“बाबुसाहेब! फुलसुंघी के जनीले नू? उ पिंजड़ा में ना पोसा सके । ऊ एगो फूल के रस खींचके चल देले दोसरा फूल का ओर । हम त तवायफ के जात हईं । हमरी काम फुलसुंघी के लेखा एगो जेब से पैसा खींचके दोसर जेब के ओर चल दिहल ह । (बाबुसाहेब, फुलसुंघी को जानते हैं न? वो पिंजड़ा में नहीं पाली जा सकती । वो एक फूल से रस चूसकर दूसरी फूल की ओर चल देती है । हम तवायफ हैं । हमारा काम भी फुलसुंघी जैसा ही एक जेब से पैसा खींचकर दूसरी जेब की ओर चल देना है ।) – फुलसुंघी”
“फुलसुंघी” भोजपुरी संस्थान, 2 ईस्ट गार्डिनर रोड़, पटना 800001 से सन 1977 में प्रकाशित एक भोजपुरी उपन्यास है । इसके पात्र एतिहासिक तो हैं लेकिन लेखक पाण्डेय कपिल एतिहासिकता और घटनाओं की विश्वसनीयता का दावा पेश नहीं करते । पात्र और स्थान यथार्थ जगत के तो हैं लेकिन उपन्यास में रचनात्मक कल्पनाएँ भी हैं । व्याकरण की भाषा में इसे मिश्रित यानि प्रसिद्ध तथा काल्पनिक कथा वस्तु को मिलाकर लिखा गया उपन्यास कहा जा सकता है । वैसे भी इतिहास की पढ़ाई इतिहास की किताबों से ही करनी चाहिए, उपन्यास, फिल्मों, कविता और कहानियों से नहीं; क्योंकि यहाँ रचनात्मक कल्पनाओं का स्थान हमेशा ही विद्दमान रहता है । वैसे इतिहास की किताबें भी पक्षधरता की मिलावट से परे है ऐसा दावा बहुत विश्वास के साथ तो नहीं ही किया जा सकता है ।
उपन्यास के पहले ही पन्ने पर लेखक लिखते हैं - “फुलसुंघी” के बारे में कुछ विशेष कहे के नइखे । कहे के एतने भर बा कि एह उपन्यास के कथावस्तु कवनो इतिहास ना ह, एकर कवनो पात्र यथाचित्रित वास्तविक पात्र ना ह । एक में संदेह ना कि ढेला (बाई), महेंदर मिसिर, हलिवंत सहाय आ रिवेल साहेब सांचो के हो चुकल बाड़े । बाकिर एह चरित्रन के कवनो प्रामाणिक ब्योरा सामने नइखे रहल, आ एह लोगन के किस्सा किवदंतीयन से भरल बा । अइसन कुछ किवदंतियन से सह पाके, एक उपन्यास के कथावस्तु कल्पना से खड़ा कइल गइल बा । बाकिर, एक उपन्यास में, एगो काल-विशेष के, क्षेत्र-विशेष के आ समाज विशेष के जवन तस्वीर उरेहल गइल बा, उ जरुर सही बा । – पाण्डेय कपिल 26 जनवरी 1977” (“फुलसुंघी” के बारे में कुछ विशेष नहीं कहना है । कहना केवल इतना है कि इस उपन्यास का कथावस्तु इतिहास नहीं है, इसका कोई भी पात्र पुरी तरह से वास्तविक नहीं है । इसमें कोई सन्देश नहीं कि ढेला (बाई), महेंदर मिसिर, हलिवंत सहाय और रिवेल साहब वास्तविकता में भी हो चुके हैं । लेकिन इन चरित्रों का कोई प्रामाणिक ब्योरा सामने नहीं था, वैसे भी इन लोगों के किस्से किवदंतियों से भरा हुआ है । इन्हों किवदातियों के सहारे इस उपन्यास की कथा वस्तु टिकी है । बाकि एक उपन्यास में, एक काल विशेष के, क्षेत्र विशेष के और समाज विशेष के जो तस्वीरें अंकित हैं, वो ज़रूर सच हैं । – पाण्डेय कपिल 26 जनवरी 1977)
