Sunday, November 15, 2015

दिवाली : एक कम्युनिस्ट के बेटे का मूर्खतापूर्ण इमोशनल पोस्ट

बात उस ज़माने की है जब कम्युनिस्ट पार्टी के पास जूनून था, हौसला था। उसके कार्यकर्ताओं की आँखों में नई दुनियां बसने और बनाने का सपना था। हां कुछ नहीं था तो - पैसा। यह बिहार के पृष्ठभूमि में 1974 के छात्र आंदोलन के बाद वाले काल की बात है। जब कम्युनिस्ट होलटाइमर अपना घर परिवार छोड़कर अपने-अपने इलाके में किसी फकीर की तरह रहते थे। जो मिलता वो खाते, जहाँ नींद लगती वहीं जनता के साथ ही किसी घर, दालान या खुले आकाश के नीचे में सो जाते। सम्पत्ति के नाम पर उनके पास बस एक सर्वोदयी झोला होता जिसमें कलम, कॉपी, किताब, एकाध कपड़े के अलावा यदि कुछ होता तो वह था नई दुनियां बनाने का सपना। इसी काल में शायद “झोलटंग” नामक शब्द भी प्रचालन में आया था, जो शायद इनका ही उपहास बनाने के लिए प्रचलित हुए होगा। वैसे भी झोला और दाढ़ी तो उन दिनों फैशन बन ही गया था। महिलाओं की दाढ़ी आती नहीं, हां महिला कार्यकर्त्ता भी होंगे ही उन दिनों, अब वो झोलटंगी करती थीं या नहीं यह एक अध्ययन का विषय है।
वह चिट्ठी युग था - मोबाईल और टेलीफोन युग नहीं। वे कार्यकर्त्ता घर से महीनों महीना गायब रहते और उनके घरवालों को उनकी कहीं कोई खोज-खबर नहीं मिलती। अब ज़रा कल्पना कीजिए उन पत्निओं की हालत का जो इनसे ब्याह दी गईं थी और जिन बेचारियों को यह समझ ही नहीं आता था कि उनका पति आखिर करता क्या है। भिखारी ठाकुर की नायिका प्यारी सुंदरी को तो कम से कम यह तो पता था कि उसका पति बिदेसी बिदेस गया है तो नगदा-नगदी दाम कमाने; लेकिन इन पत्नियों को तो यह भी पता नहीं था कि उसके अच्छे खासे पढ़े लिखे पति कोई ढंग की नौकरी करने के बजाय जाता कहाँ है और करता क्या है! नगदा-नगदी दाम की तो बात ही बेकार है। घर आते वक्त कभी पांच पैसे का एक लमचुस (उस वक्त का टॉफी) भी ले आए तो गनीमत। अब इन बेचारियों की किस्मत में इंतज़ार और घर और आस पड़ोस के ताने सुनने के सिवा शायद ही कुछ और था। इनके पति जब कभी पुलिस द्वारा गिरफ़्तार कर लिए जाते तब तो दुःख का पहाड़ ही टूट पड़ता जैसे। क्योंकि मान्यता यह है कि पुलिस तो गुंडे मवाली को पकड़ती है! खैर ये बेचारी पत्नियाँ किसी बटोही के कंधे पर सिर रखके सरेआम – “पीया निपटे नादंवा ए सजनी” भी नहीं गा सकतीं थी।
यह महिलाएं सिमोन द बुवआर भी नहीं नहीं थी कि अपने इस क्रांतिकारी और समाज की चिंता में बेदर्द हो गए पति को त्याग कर अपनी आज़ादी को गले लगा लें। यह एकदम साधारण सोच रखने वाली औरतें थीं जिनके लिए शादी का अर्थ जन्म जन्मांतर का बंधन जैसा ही कुछ था। अब इनके सामने घर के किसी अंधेरे कोने में मुंह दबाते हुए रोने-सिसकने और चुपचाप घरवालों के ताने सुनते हुए घर के काम में व्यस्त रहने के सिवा कोई और चारा भी नहीं था। अपने पति के आगमन पर कितनी रातें इन्होनें मीना कुमारी अंदाज़ में बिताएँ होंगें, किसी सामाजिक विज्ञानी के पास शायद ही इसकी कोई जानकारी उपलब्ध हो!
