श्रीलाल शुक्ल लिखित उपन्यास - राग दरबारी । एक ऐसी “कल्ट” किताब कि जिसे मैं कभी भी, कहीं भी, कहीं से भी पन्ने पलटकर पढ़ सकता हूँ । इस पुस्तक के एक एक शब्द और शैली से मुझे जानलेवा मुहब्बत है । नकली आदर्शवाद और वाहियात क्रांतिकारिता के पेचीस से पूरी तरह मुक्त “राग दरबारी” भारतीय ग्रामीण जीवन का किसी भी बाइबल से कम नहीं है; और इसी पुस्तक में दर्ज़ निम्नलिखित प्रेम पत्र विश्व साहित्य के किसी भी महान प्रेम पत्र नुमा रचना से पाठ और उप-पाठ और शैली (Text, Sub-Text, Style) आदि इत्यादि के स्तर पर बीस ही ठहरता है, उन्नीस तो हरगिज़ नहीं । शायद यही वजह है कि हिन्दी की प्रख्यात विद्वान फ्रेंचेस्का ओरसिनी ने अपनी किताब ‘Love in South Asia’ में इसका खास जिक्र किया है । बहरहाल, उपन्यास के पात्र बेला द्वारा रूप्पण बाबू को लिखा प्रेम पत्र का रसावादन कीजिए । जिसे इसी उपन्यास का किताबी (लगभग) क्रांतिकारी रंगनाथ “सिनेमा का संस्कृति के अध:पतन मे योगदान” का जुमला साबित करने की मंशा रखता है ।
सुना है किसी जमाने मे लोग गुनाहों का देवता तकिये के नीचे रखके सोते थे; आज वक्त है राग दरबारी को दिल दिमाग मे बैठने का, क्योंकि वैदजी अब गावों की नहीं देश की राजनीति करते हैं ।
सुना है किसी जमाने मे लोग गुनाहों का देवता तकिये के नीचे रखके सोते थे; आज वक्त है राग दरबारी को दिल दिमाग मे बैठने का, क्योंकि वैदजी अब गावों की नहीं देश की राजनीति करते हैं ।
ओ सजना, बेदर्दी बालमा,
तुमको मेरा मन याद करता है । पर ... चाँद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर । वह बेचारा दूर से ही देखे करे न कोई शोर । तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो । याद मे तेरी जाग-जाग के हम रात – भर करवटें बदलते हैं ।
अब तो मेरी यह हालत हो गई है कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए । देखो न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया । और तुम हो कि कभी उड जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया का खोले ना । मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको छिपाने की बुरी आदत है । कहीं दीप जले कहीं दिल, ज़रा देख तो आके परवाने ।
अब तो मेरी यह हालत हो गई है कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए । देखो न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया । और तुम हो कि कभी उड जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया का खोले ना । मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको छिपाने की बुरी आदत है । कहीं दीप जले कहीं दिल, ज़रा देख तो आके परवाने ।
तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं । ये सुलगते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ । मुहब्बत लूटाने को जी चाहता हैं । पर मेरा नादान बलमा न जाने दिल की बात । इसलिए मैं उस दिन तुमसे मिलने आई थी । पिया मिलन को जाना । अंधेरी रात । मेरी चाँदनी बिछुड़ गई, मेरे घर पे पड़ा अँधियारा था । मैं तुमसे यही कहना चाहती थी, मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए । बस, एहसान तेरा होगा मुझ पर मुझे पलकों की छाँव में रहने दो । पर जमाने का दस्तूर है यह पुराना, किसी को गिराना किसी को मिटाना । मैं तुम्हारी छत पर पहुंचती पर वहाँ तुमरे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था । मैं लाज के मारे मर गई । आंधियों, मुझ पर हंसों, मेरी मुहब्बत पर हंसों ।
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो । तुम कबतक तड़पाओगे ? तड़पाओगे ? तड़पा लो, हम तड़प-तड़पके भी तुम्हारे गीत गाएँगे । तुमसे जल्दी मिलना है । क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मंदिर सूना है । अकेले हैं, चले आओ जहां हो तुम । लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो । यही तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए, हाय । हम आस लगाए बैठे हैं । देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना ।
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो । तुम कबतक तड़पाओगे ? तड़पाओगे ? तड़पा लो, हम तड़प-तड़पके भी तुम्हारे गीत गाएँगे । तुमसे जल्दी मिलना है । क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मंदिर सूना है । अकेले हैं, चले आओ जहां हो तुम । लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो । यही तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए, हाय । हम आस लगाए बैठे हैं । देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना ।
तुम्हारी याद मे,
कोई एक पागल ।
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