Tuesday, August 21, 2012

लन्दन ओलम्पिक में भारत : खर्च एक सौ बयालीस करोड़ पदक कुल छह !


चार साल में एक बार होनेवाले ओलम्पिक मुकाबले इस बार लन्दन में आयोजित हुए | 17 दिनों तक चले इस आयोजन में 204 मुल्क, 10,490 खिलाड़ी शामिल हुए, 302 गोल्ड मेडल और लाखों दर्शकों से सुसज्जित लन्दन ओलम्पिक के उद्घाटन पर 235 रुपये खर्च किये  गए | इस उद्घाटन समारोह का लेना देना खेल से कम खेल के ग्लैमर से ज़्यादा था | यह कोई खेल नहीं बल्कि एक इवेंट था जो फिल्म निर्देशक डैनी बोएल की देख रेख में किसी ब्लॉकबस्टर फिल्म की तरह तैयार किया गया था | समापन समारोह भी उद्घाटन समारोह की तरह ही भव्य और खर्चीला था | मगर इन चकाचौंध भरे समारोहों के बीच ये बात कतई नहीं भूलनी चाहिए कि ओलम्पिक के सितारे जब सन्यास लेते  हैं तो उनकी आर्थिक हालत क्या होती है | जो मैडल वो जीतते हैं उनकी स्थिति ये है – केवल 6 ग्राम सोने से सजी गोल्ड मेडल की वर्तमान कीमत 36,400 रुपये है जबकि सिल्वर की 18,000 रुपये व ब्रॉन्ज मेडल की कीमत महज 165 रूपये है | अब ओलम्पिक के कुल खर्च के सामने इन मेडल्स की क्या कीमत है आप खुद ही तय करें तो ज़्यादा बेहतर होगा | खेल के नाम पर खर्च का जो आलम है उससे खेल और खेल को खेल भावना से खेल रहे खिलाड़ी कितना लाभान्वित हो रहें हैं ? यह बात खर्च में कटौती के सन्दर्भ में नहीं बल्कि फिजूलखर्ची के सन्दर्भ में कही जा रही है | क्रिकेट में कालेधन की बात खुद खिलाड़ी ही कहते पाए जा रहे हैं, ओलम्पिक में डोपिंग और खिलाडियों के चयन (भारतीय सन्दर्भ में ) का मामला उठता ही रहा है | इसी ओलम्पिक में चीन, इंडोनेशिया और कोरिया के महिला बैडमिंटन खिलाडियों द्वारा अपने-अपने मुकाबले जानबूझकर हारने का मामला सामने आ चुका है | दिखावा हर जगह बढ़ रहा है और खेल के आयोजन भी दिखावे के इस खेल से अछूते नहीं | ऐसे में खेल को केवल खेल भावना से देखने की वकालत ज़रा आदर्शवादी कल्पना लगती है |
आज तक के ओलम्पिक इतिहास में कुल बीस पदकों के साथ भारत का सफ़र कोई ऐसा खास नहीं रहा है जिस पर अलग से कुछ कहा जाय | कारण शायद ये भी हो सकता है कि हमारे मुल्के में खेलना कूदना समय की बर्बादी मानी जाती है | सदियों पुरानी कहावत आपने भी सुनी ही होगी –पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब, खेलोगे कूदेगे होगे खराब | ये कहावत खेल के प्रति भारतीय नज़रिये को भी दर्शाती है | सन 1952 में दो पदक जीते थे और सन 2008 में किसी तरह यह संख्या तीन तक पहुँच पाया | इस तरह मात्र छह पदकों के साथ, जिसमें एक भी स्वर्ण नहीं है, इस बार का प्रदर्शन अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन माना जा सकता है | मगर आज भी स्थिति ऐसी नहीं है  कि हम वैश्विक