Tuesday, May 10, 2016

हर आत्महत्या एक विद्रोह है : अपने और अपनों के विरुद्ध

पंजाबी साहित्य के जाने माने नाम और सामाजिक कार्यकर्त्ता सतनाम ने आत्महत्या (?) कर ली। सतनाम जो माओवादी आंदोलन को ठीक से जानने समझने के लिए बस्तर के जंगलों में जाते हैं। वहां उनके बीच रहकर जो अनुभव प्राप्त करते हैं उसे वो अपनी प्रसिद्द किताब जंगलनामा में दर्ज़ करते हैं। आज जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंअपने तरह की अनूठी रचना है। जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंमूलतः पंजाबी में लिखी गई थी। जिसका अब तक छः भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जिसमें अंग्रेज़ी भी शामिल है। अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद पेंगुइन (शायद) ने किया है। इसी सतनाम ने आत्महत्या कर ली कहीं कोई खबर - नहीं वाह !!! 
एक ऐसे समय में जब एक लेखक को अपनी रचनात्मकता के मृत्यु की घोषणापत्र लिखने को विवश होना पड़ रहा है और किसी व्यक्ति की हत्या केवल इस वजह से कर दिया जाता है कि उसका धर्म और खाना (?) हमसे अलग है, ऐसे वक्त में कोई आश्चर्य नहीं कि सतनाम जैसे लोगों की मौत किसी के लिए कोई अर्थ भी नहीं रखता हो ! वैसे शायद ऐसी आत्महत्याओं (?) का कभी भी कोई महत्व नहीं रहा, वक्त चाहे जैसा भी रहा हो ।
बहरहाल, अलग अलग वजहों से माओवादी आंदोलन पर बहुत से लोगों ने कई किताबें लिखी हैं। कुछ चर्चित हुए, कुछ शायद न भी हुए। सतनाम की किताब जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंका हिंदी अनुवाद पलटने पर न सतनाम का न कोई परिचय आदि मिलता है, ना तस्वीर और ना ही उनकी महानता का परिचय करता हुआ कोई भूमिका ही। यह पुस्तक उन सच्चाइयों से परिचय करने का एक प्रयास भर कराती है, जिनसे हम या तो अब तक महरूम हैं या फिर गलत जानकारी के शिकार। इस पुस्तक के बारे में हरिपाल त्यागी लिखते हैं – “अपनी अनूठी विषय वस्तु और सहज-सरल लेखन शैली की वजह से तो यह पुस्तक खास अहमियत रखती ही है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत आम आदमी की संघर्षपूर्ण ज़िंदगी के प्रति लेखक का लोकहितकारी नज़रिया, इन्साफ और हक की लड़ाई में उसकी जनपक्षधरता, घटनाओं की तह तक पहुंचकर वास्तविक सच्चाइयों को खोजने की गहरी और प्रबल जिज्ञासा व इसके लिए लेखकीय इमानदारी को प्रमुखता देते हुए अभिव्यक्ति का खतरा उठाना। यह महज एक जगह से दूसरी जगह का सफ़र तैय करने और उसका रोचक ढंग से वर्णन कर देना ही नहीं है, बल्कि इससे भी ज़्यादा आदमी से आदमी तक की यात्रा है। एक दिल से दूसरे दिल के जुड़ने को बयान करनेवाली यह बड़े मकसद का सफरनामा है। 
पुस्तक में तआरुफ़ के नाम पर सतनाम लिखते देते हैं कि – “जंगलनामा, जंगलों के बारे में कोई खोज पुस्तक नहीं है। न ही किसी कल्पना में से पैदा हुई, आधी हकीकत और आधा अफ़साना बयान करने वाली कोई साहित्यिक कृति है। यह बस्तर के जंगलों में क्रियाशील कम्युनिस्ट गुरिल्लों की रोज़ाना ज़िंदगी की एक तस्वीर और वहां के कबायली लोगों की जीवन-हालातों का विवरण है, जिसको मैंने अपनी जंगल यात्रा के दौरान देखा। पाठक इसे किसी डायरी के पन्ने कह सकते हैं। 
