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि यह एक सांस्कृतिक क्रांति का विषय है, जो निश्चित रूप से सामाजिक क्रांति के साथ ही होगा। इसलिए बिना किसी सामाजिक व सांस्कृतिक क्रांति के किसी भी कला और समाज का भला नहीं होनेवाला। हां, भला होने का भ्रम ज़रूर फैलाया जा सकता है।

क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहां के प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
जिसे यहाँ बड़ी जमात कहा जा रहा है उसकी संख्या कितनी है? बल्कि बड़ी जमात उनकी है जिसे आप शौकिया रंगकर्मीं कह रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित रंगकर्मियों की संख्या अल्पमत वाली है। तो क्या उनके पास इतनी शक्ति है कि वो बहुमत को नकार सकें? रंगमंच में आखिरी फैसला दर्शकों का होता है। इसलिए किसी भी अन्य के नकारने या स्वीकारने से कुछ नहीं होता। देश भर में ऐसे रंगकर्मियों की कोई कमी नहीं जिन्होंने दर्शकों के दिलों पर राज किया और आज भी कर रहे हैं। दर्शक डिग्री नहीं नाटक देखने आते हैं। नाट्य-प्रस्तुति यदि अच्छी है तो किसी के भी व्यक्तिगत कुंठा का वहां कोई स्थान नहीं होता। इसलिए हमें किसी के स्वीकार-नकार से ज़्यादा दर्शकों की प्रतिक्रियायों को सम्मान देना चाहिए। रंगमंच मेहनत और लगन के द्वारा सतत “करते हुए सिखाने और सिखाते हुए करने” की चीज़ है। इस विधा में व्यक्तिगत कुंठाओं का कोई स्थान नहीं है। इसलिए व्यक्तिगत रूप से हमारे पसंद-नापसंद से समय का बहुआयामी सच नहीं बदल जाता।
हमारी मूल समस्या यह नहीं है कि कौन हमें स्वीकार रहा है या कौन नकार रहा है बल्कि हमारी मूल समस्या यह है कि हमारे अंदर आलोचनाओं को सुनने और समझाने की इच्छा शक्ति का ह्राश हुआ है और हम ज़रूरत से ज़्यादा आत्ममुग्ध हो गए हैं। जो निश्चित रूप से एक खतरनाक बात है। आत्ममुग्धता किसी भी कला का शत्रु होता है। इसलिए हमें यथाशीघ्र ही अपनी-अपनी आत्ममुग्धता पर काबू पा लेना चाहिए और सकारात्मक आलोचनाओं को यथोचित सम्मान देना सिखाना चाहिए। इसी में रंगकर्म और रंगकर्मीं दोनों का भला है। इसलिए कौन हमने स्वीकार रहा है कौन नहीं इसका ग़म नहीं होना चाहिए। मेहदी हसन के एक गज़ल का शेर कुछ यूं है -
जो ग़में हबीब से दूर थे वो खुद अपनी आग में जल गए
जो ग़में हबीब को पा गए वो ग़मों से हंसके निकल गए।