स्तर पर खेलकूद में एक सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकें | शायद इसीलिए हम खेलकूद में भाग लेकर ( क्वालीफाई होकर ) ही ऐसे खुश हो जातें हैं जैसे मैदान मार लिया हो और अगर कांस्य पदक भी जीता तो उसकी खुशी सोना जीतने के बराबर होती है | यहाँ हम क्रिकेट की बात नहीं करेंगें क्योंकि उसकी तुलना बाकि खेलों से करना भारतीय परिदृश्य में न्यायसंगत नहीं जान पड़ता | क्योंकि विश्व में क्रिकेट खेलने वाले देश दर्जन से भी कम हैं और वहाँ भी हमारी स्थिति इधर कुछ सालों में सुधारी है | विश्व चैम्पियन बनने से पहले हमारी गिनती फिसड्डी टीमों में ही होती थी |
आइये अब ज़रा इस बार के ओलम्पिक में भारत की बात करें | 17 दिनों तक चलानेवाले इस मुकाबले में इस बार रिकार्ड 82 खिलाड़ियों के दल के अलावा सरकारी पैसे से लन्दन घूमने की तमन्ना के साथ पता नहीं कितने अफसर-मंत्रियों के दल के साथ भारत ने कुल तेरह खेलों में हिस्सा लिया और निशानेबाज़ी, मुक्केबाज़ी, बैडमिंटन और कुश्ती में कुल 6 पदक जीते | वो भी चार कांस्य और दो रजत | खेल मंत्री जी के अनुसार  लन्दन ओलम्पिक की तैयारी पर सरकारी खर्च का आंकड़ा है 142.43 करोड़ रूपया | ये एक योजना के तहत खर्च किया गया था जिसका नाम है “ऑपरेशन एक्सीलेंस फॉर लन्दन ओलंपिक्स-2012” | अब अंग्रेज़ी में नामांकित यह जादुई ऑपरेशन कैसे चलाया गया उसकी कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है | हाँ, इस योजना के तहत खिलाड़ियों तथा एथलीटों के लिए देश में प्रशिक्षण शिविरों पर 61 करोड़ 65 लाख तथा विदेशों में प्रशिक्षण पर 70 करोड़ 55 लाख रूपया खर्च किया गया | इतना पैसा सरकारी खजाने से निकला इस पर किसी को कोई संदेह नहीं पर ये सारा का सारा पैसा प्रशिक्षण पर खर्च हुआ, खिलाड़ियों के प्रदर्शन को देखते हुए ये बात पचा पाना ज़रा मुश्किल ही लग रहा है |
कांस्य पदक जीतते ही हम जैसे खुश होते हैं, हमारा दिवालियापन इसी बात से पता चलता है | जबकि विश्व की नंबर एक हमारी सुपरस्टार तीरंदाज़ दीपिका हँसते-मुस्कुराते रैकिंग में 37वें स्थान की ब्रिटिश खिलाड़ी एमी ओलिवर से मुकाबला हार जाती है | हद तो तब हो जाती है जब हार का सारा दोष तेज़ हवाओं और लन्दन के मौसम, वातावरण को देती है | माना कि हवा चल रही थी और मौसम भी मनोनुकूल नहीं था | पर यह बात सारे खिलाडियों के लिए थी केवल विश्व चैम्पियन के लिए नहीं | माना कि दीपिका स्थानीय खिलाड़ी से हारी पर उसके फ़ौरन बाद एक विदेशी खिलाड़ी ने उसी स्थानीय खिलाड़ी को जिससे दीपिका हारी थी, हरा दिया | अब साल भर लन्दन में रहने के बाद ही अगर कोई विश्व चैम्पियन तीरंदाज़ सही निशाना लगा पाने में सक्षम है तो फिर कहना पड़ेगा कि चमत्कार बार-बार नहीं होते.  
