सोमवार,(7 अक्टूबर 2013), की रात करीब
बारह बजे बेगुसराय (बिहार) के युवा रंगकर्मी प्रवीन कुमार गुंजन काम खत्म करने के
पश्चात अपने सहकर्मी के साथ बेगुसराय रेलवे स्टेशन पर चाय पी रहे कि पुलिस की जीप
आकर रुकी और पूछताछ करने लगी. हम कलाकार हैं, काम खत्म करके स्टेशन चाय पीने आए
हैं (इतनी रात में स्टेशन के अलावा कहीं और चाय नहीं मिलाती.) चाय पीके अपने घर
चले जाएंगे शायद यह बातें पुलिसवालों के किसी काम के नहीं थे तभी तो कुछ ही मिनटों
के बाद आलम यह था कि गुंजन को सड़क पर पटक-पटक के पुलिसवाले किसी आतंकवादी की तरह
मार रहे थे. उसे जिस बेदर्दी से पीटा गया उसकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाए.इतना
ही नहीं जम के लात, घूंसा और डंडे बरसाने के बाद उसे लॉकअप में बंद भी कर दिया.
प्रवीन गुंजन रंगमंच का एक जाना माना चेहरा न होता तो क्या पता आज उस पर क्या-क्या
मुकद्दमें लादी जा चुकी होती. किसे नहीं पता कि पुलिस अपनी कामचोरी बेगुनाहों को
झूठे मुकद्दमों में फंसाकर ढंकती रही है.
आखिर क्या गुनाह था गुंजन का ? यह कि वो रात के बारह बजे चाय पीने निकला ?
उसने हाफ़ पैंट पहन रखी थी
? उसकी दाढ़ी बढ़ी थी कि पुलिसवालों
से बराबरी से बात कर रहा था ? क्या रात में दोस्तों के साथ मोटरसाइकल से निकलना,
हाफ़ पैंट पहनना, दाढ़ी बढ़ाना और पुलिसवालों से बराबरी से बात करना गुनाह है ?यदि
इसका जवाब हां है तो यह मान लेना चाहिए कि हम एक बहुत ही खतरनाक समय में रह रहें
हैं. साथ ही एक सवाल यह कि बिना किसी अपराधिक रिकॉर्ड, कई सारे पुरस्कारों से
सम्मानित रंगकर्मी को जब इस प्रकार मार-मारके बुरी हालत बनाई जा सकती है तो आम
नागरिक इस तंत्र में किस भय में जी रहे हैं इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है.
प्रवीन गुंजन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का पूर्व छात्र होने के साथ ही साथ
वर्तमान में तेज़ी से उभरता हुआ एक रंग-निर्देशक है. जिसके नाटक देश के विभिन्न
हिस्सों में प्रदर्शित हो प्रसंशा आर्जित कर चुके हैं. लेकिन बंदूक के साए में दिन
रात रहनेवाले, बारूद और डंडे की भाषा समझनेवाले,किसी प्रकार रट-रटके, घूस के बल पे
नौकरी हासिल करनेवाले इन वर्दीधारियों को इस मुल्क की कला-संस्कृति, कलाकार, मानवऔर
मानवीय संवेदना से क्या मतलब! भौतिक सुख के भ्रष्टाचार में नाक तक डूबे इन
पुलिसियों के लिए ये सब बातें काले अक्षर भैंस बराबर हैं !वैसे जब कला को समर्थन
देने के लिए बनी तमाम राजकीय अकादमियां भी जब कलाकार को गली के कुत्ते से ज़्यादा
भाव नहीं देती तो किसी और महकमें से क्या उम्मीद करे कोई !किसी ने सच ही कहा है कि
पुलिस महकमा सबसे संगठित और संरक्षित गुंडावाहिनी है. तभी तो लोगों को पुलिस और
गुंडों से एक सामान डर लगता है.
