Thursday, July 31, 2014

प्रेमचंद रंगशाला, प्रेमचंद गोलंबर और प्रेमचंद जयंती

इसमें कोई संदेह नहीं कि मुंशी प्रेमचंद के नाम पर ही पटना के राजकीय प्रेमचंद रंगशाला का नामांकन किया गया है । रंगशाला से सटे एक चौराहा है । इस चौराहे को प्रेमचंद गोलंबर कहते हैं । इस गोलंबर के एक तरफ़ मोइनुल हक स्डेडियम है और दूसरी तरफ़ प्रेमचंद रंगशाला । गोलंबर के बीचो-बीच मुंशी प्रेमचंद की मूर्ति लगी है । कहा जाता है कि पटना शहर के संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों आदि के मांग पर यह मूर्ति स्थापित हो पाई थी । लोग तो यह भी कहते हैं कि एक बार किसी कार्यक्रम में प्रेमचंद के पुत्र और साहित्यकार अमृतराय पटना आए हुए थे । उन्होंने इस बात पर राय ज़ाहिर करते हुए कुछ ऐसा वक्तव्य दिया था कि एक बेटे के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि वो अपने पिता की मूर्ति लगाने की मांग सरकार से करे ।
अमृतराय पटना कब आए थे और उन्होंने ये बातें कब और कैसे कही थी, यह बात कही भी थी कि नहीं, इस बारे में कोई सटीक जानकारी कम से कम मेरे पास नहीं है । यह सुनी सुनाई बातें हैं । जो सच हो भी सकतीं हैं और मनगढंत भी हो सकता है । बहरहाल, आज भी प्रेमचंद की मूर्ति के नीचे एक पट्टिका लगी है जिस पर यह अंकित है कि “उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की इस प्रस्तर प्रतिमा का अनावरण 8 अक्टूबर 1980 को महादेवी वर्मा ने किया । संयोजक साहित्यकार रमण” । गोलंबर चारो तरफ़ से लौह-उक्त दीवार से घिरा है और प्रवेश द्वार अमूमन सालों भर बंद ही रहता है । इसकी देखरेख का ज़िम्मा किसके ऊपर है, पता नहीं । वैसे गांधी मैदान की दीवार भी ऊँची कराई गई है और उसमें लोहे के भाले लगाए जा रहे हैं और सुना है कि वहां भी ताला लगनेवाला है । आनेवाले दिनों में यह भी हो सकता है कि गांधी मैदान में घुसने लिए कीमत अदा करना पड़े ! रूपक, अप्सरा, उमा सहित कई सिंगल स्क्रीन के सिनमाघरों में ताले तो झूल ही रहे हैं ।
31 जुलाई 2013, यानि प्रेमचंद की जयंती का दिन । बिहार संगीत नाटक अकादमी में व्याप्त भ्रष्टाचार और अराजकता के खिलाफ़ समस्त संस्कृतिकर्मी का आन्दोलन चल रहा था । 31 जुलाई को प्रेमचंद रंगशाला चलो का आह्वान किया जा चुका था । तय हुआ कि 30 जुलाई को प्रेमचंद गोलम्बर की सफ़ाई भी की जाय । तय कार्यक्रम के अनुसार कुछ संस्कृतिकर्मी प्रेमचंद गोलम्बर के अंदर झाड़ू और कुदाल लेकर घुस गए और गोलंबर के अंदर से पौधों, लत्तर, दारु की बोतलें, फटे पुराने कपड़े और पता नहीं क्या-क्या को निकल-निकालकर बाहर जलाने और फेंकने लगे । कूड़ा और गन्दगी इतनी ज़्यादा थी कि अपनी तमाम चाहतों के बावजूद संस्कृतिकर्मी आगे का आधा भाग ही साफ़ कर पाए । लगता था जैसे वर्षों से यहाँ सफाई नहीं हुई थी ! गोलंबर के अंदर दो पोल गड़े थे । इन पोलों पर अनगिनत विज्ञापनों के बैनर टगें पड़े थे, जिसे संस्कृतिकर्मियों ने डंडे से खींच-खींचकर हटाया । सफाई के पश्चात बगल से पानी लाकर गोलंबर की धुलाई की गई । मुंशी जी की मूर्ति की भी सफाई हुई जो उजाले से काले रूप में परिवर्तित होने की ओर अग्रसर था ।