इनके बच्चों का आलम तो पूछिए ही मत। परिवार यदि निम्न मध्यवर्गीय है तो ये कब खाए, क्या खाए, क्या पहने और कब कुपोषित होते हुए बड़े हुए – किसे पता? साल में एक नया कपड़ा मिल जाए तो गनीमत। ऐसे ही एक ग्यारह वर्षीय लड़के को एक बार दिवाली में दो उपहार मिले। पहला कि पापा/पिताजी/बाबू घर आए और साथ ही कुछ पटाखे भी लाए। पता चला कि पापा को पटना में कोई कम्युनिस्ट पार्टी के नौकरी पेशावाले समर्थक मिल गए थे। उन्हें जैसे ही पता चला कि कॉमरेड घर जा रहे हैं – खाली हाथ, तो बच्चों के लिए कुछ पटाखे खरीदकर पकड़ा दिए और शायद कुछ पैसे भी। पत्नी के लिए कुछ साड़ी – वाडी जैसा कोई उपहार तो शायद नहीं ही था।
अब उस बच्चे को बीड़ीया पड़ाका (पटाखा) और छुर्छुरी तो चलाना आता था लेकिन आसमान तारा कैसे चलाया जाय, पता ही नहीं था। तो गोतिया के एक चाचा आए और शीशे की एक खाली शीशी (बोतल) में रखके आसमान तारा चलाते रहे और वो लड़का उसे ही देखकर मस्त होता रहा।
कुछ साल बाद फिर दिवाली आई। तबतक वो लड़का अपने एक भाई, बहन और माँ के साथ अपने पापा के कार्यक्षेत्र में ही रहने लगा था। उसकी माँ ने अन्तः यह तय कर लिया था कि अब चाहे जो हो उसे अपने पति के साथ ही रहना है। वह एक दलित जाति की बस्ती थी जिसमें उसके पापा कार्यरत थे। उस दिवाली की रात बाकि सारे लड़के पांच-दस बीड़ीया पड़ाका (पटाखा) लेकर फोड़ रहे थे। चौदह साल का यह बच्चा खाली हाथ ललचाई नज़रों से उन्हें देख रहा था। फिर वो दौड़ता हुआ आया और पटाखे की ज़िद्द करने लगा। पापा की जेब खाली थी और माँ के पास पैसे कहाँ से आएगें? पापा ने पहले समझाया, लेकिन बच्चा ज़िद्द पर अडा रहा तो पापा का धैर्य जवाब दे दिया और अपनी मज़बूरी और लाचारी को गुस्से में बदलकर पहले तो बच्चे की पिटाई की फिर उसे घर से (जिस सार्वजनिक स्कूल के एक कमरे में वो रहते थे) बाहर निकाल दिया। बच्चा बाहर निकला और बस्ती के एक खाली पड़े झोपड़ी में घुसकर बहुत देर तक सिसकता रहा। गुस्सा शांत होने पर उसके पापा उसे खोजते हुए आए और गोद में उठाकर सीने से लगा लिया। बच्चा अब भी सिसक रहा था और शायद पिता के आँखों में भी आसूं थे लेकिन अँधेरा इतना ज़्यादा था कि उस बच्चे को उसके पिता के आसूं शायद दिखाई नहीं पड़े।
उस बच्चे ने उसी दिन पटाखा नहीं चलाने का कसम खाया और वो अपने इस कसम पर आज भी कायम है। उसके पिता आज 60 की उम्र पार कर चुके हैं और आज भी मार्क्सवाद में उनकी आस्था अटूट है। वो आज भी कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर हैं लेकिन आज पार्टी को उनकी कोई परवाह नहीं है। पिछले दिनों उसके पापा का एक गंभीर सड़क दुर्घटना हुआ था, जिसमें उनकी जान जाते जाते बची। लेकिन उनके कुछ व्यक्तिगत शुभचिंतकों के अलावा किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। पार्टी ने तो उन्हें न जाने कब का मृत मान चुकी है। कारण यह कि आज जिस लाइन पर उनकी पार्टी चल रही है उससे इनकी पूर्ण-सहमति नहीं है।