प्रवीन गुंजन के सन्दर्भ में सवाल केवल दोषी और अपराधी प्रवृति के
पुलिसकर्मियों के तत्काल निलंबन का तो है हीकिन्तु मूल बात यह है कि जिस प्रकार
पुलिस महकमा में अपराधी मानसिकतावाले, असंवेदनशील और अ-कलात्मक प्रवृति के लोग भरे
पड़े हैं वे आखिर कैसी जन सेवा करेंगें ? किन नागरिकों के नागरिक अधिकारों की
सुरक्षा करेंगा या कर रहे हैं ? जिन्हें पकड़कर हाजत में बंद करना चाहिए उनकी तो
सुरक्षा में तैनात रहते हैं और जो अपनी कला से जन में संवेदना का संचार करते हैं
उन्हें कानून पालन और प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर अपने फ्रस्टेशन का शिकार
बनाते हैं.
यह भी सच है कि इंसाफ के नाम पर ऐसे मामलों में अमूमन क़ानूनी प्रक्रिया के
घुमावदार रास्ते पर ऐसा चक्कर लगवाया जाता है कि व्यक्ति गश खाके गिर पड़े. वहीं कई
तात्कालिक हल निकलकर मामले की लीपापोती भी कर दी जाती है. मूल बात यह है कि वो कौन
सी प्रवृति है जो खाकी धारण करते ही इंसान अपने को सर्वशक्तिमान मान बैठता है और
कानून-व्यस्था उसकी रखैल बन जाती है.रक्षक से भक्षक बनाने की इस प्रक्रिया पर लगाम
लगाने की ज़रूरत है, न कि जैसे तैसे मामले को सुलटा भर देने की. समस्यायों के
तात्कालिक हल से समस्या नहीं हल नहीं होती बल्कि उस पर लीपापोती होती है और
लीपापोती से दीर्घकालिक परिणाम नहीं हासिल किए जा सकते. लीपापोती से क्षणिक सत्ता
और सफलता पाई जा सकती है आज़ादी नहीं और अगर आज़ादी मिल भी गई तो उसका चरित्र बहुजन
हिताय नहीं होगा.
माना कि पुलिसकर्मियों को बड़ी ही अमानवीय और घुटन भरे परिस्थितियों में
कार्य करना पड़ता है लेकिन क्या इससे इन्हें यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वे अमानवीय
क्रियायों को अंजाम दें. हरगिज़ नहीं. दुखद सच यह है कि इस प्रकार की घटनाएंपुरे
देश में दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही हैं. जो किसी भी प्रकार के लोकतान्त्रिक मुल्क
के लिए शर्मनाक है !पुलिस की नौकरी का अर्थ केवल अपना और अपने परिवावालों के पेट
पालना और रिटायरमेंट के बाद पेंशन पाने के लिए नहीं होता, यह एक ज़िम्मेदारी है, एक
गंभीर ज़िम्मेदारी. कर्तव्य, निष्ठा और संविधान की रक्षा की झूठी कसमें खानेवाले इन
महानुभावों ने शायद ही संविधान और नागरिक अधिकारों की पुस्तकों को पलटा हो. वो कौन
सा अपराध है जो ये पुलिसवाले नहीं करते ?लोगों को जूठे मुकद्दमे में फंसाना, हाजत
में मासूमों का रेप, हफ्तावसूली, शराब पीकर पेट्रौलिंग, आदि ख़बरें तो आम हैं.
जिस बेगुसारय की धरती पर कानून के दानवी अवतारों ने एक युवा रंगकर्मी की
पीट-पीटकर बुरी गत बना दिया गया वह स्थान कभी बिहार की साहित्यिक राजधानी मानी
जाती थी. मुझे तो शक है कि पुलिसवालों ने राष्ट्रकवि दिनकर का नाम भी सुना होगा कि
नहीं ! कोई दरोगा यह न कह बैठे कि कौन है दिनकर उसे थाने में पकड़ लाओ, उसको
राष्ट्रकवि कहनेवाला चोर होगा. क्योंकि जब गुंजन पुलिसवालों को यह बताने की कोशिश
कर रहा था कि वो भारत के राष्ट्रपति के हाथ से सम्मनित हो चुका है तो पुलिसवालों
ने जवाब में जो कुछ कहा वो जस का तस यहाँ लिख देने पर राष्ट्रपति महोदय के सम्मान
में ‘चार-चांद’ लग जायेगें और मुझपर मुकद्दमा ! ताकत के मद में चूर ये वर्दीवाले
गुंडे हैं आखिर, उन्हें किसी देश-राष्ट्र से क्या मतलब ! वैसे भी आतंकवादियों का
कोई देश, जात, धर्म और चेहरा नहीं होता, मानवता तो होती ही
नहीं. ज़रा सा शर्म होती तो गुंजन के शरीर और मन पर लगी चोट को देखते हुए तत्काल इन
पुलिसवालों के खिलाफ़ करवाई की जाती. पुलिस के डंडे किसी संवेदनशील इंसान के शरीर
पर पड़ें तो उसकी अंतरात्मा और आत्मसम्मान तक ज़ख़्मी हो जाता है. क्या यही है मेरा
भारत महान की परिकल्पना ? क्या हमें इस तंत्र का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने
गुंजन को बिना किसी मुकद्दमे में फंसाए छोड़ दिया ! उसे जिस तरह से पीटा जा रहा था,
कोई आश्चर्य नहीं कि पुलिसवाले उसे जान से मार देते.