दूसरे दिन यानि 31 तारीख की सुबह संस्कृतिकर्मी जब माल्यार्पण के लिए पहुंचे तो पाया कि कुछ लोग पहले से ही उस जगह पर कब्ज़ा जमा लिया है और मुंशी जी की मूर्ति पर गेंदे की मालाओं का ढेर लगाने के पश्चात् उपस्थित छात्रों को मुंशी प्रेमचंद के बारे में बड़े गर्व से व्याख्यान भी चल रहा था । आसपास गाडियां शोर मचाती निकाल रही थीं और संस्कृतिकर्मी सोच रहे थे कि वो लोग हटें तो हम भी मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा पर माल्यार्पण करें । किन्तु उपस्थित सज्जनों के मिज़ाज को देखकर ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि वो जल्द हटानेवाले हैं । अन्तः संस्कृतिकर्मी किसी प्रकार माल्यार्पण करके प्रेमचंद रंगशाला की ओर चल पड़े जहाँ दिन भर सांस्कृतिक प्रतिरोध होना था । इस पूरे आयोजन में पटना के कुल दो साहित्यकारों ने शिरकत की और बिहार संगीत नाटक अकादमी को तो प्रेमचंद से कोई सरोकार ही नहीं । ज्ञातव्य हो कि पटना के संस्कृतिकर्मी हर साल प्रेमचंद की जयंती मनाते रहे हैं ।
प्रेमचंद गोलंबर की आधी सफाई करते-करते संस्कृतिकर्मियों में सो कोई मज़ाक में बोल उठा कि गोलंबर की आधी सफाई तो हमने कर दी बिहार संगीत नाटक अकादमी और संस्कृति-साहित्यिक-जनवादी विभागों और दलों की सफाई कौन करेगा ? 

Saturday, July 26, 2014

नाटक नटमेठिया के बारे में ---

नटमेठिया एक जीवनीपरक (Bio-graphical) नाटक है जिसके केन्द्र में हैं बिहार के लेखक, कवि, अभिनेता, निर्देशक, गायक, रंग-प्रशिक्षक भिखारी ठाकुर और भारतीय समाज की जटिल वर्गीय व जातीय बुनावट । भिखारी ठाकुर की संघर्षशील जीवनयात्रा का काल 1887 से 1971 रहा है यानि ब्रिटिश राज से लेकर आज़ाद भारत और भारत निर्माण तक का काल । यह वही काल है जिसमें दुनियां में क्रांतियों व विश्वयुद्धों का दौर चलता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है और भारत एक आज़ाद देश घोषित होता है । वैश्विक धरातल पर तेज़ी से घटित होता यह तमाम सामाजिक - राजनीतिक परिघटनाएं इस नाटक के विषय वस्तु को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं और कहीं-कहीं तो सीधे विषय-वस्तु ही बन जाती हैं । इस नाटक के केन्द्र में नाच जैसी इरोटिक और विशुद्ध मनोरंजन मात्र के रूप में लोकप्रिय विधा भी है जिसे परिष्कृत और कलात्मक बनाकर आज के आदमी का दुःख दर्द को अभिव्यक्त करने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत करने की छटपटाहट भिखारी ठाकुर के अंदर साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है, जिसमें एक तरफ़ सामाजिक संघर्ष है तो दूसरी तरफ़ है एक कलाकार का अपना अंतर्जगत । कहीं परम्परा का निर्वाह है तो कहीं उसके घुटन भरे ताने-बाने से निकलने की चटपटाहट भी ।
यह नाटक नाट्यकला के प्रति पूर्णतः समर्पित भिखारी ठाकुर के जीवन, कला, नाट्यकर्म व लेखन के माध्यम से एक खास प्रकार का दलित व स्त्री विमर्श भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है । जिसमें उनके संघर्ष के साथ ही साथ भारतीय वर्ग-वर्ण व्यवस्था का सजीव, रोचक व क्रूर चित्रण भी सामने आता है ।