इसके पात्र हाड़-मांस के बने जीते-जागते इंसान हैं जो अपने सपनों को हकीकत में ढालना चाहते हैं। हुकूमत की तरह से बागी और पाबंदीशुदा करार दी गए ये पात्र नए युग, नई ज़िंदगी को साकार होता देखना चाहते हैं। इतिहास उनके लिए क्या समेटे हुए है, ये तो बननेवाला इतिहास ही बताएगा, लेकिन इतिहास को वो किस तरह मोड़ देना चाहते हैं; उसकी व्याख्या उन्हीं की जुबानी में पेश की गई है। अपने अकीदों के लिए जान की बाज़ी लगाने को तैयार ये लोग किस तरह का जीवन जी रहे हैं, इसका अंदाज़ा पाठक इस किताब को पढ़कर आसानी से लगा सकते हैं। 
अक्टूबर 2003, सतनाम। 
सतनाम यानि गुरमीत - जिनका जंगल में प्रवेश करते ही पांव मोच खा जाता है। 
हमारी आँखे मिलीं, मुस्कुराकर एक दूसरे को स्वभाविक सलाम किया और फिर उससे हाथ मिलाने के लिए उठाने लगा, मगर मेरे पैर ने मेरा साथ नहीं दिया और एक टीस ने मुझे वहीं दबोच लिया।” “क्या हुआ?” “पैर मोच खा गया ! हो गई मुसीबत।मेरे मुंह से निकला। - (जंगलनामा - बस्तर के जंगलों में) जंगलनामा - बस्तर के जंगलों मेंका दूसरा भाग उनके दिमाग में था लेकिन जबतक लिखते तबतक लिखने की प्रेरणा ही खत्म हो चुकी थी। माओवादी आन्दोलनों के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है/था उसने ही सबसे बड़ी भूमिका निभाई उनके मोहभंग में। वैसे भी जहाँ सवाल करने पर दरकिनार कर दिया जाय और तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर मूढ़ता की हरी-हरी फसल लहलहाने रही हो, वहां और उम्मीद ही क्या किया जा सकता है. सतनाम जैसे लोग मूढ़ बनने को कतई तैयार नहीं थे और ना ही विचारधारा के नाम पर किसी जंगली पशु के हाथों चरे और लीदे जाने को ही तैयार थे। 
आजादी से मोहभंग के साथ ही, हर प्रकार के शोषण के मुक्त, नई दुनियां बनाने और गढ़ने का सपना दिल में पाले नौजवानों का एक पूरा का पूरा हुजूम 70 और 80 के दशक में भारतीय पटल पर सक्रिय हुआ। किसी की परिणति सुधारवादी अराजकता के साथ समाप्त हो जाती है तो कोई नक्सलबाड़ी आंदोलन को आदर्श मानते हुए दीर्घकालीन लोक युद्ध के रास्ते पर निकल पड़ता है जिसकी आंच 80 के दशक के अंत आते-आते ही अराजक और बोझिल होने लगती है। 90 के दशक तक आते-आते तो यह अराजकता और बोझिलता एक खतरनाक रूप धारण कर लेती है। फिर तो बिना दिमाग लगाए जो धंधे, वसूली और वाद का चोला धारण किए थे - उनकी तो बल्ले-बल्ले हो जाती है लेकिन जो अपने सपने के साथ अभी भी ईमानदारी और संवेदनात्मक रूप से जुड़े होते थे/हैं, वो एक अवसादग्रस्त की श्रेणी में खड़े होने को अभिशप्त हो जाते हैं या कर दिए जाते हैं। 
कोई भी जनवादी और क्रांतिकारी आंदोलन जब अराजकता और वैचारिक दिवालिएपन का शिकार होता है तो संवेदनशील कार्यकर्ताओं और वाद के सच्चे और ईमानदार सिपाहियों का सहारा या तो परिवार बनता है या फिर दोस्तों का जिंदादिल समूह। समाज की संवेदना और संवेदनशीलता पर कुछ भी कहना वक्त ज़ाया करना है। बात को सकारात्मक बनाते हुए बस इतना कहा जा सकता है कि परिवार और दोस्तों का समूह भी इसी समाज का अंग होता हैं। 
उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव पर पहुंचे ये लोग पार्टी के लिए अनवांटेड हुए तो मजबूरन वहां से परिवार की तरफ़ लौटे या लौट रहे हैं। और जहाँ तक सवाल मित्र मंडलियों का है तो अमूमन सब ही तो अवसाद के दौर से गुज़र रहे हैं, तो कौन किसका और कब तक और कितना ख़याल रखे! समाज को समाज की चिंता में लगे किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता, लेखक, कलाकार आदि की कितनी चिंता है यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं। तो अब सवाल यह है कि इनकी चिंता करे तो कौन? ऐसे समय में अब इनके पास दो ही रास्ते बचतें हैं एक कि बाकि बची ज़िंदगी जैसे-तैसे खींच तानकर गुज़ार दें या फिर -------! 
सतनाम ने दूसरा रास्ता चुना। नहीं, चुना नहीं बल्कि चुनने को मजबूर हुए। ऐसा नहीं कि जो उन्होंने किया उसका अंदाजा किसी को नहीं था। बल्कि समयसमय पर वो यह बात कहते भी थे। लेकिन उनके इस कथन को झूठा साबित करने के लिए जो प्रयत्न किए जाने चाहिए थे वह नहीं हुए शायद ! नतीज़ा सामने हैं सतनाम, कानू सान्याल, गोरख पांडे, सीताराम शास्त्री, रोहित और ना जाने कितने और नामों के रूप में। 
तो क्या सतनाम और इन जैसे लोगों ने आत्महत्या की है? नहीं...। यह हत्या है और उसके जिम्मेवार निश्चित रूप से वे लोग और पार्टियां हैं जिनके कंधे से कंधा मिलाकर इन्होनें समाज परिवर्तन का सपना देखा था। बदले में ये लोग वैचारिक और सैधांतिक मतभेदों के नाम लगभग अलगथलग कर दिये गए और ये लोग या तो अवसादग्रस्तता में जाने को मजबूर हुए या फिर निर्थक हो गए। यह सबकुछ वैचारिकी और सिद्धांत का झगड़ा कम और क्रांति के नाम पर दादागिरी का प्रकोप ज़्यादा है। शायद यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति लगे लेकिन ऐसी सारी पार्टियां अब अप्रासंगिकता की कगार पर हैं। यहाँ अब विचार के नाम पर धंधा होता है। सतनाम जैसे लोग शायद इस पतन को बर्दाश्त नहीं कर पाए, और --- । 
अब; सतनाम के नाम पर भाषणबाजी, रोनागाना, कसमें खाना, फूल-माला चढ़ाना, लाल सलाम बजाना - सब होगा; होना भी चाहिए। लेकिन उन सबसे ज़रुरी सवाल यह है कि... आखिर वो कौन सी स्थितियांपरिस्थितियां हैं जिसमें एक कोमल हृदय क्रांतिकारी लेखक के अंदर आत्महत्या का विचार पनपता है? सवाल करना ज़रुरी है ताकि कई और सतनामों को बचाया जा सके। आत्महत्या कायरता नहीं, बल्कि हर आत्महत्या एक विद्रोह है: अपने, अपनों और अपने सपनों के विरुद्ध।
वैसे भी जो विचार या पार्टी या लोग अपने साथियों की भी रक्षा न कर सके, वह देश, दुनियां और समाज का कितना भला करेगा, संदेह है। वहां विचार की प्रमाणिकता और वैज्ञानिकता का दावा एक ढकोसला ही प्रतीत होने लगता है जहाँ चीजें व्यवहार से सही न हों। सनद रहे कि जब कोई सवाल नहीं करता तो सड़क से गुज़रता मुर्दा यह सवाल करता है कि आदमी मरता क्यों है? 
सतनाम ने शायद कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा। अगर छोड़े भी हैं, तो किसके लिए?
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने कह तो दिया है - 


अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता 



सुनना चाहता हूँ 



एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो । 



अन्यथा 



इसके पूर्व कि 



मेरा हर कथन 



हर मंथन 



हर अभिव्यक्ति 



शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए



उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ 



जो मृत्यु है !
वह बिना कहे मर गया’ 



यह अधिक गौरवशाली है 



यह कहे जाने से – 



कि वह मरने से पहले 



कुछ कह रहा था 



जिसे किसी ने सुना नहीं ।

अभिनेता, अभिनेत्री और आज का रंगमंच

प्रचलित मान्यता यह है कि रंगमंच के केंद्र में अभिनेता- अभिनेत्री हैं। यह बात आज सुनने में भले ही बहुत सुकूनदायक लगे किन्तु इस कथन में जितनी सच्चाई है, उससे कहीं ज़्यादा मात्रा झूठ का है। रंगमंच के मंच के आगे (दर्शकदीर्घा) से यह बात पूर्ण सत्य का आभास देता है क्योंकि दर्शक दीर्घा से रंगमंच के मंच पर अभिनेताओं, अभिनेत्रियों का जीवंत अभिनय सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और जादुई प्रतीत होता है। दर्शक इन्हीं के साथ भावों, संवादों और संवेदनाओं के मर्म को पकड़कर रंगमंच के जादुई यथार्थ में गोते लगाते हैं लेकिन मंच के परे, रंगमंच के पुरे चक्रव्यूह में प्रवेश कर यदि झांके तो स्थिति की दयनीयता और क्रूरता बिलबिला कर सामने आ जाती है; और हम देखते हैं कि जिस चीज़ को हम रंगमंच का केंद्र बिंदु मान रहे हैं दरअसल उसकी स्थिति प्रजातंत्र के उस जनता से कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं है जो अपनी दयनीय स्थिति और अमानवीय दरिद्रता से मुक्ति हेतू तमाम प्रकार के लुभावने नारों के शोर में दिग्भ्रमित हो इस डर से एवीएम मशीन का बटन दबा आता है कि कहीं उसकी अंतरात्मा चुनाव नामक पवित्र और कर्तव्यनिष्ठ पर्व में सम्मिलित न होने के लिए उसे दुतत्कारने न लगे। यहाँ भी जनता को नायकत्व का टैग लगा है ठीक उसी प्रकार जैसे कि रंगमंच में अभिनेता-अभिनेत्री को केंद्र-बिंदु का। जबकि दोनों की स्थिति किसी कठपुतली जैसी ही है।
यह कब हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ - यह एक इतिहासिक अध्ययन का विषय है लेकिन यह सच है कि रंगमंच में अभिनेता पहले आया बाकि चीज़ें बाद मे। अब बाद मे आए प्राणी ने चुपके से कैसे और क्यों अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, यह भी खोज का विषय है। लेकिन एक बात तो सच है कि सारा खेल सत्ता और धन का है। तभी तो सबकुछ झेल कर संघर्ष कर रहा अभिनेता निर्देशक बनते ही ठीक उसी सत्तावादी की तरह व्यवहार करने लगता है, जिससे कि कभी वह स्वयं त्रस्त रहा है। यह शायद पूंजीवाद का ही गोल पहिया है जो घूमता रहता है - गोल गोल। अर्थात हालत ठीक संसद वाली ही है जहाँ सत्ता पक्ष सत्तावादी और विरोध पक्ष विरोधवादी प्रवृति का शिकार होता है और सत्ता पक्ष का विरोध में या विरोध पक्ष का सत्ता में आ जाने से कोई ख़ास मुलभुत और नीतिगत बदलाव प्रत्यक्षतः देखने को नहीं मिलता।
रंगमंच एक सामूहिक कार्य है यदि यह सच है तो सामूहिकता का सिद्धांत यह कहता है कि समूह में कोई छोटा - बड़ा, कमज़ोर - मजबूत, ज़रूरी - गैरज़रूरी, फ़ालतू - महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सब बराबर होते हैं। सबकी अपनी - अपनी भूमिका होती है और सामूहिकता का वजूद एक दूसरे के परस्पर सहयोग और विश्वास पर टिका होता है। लेकिन जब रंगमंच करते हुए एक व्यक्ति दूसरे पर मालिकाना हक जताने लगता है और दूसरे के मुकाबले में पहला आर्थिक और प्रसिद्धि के रूप में सम्पन्नता की ओर अग्रसर होने लगता है तो संदेह होना लाजमी है। वैसे ह्रास तो पुरे समाज में हुआ है फिर रंगमंच उससे अछूता कैसे रह सकता है? क्या श्रम के ऊपर पूंजी और सत्य के ऊपर फरेब, ईमादारी के ऊपर बेईमानी की सत्ता समाज में और प्रखरता से स्थापित नहीं हुई है? तो यही हाल रंगमंच का भी है, क्योंकि रंगकर्मी कोई आसमान से तो टपके नहीं हैं बल्कि वो भी इसी समाज के ही अंग हैं।