पार्टी के पास जब कुछ पैसा आया था तो उसने अपने होलटाइमरों के लिए महीने की उतनी राशि देने का वादा किया था जितने में कि इनका परिवार साधारण तरीके से खा-पी और जी सके लेकिन पिछले कई सालों से इस रकम पर बिना किसी कारण और वाद-विवाद के रोक लगा दी गई।
और बेटे का आलम यह है कि मार्क्सवाद में पूर्ण विश्वास होते हुए भी वह किसी पार्टी का सदस्य नहीं है क्योंकि वह सिद्धांत चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि वह व्यवहार में नहीं है तो उसका उसके लिए कोई महत्व नहीं है।
बेटा पापा को कहता है - "पापा आपने अपने पुरी ज़िंदगी कम्युनिस्ट पार्टी में लगा दी, इस दौरान आपने कई जेनरल सेक्रेटरियों के साथ काम किया और आज आप यहाँ अनवांटेड की श्रेणी में डाल दिए गए हैं। कुछ नहीं तो कम से कम अपनी पुरी ज़िन्दगी पर बेवाकी से संस्मरण ही लिख दीजिए ताकि आनेवाली पीढियां आपलोगों की गलतियों और अच्छाइयों से कुछ सीख ले।” पापा साफ़ माना करते हुए कहते हैं – “इससे कम्युनिस्ट पार्टी की बहुत बदनामी होगी और अभी वो समय नहीं है। हमारा कार्य अभी अधूरा है और अभी बहुत सारे महत्वपूर्ण कार्य करने हैं।”
बेटा एकटक उनकी तरफ़ देखता और सोचता है कि ये लोग किस मिट्टी के बने हैं। इनका विश्वास क्या कभी थकेगा नहीं? हालांकि बेटा ऐसे कई पिताओं को जानता है जो आज अपनी ही पार्टी में अनवांटेड की श्रेणी में डाल दिए गए हैं कुछ तो न जाने कब के मौत के गर्त में समा गए जिनकी असमय और अवसादग्रस्त मौत पर कुछ व्यक्तिगत साथियों के अलावा किसी ने लाल सलाम तक पेश नहीं किया।
बहरहाल, परिस्थिति शायद अभी ज़्यादा अनुकूल नहीं हैं। चुनौतियाँ और अंदर-बाहर का संघर्ष भी खतरनाक रूप से बढ़ा है लेकिन सबसे अच्छी बात है सपनों का ज़िंदा रहना क्योंकि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।
पुनश्च – बेटे के पिता शायद इस पोस्ट को सबसे ज़्यादा नापसंद करें, लेकिन क्या किया जाय बेटे ने भी तो सत्य बोलना और उसके पक्ष में खड़ा होना अपने पिता से ही सिखा है। इसकी कीमत की परवाह जब पिता ने आजतक नहीं किया तो बेटा क्यों करे? वैसे भी सर्वहारा के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता और पाने के लिए सारी दुनियां।

Sunday, November 8, 2015

बिहार विधानसभा चुनाव 2015 उर्फ़ मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है!