समाज में व्याप्त कुरीतिओं के खिलाफ़ जब कोई कलाकार पारंपरिक कलात्मक व सामाजिक तौर-तरीकों, प्रतीकों (Traditional artistic & Social Styles-Symbols) का इस्तेमाल सुधारवादी चिंतन के लिए करता है तो उसे लोकप्रियता के साथ ही साथ कला और मानव समाज के विचारों के अंतरद्वन्द का भी सामना करना पड़ता है । इस द्वन्द के सृजनात्मक और सार्थक इस्तेमाल से ही तो कला और समाज दोनों में निखार आता है और मानवीय संवेदनाएं वर्जनाओं और कर्मकांडों से ऊपर उठकर और ज़्यादा मानवीय होने की दिशा में अग्रसर होतीं हैं ।
तमाम वर्गों, वर्णों, जातियों, समुदायों में विभाजित, सामंती और उपभोक्तावादी मानसिकता से ग्रसित समाज में कला, कलाकार, वर्ग और समाज का संघर्ष युगों पुराना है । तिथियाँ बदली हैं, परिस्थितियां बदली हैं, स्वरुप बदला है, तरीका बदला है किन्तु यह संघर्ष आज भी समाप्त नहीं हुआ है । प्रस्तुत नाटक भिखारी ठाकुर के माध्यम से कला-कलाकार व समाज के बीच व्याप्त इसी द्वन्द व संघर्ष की भी एक व्यावहारिक गाथा प्रस्तुत करने का प्रयास है ।
नाटक का नाम - नटमेठिया, प्रस्तुति - रागा रंगमंडल, पटना, निर्देशक - रंधीर कुमार, नाटककार - पुंज प्रकाश; प्रथम प्रदर्शन दिनांक - 8 एवं 9 जुलाई 2014 स्थान - कालिदास रंगालय, पटना, समय - संध्या 7 बजे । अभिनेतागण - सुनील बिहारी, मनीष महिवाल, अजीत कुमार, बुल्लू कुमार, आशुतोष, रवि महादेवन, उदय, रवि कौशिक, शिल्पा भारती, निखिल व आकाश । पार्श्व सहयोग - भूपेंद्र कुमार, मार्कंडेय पाण्डेय, गुंजन कुमार, विनय आदि । नटमेठिया संजीव के उपन्यास सूत्रधार, भिखारी ठाकुर रचनावली, कबीर के निर्गुण, रामचरितमानस व दलित कविताओं को आधार बनाकर लिखा गया है । 

Thursday, July 24, 2014

बिहार संगीत नाटक अकादमी का सांस्कृतिक भ्रष्टाचार ।

पिछले दिनों बिहार संगीत नाटक अकादमी में व्याप्त भ्रष्टाचार, अराजकता और अकलात्मक नज़रिए के प्रतिरोध स्वरुप पटना के संस्कृतिकर्मियों ने आंदोलन किया । धरना, मशाल जुलुस, नुक्कड़ नाटक, जनगीत तथा आम जनता के बीच पर्चा वितरण का कार्यक्रम चलता रहा और कला-संस्कृति से जुड़ा सरकारी महकमा चैन की नींद सोता रहा । इन्हें यह भरोसा था कि कुछ दिन ये लोग हल्ला-गुल्ला करेंगें फिर सब कुछ अपनी गति से चलता रहेगा । इस व्यवस्था में यही होता रहा है, यही होगा । वैसे, कला-संस्कृति के संरक्षण और विकास के नाम पर विभिन्न विभागों-अकादमियों में क्या कुछ चलता रहता है, यह अब छुपा नहीं रहा है । जिस देश में कला-संस्कृति किसी के एजेंडे में ही न हो वहां कला-संस्कृति की दशा क्या होगी, इस बात सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । क्या यह एक त्रासदी नहीं है कि आज तक हमारे देश में कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति नहीं बनी है । विक्टोरियन मापदंड को आज तक सिर-आँखों पर लगाए यह मुल्क कब अपनी ज़मीन पहचानेगा ? वैसे यह बात भी निरा बकवास है कि कलाकारों को केवल अपनी कलाकारी से मतलब होना चाहिए । ऐसा बोलनेवाले समुदाय अमूमन खाए-अघाए लोगों का होता है जो यह भूल जाते हैं कि कलाकार भी पहले एक सामाजिक प्राणी है, जो सामजिक चुनौतियों से परे होकर नहीं रह सकता; और यदि रहता है तो उसे यह भी याद रखना चाहिए कि शुतुरमुर्ग बनाने से समस्या हल नहीं हो जाती ।
