आज से ठीक दो साल पहले (चार नवम्बर
दो हज़ार नौ ) सुबह के लगभग ग्यारह बजे शशि भूषण ने किडनी चोरी की वजह से विख्यात
हुए नोएडा मेडिकल सेंटर अस्पताल में मेरी आँखों के सामने आपनी अंतिम सांसें भरी
थीं. वो तीन चार दिनों से वहाँ भर्ती था. डाक्टर उसकी बीमारी पहचाने बिना ही उसका
इलाज कर रहे थे. जिस दिन उसकी मौत हुई उसकी सुबह डाक्टर उसे ये कहकर डिसचार्ज कर
चुके थे कि तुम पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हो. वो अस्पताल के रिशेप्सन तक आ भी गया
था कि उसे चक्कर आया और वो बेहोश होकर गिर पड़ा. उसे सीधे आईसीयू में ले जाया गया
जहाँ से उसका मृत शारीर ही बाहर निकला. इस पूरी घटनाक्रम के दौरान आईसीयू में
बिताए आखरी चंद घंटे के अलावे शशि के साथ कोई नहीं था . वो अकेला था नितांत अकेला.
मुझ जैसे दोस्तों को पता नहीं था और स्कूल से किसी को साथ जाने कि परंपरा न थी.
कागजों में मौत की क़ानूनी वजह डेंगू को ही होना था सो वही हुआ भी. सबने मना डेंगू
के कारण जनता की गाढ़ी कमाई से संचालित और रुपये की ढेर पर बैठी देश की सबसे बड़ी
ड्रामा स्कूल के एक छात्र की मौत हो गई है. थोडा रोना धोना परिस्थिति की मांग थी
और नाटक वाले परिस्थिति के अनुसार व्यवहार न करें ये संभव नहीं था तो यथा संभव परिस्थिति
की मांग को पूरा किया गया. आंसू चाहे मंच पर बाहे या यथार्थ के धरातल पर उसका असर
तो पडता ही है.
आदमी का शरीर जबतक जिंदा रहता है
समाज कि संपत्ति है मरा तो परिवार की. सो आनन् फानन में उसके छोटे भाई को हवाई
जहाज के द्वारा पटना से दिल्ली ये कहकर बुलाया गया कि तुम्हारे भाई की तवियत थोड़ी
(?) खराब है. लाश (अपने किसी खास करीबी मित्र के लिए यह शब्द लिखना कितना कठिन
होता है ना !) को कुछ नैतिक जिम्मेदारिओं के साथ परिवार के हवाले किया गया और हो
गया नैतिक ज़िम्मेदारी का पूरा पूरा निर्वाह. पर क्या दायित्व सिर्फ नैतिक
ज़िम्मेदारी पर आके खत्म हो सकती है ?
रंगमंच का कार्यकर्ता होने के नाते
इन शब्दों को लिखते हुए स्वंय मुझे भी संदेह हो रहा है कि दिन रात मानवीय
संवेदनायों की वकालत करने वाले कलाकारों की कौम क्या सच में इतनी संवेदनहीनता कि
ऊचाई को प्राप्त कर चुकी है. हो सकता है कि मैं गलत होऊं पर बड़े खेद के साथ कहना
पड़ रहा है कि इसका जबाब अधिकांशतः हाँ ही है. प्रोफेसनल रंगमंच की पढाई करते करते
हम कितने तकनीकी हो गए हैं की हमारा दायरा धीरे धीरे सिकुड़ता ही जा रहा है. एक तरफ
जहाँ हम मंच पर फटाफट संवेदनायों का प्रवाह करने में महारत हासिल कर रहें हैं वहीँ
हमारे जीवन में संवेदनायों की कंगाली साफ साफ देखी जा सकती है. नाटकों में रोशनी
दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है पर हमारे जीवन में ?
कलाकार समाज का सबसे संवेदनशील कौम
है ऐसा हम सुनतें और मौका मिलने पर कहतें भी आयें हैं. इस बात कि सच्चाई परखने का
समय शायद आ गया है. इंसान कलाकार पैदा नहीं होता बनाता है, बनाया जाता है, गढा
जाता है. हम आज कैसा कलाकार बन रहे हैं, बना रहे हैं और पैदा कर रहें हैं – हम
कैसा बीज डाल रहे हैं, विचार करने का समय आ गया है. दनादन मात्र बढ़ाने से कुछ
हासिल नहीं होगा और गौर से देखें तो हो भी नहीं रहा है.
खैर, तो बात हो रही थी शशि की.