हमारे यहाँ इतिहास अंकित करने जैसे महत्वपूर्ण काम में शायद आलस्य का प्रकोप ज़्यादा है, इसीलिए बड़े से बड़े चरित्रों के बारे में अनुमान और किवदंतियां ज़्यादा हैं – सत्य कम । इसके पीछे मौखिक परम्परा का भी भरपूर योगदान है । हम बोल-बोलके महाकाव्य रच देते हैं लेकिन बात यदि अंकित-टंकित करने की आ जाए तो हाथों को लकवा मार जाता हैं । अब सुनने-सुनाने की परम्परा में समस्या यह है कि सुनानेवाला कथा में अपने हिसाब से जोड़-तोड़ करता है और सुननेवाला अपनी बुद्धि और विवेक से उसे ग्रहण करता है; कुछ याद रहता है, कुछ याद नहीं भी रहता । फिर जब सुननेवाला सुनी हुई कथा को अपने सुनाता है तो बीच-बीच में टूटे तारों को अपनी क्षमता, मान्यता और स्वार्थ से जोड़ता, तोड़ता, मरोड़ता है । इस प्रकार सत्य में कल्पना का समावेश होता है और इतिहास में गप्प का मिश्रण और फिर पैदा होतीं हैं सत्य की चाशनी से सनी किवदंतियां । वैसे भी किसी बड़े चरित्र के साथ चमत्कार न जुड़े तो हमें मज़ा ही नहीं आता । तभी तो विद्यापति के साथ उगाना (शिव) की कथा जुड़ता है । कुछ कुछ ऐसा ही इस उपन्यास के साथ भी है । हम खोजने निकलें तो इस उपन्यास के पात्रों की सच्ची कहानियां का अता-पता शायद ही कहीं मिले; और जो मिले उसमें कितना सत्य और कितना गप्प है, बता पाना शायद बहुत ही मुश्किल है । वो चाहें ढेलाबाई हों, महेंदर मिसिर हों, रेवल साहेब हो या कोई अन्य चरित्र ।
महेंदर मिसिर का जाली नोट छापने और गिरफ्तार होने की भी (दांत) कथा है लेकिन यहाँ देशभक्ति वाला एंगल नहीं है । यहाँ महेंदर मिसिर एक कलाकार मात्र हैं, महानता के बोझ से लदे पूर्वी गायकी और “मिसिर” सरमौर महेंदर मिसिर नहीं। यहां वो परिस्थियों से लड़ते कम, भागते हुए ज़्यादा पाए जाते हैं - कुछ-कुछ आवारा मसीहा की तरह । अब पाण्डेय कपिल की लेखनी में कितना हक़ीक़त और कितना फ़साना है यह तो कोई पारखी ही बता सकता हैं।
यह सत्य है कि ये लोग थे, लेकिन कैसे, क्यों कहाँ, कब, किस प्रकार आदि पर मामला आके फंस जाता है । बहरहाल, पात्रों को छोड़ भी दिया जाय तो भी इस उपन्यास के लेखक पाण्डेय कपिल के बारे भी साहित्य जगत लगभग अनभिग्य ही है, जबकि यह अभी हाल ही की बात है । तो सवाल यह बनता है कि क्या साहित्य में भी चर्चित होने के लिए किसी खेमे का खूंटा पकड़ना ज़रुरी है? अब इस सवाल का जवाब साहित्य के विद्वान ही दें तो बेहतर होगा ।
कुल 112 पन्ने का यह उपन्यास अपने अंदर एक लंबा कालखंड और कई पात्रों की जीवनयात्रा समेटे हुए बड़ी ही तीब्र गति से आगे बढ़ता है, कभी-कभी पीछे की ओर (फ्लैश बैक) भी आता है ताकि कई सारी स्थितिओं-परिस्थियों और घटनाक्रमों का अर्थ स्पष्ट हो जाएँ । यह पीछे आना एक रणनीति है, बिलकुल “दो कदम आगे और एक कदम पीछे” की तरह । अब यह स्पष्टता या रणनीति इतिहास जनित है या लेखकीय टिपण्णी; यह एक शोध का विषय है ।
“फुलसुंघी” गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी सामंती व्यवस्था का आडम्बर, उससे मोहभंग के साथ कोठा से लेकर लोकसंगीत पूर्वी आदि में लिपटी एक व्यावहारिक गाथा की तरह है; जहाँ एक जेब से दूसरी जेब तक की आज़ादी और स्वछंदता भरी यात्रा करनेवाली ढेलाबाई अन्तः कैद हो जाती या कर दी जातीं हैं । रवेल साहेब और हलिवंत सहाय का तमाम भौतिक सुख सुविधाओं से मोहभंग हो जाता है, महेंदर मिसिर आवारगी को अभिशप्त होते हैं और अन्य चरित्र