चिंगारी जिसे फूटना ही था ।
किसी भी विद्रोह की जड़ में अमूमन एक छोटी सी चिंगारी होती है, जो धीरे-धीरे दावानल का रूप धारण करती है और एक सफल आंदोलन के इतिहास में कई सारे असफल आंदोलनों की उर्जा समाहित होती है । बिहार संगीत नाटक अकादमी के संदर्भ में आग में घी डालने का काम किया एक बिना तारीख और हस्ताक्षर वाले एक नोटिस ने जिसपर अंकित था “पूर्वाभ्यास करनेवाली सभी स्वैच्छिक संस्थाओं को सूचित किया जाता है कि प्रेमचंद रंगशाला परिसर में पूर्वाभ्यास करने हेतु संस्था को पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य होगा । किसी भी संस्था को पूर्वाभ्यास से सम्बंधित सामग्री प्रथम तल लॉबी या भीतर भूतल तल में रखने की अनुमति नहीं है । आदेश का उल्लंघन करने पर नियमानुसार करवाई की जायेगी ।”  
इस देश में; खासकर हिंदी प्रदेश में, रंगमंच का चरित्र मूलतः अव्यवसायिक ही है, और संस्कृतिकर्म यहाँ पेशा से ज़्यादा पैशन है । जो लोग भी पटना रंगमंच को जानते है उन्हें यह मालूम है कि प्रेमचंद रंगशाला का प्रागंण दशकों से पटना के रंगकर्मियों की कार्यस्थली रहा है । पटना के रंगकर्मी तब भी इस रंगशाला को अपने पूर्वाभ्यासों से गुलज़ार रखे हुए थे जब यह सरकारी उदासीनता का शिकार हो एक खंडहर में तबदील हो गया था ।
बहरहाल, पता करने पर ज्ञात हुआ कि यह नोटिस बिहार संगीत नाटक अकादमी के प्रभारी सचिव विभा सिन्हा महोदया ने लगवाया था । वह यह तानाशाही प्रवृति अपनाकर रंगशाला से रंगकर्मियों को बाहर निकालने की साजिश कर रही थी । इस नोटिस के पश्चात लिखित सूचना देने के बावजूद भी वहां संस्थाओं को पूर्वाभ्यास करने से रोका गया । पटना की एक रंग संस्था का सामान अकादमी की प्रभारी सचिव द्वारा रंगशाला की सुरक्षा का हवाला देकर बाहर कर दिया गया । इस नाटक का प्रदर्शन गांधी मैदान स्थित कालिदास रंगालय में संपन्न होने के पश्चात पटना के संस्कृतिकर्मी इकठ्ठा होकर यह तय करते हैं कि कला संस्कृति एवं युवा विभाग के सचिव चंचल कुमार, जो अभिनय कार्यशाला का उद्घाटन करने प्रेमचंद रंगशाला आने वाले हैं, से इस विषय में बात की जाय । यह घटना 11 से 16, 2013 जुलाई के बीच की है । दूसरे दिन संस्कृतिकर्मी प्रेमचंद रंगशाला पहुंचे तो कला संस्कृति विभाग के निदेशक विनय कुमार सामने थे और उन्होंने पता नहीं क्या कहा-सुना कि सचिव का आना एकाएक टल गया । संस्कृतिकर्मी वार्ता की मांग को लेकर धरने पर बैठ गए । इधर आनन-फानन में अभिनय कार्यशाला सहित पूरी अकादमी भारतीय नृत्य कला मंदिर में चली गई । अकादमी की “अभूतपूर्व” प्रभारी सचिव ने अपनी सामंती बौद्धिकता का परिचय देते हुए एक दैनिक