मेरा गांव बाढ़ शहर से लगभग आठ किलोमीटर अंदर है लेकिन चुनाव का क्षेत्र मोकामा पड़ता है। बाढ़ शहर से गांव की तरफ़ जानेवाली सड़क का अतिम पड़ाव है मेरे गांव। उसके आगे आज भी पगडंडियों का ज़माना है। गांव के लोग लगभग रोज़ ही बाढ़ जाते हैं, मोकामा नहीं। स्टेशन भी बाढ़ ही पड़ता है लेकिन चुनाव क्षेत्र पता नहीं क्यों मोकामा। आज से पच्चीस साल पहले गांव में बिजली थी और नल से पानी आता था। फिर एक समय इलाके में बिजली के तार की चोरी होने लगी। तो एक रात हमारे इलाके की तार भी चोरी हो गई और हम सब राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से लालटेन युग में चले गए। बिजली गई तो पानी भी गायब हो गया। सड़क की हालत ऐसी की कहाँ गड्ढा है और कहाँ सड़क यह तय कर पाना किसी कठिन पहेली को सुलझाने जैसा दुरूह प्रश्न था। लालटेन युग में अपराध का आलम यह हुए कि एक जाति का आदमी दूसरे जाति के गांव में जाने से भय खाने लगा। खुद मेरे गांव का रास्ता भी बदल गया। अब बगलवाले गांव में जाना खतरे से खाली नहीं रह गया था।
गांव में बहुत पहले स्टेट बैंक की एक शाखा खुली थी। बैंक मैनेजर रोज़ बाहर से आता था। एक दिन बैंक के मैनेजर से ही पैसे मांगने लगे कुछ लोकल गुंडे तो बैंक ही वहां से उठकर पंडारक चला गया। वहां आज भी बैंक के बोर्ड पर मेरे गांव का ही नाम टंगा है। ऐसा नहीं था कि सब एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हों लेकिन दूध भरी बाल्टी को दूषित करने के लिए एक मक्खी ही काफी है।
गांव के दक्षिण कोने पर मुसहर नामक दलित जाति की बस्ती है। एक से एक नायक, जननायक हुए बिहार में लेकिन विकास की कोई भी निशानी वहां तक पहुँच नहीं पाई। राजधानी से वहां के लिए कुछ चला भी तो बड़ी जाति की बस्ती में आकर ठहर गया। कुछ बदलाव हुए भी लेकिन इस बदलाव में सरकार की भूमिका के बजाय पलायन की भूमिका ज़्यादा है। पहले खेत में बनिहार और बंधुआ मजदूर बनकर किसी जानवर की तरह खटनेवाले यह लोग खेती और सामंतवाद की हालत खस्ता होने के उपरांत शहरों की ओर पलायन कर गए। वहां हाड़ तोड़ मेहनत मजदूरी करके रोज़ कमाओ, रोज़ खाओ वाले की श्रेणी में शामिल हो गए। इन्हें सामंतवाद की क्रूरता से तो मुक्ति मिली है लेकिन पूंजीवाद का दमन अभी भी इनकी किस्मत बनी है।
पुरे गांव का चक्कर मारिए तो उसकी भी हालत देश की हालत जैसी ही है अर्थात एक या दो घर अमीरी की चादर लपेटकर तरक्की (आर्थिक रूप से) कर रहे हैं और बाकि के लोग दिन प्रतिदिन और ज़्यादा गरीब होते जा रहे हैं। हां जो बिना किसी भेद भाव के बढ़ रहा है वह आबादी, गरीबी और पलायन। गाँव में पर्व - त्योहारों में थोड़ी रौनक आ भी जाती है लेकिन बाकि दिन तो सन्नाटा ही पसरा रहता है। जो लोग सालों भर यहाँ रहते हैं उनके चहरे देखर साफ़ समझा जा सकता है कि उन्होंने सालों से खुले दिल से ठहाका नहीं लगाया है। गांव की सामूहिकता और बैठकी तो अब इतिहास की बात हो गई है।
खेती यहाँ का मुख्य साधन है लेकिन उसकी हालत खस्ता है और न जाने कब से सरकारों को इसकी कोई चिंता भी नहीं है। घरों के ऊपर केवल टीवी के छाते और हाथ में मोबाईल आ गए हैं। पहले तीन फेज बिजली आती थी, जिससे सीचाई का काम भी होता था अब केवल एक फेज बिजली है जिससे आप टीवी देखिए, फ्रिज चलाइए और मोबाईल चार्ज कीजिए। हां, इधर शहर से गांव जानेवाला सड़क में कुछ सुधार है और कुछ छोटे अपराधी जेल की हवा खा रहे हैं। लेकिन जीवन और समाज के मुलभुत सवाल आज भी जस के तस मुंह बाए खड़े हैं।
