1966 से 2011 तक अपने 45 वर्षों के
फ़िल्मी सफ़र में राजेश खन्ना ने कुल 180 फ़िल्मों में काम किया
| बतौर हीरो 1969 से 1972 के बीच लगातार 15 सुपरहिट फ़िल्में दी | जब राजेश खन्ना सफलता के
शिखर पर थे –उस समय बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित एक
पाठ्य पुस्तक में एक निबंध हुआ करता था : The Charisma of Rajesh Khanna. राजेश खन्ना को 14 बार के नामांकन में से तीन बार
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला | इस शिखर पर बीबीसी द्वारा लिए
गए साक्षात्कार में जब उनसे ये पूछा गया कि वे इस टॉप पोजिशन को कैसे मेंटेन कर
पाते हैं, तो उनका जबाब था “जीतने और टॉप पर बने रहने के लिए
निर्दयी होना पड़ता है” | एक पत्रकार अली पीटर जॉन ने अपने संस्मरण में एक जगह लिखा है कि अमिताभ
बच्चन के आगमन पर राजेश खन्ना की टिप्पणी थी “ऐसे अटन-बटन आते-जाते रहते हैं |” उन्हें ‘सुपरस्टार’ का खिताब
देने वाली देवयानी चौबल ने स्वीकार किया था कि “राजेश खन्ना
निहायत तनहा और असुरक्षित व्यक्ति हैं | तनहाई और असुरक्षा
ने ही उन्हें आक्रामक बनाया |”
राजेश खन्ना हिंदी
सिनेमा के पहले सुपरस्टार माने जातें हैं | सुपरस्टार का मतलब जाना-माना,
महत्वपूर्ण, सफल व्यक्ति या सेलिब्रेटी जो लोगों के बीच चर्चित और पसंद किया जाता
हो |
फिल्मों में “सुपरस्टार” शब्द कैसे आया | 1920 तक
हालीवुड की फिल्म कम्पनियाँ उद्योग की शक्ल लेने लगीं थीं | ऐसे में हालीवुड के
इमेज मेकर्स और प्रमोटर्स अस्तित्व में आए और उन्होंने अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के
बारे में तरह-तरह की अफवाहें और सच्ची-झूठी कहानियों को प्रचारित करना और ऐसे ही
अन्यान्य तिकडमों का सहारा लेकर उनकी एक लोकप्रिय जन छवि बनाना और उन छावियों की
लोकप्रियता को भुनाना शुरू किया | इस तरह फिल्मों में “सुपरस्टार” पैदा हुए या पैदा किये गए | हिंदी फिल्मों में यह काम देव आनंद के काले
सूट वाले प्रकरण से शुरू होकर राजेश खन्ना तक आकर परवान चढ़ा या चढ़ाया जाता रहा |
क्योंकि जहाँ तक सवाल लोकप्रियता का है तो राजेश खन्ना जितनी जल्दी आसमान पर चमके
हैं उतने ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो गए | जो निर्माता-निर्देशक और दर्शक राजेश
खन्ना के लिए लालायित थे उनसे कन्नी काटने लगे और सत्तर के दशक के दौरान जेपी
आंदोलन की पृष्ठभूमि में अमिताभ बच्चन को हाथों हाथ लेने लगे | कलाकार और अदाकार
में फर्क है | अदाकारी में भले ही उन्होंने अपने पूर्वज, समकालीन और अपने बाद के
अभिनेताओं से ज़्यादा लोकप्रियता पाई हों परन्तु कलाकारी में फिल्म उद्योग में कई
ऐसे नाम हैं जिनकी प्रतिष्ठा आज उनसे कहीं ज़्यादा है |
राजेश खन्ना को सबसे
पहले सुपरस्टार कह कर प्रचारित करने का श्रेय जानी मानी पत्रकार देवयानी चौबल को
जाता है जो हालीवुड के चौथे दशक की फ़िल्मी गॉसिप और अतिरेक भरी पत्रकारिता के लिए
चर्चित देवी होपर का भारतीय अवतार हैं | ( सन्दर्भ-जयप्रकाश चौकसे ) भारतीय सिनेमा
के इतिहास में यही वो काल था जब सिने पत्रकारिता शहरी युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय
होने लगी थी और फ़िल्मी कलाकारों के बारे में पढ़ना-जानना एक लोकप्रिय विषय हो गया
था | पता नहीं इन बातों में कितनी सच्चाई है और कितना गौसिप पर राजेश खन्ना के कई किस्से आज भी किंवदंतियों के
रूप में कहे जाते हैं | मसलन - पहली बार फिल्म के ऑडिशन के लिए अपनी मर्सिडीज
गाड़ी में आना, उनकी
गाड़ियों पर पड़े उनकी महिला फैन्स के चुंबनों के निशान, आधी
रात को अपनी उम्र से लगभग आधी उम्र की डिंपल कपाड़िया को जुहू बीच के किनारे एक
लाख रुपये की हीरे की अंगूठी के साथ शादी का प्रस्ताव रखना, लड़कियों
के खून से लिखे प्रेम पत्र और शरीर पर उनके नाम का गोदना, उन्हे अपने सपनों का राजकुमार मानना तथा उनकी तस्वीर से ही शादी रचा लेना, उनके रास्ते में अपने दुपट्टे बिछा दिया करना ताकि उन्हें ज़मीन
पर ना चलना पड़े इत्यादि, साथ
ही उनके दारूबाजी और अक्खड़पन के किस्से भी कुछ कम नहीं |
“आनंद मरा नहीं, आनंद
मरते नहीं”, यह एक ख्याल है, दर्शन है जो लेकिन राजेश खन्ना की मृत्यु लगभग उनकी
फिल्म आनंद की तरह ही तय थी | वे पिछले कई दिनों से बीमार चल रहे थे | उनके जीवन
के अंतिम दिन आनंद की तरह आनंद में नहीं बल्कि लगभग अकेलेपन और गुमनामी में बीते |
रही सही कसर उनके “ फैन ” वाले विज्ञापन ने पूरी कर दी | “बाबूमोशाय, मेरे फैन्स
मुझसे कोई नहीं छीन सकता” बोलते हुए वो बड़े ही दयनीय और हास्यास्पद लगते हैं | पता
नहीं इस विज्ञापन को करने के पीछे उनकी क्या मजबूरी रही होगी जिसमें उन्होंने अपने
फैन्स (चाहनेवालों) को फैन्स (पंखों) में तबदील कर दिया !