अखबार के माध्यम से रंगकर्मियों पर आरोप लगाया कि “रंगकर्मी वहां देर रात तक लड़कियों के साथ बैठते हैं और पौलिथिन (देसी दारु) पीते हैं ।” किन्तु मैडम सचिव प्रेमचंद रंगशाला में हुए अश्लील कार्यक्रमों पर एक भी शब्द खर्च करना ज़रुरी नहीं समझतीं । ज्ञातव्य हो कि एक दवा बेचनेवाली कंपनी को प्रेमचंद रंगशाला किराये पर दिया गया था । इस कार्यक्रम में खुलेआम दारूबाजी हुई और फूहड़ गानों, आपत्तिजनक कपड़ों में लड़कियों को नचवाया गया, आयोजक स्वयं भी नाचे । महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद के नाम पर बने इस रंगशाला में हुए उपरोक्त कार्यक्रम का पटना के संस्कृतिकर्मियों ने विरोध करते हुए सवाल खड़ा किया कि इस तरह के कार्यक्रम की अनुमति देकर अकादमी आखिर किस संस्कृति को बढ़ावा दे रही है और किसी भी राजकीय रंगशाला का निर्माण वहां की कला-संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से होता है या मुनाफ़ा कमाने के उद्देश्य से ? इस बाबत अकादमी के अध्यक्ष शंकर आशीष दत्त (जो अपने को कलाकार कहने से ज़रा भी नहीं हिचकते) और उपाध्यक्ष प्रो. शैलेश्वर सती प्रसाद को उक्त कार्यक्रम का वीडियो दिखाकर पूछा गया तो उनका जवाब था – “हमें इसकी कोई सूचना नहीं है । अगर ये हुआ है तो गलत है ।” अब क्या यहाँ यह सवाल नहीं बनाता कि जब आपको पता ही नहीं कि आपका विभाग क्या कर रहा है तो आप बड़े-बड़े पद पर विराजमान हो आखिर किस महान संस्कृति की सेवा कर रहे हैं । यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि जीर्णोधार के बाद प्रेमचंद रंगशाला, बिहार संगीत नाटक अकादमी की देखरेख में संचालित होता है ।
अभिनय कार्यशाला बाधित करने का बेबुनियादी आरोप भी संस्कृतिकर्मियों पर लगाया गया । वहीं आंदोलन के समर्थन में कुछ सजग रंगकर्मियों ने स्वेच्छा से अभिनय कार्यशाला यह कहते हुए छोड़ दिया कि हमारे मित्र संस्कृतिकर्मी जब सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं वैसे वक्त में रंगमंचीय तकनीक सिखने से ज़्यादा ज़्यादा ज़रुरी है आंदोलन की ताकत बढ़ाना । वहीं कार्यशाला संचालित कर रहे पटना के ही कुछ पुराने रंगकर्मियों, जो स्वयं कभी प्रेमचंद रंगशाला मुक्ति संघर्ष के अग्रिणी सिपाही रहे थे, ने आंदोलन कर रहे रंगकर्मियों को नीचा दिखने के लिए तरह-तरह के दुष्प्रचार किया । इसे एक ‘खास’ पार्टी द्वारा प्रायोजित आंदोलन तथा लौंडे-लपाड़ों का आंदोलन कहने में ज़रा भी शर्म नहीं आई । इस दौरान ये लोग लगातार अकादमी के अधिकारियों तथा सांस्कृतिक विभागों को लगातार आश्वस्त भी करते रहे कि कुछ रोज़ चुपचाप तमाशा देखिए, सब अपने आप ही ठीक हो जाएगा । खैर, समय सबका इतिहास लिखता है और कोई आज इसलिए महान नहीं माना जाता कि भूतकाल में वो एक बड़ा क्रांतिकारी था । वहीं इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आंदोलनरत संस्कृतिकर्मियों का आपसी विश्वास भी बार-बार बिखर रहा था । इधर, आंदोलन के बारह दिन बीत जाने पर एक अखबार में अकादमी के प्रभारी सचिव विभा सिन्हा की झूठी प्रतिक्रिया थी कि “मेरी बर्खास्तगी की मांग को लेकर चल रहे किसी भी आंदोलन की खबर मुझे नहीं है ।”
