Tuesday, December 11, 2012

उपजाऊ भूमि पर राख की परत


आजतक परती से काम लायक भूमि बनाने की कथा चलती थी पर जब से उद्योगीकरण का बाज़ार गर्म हुआ है तब से काम लायक भूमि पर ईमारत की कथा भी आम हो गई है. आए दिन भूमि अधिग्रहण की ख़बरों और जान देंगें ज़मीन नहीं देगें के नारों से सुचना तंत्र पटा रहता है. ध्यान से देखा जाय तो भारत का शायद ही ऐसा कोई शहर-कस्बा हो जहाँ इस तरह की बात न हो रही हो. विकास से किसी को क्या परहेज हो सकता है पर साथ ही ये भी ध्यान देने की बात है कि इस विकास की शर्तें क्या हैं.
मोकामा टाल क्षेत्र ( जिला-पटना, बिहार ) एशिया के सबसे बड़े टालों में से एक है. जो लोग भी मोकामा टाल क्षेत्र को जानतें हैं उनको ये बात भली भांति पता है कि खेती के लिहाज से यहाँ की भूमि बेहद ही उपजाऊ भूमि है साथ ही वातावरण भी अनुकूल है. यहाँ की मिट्टी के बारे में एक उपकथा ये है कि यहाँ किसान को केवल दो बार खेत जाने की ज़रूरत है – एक बार फसल बोने के लिए और दूसरी बार फसल काटने के लिए. कहने का तात्पर्य ये कि यहाँ की ज़मीन उर्वरक है और प्राकृतिक रूप से कई सारी फसलों के लिए पूरी तरह से अनुकूल भी. यहाँ ईख, प्याज़, मिर्च, गेहूं, धान, मक्का, दलहन, तेलहन सब उपजाया जाता रहा है. एक समय था कि जिस फसल का मौसम होता पूरा गाँव उस फसल के पैदावार से पट जाता. मिट्टी के इतना ज़्यादा उपजाऊ होने के लिए एक तत्व जो सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है वो ये कि लगभग हर साल यहाँ कुछ दिनों के लिए बाढ़ का पानी आता है और पूरे इलाके की ज़मीन को तारो-ताज़ा करके चला जाता है. ये क्रिया दशहरे के आसपास होती है. उस दौरान अमूमन खेत परती हो जाता है या कुछ खेतों में कुछ ऐसी फसल होती जिसे पानी से कुछ ज़्यादा नुकसान नहीं सहना पड़ता. बाढ़ की धार बहुत तेज़ नहीं होती है और अगर ये ज़्यादा दिनों तक न टिके तो फसल को कोई ज़्यादा नुकसान भी नहीं पहुंचाती.
किसी ज़माने में खेती के लिए इस इलाके में राज्य सरकार द्वारा एक ताकतवर ट्यूबेल लगाया गया था. जिसे आज भी यहाँ ‘स्टेट बोरिंग’ के नाम से जाना जाता है. इससे ही दूर-दूर तक खेतों में पक्के सोतों के माध्यम से पानी पहुँचाया जाता था, बदले में किसानों को शायद कुछ मामूली रकम देनी होती थी. ये वो ज़माना था जब यहाँ लोग खुद हल बैल से खेती करते थे और ट्रैक्टरों ने इस इलाके के खेतों का सीना चीरना नहीं शुरू किया था. जिनके पास ज़्यादा ज़मीन थी वो एकाध सहायक रखते थे, जिसे उस इलाके में हरवाहा (हलवाहा) कहा जाता था. ये हलवाहे गाँव के आस पास के भी होते और दहेज में भी आते थे. आज ये ट्यूबेल कई सालों से बंद पड़ा है पर इसका खँडहर इसके हुकूमत की कथा आज भी कहता