यह स्थिति लगभग पुरे इलाके अर्थात एशिया का सबसे बड़ा टाल कहे जानेवाले इलाके की है। ऐसी स्थिति के बीच आखिरकार बिहार विधानसभा का एक और चुनाव संपन्न संपन्न हो गया। बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव मुख्यतः नितीश-लालू महागठबंधन और मोदी की भाजपा के बीच थी। महागठबंधन का मुख्य चेहरा नितीश कुमार थे तो भाजपा ने किसी भी बिहारी नेता को भाव न देते हुए मोदी ब्रांड सुनामी ही चलाने का काम किया। उन्हें शायद यह विश्वास था कि जब यह हवा देश में चल गई तो बिहार में क्यों नहीं चलेगी। जहाँ तक सवाल लालू का है तो वो क्या थे और क्या हो गए यह बात सबको पता है। वैसे भी जयप्रकाश नारायण के शिष्यगण उनका नाम लेकर आज के समय में क्या गुल खिला रहे हैं, यह बात अब जग ज़ाहिर है। कॉंग्रेस की हालत बिहार में चटनी जैसा है जिसे खाते वक्त ज़रा सा चाट लिया जाता है और वामपंथ अपना खूंटा ही तलाश ले तो काफी है।
तो मूल मुकाबला महागठबंधन और मोदी (यह चुनाव व्यक्ति केंद्रित ज़्यादा था पार्टी और विचारधारा केंद्रित कम) के बीच था। दोनों तरफ़ से ऐसे ऐसे और इतने प्रकार के दावे -वादे किए हैं कि उनमें से यदि आधे भी कोई पूरा किया जाय तो बिहार पता नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा। लेकिन अफ़सोस ऐसा होगा नहीं। क्योंकि जुमले का जवाब जुमला था और झूठ का जवाब उससे भी बड़ा झूठ। कोई कहता हम आम देंगें तो दूसरा झट से कह उठता कि आम क्या हम तो आम के साथ कटहल भी देंगें। यह कोई बताने को तैयार नहीं कि यह आम और कटहल और इसके लिए पैसा कहाँ से आएगा।
नेता एक दूसरे के ऊपर बड़े ही बेशर्म होकर कीचड़ फेंकते रहे और किसी ने बिहार और बिहार की जनता की मुलभुत ज़रूरतों और समस्याओं पर कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। गरीबी, बेरोज़गारी, जातिवाद, शिक्षा आदि को छोड़कर गाय और जंगलराज का कानफोडू शोर ही होता रहा। जाति की बात हुई भी तो केवल वोट बटोरने के लिए। चुनाव के ठीक पहले कुछ हत्याएं और धार्मिक स्थलों पर मांस के टुकड़े फेंकने जैसा पुराना नुस्खा भी अपनाया गया, जिसे बिहार की जनता ने बड़ी ही क्रूरता से नकार दिया। इसके लिए उनकी जितनी भी तारीफ़ की जाय, कम है। दंगा कराकर वोट का धुर्वीकरण करना जिनका पेशा है वो बेचारे बड़े निराश भी हुए होंगें और बिहारियों को पानी पी-पीके कोसा भी होगा। जहाँ तक सवाल भाजपा का है तो इसकी विचारधारा के अंदर ही भष्मासुर के तत्व विराजमान हैं, जो अपना विनाश खुद ही करेगा। हां, इस चुनाव में वाम एकता भी हुए लेकिन वाम ने यह काम तब किया है जब वो आवाम से तमाम हो रहा है और देर आए लेकिन दुरुस्त आने जैसा अब कुछ बचा ही नहीं है इनके लिए बिहार में।
भारत के कोई भी चुनाव अब ताकत और पैसे का खेल बन चुका है। इस चुनाव के मद्देनज़र इलेक्शन कमीशन द्वारा बनाई गई टीम एवं इन्कम टेक्स डिपार्टमेंट द्वारा अब तक कुल 39 करोड़ रुपया (विदेशी मुद्रा सहित),1.67 लाख लीटर शराब, 857.91 किलोग्राम गांजा, 7.84 लाख किलोग्राम महुआ, 336 ग्राम हीरोइन, 8.66 किलोग्राम सोना पकड़ा गया। इतना तो पकड़ा गया। इससे कहीं ज़्यादा इस चुनाव के "महापर्व" में खाप गया होगा।