प्रेमचंद रंगशाला और पटना रंगमंच ।
सन 1971–72 में यह रंगशाला बनकर तैयार हुआ । अपने पहले ही कार्यक्रम में ही इसे हिंसा की आंधी में झुलसना पड़ा । आपातकाल के दौरान सीआरपीएफ का कब्ज़ा रहा । जिसे मुक्त कराने का बीड़ा पटना के संस्कृतिकर्मियों ने उठाया । कलाकार संघर्ष समिति के बैनर तले पुलिस की लाठियां खाई । कवि कन्हैया जी की शहादत तक हुई । रंगशाला जब मुक्त हुआ तो खंडहर में बदल चुका था । पटना के नाट्य दलों ने इस खंडहरनुमा रंगशाला की साफ़-सफाई की और पूर्वाभ्यास के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । बीच-बीच में प्रायोगिक स्पेस बनाकर कुछ नाटकों का मंचन भी किया गया । इधर कलाकारों का संघर्ष जारी था । आखिरकार 1987 में तत्कालीन मुख्यमंत्री को इसके पुनरोद्धार की घोषणा करनी ही पड़ी । जो आखिरकार 14 जनवरी 2012 में जाकर पूरा हुआ । किन्तु साल भर में ही आलम यह है कि कुर्सियां टूट रही है, छत टपक रहे हैं, लाइटों से बल्ब गायब हैं, मंच की बुरी हालत हो चुकी है और आधुनिकतम मशीनें खराब हो रही हैं ।
‘समस्त संस्कृतिकर्मी’ के इस आंदोलन में प्रेमचंद रंगशाला मुक्ति की लड़ाई के कुछ पुराने सिपाहियों का भी आगमन हुआ । उनके अनुसार प्रेमचंद रंगशाला का मुक्ति संघर्ष अभी अधूरा है । हमारी लड़ाई इसे सीआरपीएफ के कब्ज़े से मुक्त करके सरकार के कब्ज़े में डालने के लिए नहीं थी । यह जब तक संस्कृतिकर्मियों के लिए सुलभ नहीं हो जाता तब तक इसकी लड़ाई अधूरी ही रहेगी । खेद है कि उस वक्त के मुक्ति संघर्ष के कुछ अग्रणी योद्धा आज संस्कृतिकर्मी के नाम पर धब्बा बन गए हैं और इस आंदोलन के खिलाफ़ लगातार दुष्प्रचार कर रहे हैं । वहीं जनसंघर्षों में बिना शर्त शिरकत करनेवाले लोग अब या तो अपनी अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं या नियम, शर्तें तय करते हुए निमंत्रण-पत्रों का इंतज़ार करने में लगे हैं ।
बिहार संगीत नाटक अकादमी का पंचनामा ।
राज्य सरकार द्वारा चाक्षुष कला और प्रदर्शनात्मक कला के लिए राज्य कला अकादमी का गठन 26 मार्च 1981 को किया गया । राज्य सरकार का पत्र, पत्रांक 213 दिनांक 16 अप्रैल 1982 से यह जानकारी मिलती है कि कला अकादमी के गठन के साथ ही अराजकता शुरू हो गई थी । तत्कालीन सचिव-सह संयोजक ने बिना विज्ञापन कराये, बिना कार्यकारी परिषद् या सामान्य परिषद् से सहमति लिए, बिना आवेदकों से आवेदन प्राप्त किये, बिना योग्यता का निर्धारण आदि किये स्वयं ही न केवल कर्मचारियों की नियुक्ति की बल्कि उनका वेतन दर और महंगाई भत्ता भी तय कर दिया, तत्पश्चात कार्यकारी परिषद् और सामान्य परिषद् में प्रस्ताव पेश कर स्वीकृत करके इसे वैध व संवैधानिक भी बना दिया ।   