व्यवस्था का यह असंवेदनशील चेहरा कोई नया नहीं है. इतिहास गवाह है कि जन संस्कृति
के निर्माण में कार्यरत लोग पर इस तंत्र ने कैसी क्रूरता नहीं बरती हैं, झूठे
मुकद्दमें लादकर वर्षों जेलों में कैद रखा है, गोलियां बरसाई, फर्जी इनकाउंटर तक
कर दिया. कानून व्यवस्था के नाम पर यह प्रक्रिया आज भी निरंतर जारी है. आज यह
व्यवस्था इतनी ज़्यादा अराजक हो चुकी है कि वो हर उस व्यक्ति को अपनी चपेट में लेकर
कुचल डालना चाहती है जो किसी भी वजह से इससे आंख मिलाकर बात करने की हिम्मत करता
है. हमारी मजबूरियां, हमारा विशिष्ट होने का दंभ और हमारा मौन ऐसी कारवाइयों का
मौन समर्थन हैं. आज ज़रूरत है तमाम अंतर्विरोधों को दरकिनार कर, अपने बने-बनाए
दायरों और सफलता-असफलता के बने बनाए मापदंडों से परे हटकर सामाजिक सच से
साक्षात्कार करने की, नहीं तो वह समय दूर नहीं जब सारे कोमल और सुगन्धित फूल या तो
कुचल दिए गए होंगें या फिर सत्ता के गलियारे में पेशाबघर के पास सजाए जा रहे
होंगें. समाज ज्वलंत सवालों से टकरा रही है ऐसे समय में समाज में चल रहे उथल पुथल
से कोई सरोकार न रखते हुए केवल कला की बात करना आत्ममुग्धता नहीं तो और क्या है.
हम कलाकार हो, कवि हों, कथाकार हो, फिल्मकार हो या जो भी हो, समाज व्याप्त
अच्छाई-बुराई से बचे नहीं रह सकते, चुकी हम सब भी इसी समाज के हिस्से हैं इसलिए आज
नहीं तो कल तमाम तरह के सामाजिक अच्छाई-बुराई हमारे दरवाज़ों पर भी दस्तक देगा ही.गुंजन
के साथ जो कुछ भी हुआ वो कल हम सबके साथ भी हो सकता है, हो रहा है. एक सार्थक
कलाकार का दायित्व है कि वो अपनी कला और कला की सामाजिक स्वीकारोक्ति के साथ ही
साथ सामाजिक बुराइयों के लिए भी आवाज़ बुलंद करे.
ईमानदार लोग हर जगह हैं, निश्चित रूप से पुलिस में भी होंगें ही. किन्तु
ईमानदार लोग की इस देश में क्या दशा है यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है. ईमानदार
आदमी के साथ “बेचार” नामक टैग लगा दिया जाता है. अभी पिछले दिनों झारखण्ड में
राष्ट्रपति शासन लगा था. राज्यपाल महोदय ने पुलिस के तमाम बड़े अधिकारियों की एक
मीटिंग बुलाई और सबसे पहला सवाल यह किया कि कौन-कौन ईमानदार हैं ? केवल एक अफसर ने
हाथ उठाया और रोने लगा. बाद में उसने बताया कि उसे इमानदारी की क्या-क्या कीमत
चुकानी पड़ती है. बेचारा ईमानदार आदमी !