Friday, February 8, 2013

महुआ माजी प्रकरण के साये में...

मनुष्य स्वभाव नापसंद बात को सदा झूठी मान लेना चाहता है, और इसके बाद इसके खिलाफ़ दलीलें भी आसानी से तलाश कर लेता है | इस प्रकार समाज जो बात नहीं मानना चाहता, उसे झूठी बताता है | - सिगमंड फ्राइड जनरल इंट्रोडक्शन टु साईको एनैलिसिस’.

मौखिक इतिहास ये प्रमाणित करता है कि साहित्यिक फिजाओं में महुआ माजी विवाद काफी अरसे से गुलज़ार था | पाखी नामक पत्रिका ने अपने दिसम्बर अंक से इसे शब्दों में कैद करने का काम किया है | पर इसका असली श्रेय शायद नया ज्ञानोदय को जाना चाहिए | यह कितना सही, गलत हौसले का काम है इस पर तत्काल कोई भी राय देना उचित नहीं | सारे आलेख पढ़ने के पश्चात् जो एक बात समझ में आती है वो ये कि यहाँ साहित्य सेवा की भावना उतनी नहीं है जितनी की दिखाई जा रही है | एक दूसरे के खिलाफ़ जमके शब्दों के बाण चलाये जा हैं | बकौल फ्राइड शब्दों द्वारा एक आदमी दूसरे को अधिक से अधिक सुख भी पहुंचा सकता है और उसे घनी से घनी निराशा में भी डाल सकता है; शब्द भावों को जगातें हैं |
तर्क और अपना पक्ष रखने के नाम पर एक दूसरे को शब्दों के माध्यम से ललकारा जा रहा हैं | एक ऐसा वाक् युद्ध चल रहा है जहाँ हर चीज़ जायज है | इस महाभारत में राँची के कुछ बुद्धिजीवियों ने बलराम ( तटस्थ ) बनना स्वीकार कर लिया है तो कुछ इतने ज़्यादा उत्तेजित हैं जैसे आज ही धर्म की स्थापना कर देंगें | खैर, समय लिखेगा सबका इतिहास | वैसे छोटे शहर की अपनी ही विडम्बना और पीड़ा होती है |
जब हम किसी चीज़ से तटस्थ होने का निर्णय करतें हैं तो क्या हम सच में तटस्थ होते हैं या कोई भय अथवा सुविधा है जो हमें तटस्थ होने पर मजबूर करती है ? यह भय मर्यादा रुपी भी हो सकता है और लिहाज रुपी भी ! यह कहना पूर्णसत्य नहीं होगा कि महुआ माजी प्रकरण फालतू, गैरसाहित्यिक और निहायत ही व्यक्तिगत विछोभ से पैदा हुआ है | साहित्य और समाज का रिश्ता समय के हिसाब से बदला है | साहित्यिक संगठन कमज़ोर पड़े हैं वहीं आज का साहित्य केवल लेखक-पाठक संबंधों पर ही केंद्रित नहीं है | यह एक व्यवसाय भी है और इस बात की खुलेआम घोषणा करनेवाले प्रकाशक भी है कि लेखक की मार्केटिंग करना प्रकाशक के काम का हिस्सा है | मार्केटिंग में क्या-क्या तत्व आतें हैं यह कौन तय करेगा ? जवाब साफ़ हैप्रकाशक ! आपका पैसा है, आपका पुरस्कार और आपका प्रकाशन, तो जो आप समझतें हैं, कीजिये |” साहित्य में मार्केट या मार्केट में साहित्य, दोनों में से कौन ज़्यादा साहित्यिक होगा ? प्रकाशक की निगाह में सारे लेखक बराबर नहीं हैं | खैर हिंदुस्तान के सन्दर्भ में कला और साहित्य में मर्यादा की सीमा से लेकर क़ानून तक अभी बहुत कुछ तय होना बाकी है |
यह पूरा प्रकरण जिस तरह से चल रहा है वो शरद जोशी का नाटक अन्धों का हाथी की याद दिलाता है जिसमें हर किसी का अपना-अपना सच होता है | पर सामूहिक सच कई सारे व्यक्तिगत सच को मिलाकर ही बनेगा, अकेले नहीं | सच बहुआयामी होता है और सामूहिक सच तक पहुँचाना इतना आसान भी नहीं है |
इस प्रकरण की शुरुआत नया ज्ञानोदय में राँची के ही एक साहित्यकार द्वारा महुआ माजी के दूसरे उपन्यास पर लिखी गई टिपण्णी से हुई, जिसमें मोड़ देने का काम पाखी के दिसम्बर अंक के आलेख ने किया | उसके बाद तो जैसे जंगल में आग लग गयी, पूरा माहौल ही मेलोड्रामानुमा हो गया जिसमें सत्य, असत्य, ईर्ष्या, जलन, द्वेष, अहम्, नक़ल, असल, सम्मान, असम्मान, आरोप, प्रत्यारोप, रूप, अरूप, सेक्स, स्त्री, पुरुष, भाषा, भाषी, इलाका, पक्ष, विपक्ष, शब्द, अपशब्द, जनवाद, माओवाद, प्रचार, चोरी, हिंसा, अहिंसा, इतिहास सबकी खिचड़ी तैयार होने लगती है, बिलकुल किसी मसालेदार फिल्म की तरह | यह किसी नाटक, उपन्यास, फिल्म का एक शानदार कच्चा माल है जिसमें सारे पत्र ग्रे शेड के होंगे, नायक-खलनायक-विदूषक के मापदंडों से परे, एकदम यथार्थवादी | वैसे भी वास्तविक चरित्रों का शेड ग्रे ही होता है | क्यों महुआ माजी का अगला उपन्यास इसी प्लॉट पर केंद्रित हो !