ज्ञातव्य है कि इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव कुल पांच चरणों में संपन्न हुआ। मुख्य चुनाव अधिकारी के अनुसार इस चुनाव में कुल 300 करोड़ रूपए खर्च हुए हैं। जिसमें 152 करोड़ विभिन्न गाडियां, पेट्रोल, डीजल, बूथ बनाने, उसकी बैरिकेटिंग और चुनाव से सम्बंधित चीज़ों की छपाई में खर्च हुए। इस चुनाव में कुल 89,000 गाड़ियों का इस्तेमाल हुआ। वहीं सुरक्षा और केंद्रीय फ़ोर्स पर कुल 78 करोड़ रुपया खर्च किया गया। यदि विभिन्न पार्टियों द्वारा खर्च किए गए रुपयों को भी इस खर्च में जोड़ दिया जाय तो खर्च का यह आंकड़ा कितने हज़ार करोड़ पर जाके रुकेगा इसका अनुमान मात्र से ही किसी भी आम नागरिक का ह्रदय गति रुक सकता है।
चुनाव आयोग जितना रूपया खर्च करने की इजाज़त एक प्रत्याशी को देता है उतने में बहुत कम ही प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं। अभी हाल ही में एक स्ट्रिंग ऑपरेशन हुआ था जिसमें एक प्रतिष्ठित पार्टी के मंत्री महोदय रुपया ग्रहण करते हुए उदगार व्यक्त कर रहे थे कि एक प्रत्याशी को "सही तरीके से" चुनाव लड़ने में करोड़ों रुपया खर्च बैठता है। यदि इसे सच माना जाय तो काले धन का इस्तेमाल भी कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है।
इस बार के बिहार चुनाव में Bihar Election Watch and Association for Democratic Reform के अनुसार कुल 3450 कैंडिडेट मैदान में थे, जिनमें महिला उम्मीदवारों अर्थात आधी आबादी के उम्मीदवारों की संख्या केवल 273 (8%) थी। यह संख्या पिछले चुनाव से एक प्रतिशत कम थी। पार्टियां महिलाओं के लिए बड़े बड़े वादे तो करती हैं लेकिन उन्हें टिकट देने में हद दर्जे की कंजूसी करती है। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में 3523 प्रत्याशियों में 3019 की जमानत जब्त हो गई थी। ज्ञातव्य हो कि उस वर्ष कुल 307 महिला प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था जिनमें से 242 की जमानत जब्त हो गई थी। तो हारनेवाले प्रत्याशी पर कोई भी दल दाव और पैसे क्यों लगेगा भला? प्रसिद्द लेखिका इस्मत चुगताई अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक “कागज़ी है पैराहन” में लिखतीं हैं – “यह मर्द की दुनियां है, मर्द ने बनाई और बिगाड़ी है। औरत एक टुकड़ा है उसकी दुनियां का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफ़रत के इज़हार का ज़रिया बना रखा है। वह उसे अपने मुड के मुताबिक पूजता भी है और ठुकराता भी है।” तो क्या यह चुनाव भी मर्दों और पैसों का खेल है? जो भी हो लेकिन लोगों का आज भी मतदान में हद दर्ज़े का विश्वास है। और कवि धूमिल के शब्दों में कहा जाय तो – बुरे और कम बुरे के बीच चुनते हुए न उन्हें भय है, न लाज है। इस चुनाव में 796 (23%) उम्मीदवारों पर हत्या, हत्या का प्रयास, सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गम्भीर अपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें भाजपा के 39%, जदयू के 41%, राजद के 29% कांग्रेस के 18% उम्मीदवार शामिल हैं। पिछले साल इनकी संख्या 560 (18%) थी। यानि की इस साल 5% की बढ़ोतरी हुई है। तर्क या कुतर्क यह कि दोषी या निर्दोष अदालत तय करेगा, हम या आप नहीं और फिर मुकद्दमे का क्या है वह तो किसी के ऊपर कोई भी कर सकता है। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि हम जानते हैं कि फलां का पूरा इतिहास ही अपराधिक रहा है लेकिन हम उसे अपराधी नहीं कह सकते, मानना तो बहुत दूर की बात है। फिर अपराधी अगर दबंग है और अपनी जाति का है तो वह खलनायक नहीं बल्कि नायक होगा। हालत तो यह है कि अदालत से सजा पाने के बाद भी लोग पार्टियों के सुप्रीमो बने हुए हैं और जमानत पर बाहर निकलके खुलेआम न केवल चुनाव प्रचार कर रहे हैं वरन् राज्य और देश की दशा और दिशा सुधारने की बात भी कर रहे हैं! और सबसे बड़ा आश्चर्य यह कि हम उनपर विश्वास भी करते हैं।