भारतीय रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना होने के पश्चात भी उसका मूल स्वरुप अभी भी शौक़िया ही है और सामाजिक स्तर पर उसकी स्वीकृति लगभग उपेक्षित वाली ही है। कुछ राज्यों में अपवाद स्वरुप स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन वहां भी आदर्श स्थिति तो नहीं ही है। हिंदी क्षेत्र की मध्यवर्गीय और सामंती मानसिकता आज भी इसे अधिकांशतः नाचनियां - बजनियां का ही पेश मानती है। फिर यह भी धारणा प्रखर रूप से विद्दमान है कि नाटक का कार्य उत्सवधर्मिता और मनोरंजन मात्र है। ऐसे माहौल में वर्तमान में ग्रुप थियेटर का लुप्त होना और लगभग एनजीओ के जैसा व्यक्ति-केंद्रित नाट्य दलों का अस्तिव में आ जाना एक कठिन समस्या है। वहीँ ग्रांट कल्चर भी ज़ोरो पर है। तो अब अमूमन नाटक कम प्रोडक्ट ज़्यादा तैयार हो रहे हैं। ग्रुप थियेटर जहाँ अपने तमाम खूबियों-खामियों के बावजूद एक अनुशासन सिखलाता था वही व्यक्ति केंद्रित रंगमंच जोड़-तोड़ के सहारे अपना काम निकलना और जैसे-तैसे एक नाटक को निपटा भर देना सिखला रहा है। ऐसे में जो थोड़ी बहुत प्रशिक्षण की प्रक्रिया चलती भी थी वह भी लगभग बंद हो गई है। नाटकों की संख्या में तो इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन गुणवत्ता घोर रूप से प्रभावित हुई है। प्रोफेशनल्स के नाम पर ऐसी व्यूह रचना देखने को मिलती है जो अपने ही नाटकों में कही बातों को खुद नहीं मानता। ऐसे समय में सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी की बात, शराब के उस बोतल की तरह हो गई है जिसके अंदर बस महक बची है। अपने नए रंगकर्मियों का सही मार्गदर्शन करने का वक्त अब शायद ही किसी के पास है। सबको फोकटिया कलाकार चाहिए। हद तो यह है कि जनवादी संस्कृति के वाहक होने का दावा ठोकनेवाले कई दल भी इस बहती गंगा में किस्मत आजमाने में ज़रा सा भी संकोच नहीं कर रहे हैं।
गत कुछ वर्षों से विभिन्न प्रकार के अनुदानों के नाम पर कुछ पैसा रंगमंच के हिस्से भी आया है लेकिन इस पैसे के आगमन से बुरे और अ-कलात्मक परिणाम ही ज़्यादा देखने को मिला है। यहाँ समस्या पैसे के आगमन का नहीं बल्कि उसके उपयोग का है। ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बचा लेने की बेचैनी ने जहाँ एक तरह झूठ और फरेब का खेल रचा है वहीँ रंगकर्मियों का आपसी वैमनस्य भी बढ़ा है। निर्देशक अब एक कलाकार कम दुकानदार ज़्यादा प्रतीत होने लगा है। बही खाते के खर्च के कॉलम में जिस मद में जितना रुपया भरा जाता है उतना गिने-चुने लोग ही खर्च करते हैं। जहाँ तक सवाल नाटक में कार्य कर रहे अभिनेताओं के मानदेय का है तो किसी भी एक नाटक में उनके मानदेय की सही राशि जानकार कोई भिखारी भी उनका उपहास उड़ा सकता है। लगभग यही दशा विभिन्न प्रकार के कुकुमुत्ते जैसे उग आए NGO जैसे सरकारी अनुदानधारी रंगमण्डलों के अभिनेता-अभिनेत्रियों की है। महोत्सव अनुदान की हालात तो यह है कि तीसरे दर्ज़ का इंतज़ाम के साथ वह नाटकवालों पर चंद हज़ार भी बड़े सोच-सोचकर खर्च करते हैं वही उस नाटक में यदि फ़िल्म में काम करनेवाला/वाली कोई कलाकार हो तो फिर लाखों रुपए हंस-हंसके उड़ा दे सकते हैं। हो सकता है कि एक नाटक करनेवाले दल के कुल खर्च के बराबर एक फ़िल्म कलाकार वाले नाट्यदल की शराब का बिल हो।
यदि सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अभिनेताओं के नाम पर केवल रद्दी मालही बचेगा रंगमंच के पास।अभी के समय का तो क्रूरतम सत्य है कि क्या अभिनेता-अभिनेत्री रंगमंच में अभिनय करते हुए अपना व अपने परिवार का जीवकोपार्जन कर सकता है? इस सवाल का जवाब है नहीं, बिलकुल ही नहीं। कम से कम हिन्दी रंगमंच मे तो नहीं ही।

                                                      आलेख “आजकल” मई २०१६ अंक में प्रकाशित  

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...