अत्यंत ही साधारण घर और कद काठी के लड़के के अंदर कितनी प्रतिभा भरी थी. शशि ने मंच
पर गाया, बजाय, नचा, अभिनय किया, निर्देशन किया, संगीत बनाये पर अभिमान कभी उसे छु
तक न पाया. वो दोस्तों का दोस्त था. दोस्ती कि बात चली है तो बताता हूँ कि शशि कभी
इंसान कि परख करके दोस्ती नहीं करता था. शायद यही वो वजह थी कि उसके दोस्तों कि संख्या हम सबमें सबसे ज्यादा थी चाहे
वो पुरुष हों या स्त्री. पटना रंगमंच हमेशा से हीं महिला रंगकर्मिओं की कमी से
जूझता रहा है. हमारे नाट्य दल में भी स्थाई रूप से एक से ज्यादा अभिनेत्री कभी
नहीं रही पर एक शशि था कि उसके हर नाटक में महिला अभिनेत्रियों कि संख्या एक से ज्यादा
होती थी. चाहे उसके द्वारा मंच पर पहला निर्देशित नाटक काल कोठारी हो, जनपथ किस
हो, उमराव जान हो या कोई अन्य. हम जहाँ चार पांच पत्रों का नाटक करते वहीँ शशि मंच
पर अभिनेताओं का पुरे का पूरा हुजूम एकत्रित कर देता.
शशि के चेहरे पर शिकन देखने का
अवसर बहुत कम ही होता था. जेब खाली हो कोई बात नहीं पर उसके ख्यालों में कंगाली
कभी नहीं रही. वो पूरी उर्जा से भरा एक जिंदादिल इंसान था जो जिंदगी का भरपूर दोहन
करने कि छमता रखता था और जो दूसरों के चेहरों पर हंसी की एक फुहार लाने के लिए
मजाक के किसी भी सीमा का उल्लंघन बड़ी आसानी से कर सकता था. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि आप स्त्री हैं या पुरुष. हालाकिं पढ़ने लिखने से कोई खास लगाव उसे नहीं था पर
इतना भी नहीं कि वो चीजों के बुनियादी अधूरेपन से पूरी तरह से अनजान हो रहे.
बिहार के ठेंठ मगही इलाके के एक
साधारण परिवार में जन्में फक्कड स्वाभाव के शशि को रंगमंच से जोड़ने का मुख्य श्रेय
जन संस्कृति मंच के पटना इकाई हिरावल के अनिल अंशुमन को जाता है. बाद में वो विजय
कुमार द्वारा संचालित मंच आर्ट ग्रुप का एक मुख्य स्तंभ बना जिसमें पंकज त्रिपाठी,
सुनील बिहारी, रंधीर कुमार, भूपेंद्र कुमार, हेमशंकर हेमंत और मैं भी था. यहाँ कार्य
करते हुए उसने रेनू के रंग. किस्सा ठलहा राम की, राग दरबरी, ये आदमी ये चूहे आदि
नाटकों में यादगार भूमिकाओं को पुरजोर तरीके से अभिनीत किया. खासकर रेनू के रंग,
जो की रेनू जी की तीन कहानिओं, न जाने केहि वेश में, पंचलाइट और रसप्रिया कि नाट्य
प्रस्तुति थी, में मूंछ दाढ़ी वाली काकी, मद्रासी यात्री और मृदंगिया के किरदार तथा
राग दरबारी में सनीचर आदि चरित्रों में शशि को जिसने भी देखा वो बस उसकी जादू में खो
गया. हालाँकि उसे संवाद याद करने में थोडा ज्यादा वक्त लगता था पर एक बार याद हो
जाये तो फिर देखिये उसका कमाल. मंच पर उसकी टाइमिंग कमाल की थी बस जीवन की ही
टाइमिंग ज़रूरत से बहुत ज्यादा तेज निकली.
चाहे वो मंच नाटकों पर काम कर रहा
हो या नुक्कड़ पर, उसकी प्रतिबद्दता सामान रहती. वो नुक्कड़ नाटकों के लिए उतना ही
उपयोगी था जितना मंच के लिए. विजय कुमार के हरिशंकर परसाई के व्यंग पर आधारित एकल
नाटक हम बिहार में चुनाव लड़ रहें हैं का शशि भी एक अभिन्न्य अंग बन गया था. उसकी
ढोलक की थाप इस नाटक को एक अलग ही आयाम देता था. वो इस नाटक के सौ से भी ज्यादा
प्रस्तुतिओं में सहभागी रहा. तभी तो उसकी कमी आज भी विजय कुमार को सालती है. खासकर
तब और भी ज्यादा जब वो इस नाटक को प्रस्तुत कर रहे होते हैं.
बिहार के धनरुआ थाना अंतर्गत एक
छोटे गांव से निकलकर पटना , मुंबई और फिर राष्ट्रीय नाट्य विधालय, नई दिल्ली तक की
उसकी जीवन यात्रा जीवन्तता से सराबोर थी. सच कहा जाये तो वो मुंबई में काम कर रहा
था, खुश था. वो रानावि आना भी नहीं चाहता था. पर दोस्तों के दवाव ने आख़िरकार उसे
यहाँ आने को एक तरह से कहा जाये तो मजबूर किया. किसे पता था कि हम शशि को जहाँ भेज
रहें हैं वहाँ से वो कभी वापस ही नहीं लौटेगा.
तुम आओ न आओ तुम्हारी याद हमेशा ही
आती है... आती रहेगी. सिर्फ मुझे ही नहीं मेरे जैसे कई और भी हैं. हम दुनियां की
नज़र में मजे हुए कलाकार हैं पर तुम्हें भूलने की कला हमें नहीं आती दोस्त.
very touching.
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