देव आनंद व दिलीप
साहेब के युग की अंतिम बेला में भारतीय युवा पीढ़ी के आदर्श अभिनेता के रूप में राजेश
खन्ना ( मूल नाम जतिन खन्ना ) नामक इस अभिनेता का उदय होता है | जिसमें देव साहेब
जैसी अदा और रूमानीयात है और दिलीप साहेब जैसा भोलापन भी | जिसे एक खास समय में भारतीय
सिनेमा प्रेमियों का भरपूर प्यार मिला | राजेश खन्ना कितने अच्छे अभिनेता थे वो एक
विचानीय प्रश्न है | एक तरफ़ “ पुष्पा आई हेट टियर्स” जैसे संवादों की अदायगी का
मज़ाक आज तक उडाया जाता है, वहीं पर उनके नाम भारतीय सिनेमा की कई सफल और लोकप्रिय फ़िल्में
दर्ज़ हैं | उन फिल्मों की लोकप्रियता में राहुल देव बर्मन के संगीत और किशोर कुमार
की आवाज़ में गाये गानों के योगदान को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता | ये भी क्या
एक विडंबना ही मानी जाए कि पर्दे पर रोमांटिक भूमिकाओं के लिए विख्यात राजेश खन्ना
की अगर दो बेहतरीन भूमिकाओं की बात करें तो आनंद और बाबर्ची का नाम आता है जिनमें
उनकी भूमिका रोमांटिक तो बिलकुल भी नहीं थी |
किसी भी अभिनेता की रील और रियल लाइफ एक जैसी हो ऐसा ज़रूरी नहीं
और कई बार तो उनमें ज़मीन आसमान का फर्क होता है | राजेश खन्ना को भी अपनी
व्यक्तिगत ज़िंदगी में अधिकतर मोर्चे पर वैसी शानदार छवि नहीं हासिल हुई जैसी कि
फिल्मों में | इसके पीछे की वजहों की पड़ताल करने का ये उचित समय नहीं है | हाँ
इतना तय है कि व्यक्तिगत ज़िंदगी में अपनी छवि आपको खुद बनानी पड़ती है अपने कर्मों
से, यहाँ किसी की बनाई छवि का कोई महत्व नहीं होता |
राजेश खन्ना भारतीय
सिनेमा के पर्दे पर भोलेपन और रोमानियत के एक ऐसे दुर्लभ प्रतीक के रूप में याद
किये जाएंगे जो उनके बाद फिर सिनेमा के जादुई पर्दे पर कभी देखने को नहीं मिला | साथ
ही साथ वो भारतीय सिनेमा उद्योग में फर्श से अर्श और अर्श से फर्श पर की यात्रा के
शानदार उदाहरण भी हैं | राजेश खन्ना का
सितारा भले ही कम समय तक चमका परन्तु जब राजेश खन्ना का समय था तो उनके आस-पास
दूर-दूर तक कोई उनकी सफलता का पर्याय नहीं था | उनकी फ़िल्में भले ही एक समय बाद
अलोकप्रिय होने लगीं पर वो स्वयं कभी अपने इस स्टारडम के मायाजाल से बाहर नहीं
निकल सके और बदलते वक्त के साथ कदमताल नहीं मिला सके | कभी उन दिनों को याद करना
या जीना नहीं छोड़ा, जब वह “सुपरस्टार” हुआ करते थे।
उनका माना था – “मैं अभी खत्म नहीं हुआ हूं, फिर
लौटूंगा” | फिल्म आनंद में बोले उनका संवाद “ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं ”
उनकी पूरी जीवन यात्रा पर भी सटीक बैठता है |
उम्मीद है भारतीय
सिनेमा उद्योग राजेश खन्ना की व्यक्तिगत और व्यावसायिक ज़िंदगी से आने वाले समय में
ज़रूर ही सीख लेगा |
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