गुजरात चुनाव के मातहत कांग्रेस पार्टी का विज्ञापन. उम्मीद है आपने भी
देखा होगा. मेरे बगल में बैठे एक सामाजिक चिन्तक ने विज्ञापन खत्म होते ही कहा –
वाह, नतीज़ा चाहे जो भी निकले पर कांग्रेस ने बड़ा ही
काव्यात्मक विज्ञापन बनाया है. मसलन कि गुजरात में कोंग्रेस जीतेगी ऐसी उम्मीद तो
शायद कांग्रेस समर्थकों को भी नहीं थी. बहरहाल विज्ञापन खत्म हो चुका था और मैं उस
विज्ञापन में दिखाए आखिरी इमेज पर अटक गया था. इस इमेज में भारत का राष्ट्रीय झंडा
तिरंगा आता है पर बीच का चक्र गायब है. चक्र की जगह हाथ है. जिसे कांग्रेस पार्टी ‘आम
आदमी’ का हाथ कह रही है. ये बहस का एक अलग मुद्दा है कि आम आदमी का क्या है और क्या
नहीं, क्योंकि इस देश में सारे अच्छे- बुरे काम में आम आदमी का नाम घसीट ही दिया
जाता है और बेचारा आम आदमी कल जहाँ था आज भी वहीं मर खप रहा है. कांग्रेस ने इस
देश की जो हालत की है उसमें ये मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि कांग्रेस ने आम
आदमी का हाथ उड़ाके अपने झंडे पर चिपका दिया है और हम 1947 के
बाद से लगातार उस हाथ पर ठप्पा लगा-लगाकर देश की तक़दीर सुधरने का इंतज़ार कर रहें
हैं.
खैर, तो तत्काल मूल मामला है राष्ट्रीय झंडे के ऊपर चक्र की जगह हाथ का आ
जाना. क्या यह राष्ट्रद्रोह का मामला नहीं बनाता ? अभी कुछ दिन पहले एक
कार्टूनिस्ट ने अशोक स्तंभ से सिंह का चेहरा हटाकर भेडिया का चेहरा लगा दिया तो
देश में ऐसा भेडियाधसान मच गया जैसे देश की आज़ादी ही खतरे में हो. देश के बड़े बड़े
बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम स्टेट पर घंटों प्रवचन बांचते रहे. उस
प्रकरण से कुछ हुआ या नहीं पर एक साधारण सा कार्टूनिस्ट अपने को महान क्रांतिकारी
ज़रूर समझाने लगा.
खैर, एक बात पर लगभग हर कोई सहमत है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ खिलवाड़
नहीं होना चाहिए, इससे देश की भावना आहत हो जाती है. वैसे ये भावना बड़ा ही मूर्त
सी चीज़ है जो पता नहीं किस – किस चीज़ पर आहात होती रहती है. इस दुनियां में ऐसे भी
मुल्क हैं जो अपने झंडे के प्रति इतने रुढिवादी सोच से ग्रसित नहीं हैं, तो क्या
ये मान लेना चाहिए कि उस देश की भावना नहीं है. चलिए कुछ देर के इस बात को सच मान
लेतें हैं कि राष्ट्रीय प्रतीक के साथ कोई छेड-छाड नहीं होना चाहिए. फिर तो ये बात
सब पर लागू होना चाहिए न ? पर ये जो कांग्रेस खुलेआम राष्ट्रीय ध्वज का अपमान कर
रही है उसका क्या ? कहनेवाले कह सकतें हैं कि राष्ट्रीय झंडा बनाने से पहले तिरंगा
कांग्रेस का झंडा था. ठीक है माना. पर जैसे ही कोई चीज़ राष्ट्रीय घोषित हो जाती है
तो उसपर से किसी की भी निजी मिलकियत स्वतः ही समाप्त हो जानी चाहिए. वैसे भी अशोक
स्तंभ राष्ट्रीय चिन्ह होने से पहले अशोक का धरोहर था, पर अब ये देश की निशानी है.
अब सवाल ये पैदा होता है की क्या किसी को भी अपने विज्ञापन में राष्ट्र से जुड़ी
चीज़ों का प्रयोग करने का अधिकार मिलाना चाहिए ? वैसे जो भी पान ज़र्दा के शौक़ीन हैं
वो भली भांति जानतें हैं कि पिछले कई सालों से तिरंगा नामक गुटखा खुलेआम बिकता है
जिस पर तिरंगा बना होता है, बिलकुल राष्ट्रीय झंडे जैसा. लोग, जिसे हम आम आदमी भी
कह सकतें हैं एक रूपया में उस गुटखे को खरीदतें हैं, तिरंगा बना पाउच को फेंकतें
हैं और गुटखा चबाते और थूकते हुए मस्त हो जातें हैं. अब इसे किस रूप में देखा जाय.
यहाँ कौन राष्ट्रद्रोही है ? गुटखा बनाने वाली कंपनी ? उसे इस तरह का पाउच में पैक
करके बेचने का परमिट देने वाला सरकारी महकमा या वो आम आदमी तो रोज़ दर्जनों तिरंगा
फाड़ता और थूकता हुआ मस्त हो जाता है ? इसे इस रूप में भी देख सकतें हैं कि
राष्ट्रीय भावना के प्रति आम आदमी की सोच इतनी संकीर्ण नहीं जितनी कि सरकार, राजनीतिज्ञों और
सरकारी कारकुनों की.
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