शर्मनाक हार के बाद जब ये तीरंदाज़ स्वदेश लौटे तो बयान सुनिए – “भारतीय तीरंदाज़ मानसिक रूप से पिछड़ गए, साथ ही क्राउड प्रेशर और मौसम का भी प्रदर्शन पर विपरीत प्रभाव पड़ा | भविष्य में एक साइक्लाजिस्ट या मेंटल ट्रेनर को टीम के साथ जोडा जाना चाहिए |” दीपिका आगे कहती है – “ओलम्पिक मेडल कोई भूत नहीं है | ऐसा नहीं कि इसे हासिल नहीं किया जा सकता | मैं विश्व की नंबर एक तीरंदाज़ हूँ | भविष्य में ओलम्पिक में मेडल जीतकर दिखा दूंगी | मुझमें आत्मविश्वास आज भी बरक़रार है |”
दीपिका के ओलम्पिक में प्रदर्शन को देखते हुए और उस पर इस तरह की बयानबाज़ी को पढ़के, साथ ही जिस प्रकार वो ओलम्पिक में गेम के दौरान हंस रही थी उसको मद्देनज़र रखते हुए उसकी इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए कि साइक्लाजिस्ट की ज़रूरत है | साथ ही उन्हें यह बात भी बताए जाने की ज़रूरत है कि खेल में हार जीत तो लगी रहती है परन्तु हार पर बहानेबाज़ी करने के बजाय उसे स्वीकार करने की कला भी एक विश्व चैम्पियन को आनी चाहिए | ऐसा कहके किसी भी खिलाड़ी की व्यक्तिगत प्रतिभा पर सवाल उठाने का मकसद कतई नहीं समझा जाना चाहिए, पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर केवल प्रतिभा के सहारे लंबे अरसे तक सफलता नहीं पाई जा सकती | साथ ही यहाँ सवाल केवल हार जीत का भी नहीं है | खेल में हार जीत खेल का हिस्सा है | पर जब हार शर्मनाक होने लगे और विश्व चैम्पियन खिलाड़ी पूरी स्पर्धा में एक भी परफेक्ट टेन न मर पाए और दोष हवा और दर्शकों को दे तो सवाल उठेगा ही और उठाना भी चाहिए |
लन्दन ओलम्पिक में सितारों से भरी भारतीय तीरंदाजी टीम का घटिया प्रदर्शन पहले दिन से ही शुरू हो गया था | रैकिंग राउंड में पुरुष दल को बारहवां और महिला दल को नौवां स्थान प्राप्त हुआ था | जिसमें विश्व चैम्पियन दीपिका व्यक्तिगत रूप से 8वें तथा भारत के नंबर एक पुरुष तीरंदाज़ जयंत तालुकदार साहेब 53वें स्थान पर रहे थे | जहाँ तक खर्च का सवाल है तो भारतीय तीरंदाजों की कोचिंग और उपकरण आदि पर लगभग सात करोड़ खर्च किये गए, इस खर्च में भारतीय तीरंदाजों के विदेशी एक्स्पोज़र के लिए 12 विदेशी मुद्राओं में खर्च हुई राशि 3.57 करोड़ भी शामिल है | यानि की कुल सात करोड़ में से लगभग आधी राशि विदेशी एक्स्पोज़र के नाम पर खर्च हुई | लियंडर पेस, महेश भूपति, सानिया मिर्ज़ा आदि स्टार खिलाडियों वाले भारतीय टेनिस दल की हालत भी कुछ ऐसी ही थी | बैडमिंटन में सायना ने कांस्य पदक तो जीता पर खेल का केवल एक ही सेट पूरा किया जा सका था जिसमें सयाना अपने विरोधी से 18 – 21 से मुकाबला हार रही थी | परन्तु घुटने की चोट के कारण सायना के विरोधी ने मुकाबला बीच में ही छोड़ दिया और सायना विजेता घोषित की गई |