है. इस ट्यूबेल के बंद होने के पीछे कृषि के प्रति सरकार के निराशाजनक रवैये के साथ ही साथ ये कारण भी है कि अस्सी के दशक में यहाँ बिजली के तारों की भयंकर चोरी हुई. रातों-रात बिजली के तार काट लिए गए और उसे गलाकर एल्यूमीनियम के बर्तन बनाने के कारोबार ने ज़ोर पकड़ा. हर गाँव में तार चोर सक्रिय हुए और हर गाँव में बच्चे बच्चे को ये खबर थी कि ये काम कौन लोग कर रहें हैं. पर प्रशासन ने शायद ही किसी को सजा दी हो. कभी रौशनी में चमचमानेवाला ये इलाका एकबार फिर लालटेन युग में जीने को अभिशप्त हो गया. ये वही समय था जब लालटेन बिहार में सीना ठोककर राज कर रहा था और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लोकतंत्र का एक मसखरा राज कर रहा था.
पिछले कई दशकों से इस उपजाऊ भूमि के लिए कोई नीति बनाई गई हो ऐसा सुनने में नहीं आया. खेती पूरी तरह से किसान और प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया गया. आज जगह जगह प्राइवेट बोरिंग देखने को मिल जातें हैं साथ ही पिछले कुछ दशकों में यहाँ भी छोटे किसान भूमिहीनों में परिवर्तित हुए और अपने हाथ से हर गाँव में कोई एकाध किसान ही खेती कर पा रहा है. सबका रोना एक कि खेती से गुज़ारा अब संभव नहीं. जिनके पास थोड़े-बहुत खेत बचे भी है तो वो या तो पट्टे पर चढें हैं या बटाईदारी पर. पलायन वैसे भी बिहार की त्रासदी रही है सो ये त्रासदी आज भी जारी है. पहले लोग कलकत्ता जाते थे आज दिल्ली-मुंबई.
अभी कुछ साल पहले एक बड़ी हलचल शुरू हुई इस इलाके में. एनटीपीसी ने अपना एक ब्रांच यहाँ खोलने का फैसला लिया. काम शुरू हुआ. भूमि का अधिग्रहण किया गया. सबको ज़मीन की उचित कीमत अता की गई. कुछ आस पास के लोगों को दैनिक मज़दूरी का काम भी मिला और ठेकेदारी भी. आज सबकुछ यहाँ बनके तैयार है. टेस्टिंग हो चुकी है. एनटीपीसी का कोयला से बिजली बनाने का कारखाना शुरू होने ही वाला है. सारी तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है. कोयला लाने के लिए रेलवे का ट्रैक बिछाया जा रहा है. कुछ ही महीने बाद यहाँ रोज़ाना सैकड़ों टन कोयला ( लगभग 18 रैक ) जलेगा जिससे लगभग 36,000 मेगाहर्ट्ज बिजली का उत्पादन होगा और एनटीपीसी की चिमनियां धुंए के साथ सैकड़ों टन कोयले की राख वहाँ  के वायुमंडल में फैलाएंगी जो अंततः वहाँ की भूमि पर रख की एक परत बनाएगी. किसी उर्वर भूमि पर कोयले की राख की परत का अर्थ है साल दर साल उस उपजाऊ भूमि का बंजर भूमि के रूप में परिवर्तन. यह एक धीमी प्रकिया के अंतर्गत होगा और आश्चर्य नहीं कि आनेवाले चंद दशकों में यहाँ की सैकड़ों एकड़ उपजाऊ भूमि बंजर हो जाए. एक कृषिप्रधान देश में कृषि योग्य भूमि की ये दशा अब कोई नई बात भी नहीं.