कहा जाता है कि बिहार एक गरीब और पिछाडा हुआ राज्य है। लेकिन भाजपा के 67%, जदयू के 75%, राजद के 65%, कॉंग्रेस के 20% उम्मीदवार सहित 1150 अन्य उम्मीदवार करोड़पति हैं। वही एक उम्मीदवार की संपत्ति तो 928 करोड़ है। तो गरीब राज्य के मंत्री अमीर कैसे हो जाते हैं? क्या सच में बिहार एक गरीब राज्य है? तो फिर एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म) और बिहार इलेक्शन वॉच के इस आकड़े को क्या कहेंगें जो यह बताते हैं कि पिछले चुनाव (2010) से इस चुनाव के बीच जो विधायक पुनः चुनाव लड़ रहे हैं उनकी कुल संख्या 160 है। जिनमें जदयू के 52, भाजपा के 66, राजद के 12 और कांग्रेस के 6 विधायक शामिल हैं। उनमें जदयू विधायकों के धन में 314%, भाजपा के 155% और राजद के 76% की बढ़ोतरी हुई। पिछले 5 वर्षों में इन 160 विधायकों की औसत सम्पत्ति करीब 200% बढ़ी हैं। 2010 में इनकी औसत सम्पत्ति 86.1 लाख रूपए थी। यह 2015 में बढ़कर 2.57 करोड़ हो गई। जदयू के एक विधायक की सम्पत्ति तो 13 हज़ार प्रतिशत तक बढ़ गई। अब सवाल यह है कि यदि बिहार एक गरीब राज्य है तो एक गरीब राज्य के विधायक दिन प्रतिदिन अमीर कैसे होते जा रहे हैं?
बिहार ही नहीं भारत के बारे में भी यही बात प्रचारित की जाती है कि भारत एक गरीब देश है लेकिन पुरे भारत के नेताओं को देखकर क्या सच में ऐसा लगता है? “आज का भारत 1940” नामक पुस्तक में इतिहासकार रजनी पामदत्त का कथन हैं – “भारत गरीबों का देश है, लेकिन भारत गरीब देश नहीं है। भारत की वर्तमान स्थिति से दो तथ्य सामने आते हैं। एक तरफ़ भारत की प्राकृतिक सम्पदा एवं संसाधनों की बहुलता वर्तमान आबादी एवं उससे भी ज़्यादा आबादी को समृद्ध – संपन्न बनाने की क्षमता रखती है।” तो क्या इस देश की प्राकृतिक सम्पदा एवं संसाधन की लूट ज़ोरों से नहीं हो रही हैं और इस लूट में क्या वो सबलोग शामिल नहीं हैं जिनके उपर की इस देश का भविष्य संवारने का दारोमदार था/है। ज्ञातव्य है कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत की आधी से ज़्यादा आबादी आज भी गरीबी और भुखमरी से पीड़ित है।
खैर हम एक उदार लोकतंत्र के निवासी हैं और इन सब बातों से लोक और लोकतंत्र दोनों को ही अब कोई फर्क पड़ता नहीं पड़ता है! यहाँ चुनाव को एक ऐसे महापर्व के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जाता है जैसे सारी समस्यायों का हल इसी से हो जाएगा! बहरहाल, चुनाव संपन्न हुआ। निश्चित ही किसी न किसी की जीत हार तो होगी ही। लेकिन जीतती भी जनता है और हारती भी जनता है !!! प्रसिद्द कवि धूमिल अपनी चर्चित कविता “पटकथा” में लिखते हैं –
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्राएँ हैं
हर तरफ़
शब्दवेधी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूंथाता हुआ। घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है। 

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...