सेन्ट्रल कंज्यूमर प्रोटेक्शन काउन्सिल (सीसीपीसी) ने यह निर्णय किया है कि
झूठे विज्ञापनों और विज्ञापन करनेवाले सेलिब्रिटीज़ पर नकेल कसने के लिए जल्द ही एक
कमिटी का गठन किया जाएगा और उपभोक्ताओं को यह अधिकार होगा कि विज्ञापन में किए
दावे पूरे न होने पर वो सेलिब्रिटी और कंपनी दोनों के खिलाफ हर्जाना के लिए मुकद्दमा
दायर कर सकते हैं। तो, आनेवाले दिनों में बहुत सारे सेलिब्रिटी, जिनमें फिल्म
स्टार और खिलाडियों की संख्या ज़्यादा होगी, के ऊपर हर्ज़ाने का मुकद्दमा होना तय है।
चूंकि लोकप्रियता के पैमाने पर सबसे ऊपर यही लोग होते हैं इसलिए विज्ञापन के लिए अमूमन
कंपनियों की पहली प्राथमिकता में यही रहते हैं। सेलिब्रिटीज़ के लाइफस्टाइल की नक़ल
करना एक परम्परा है इस बात को जानते हुए ये सेलिब्रिटीज़ विभिन्न विज्ञापनों को ऐसे
पेश करते हैं जैसे यह विज्ञापन उनके व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित हों, जबकि सच्चाई
इसके एकदम उलट होती है। अब कोई करोड़ों में खेलनेवाला शख्स भारतीय मध्यवर्ग को
टारगेट करके बनाए उत्पादों का इस्तेमाल क्यों करेगा भला। चाहे खाने, पीने, पहनने
की चीजें हों, सौंदर्य प्रसाधन हों, या कुछ और हो।
पेप्सी और कोक के कैसे-कैसे विज्ञापन हैं हम सब जानते हैं, तो डर आगे जीत है
वाला डरावना स्टंट भी है। सोडा के नाम पर शराब का विज्ञापन भी होता ही है। मोबाइल
फोन के विज्ञापन भी याद कीजिए और जूतों, बाल उगाने-कलर करने, टूथपेस्ट, ब्रश के
विज्ञापन भी। भारत जैसे देश में गोरे रंग के लेके जो पागलपन है उसे कैश करने में
कोई किसी से कम नहीं। औरतों के गोरेपन के लिए अलग और मर्दों के गोरेपन के लिए
अलग-अलग क्रीम है। वहीं “मर्द होकर औरतोंवाली क्रीम लगाते हो” जैसी वाहियात
टिपण्णी भी है। त्वचा को निखारने का दावा करने में साबुन भी किसी से पीछे नहीं हैं।
लगे हाथ नहाने के साबुनों के विज्ञापन भी याद कर लीजिए। दमकती त्वचा, महकती त्वचा
और पता नहीं क्या-क्या। साबुन या तो रूप निखारने के काम आते हैं या फिर कीटाणु
मारने के। कुछ साबुन तो ऐसे दावे के साथ बाज़ार में उपलब्ध हैं जैसे वो साबुन नहीं
बल्कि कोई जादू हों। डियो
और परफ्यूम के विज्ञापन तो लड़के-लड़कियों के पटने-पटाने और बिस्तर तक घसीट ले जाने
की गारंटी का पर्याय ही बन गए हैं। लगे
हाथ डिटरजेन्ट पाउडरों और टिकिया के विज्ञापन भी याद कर लीजिए। क्या-क्या और कैसे
कैसे दाग छुड़ाने के दावे नहीं किए जाते। टीवी पर टिकिया इधर से उधर गई नहीं कि
कपड़े झकाझक सफ़ेद। सीमेंट के विज्ञापन देखिए, ट्रक दिवार से टकरा जाती है पर दिवार
नहीं टूटती।
मोबाइल, टेलीफोन, इंटरनेट सेवा प्रदान करने वालीं
कम्पनियां उपभोक्ता से जैसे-जैसे दावे करती हैं कि क्या कहना। हवा की रफ़्तार से
इंटरनेट ब्राउज़िंग का विज्ञापन करनेवाली कंपनी अन्तः रुलाकर रख देने वाली कंपनी ही
साबित होती हैं। कार और मोटरसाइकल्स के विज्ञापन रफ़्तार और माइलेज का स्टंट पेश
करता है। मर्दानगी और संतानोत्पत्ति की गारंटी वाले विज्ञापन तो हैं ही।
ज़माना सूचना-तकनीक का है तो इस पर बात किए बिना बात कैसे पूरी हो सकती है।
टीवी उद्योग टीआरपी का रट्टा मारकर अपने और सिर्फ अपने कार्यक्रम को नम्बर एक,