वित्तीय वर्ष 1986-87 में राज्य कला अकादमी को समाप्त कर चाक्षुष कला के लिए बिहार ललित कला अकादमी और प्रदर्शन कला के लिए बिहार संगीत नाटक अकादमी का गठन हुआ । दस्तावेजों के अनुसार 1981 से लेकर 2002 तक अकादमी में वित्त समिति के गठन की अधिसूचना तक जारी नहीं हुई । अकादमी में वित्तीय और प्रशासनिक अराजकता और सरकारी नियमों का उल्लंघन खुलेआम होता रहा । दिनांक 16 नवम्बर 2002 को कार्यकारी परिषद् और सामान्य परिषद् की बैठक में अकादमी के अध्यक्ष डा । शंकर प्रसाद लिखते हैं - “अकादमी कार्यालय पूरी तरह से अपने दायित्व के प्रति असावधान, बेफिक्र और मर्यादा की रक्षा में अक्षम है ।” 28 सितम्बर 1994 को अकादमी में सरकारी कोष के दुरूपयोग की जाँच की मांग करते हुए वित्त विभाग, बिहार सरकार को लिखे एक गोपनीय पत्र (पत्रांक – बि.सा.ना.अ./01 गो./94 ) में श्री प्रसाद लिखते हैं - “अकादमी में वेतन भत्तों आदि मद में बड़ी राशियां बिना समुचित आदेश के निकाले जाने के कई मामले प्रकाश में आए थे जिनकी जाँच के लिए अकादमी ने कई बार आपके विभाग से समय-समय पर आग्रह पहले भी किया है । संस्कृति निदेशालय/विभाग को भी कई पत्र इस सन्दर्भ भेजे गए हैं, लेकिन विशेष कारणों से संस्कृति विभाग अकादमी में हुई वित्तीय अनियमिताओं/संभावित गबन के मामलों की जाँच करने से कतरा रही है ।” इसी पत्र में वे आगे लिखते हैं “संस्कृति विभाग बार-बार पूछे जाने पर भी अकादमी के पत्रों का जवाब नहीं देता । इसका लाभ उठाकर बिना प्राधिकृत सरकारी आदेश के उक्त मनोनीत असंवैधानिक पदधारी व्यक्ति (सचिव) ने इन ग्यारह-बारह वर्षों में पूर्णकालिक सचिव के टाइमस्केल वेतनमान पर स्वयं ही आदेश प्रदानकर अब-तक 8-9 लाख से ऊपर की राशि की निकासी भी कर ली है ।” पत्र में आगे है “कई कार्यक्रमों के मद में अकादमी को भेजी गई राशि को संस्कृति निदेशालय सीधे आदेश देकर निदेशालय के अधिकारियों को भी चेक के माध्यम से राशि देने के लिए मजबूर कर राशि प्राप्त करता रहा है और अपने ढंग से कार्यक्रम आयोजित कर राशियों को खर्च करता रहा है । इन राशियों का भी हिसाब बार-बार मांगने पर भी सम्बंधित अधिकारियों से प्राप्त नहीं हुए हैं ।” पत्र में अकादमी कार्यालय से सम्बंधित संचिकाओं और लेखा पंजियों को गायब करने में दोषी लोग सफल हो जाएंगे ऐसी आशंका के साथ ही निष्पक्ष जांच की मांग भी की गई है ।
‘संवैधानिक वित्तीय एवं प्रशासनिक अराजकता के कारण बंद होने की कगार पर पहुँची अकादमी को सशक्त बनाना’ शीर्षक के तहत 30 मई 2002 को वे एक और पत्र (पत्रांक बि.स.ना.अ/अ.को./232) मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को लिखते हैं जिसका लब्बोलुआब यह है कि 1981 से लेकर आजतक अकादमी में लाखों रुपये की अनिमिततायें प्रकाश में आई हैं । जानबूझकर वित्तीय अंकेक्षण नहीं कराए जा रहे हैं । अकादमी के कार्य संचालन के लिए नियमावली का गठन अब तक नहीं हो पाया है । 1981 से लेकर आजतक संस्कृति विभाग को पच्चीसों पत्र लिखने के बावजूद यहाँ कुछ कर्मचारी सचिव के संरक्षण में कार्यरत हैं और मनमानी राशि उठा रहे हैं । सबकुछ जानते हुए भी संस्कृति विभाग की ख़ामोशी संस्कृति-धन घोटाले में कतिपय अधिकारियों की संलिप्तता की ओर संकेत करती है ।