महुआ माजी प्रकरण किसी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम डिबेट की तरह चल रहा है जहाँ सारे विद्वान अपनी-अपनी बात पर अड़े हैं | यहाँ जो जितना ज़ोर से बोल सकता है वो उतना ही सच्चा जैसा लगता है | यहाँ कौन कितना सच बोल रहा है वो तो बोलनेवाला ही जाने पर इस विवाद को प्रकाशित करनेवाली पत्रिका आजकल राँची के लिए हॉट केक बनी हुई है | पाठक और साहित्यिक समाज दोनों आजकल पाखीमय है | लोग चटखारे लेकर इस व्यंजनयुक्त प्लेट का भरपूर रसास्वादन कर रहें हैं, करा रहें हैं | अच्छा है इसी बहाने साहित्यिक समाज का सच भी सबके सामने रहा है | दोस्तोयेव्स्की ने कहा था कि अगली शताब्दी में नैतिकता जैसी कोई चीज़ नहीं होगी | कहनेवाले ये भी कह रहें हैं कि दिल्ली के लोग झारखण्ड में मुर्गा लड़ाकर मज़ा ले रहें हैं जिसमें कुछ राँचीवासी भी भरपूर मदद कर रहें हैं |
शब्दों का कमाल इस्तेमाल तो पहले से ही आलेखों में हो रहा था इस बार महुआ माजी के जन्मदिन ( उम्र) तक का खुलासा ( ब्रेकिंग न्यूज़ ) है ( हद है !) साथ ही यशपाल की एक कहानी का अंश भी है जहाँ से महुआ माजी पर अपने उपन्यास में एक प्रकरण कॉपी करने का आरोप है | महुआ माजी ने साहित्यिक पंचायत की बात कही तो स्टिंग ऑपरेशन, गुप्त कैमरे, ब्रेन मैपिंग तक की बात भी होने लगी | शुक्र है किसी ने सच का सामना ( एक लोकप्रिय टेलीविजन शो ) और पुलिस की थर्ड डिग्री के इस्तेमाल की बात नहीं कही | आश्चर्य नहीं होगा कि किसी दिन राँची की सड़कों पर साहित्यिक युद्ध का ऐलान हो जाए ! आक्रमण !!
इस बार महुआ माजी प्रकरण पर कुछ पाठकों ने भी राय व्यक्त की है | पाठक क्यों पीछे रहें भला ? बहरहाल, इस प्रकरण के मद्देनज़र धर्मवीर भारती लिखित नाटक अंधायुग की कुछ पंक्तियाँ याद रहीं हैं -
टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा
उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है
पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा
यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों को खोना ही खोना है
अन्धों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अन्धापन...
विष उगलने से कोई नीलकंठ नहीं होता, नीलकंठ होने के लिए विष का पान करना पड़ता है | बात हो, जमके हो पर व्यक्ति केंद्रित नहीं, प्रवृति केंद्रित | तभी इस उथल-पुथल से कुछ सार्थक चीज़ें निकल पाएंगी वरना भूकंप केवल तबाही मचाता है कुछ नया नहीं रचता | तत्काल यहाँ कड़वाहट के सिवा किसी के भी हिस्से में कुछ नहीं रहा | इस पूरे प्रकरण में रसास्वादन करना स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं है और राँची ऐसे रोग के इलाज के लिए प्रसिद्ध है |
शैलियरी और मोज़ार्ट के रिश्ते पर पिटर शैफर का एक विश्वप्रसिद्ध नाटक है एमेडियस, जिस पर मिलोन फिर्मन ने इसी नाम से एक विश्वप्रसिद्ध फिल्म का निर्माण किया | जिसमें शैलियरी अपने सपने और ईर्ष्यावश मोज़ार्ट को मार तो देता है किन्तु मोज़ार्ट के संगीत से हार जाता है और विक्षिप्त जैसा हो जाता है | फिल्म की शुरुआत में ही बूढा शैलियरी आत्महत्या की कोशिश करता है, उसे उठाकर ले जाया जा रहा है रास्ते में शैलियरी देखता है कि लोग मोज़ार्ट के धुन पर नाच रहें हैं | किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि चालीस ऑपेराओं के लेखक महान रॉयल संगीतकार शैलियरी आज किस हालत में है | उम्मीद है यहाँ ऐसा कुछ नहीं चल रहा होगा |