Sunday, July 26, 2015

बिहार का रंगमंच : एक संछिप्त टिप्पणी

"बिहार की पहली शौक़िया नाट्य-संस्था की स्थापना केशवराम भट्ट ने 1876 में पटना नाटक मंडली के नाम से गठित की थी। उन्होंने बिहारबंधु पत्रिका के छापाखाने में बने अस्थाई रंगमंच पर इसी मंडली द्वारा अपने दो नाटकों - शमशाद सौसन और सज्जाद सुंबुल को प्रदर्शित किया था। कई वर्षों बाद आरा में जैन नाटक मंडली (1918-19), सार्वजनिक नाट्य मंडली (उन्नीसवीं सदी का अंतिम दशक), मनोरंजन नाटक मंडली (1918-19), छपरा क्लब (1919) और शारदा नाट्य समिति (बीसवीं सदी का दूसरा दशक) आदि नाट्य-संस्थाएं बनी। इन मंडलियों के गठन और रंगकार्यों के पीछे पारसी कंपनियों द्वारा प्रदर्शित नाटकों का प्रभाव था। .... इन्ही कंपनियों के अनुकरण पर यहाँ पहली व्यवसायिक नाट्य-मंडली बिहार थियेट्रिकल ट्रूप (1884) की स्थापना हुई। ... किन्तु एक महीने के बाद ही कम्पनी के कर्मचारियों और किसी दर्शक के बीच मारपीट हो हुई और फ़ौजदारी का मुकद्दमा दायर हो गया।"
(रंग दस्तावेज़, सौ साल, 1850-1950, संपादक - महेश आनंद, प्रकाशक - राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय)
पुस्तक से उपरोक्त जानकारी प्राप्त होने पर दो बातें मेरे मन में घुमड़ रही हैं। पहली यह कि नाटक देखने का संस्कार आज भी बिहार में शैशव अवस्था में ही है और दूसरी वह जिसका संकेत महेश आनंद सर प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में हीं कर देते हैं कि हिंदी के नाट्य-दस्तावेज़ीकरण का मामला अधर में ही लटका पड़ा है।
उदाहरणार्थ; बिहार का एक कस्बा है पंडारक। वहां हिंदी नाटक समाज नामक नाट्यदल सन् 1922 से आजतक लगातार कार्यरत है। हर वर्ष दुर्गापूजा के अवसर पर नाटकों का मंचन आज भी करती है। किन्तु दस्तावेज़ों की ख़ाक छानने के पश्चात् भी इनकी कोई जानकारी शायद ही मिलती है। ऐसे न जाने कितने इतिहास के अनमोल पन्ने बिखरे पड़े हैं बिहार की धरती पर। पता नहीं कब होगा इनका दस्तावेज़ीकरण।
वैसे दस्तावेज़ीकरण के मामले में पूरा हिंदी समाज ही आलसी है। हां बक बक करने और अपनी महानता साबित करने में कोई किसी से एक सूत भी कम नहीं। लिखने बोलिए तो नानी याद आने लगती है। कोई बहुत उदार हो भी जाता/ती हैं तो कह देगें हम बोलते हैं तुम लिख लो या फिर ऐसा करो तुम लिखके ले आओ हमको सुना देना फिर जो कम बेसी होगा हम बता देंगें।
सरकारों की बात क्या किया जाय! उसको नाटक-नौटंकी, कल्चर-कल्चरल से क्या मतलब! उसे तो अग्रिकलचल नहीं बुझाता तो कल्चर और कल्चरल क्या बुझाएगा? आप चिल्लाईएगा कल्चर-कल्चरल तो सरकार बोलेगी ग्रांट ले लो और जो करना है करो और चुप रहो।
नाट्य चिंतक कोंस्तांतिन स्तानिस्लावसकी 'actors without makeup' नामक आलेख में कहते हैं -"जो हो, मैं समझता हूँ हर कला साधक को लिखना चाहिए, केवल आम शब्दावली में अपनी जीवन गाथा नहीं, बल्कि अपने कलाकर्म को व्यवस्था देने की कोशिश में लिखना चाहिए। उसे अपनी रचना और रचना प्रक्रिया का विश्लेषण प्रस्तुत करना चाहिए। इन्हीं विश्लेषणों से रचना प्रक्रिया के संसार की गुत्थियां सुलझाएगी और ठोस सूत्र हाथ आएंगें। इस काम में पुराने महारथियों की जवाबदेही बहुत ज़्यादा है - उन्हें अपने धंधे (पेशे) का राज छुपाने और उन पर अपना स्वत्वाधिकार बनाने का कोई अधिकार नहीं। उन्हें अपने सारे गोपन सत्य उजागर करने चाहिए, क्योंकि चाहे अनचाहे नई पीढ़ी देर-सबेरे इन सभी नतीजों को हासिल कर ही लेगी।" (स्तानिस्लावस्की-अवचेतन के मुहाने पर अभिनय, लेखक - श्रीकान्त किशोर)
बहरहाल, उपरोक्त पुस्तक हर रंगकर्मी को एक बार ज़रूर ही पढ़नी चाहिए।

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...