वर्तमान में भी अकादमी का हाल इन बातों से इतर नहीं है । उपरोक्त बातें स्याह अध्याय के चंद पन्ने मात्र हैं, न जाने और कितने काले अध्यायों को अपने अंदर छुपाए यह अकादमी बिहार के संगीत-नाटक का सूत्रधार होने का दंभ भरती है । वहीं इसके कुर्सियों पर आसीन लोग कलाकार कम कला के दुकानदार ज़्यादा है, जहाँ परसेंटेज का खेल धरल्ले से चलता है और चुकी हर किसी का हिस्सा तय है इसलिए स्थिति “सूरज अस्त, सब मस्त” वाली है । ऐसी भ्रष्ट अकादमियों से किसी भी देश-राज्य के कला का भला नहीं हो सकता । लेकिन सवाल तो यही पैदा होता है कि शिकायत करें तो किससे ? जिधर देखो उधर ही दुकानदारी चालू है, जो अपना मुनाफा देखता है, कला और कलाकारिता का उत्थान पतन देखने का समय और ज़रूरत ही नहीं है ! इस खेल में कलाकार वर्ग शामिल नहीं है, कोई यह कहता है तो सच नहीं है । उपरोक्त स्थिति केवल बिहार संगीत नाटक अकादमी की हो, ऐसा नहीं है । देश की ज़्यादातर अकादमियां इसी पथ के अनुगामी हैं ।
सपने ज़िंदा रहते हैं, मरते नहीं ।
संस्कृतिकर्मियों की सक्रिय भूमिका के साथ बिहार संगीत नाटक अकदमी का पुनर्गठन, नियमावली का निर्माण व प्रेमचन्द रंगशाला को बिहार के सांस्कृतिक वर्तमान, भविष्य तथा इतिहास का साक्षी बनाने के लिए प्रांगण में पूर्वाभ्यास स्थलों का निर्माण, नाट्य साहित्य की प्रमुखता वाला एक पुस्तकालय, क्लासिक फ़िल्में, गीत-संगीत, रंग-संग्रहालय, शोध केन्द्र, नुक्कड़ नाटकों और विचार-गोष्ठियों की एक जगह, रंगमंडल सहित बिहार में एक नाट्य विद्यालय की परिकल्पना व बिहारी अस्मिता तथा बिहार की लोक कलाओं और कलाकारों का संरक्षण - ये कुछ ऐसे सपने हैं जो हर सजग रंगकर्मी देखता है । कला को संरक्षण देने का अर्थ केवल पैसे बांटना नहीं होता । किन्तु हकीकत यह कि फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी भवन में आज साहित्य नहीं, प्रबंधन की पढ़ाई होती है, प्रेमचंद रंगशाला अप-संस्कृति का केन्द्र बनने की ओर अग्रसर है और अकादमी की कारगुजारी जग ज़ाहिर है ।
66 वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर ‘राष्ट्र के नाम संदेश में’ माननीय राष्ट्रपति कहते हैं कि “हमें अपने देश में शासन व्यवस्था एवं संस्थाओं के कामकाज के प्रति चारों ओर निराशा का वातावरण दिखाई दे रहा है ।” ऐसी निराशा किसी भी लोकतान्त्रिक देश के लिए चिंता का विषय होना चाहिए ।

बहरहाल, ‘समस्त संस्कृतिकर्मियों’ के इस आंदोलन के समर्थन में दिल्ली के रंगकर्मियों और रंगप्रेमियों ने बिहार भवन पर प्रदर्शन कर मुख्यमंत्री बिहार के नाम एक ज्ञापन भी दिया, वहीं देश भर के संवेदनशील संस्कृतिकर्मियों का समर्थन मिला । प्रतिरोध का मूल्याकंन सफलता और असफलता के पैमाने से न होता है, न होना चाहिए । बात बस इतनी सी है कि ज़िंदा कौमें प्रतिरोध करती है और करती रहेंगी । प्रतिरोध पर किसी भी वाद, पार्टी, संगठन या व्यक्ति का एकाधिकार नहीं होता । 
अंत में :- कुछ कुर्सियों पर नाम और चेहरे बदल देने से बदलाव नहीं बल्कि बदलाव का नाटक होता है. 

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...