विवाद निम्न लिंक पर पढ़ा जा सकता है http://www.pakhi.in

Friday, February 1, 2013

विश्वरूपम् - हाय ! हाय !! भावना फिर आहत हो गई!


कमल हसन की फिल्म विश्वरूपम को सेंसर बोर्ड पास कर देती है | 25 जनवरी को फिल्म का तमिल संस्करण प्रदर्शित होने वाला था पर 23 जनवरी को फिल्म दो सप्ताह के लिए प्रतिबंधित कर दी जाती है | जो कारण बताया जाता है वो ये कि कुछ मुसलिम संगठनों ने आरोप लगाया है कि फिल्म में उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया है, इससे हमारी भावना आहत हुई है ! आरोप बिना फिल्म देखे लगाया जाता है |29 जनवरी को सिंगल बेंच अदालत पाबन्दी हटाती है किन्तु डबल बेंच अदालत उसे फ़ौरन बहाल कर देती है | कमल हसन साफ़ शब्दों में यह कहतें हैं ये कि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, विवाद धर्म की वजह से नहीं, राजनीति की वजह से हो रहा है | आहत कमल हसन किसी धर्मनिरपेक्ष स्थान की तलाश में हिंदुस्तान छोड़ने तक की बात करते हैं | फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार, गायक, कोरियोग्राफर पद्मश्री कमल हसन की पहचान एक ऐसे फिल्मकार की है जो प्रयोग करने और चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं से गुज़रते हुए व्यावसायिक फ़िल्में बनाता है |  
हिंदुस्तान, एक तरफ़ जहां विश्व का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र होने का दावा करता है, वहीं दूसरी तरफ़ यहाँ भावनाओं के नाम पर ऐसी राजनीति होती है कि बेचारा लोकतंत्र भी शर्मिंदा हो जाए | ये निर्लज भावनाएं किसी भी बात पर आहत हो जाती है, ठीक वैसे ही जैसे संस्कृत नाटकों या पुरानी फिल्मों में नायक के नाम मात्र से ही नायिका पानी-पानी होकर पल्लू लपेटने लगती थी | कई बार तो नायक का ख्याल मात्र ही काफी होता था पानी-पानी होने के लिए | पुरानी कहावत है कौआ कान ले गया वो आज तक सार्थक है और लोग दल-बल लेकर कौए की औकात बताने निकाल पड़ते हैं | जब जब लोग इस मूड में आए, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक तरीके की हैसियत रामू काका से ज़्यादा नहीं रही |
ऐसी भावनाएं खासजन की बपौती हैआमजन की नहीं ! सो उन खास जन की ही भावनाएं आहत होती हैं/हो सकती हैं | जब इनकी आहत हो गई तो ऐसा मान लिया जाना चाहिए की देश, कौम, समुदाय आदि-आदि सबकी हो गई | ये खास तरीके की आहत होनेवाली भावनाएं हर दल और हर वाद के पास है | भावना के आहत होने के लिए किसी भी वाद के प्रति अति-आस्थावान होना आवश्यक शर्त है | यही वो चीज़ है जो चीज़ों को अनटचेबल बनती है | इस अनटचेबल को टच करने के विचार मात्र से ही आहत-भावनाओं का अलार्म बज उठता है !
सेंसरबोर्ड, कोर्ट ने फिल्म देखी उनकी भावना आहत नहीं हुई पर ये खास लोग पता नहीं क्या खातें हैं कि इनकी भावनाएं फटाफट आहत हो गई | तमिलनाडु में फिल्म बैन कर दी गयी है | मुख्यमंत्री जयललिता कहती हैं – यह फैसला संभावित हिंसा की गुप्तचर सूचनाओं पर आधारित और सुरक्षाकर्मियों की कमी के कारण है ये गुप्त सूचनायें किसने, कैसे, कब दीं ये बात गुप्त रखने की मर्यादा है राजनीति में सो यहाँ भी गुप्त ही है ! वैसे, अपने ज़माने की बोल्ड अदाकारा और अब एक दबंग राजनीतिज्ञ, बिजनेसवूमन और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता इस कारण भी ज़रा नाराज़ चल रहीं थी कि कमल हसन ने इस फिल्म के डीटीएच अधिकार का करार उनकी टीवी के साथ नहीं किया और प्रधानमंत्री पद के लिए लुन्गीवाले ( चिदम्बरम ) की तारीफ़ की |