Thursday, December 6, 2012

एक ज़िंदा प्रेत का बयान


आज से ठीक बीस साल पहले यानि, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्ज़िद ढाह दिया गया. देश को एकबार फिर धर्मान्धता की अंधी सुरंग में झोंकने की कोशिश की गई. जिसमें लोग कामयाब होते भी दिखे पर भला हो इस देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप का जो देर सवेर ही सही पर कारगर तरीके से प्रकट होता रहता है. एक तरफ़ कुछ पगलाए नेताओं के बहकावे में आकर लोग कानफाडू शोर के साथ हत्याओं में संलग्न होतें हैं वहीं दूसरी तरफ़ बहुतेरे लोग चुपचाप धर्मनिरपेक्ष होकर दूसरे धर्म के लोगों को यथासंभव संरक्षण देते रहतें हैं. ये भारत का एक अजीब विरोधाभासी सत्य है. किसी दूसरे मज़हब के कब्र पर अपने मज़हब का जश्न मानना अभी भारतीय परम्परा में शामिल नहीं हुआ है, पर ऐसा भी नहीं कि ऐसे उदाहरण नहीं मिलते. हर काल में धार्मिक कट्टरवाद ने अपने स्वार्थ के लिए फन उठाया है और हज़ारों बेगुनाहों का रक्तपान करके अपने बिल में समा गया. धर्म, जाति आधारित राजनीति से शायद ही कोई चुनावी दल अछूता हो. हाँ कोई खुलके बोलता है तो कोई कम्बल के नीचे घी पीने का मज़ा लेता है. कोई दलित का दल है, कोई अल्पसंख्यक का, कोई हिंदुओं का तो कोई यादवों का, कोई कुर्मी का, कोई इसका तो कोई उसका. हर किसी के पास अपना घोषित-अघोषित नकाब है जिसका इस्तेमाल समय के हिसाब से होता रहता है.
जहाँ तक सवाल मुद्दे का है तो किसी भी मुद्दे को आखरी मुकाम तक पहुँचाने की इच्छा किसी के पास नहीं. मुद्दा है तो नेता है, नेता है तो पार्टी है, पार्टी है तो वोट है, वोट है तो सत्ता है, सत्ता है तो पूछ है, पूछ है तो मूंछ है, मूंछ है तो चमचे हैं, चमचे हैं तो जनता है. इसलिए सब सत्ता की राजनीति करते हैं, वोट पाने की राजनीति करतें हैं. वोट पाने के लिए जो भी नैतिक-अनैतिक किया जाय सब जायज है. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सब यथास्थिति कायम रखने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहें हैं. तभी तो 20 साल हो गए पर बाबरी मस्ज़िद का मुक़दमा जहाँ था आज भी वहीं है. किसी को फैसले की जल्दी नहीं. सब बस घाव ज़िंदा रखने में लगे हैं जिसमें उंगली डालकर वोट की रोटी सेंकी जाय. इसे एक धर्मनिरपेक्ष देश के ऊपर ज़ोरदार तमाचा नहीं तो और क्या माना जाना चाहिए ?
जब बाबरी मस्ज़िद के गुम्बद गिराए जा रहे थे तो इन गुम्बदों के साथ वे लोग भी नीचे गिर गए जो इन गुम्बदों पर सवार थे. इस क्रम में पचास से ज़्यादा कारसेवक घायल हुए और कम से कम छः कारसेवकों की दुखद मौत घटनास्थल पर ही हो गई. आज इन कारसेवकों के परिवारों की सुध लेनेवाला शायद ही कोई है. कोई पिता अपने बेटे के गम में फ़ना हो गए, किसी की पत्नी, तो किसी बच्चे ने अपने पिता को सदा – सदा के लिए खो दिया. अपने घर के जवान सदस्य को खोने का गम किसी भी मंदिर-मस्ज़िद के गम से ज़्यादा बड़ा होता है. इन्हीं छः लोगों की वेदना को ध्यान में रखकर बिहार के संस्कृतिकर्मी एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता अनिल ओझा ने एक कविता रची थी, जो उस दौरान बहुत जगह पढ़ी, सुनी और पढ़ाई गई. हालांकि 12 फ़रवरी 1998 को अनिल ओझा की दुखद मौत हो गई पर अपनी रचनाओं के द्वारा वो आज भी हमारे बीच हैं.
जहाँ तक सवाल बाबरी मस्ज़िद का है तो सबको पता है यह एक सुनियोजित घटना थी जिसके लिए सरकार द्वारा गठित जस्टिस एमएस लिब्राहम आयोग ने अपनी रिपोर्ट में देश के कई सफेदपोश नेताओं को सीधे – सीधे दोषी करार दिया. संसद के दोनों सदनों में खूब गर्मागर्म बहसें भी हुईं. बस, फिर जैसी की इस महान लोकतंत्र की परम्परा है मामला ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया. जहाँ कण कण में भगवान का विचार है वहाँ एक मंदिर का विचार संकीर्णतावाद नहीं तो और क्या है. खैर, हमारे ये महान सांप्रदायिक नेता आज भी संसद की कुर्सियों पर विराजमान हैं और लोकतंत्र का महान नाटक शान से खेला जा रहा है. बहरहाल, अनिल ओझा की कविता का स्वाद लीजिये.