सबसे आगे, सबसे तेज़ आदि होने का विज्ञापन करता है जबकि टीआरपी का पूरा खेल ही फरेब
है और यदि इसमें सच्चाई है भी तो अंश मात्र की। टीवी, अखबार, इंटरनेट, मोबाइल और
पत्र-पत्रिकाएँ ही आज विज्ञापन को आम जनता तक पहुँचाने का प्रमुख माध्यम हैं पर ये
खुद विज्ञापन पर किसी प्रकार की कोई जवाबदेही तो दूर नैतिक ज़िम्मेदारी तक का
निर्वाह करने से कतराते हैं। अख़बारों में बलात्कार की खबरों के नीचे ही अंग
मोटा-पतला करने के विज्ञापनों का मिलना और बाबाओं के पोल खोलने वाले न्यूज़ चैनल पर
रोज़ किसी बाबा का प्रवचन होना एक आम बात है। वैसे, आजकल एक नया ट्रेंड भी देखने को मिलता है रियल लाइफ
हीरोज़ से विज्ञापन करने का जो आसानी से अपनी हीरोपन को चंद पैसों के चक्कर में आके
विज्ञापनों के सुपुर्द कर देते हैं।
होडिंग, पंफलेट, पोस्टर, बैनर, समाचार पत्र, पत्रिकाएं,
इंटरनेट, रेडियो, टेलिविज़न आदि के मार्फ़त विज्ञापन हम तक पहुंचाते हैं। आज हर वो चीज़
विज्ञापन के दायरे में है जो बाज़ार का हिस्सा बन बिक सकती है। विज्ञापन हमारी
इन्द्रियों से होते हुए हमारे दिल-दिमाग पर राज़ करते हुए हमारे चयन को भी प्रभावित
करने लगे हैं। बाज़ार अब मदर डे, फादर डे, वेलेंटाइन डे, ये डे, वो डे के विज्ञापन
करके हमारी संवेदनाओं को कैश करने तक से नहीं चूकता।
विज्ञापनों से परहेज़ नहीं, लेकिन विज्ञापनों का उद्देश्य
उत्पादन व चीज़ों के बारे में लोगों को सही-सही जानकारी देना है ना कि भ्रम और
आकर्षण फैलाकर अपनी गिरफ़्त में लेना। सच है कि कुछ विज्ञापन सुन्दर, संवेदनशील और
सच्चे भी हैं किन्तु यह भी सच है
कि ज़्यादातर झूठ का मायाजाल व वस्तुओं को ज़रूरत से ज़्यादा चमकदार बनाकर प्रस्तुत
करते हुए तिलस्म बुनने का काम कर रहे हैं। यह किसी
सेलिब्रिटी के माध्यम से एक झूठ को बार-बार और अलग-अलग तरीके से बोलकर सच बनाने की
साजिश है जिस पर निश्चित रूप से लगाम लगनी ही चाहिए। साथ ही जिस माध्यम से यह
विज्ञापन आम जनता तक पहुंचाते हैं उनकी भी जवाबदेही तय होनी चाहिए । पत्र-पत्रिकाओं,
टेलिविज़न आदि के मामले में यह भी तय होना चाहिए कि विज्ञापनों का अनुपात क्या होगा, न केवल तय बल्कि उसका कड़ाई से पालन भी होना चाहिए। वैसे
विज्ञापनों का यह दायरा केवल बाज़ार और उत्पादों तक ही सीमित नहीं है। सत्ता पाने
के लिए अधिकतर राजनीतिक पार्टियां भी एक से एक भ्रामक और लोकलुभावन दावे करती रहीं
हैं। जो भ्रामक विज्ञापन नहीं तो और क्या हैं ? इस पर कौन रोक लगायेगा ?
उत्पादों, सेवाओं और विचारों को बढ़ावा
देने के नाम पर 1 जुलाई 1941 से शुरू
हुआ विज्ञापन नामक चीज़ आज एक बृहद कारोबार की शक्ल ले चुकी है, जिसका दायरा आज इतना व्यापक है
कि कई उद्योग इस विज्ञापन उद्योग पर निर्भर हैं। पत्र-पत्रिकाएँ, चैनल्स आदि तो
विज्ञापनों के सहारे ही चलते हैं यदि विज्ञापन न हों तो यह सब वर्तमान मूल्य से
काई गुना ज़्यादा कीमत पर ही आम जन को उपलब्ध हो पाएगें। इन विज्ञापनों के मायाजाल से नियम, कानून, कमिटी आदि बना
देने मात्र से मुक्ति मिल जायेगी, यह सच नहीं है। जनजागृति के बिना यह काम अधूरा ही रहेगा। जब तक उपभोक्ता भ्रम के शिकार होते रहेगें इस गलाकाट
प्रतियोगिता के समय में लोग भ्रम का मायाजाल रचते रहेंगें।
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