यथार्थ के परिवेश में जघन्य से जघन्यतम बलात्कार, हत्या पर जिनकी भावना आहत नहीं होती वो फ़िल्मी पर्दे पर रचित मायालोक के बलात्कार, हत्या के दृश्य को देखकर आहत हो जाते हैं | समाज का सबसे असंवेदनशील तबका कला, संस्कृति की संवेदनशीलता पर जबरन अपना हक़ जताने लगता है | अनैतिकगण नैतिकता पर प्रवचन देतें हैं और लकीर के फकीर स्वतंत्रता की बात करने लगते हैं, सरकारें वोट बैंक की राजनीति का ताला अपनी ज़बान पर लगाकर चुपचाप तमाशा देखने लगती हैं | मुस्लिम वोट, दलित वोट, ब्राह्मण वोट, ये वोट, वो वोट ! तो क्या अब सांप्रदायिक और अंध भक्त लोग तय करेगें इस देश का भविष्य ? समस्यायों को सुलझाने और आगे बढ़कर चीज़ों का सही हल तलाशने के बजाय मुट्ठीभर लोगों की गलत और हिंसक भावनाओं के आगे झुक कर बुजदिली का महान उदाहरण पेश करने में हमारी सरकारें और संस्थाएं आखिर कौन सी मिसाल पेश कर रहीं हैं?
फिल्म एक लोकप्रिय कला माध्यम है और किसी भी कला का एक सामाजिक दायित्व भी होता है, जो कला अपने सामाजिक दायित्व को नहीं समझती वो बनियागिरी करती है कलाकारी नहीं | हर साल बेसिर-पैर की कहानियों पर मार-धाड़ और अश्लीलता का तडका लगाकर सैंकडों फिल्मों बनती हैं उनमें से कुछ देखते ही देखते 100 करोड़ तक कमा लेती है तब किसी की भावना आहत नहीं होती | पर यदि कोई फिल्म, कला या साहित्य, विमर्श की बात करे तब देखिये हर समुदाय के ठेकेदार एक राग में सियार रुदन शुरू कर देतें हैं कि हाय हाय हमारी भावना आहत हो गई, अब मैं तेरा नाश करके की दम लूँगा !
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-स्वतंत्रता चिल्लाने से कुछ हासिल नहीं होगा जब तक कि बौद्धिक स्तर में सुधार और राजनीति का चरित्र लोकतान्त्रिक नहीं होता | व्यक्तिगत अहम् की पूर्ति के लिए राजनीति का इस्तेमाल और चीज़ों को नकार देने की प्रवृति का बलपूर्वक दमन करने की आवश्यकता है | यह काम जनपक्षीय तरीके से एक मज़बूत लोकतान्त्रिक सरकार ही कर सकती है पर अफ़सोस कि हमारे पास सरकार तो है, लोकतंत्र भी है, पर मजबूत और जनपक्षीय सरकार नहीं | यदि होती तो संजय गांधी किस्सा कुर्सी का नामक फिल्म के प्रिंट जलाने का साहस नहीं करते |
किसी ज़माने में रुदालियों का बड़ा प्रचलन था | वो भाड़े पर मातम करतीं थीं | मरनेवाले से उनका कोई संवेदनात्मक लगाव न होते हुए भी वे छाती पीट-पीटके रोती थीं | इस काम के एवज में उन्हें धन मिलता था | यह संवेदना और मातम के प्रदर्शन का धंधा था जो मरनेवाले और उसके परिजनों की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगता था कि फलां की मौत पर इतनी रुदालियों ने इतनी देर तक मातम किया | आज यही काम कला-संस्कृति के ये ठेकेदार अंजाम दे रहें हैं ! बिना देखे-सुने-समझे आहत होने का रुदन कर रहें हैं |
अगर भारतीय लोकतंत्र ( जो जैसा भी है ) को एक सुन्दर समाज रचना है तो इन रुदालियों से जैसे भी हो निपटना होगा, नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हर दल और धर्म का अपना एक सेंसर बोर्ड होगा और हर किसी को इनका आशीर्वाद लेना ज़रुरी होगा |
कमल हसन से मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है | फिल्म पर धारा 144 के तहत प्रतिबन्ध लगाया गया है | कमल हसन यदि 24मुसलिम संगठनों के प्रतिनिधियों को फिल्म पहले दिखा देते तो ये नौबत ही नहीं आती जयललिता का ये कथन क्या कोई सन्देश नहीं दे रहा है हिंदी में विश्वरूप(म) आज प्रदर्शित हुई और जिन समीक्षकों ने भी ये फिल्म देखी है वो तमिलनाडु के उन संगठनों और जयललिता पर लानत ही भेज रहें हैं |  

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...