एक इकबालिया बयान

मैं एक ज़िंदा प्रेत, चाहता हूँ देना बयान
ज़िंदा बचे देश को मरने के बाद - मैं
जो न धर्म हूँ न अधर्म, न झूठ हूँ न सच
नेति – नेति इति जैसे रामलला
मरने के बाद यह समझाता हूँ कि
इतिहास – परम्परा – रवायत
ज़िंदा लोगों की चीज़ें हैं
मुर्दे इसके काम के नहीं
जैसे कि रामलला
शून्य से हमारा कोई भी रिश्ता
या तो शून्य होता है
या यथास्थिति या अपरिभाषित
आदमियों के काम की ये चीज़ें नहीं
जैसे कि रामलला
जिस ईमारत की ईंट से ईंट बजने गया था
उसकी ईंट मेरे दिमाग पर बजी
खट्ट – मैं चिल्लाया – त्राहिमाम.
दूसरी ईंट गिरी
खट्ट – देख के भाई
देव वाणी संस्कृत
मर्यादा पुरुषोतम के साथ
हाथ से निकाल गई.
मातृभाषा ही काम आई.
खट्ट – सिर को किसी तरह ढँक पाया
अपना हाथ ही काम आया
खट्ट – खट्टाक – खट्टाक घड़ ....धड़ाक
ऊपर भीड़ का रेला चढ़ रहा था
मेरे भीतर मृत्यु का अँधेरा मचल रहा था
मैं जिसके साथ था
जिनके काम में, मुझे बटाना हाथ था
अब अपनी जान की खातिर
उन्हीं के खिलाफ़ था.
मैं जो हिंदू था
कब्र में गड रहा था, गाड़ा जा रहा था
मैं जो मंदिर बनाने गया था
मस्ज़िद में मर रहा था, मारा जा रहा था
नहीं थी मगर मेरे दिमाग में ऐसी कोई बात
समूची चेतना के साथ इतना सोच रहा था कि
किसी तरह मस्ज़िद का गिरना रुक जाए
तो जान बच जाए
मेरी धमनियों में बह रहा लहू जम रहा है
मेरे स्नायु शिथिल हो रहें हैं
मेरा अस्त होनेवाला है
मेरे देश के लोगों नोट करो -
वक्त बहुत कम रह गया है
मत बनना तुम जटायु
मत कटवाना अपने पंख किसी राजा के लिए
चाहें रामभक्त कहलाने का
गौरव मिले या न मिले
मत उकसाना अपने भाई को
आग के गोले तक जाने के लिए
अगर उकसाओ तो देना साथ चाहे मिले आग
जब मैं यह कह रहा हूँ
तो मेरा मतलब कतई नहीं है
कि सीता की लड़ाई ज़रुरी नहीं है
सीता जो ज़मीन है
सीता जो औरत है
सीता जो इज्ज़त है
पर किसी राजा के लिए नहीं खुद के लिए
इंकार कर दो बनाने से ययाति
यदि अमरता, बेटों की उम्र छीनकर मिलती हो
मैं मर रहा हूँ, मैं डर रहा हूँ
नहीं लेने आया मुझे कोई धर्मराज
आया है यमराज
सुन रहा हूँ सुदूर नेपथ्य से अपने ऊपर लगाये
अभियोग की ध्वनि
घर्मों या बाधते धर्म न धर्म कुधर्म तत्.

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...