बाकी खेलों का हाल तो और भी कमाल है | बीजिंग ओलम्पिक के स्वर्ण पदक विजेता और भारतीय दल के स्टार निशानेबाज अभिनव बिंद्रा को लन्दन ओलम्पिक के लिए जर्मनी में रहकर 155 दिन की ट्रेनिंग कैम्प कराया जाता है जिसका कुल खर्च लगभग 1 करोड़ 31 लाख रूपया आता है | नतीज़ा – दस मीटर एयर रायफल राउंड के लिए अन-क्वालिफाइड | हार का कारण दर्शकों के शोर की वजह से एकाग्रता भंग होने को माना गया !  टेबल टेनिस ( महिला एकल ) में अंकिता दास पहले ही राउंड में बाहर हो गईं | हाई जंप में हमारे जम्पर क्वालीफाई भी नहीं कर पाए | एथलेटिक्स की तिहरी कूद स्पर्धा में भारत की तरफ़ से रंजीत महेश्वरी का प्रदर्शन इतना खराब था कि क्वालीफाई राउंड में अपने तीनों जंप फाउल कर शानदार और एतिहासिक तरीके से लन्दन ओलम्पिक को अलविदा कहा | मुक्केबाज देवेंद्रो ने आगाज़ तो धमाकेदार किया पर उसे किसी अंजाम तक न पहुंचा सके | तैराकी में एकमात्र भारतीय खिलाड़ी एपी गगन ने क्वालीफाई राउंड में ही शर्मनाक तरीके से आखरी स्थान प्राप्त किया | वो 1500 मीटर फ्रीस्टाईल स्पर्धा में शीर्ष स्थान पानेवाले तैराक से लगभग 2 मिनट बाद फिनिशिंग लाईन तक पहुँच सके | तीरंदाज़ी समेत, टेनिस, टेबल टेनिस, जूडो, नौकायन, हाकी और भारोतोलन में भारतीय चुनौती कब आई और कब खत्म हुई पता भी नहीं चला | जीवट महिला मुक्केबाज मेरी कॉम ने और आखिरी के दो दिनों में सुशील कुमार और योगेश्वर भट्ट ने कुश्ती में पदक दिला कर कुछ लाज रखी |
अब हाकी चूंकि भारत का राष्ट्रीय खेल है ( कम से कम लिखित रूप में तो है ही ) तो इस पर ज़रा अलग से बात न की जाय तो राष्ट्र के साथ न्याय न होगा | तो आइये हाकी की बात करतें हैं | ओलम्पिक के इतिहास में भारतीय टीम ने ऐसा प्रदर्शन पहले कभी नहीं किया | भारतीय हाकी टीम ने अपने ग्रुप के कुल पांच मैच नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, जर्मनी, दक्षिण कोरिया और बेल्जियम के खिलाफ़ खेले और पांचों में शानदार पराजय की उपाधि पाई | बल्कि सभी टीमों में से आखिरी स्थान पर रही | ये बात और है कि ओलम्पिक शुरू होने से पहले दावों की कोई कमी नहीं थी | अब जब टीम हारकर फिसड्डी सावित हो चुकी है तो लोग टीम चयन में राजनीति और सिफारिश की बात (जो भारतीय हाकी के लिए आम बात सी हो गई है ) उठनी शुरू हो गई है |
भारत में खेलों के हुक्मरानों को ये बात पता नहीं कब समझ में आएगी कि विजेता केवल कुछ महीनों में तैयार नहीं होते |  भारत में खेलों का मूलभूत ढांचा ( अगर कभी था तो ! ) कब का चरमरा चुका है | प्रशिक्षण केन्द्र या तो हैं ही नहीं या जहाँ हैं वहाँ (अधिकतर) करप्शन के अड्डों में तबदील हो चुके हैं | केवल जुनून के सहारे चैम्पियन नहीं पैदा होते बल्कि तकनीक की अहमियत भी समझनी होगी | तकनीक जिसको निरंतर पूर्वाभ्यास से साधा जाता है और इसके लिए समुचित स्थानों का निर्माण, संचालन व तमाम प्रकार की सामग्रियों की उपलब्धता, खेल संघों का विकेन्द्रीकरण, खिलाडियों के चयन में पारदर्शिता और एक अनुशासन में खिलाडियों के मानसिक, शरीरिक, बौधिक विकास को संचालित करना होता है | ये कार्य केवल कुछ शहरों या महानगरों में चलाने से नहीं होगा बल्कि इसे पूरे देश में एक मुहिम के तहत ईमानदारी से चलाना होगा | चैम्पियंस पैदा नहीं होते, वो प्रतिबद्धता, इमानदारी, अनुशासन और महत्वाकांक्षा के धरातल पर लंबे समय तक तपाकर गढे जातें हैं  

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