कई अन्य नियति को प्राप्त होते हैं । इस बिलकुल पतले से उपन्यास की टहनियाँ और जड़ें किसी बरगद की तरह फैली हैं, जहाँ इसके हर चरित्र का क्रमिक विकास है; केसरबाई, मीनाबाई, राम नारायण मिसिर, बुलकान, मुंशी शिवधारीलाल, मनोरमा आदि जैसे उन चरित्रों का भी जो इस कथा के मुख्य चरित्र नहीं हैं । वहीं कुछ ऐसे एतिहासिक घटनाक्रमों का भी एक दूसरा ही नज़रिया सामने आता है जिसे लेकर आजतक तरह-तरह की कथा सुनी-सुनाई जातीं हैं । उन घटनाओं में महेंदर मिसिर का नोट छापने का धंधा करना, गुलजारीबाई बाई का ढेला बाई के रूप में परिवर्तित हो जाना, रिवेल साहब और हलिवंत सहाय भौतिकता से मोह भंग हो सन्यासी हो जाना आदि हैं । अब सारी घटनाओं/प्रसंगों का ज़िक्र कर पाना यहाँ संभव नहीं लेकिन एक प्रसंग का ज़िक्र करने का मोह त्याग पाना मुश्किल हैं । उपन्यास के शुरूआत के पन्ने पर पाण्डेय कपिल लिखते हैं – “सुनल जाला जे प्रयागराज के गणिका जानकीबाई के गवनई पर रीझके आपन सबकुछ निछावर क देवेवाला प्रेमी जब ओकर करिया-कलूट चेचक के दाग वाला चेहरा के देखलस त उ पगला गईल आ जानकीबाई के मार छुरी के गोद दिहलस । छुरी के छप्पन घाव खाइयो के जानकीबाई जीयत बांच गईली, आ नाम बदल गईल, हो गईल छप्पनछुरी । (सुनने में आता है कि प्रयागराज की गणिका जानकीबाई के गाने पर रीझकर अपना सबकुछ न्योछावर कर देनेवाला प्रेमी जब उनकी काली और चेचक से भरा चेहरा देखा तो पागल सा हो गया और उसने जानकीबाई को छोरी से गोद दिया । लेकिन जानकी बाई बच गईं और उनका नाम बदलकर छप्पनछुरी हो गया ।)”
ठीक इसी प्रकार गुलजारीबाई के ढेलाबाई के रूप में बदल जाने की कथा भी है – “उनका एगो महफिल में पगलाइल प्रेमियन के बीच चल गईल ढेला । अ इनकरी नाम बदल गइल । हो गइल ढेला यानी ढेलाबाई । (उनकी एक महफिल में पगलाए प्रेमियों के बीच ढेला चल गया और इनका नाम बदलकर हो गया ढेला अर्थात ढेलाबाई ।)”
बिहार के विख्यात/लोकप्रिय गायक और कवि महेंदर मिसिर और ढेलाबाई पर लिखित सामग्री बहुत ही कम है और जो कुछ भी लिखा गया है उसमें हकीकत और फ़साने को अलग-अलग कर पाना बहुत ही दुरूह कार्य है । यह काम साहित्य और साहित्यकारों का कम इतिहास, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों का ज़्यादा है । जहाँ तक एक उपन्यास का सवाल है तो फुलसुंघी निश्चित ही भोजपुरी ज़मीन, भाषा, बोली, वाणी, संस्कारों, संस्कृति, उपमाओं, मान्यताओं, गीत आदि से लबरेज़ एक पढ़ने-पढ़ाने वाली रचना है ।
पटना के रंगकर्मी मित्र धर्मेश मेहता के सौजन्य से मैं पहली बार कोई भोजपुरी उपन्यास पढ़ रहा था । मुझे नहीं पता कि पाण्डेय कपिल कौन हैं और आज किस स्थिति में हैं, उनकी यह रचना “फुलसुंघी” आज बाज़ार में उपलब्ध भी है या नहीं; लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि भोजपुरी और भोजपुरी साहित्य से स्नेह रखनेवालों को यह उपन्यास ज़रूर ही पढ़ना-पढ़ाना चाहिए । यह अपने आपमें एक शानदार रचना हो, न हो लेकिन एक शानदार रचना का सुख और एहसास देनेवाला उपन्यास तो ज़रूर ही है ।
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