"मैंने देखा कि बुद्धिमान के लिए जिनकी ख्याति शिखर पर है, प्रायः उन्हीं में उनका अभाव सबसे ज़्यादा है. लेकिन जिन्हें जन साधारण कहके लोग नीची निगाह से देखतें हैं, वे सिखने के अधिक योग्य थे." - सुकरात.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( रानावि ) के नए निदेशक की घोषणा होनी है, कमिटी नए निदेशक की खोज में लगी है. पर पिछले कई दिनों ये खबर और चर्चा उफान पर है कि रानावि ने अपने नए निदेशक का चयन चुपके से कर लिया है. अब केवल ओपचारिकताएँ ही बची हैं. तत्काल रानावि में माहौल मुखिया के चुनाव की तरह है जहाँ हर उम्मीदवार दुनाली टांगे मूंछ पर हाथ फिरते हुए विरोधियों को अपनी लाल-लाल आँखों से घूर रहा हो. वैसे भी, रानावि में अधिकतर चयन की प्रक्रिया एकदम जादुई है. यहाँ उम्मीदवार पहले तय हो जाता है फिर ये सोचा जाता है कि उसे कैसे फिट किया जाय, पूरे कानूनी तरीके से, राजनीति, गुटबाज़ी के भरपूर तडके के साथ. यहाँ कानून है तो उसका सही-गलत इस्तेमाल भी है. ये पुरानी परम्परा है जिसका पालन बड़ी ही सफाई के साथ होता है. यहाँ भारतीय लोकतंत्र की ही तरह तीन मुख्य गुट सदा सक्रिय रहें हैं – सत्ता के साथ चिपका ग्रुप, सत्ता के विरुद्ध खड़ा ग्रुप और अपना काम बनाता, भाड़ में जाए जनता वाला ग्रुप. इधर कुछ सालों से छद्म संभ्रांत ( स्यूडो-एलिट ) नारीवाद ने भी रफ़्तार पकड़ी है. कभी रानावि के मंच पर पांच पुरुष और एक महिला दिखाई पड़तीं थी आज पांच महिला और एक महिलानुमा पुरुष दिखाई पड़ता है. ये उपलब्धि अमल अलाना और अनुराधा कपूर की देन है, जिन्हें कुछ ‘अ’भूतपूर्व निदेशकों और किंग मेकरों का समर्थन है. जिस प्रकार स्त्री निर्देशकों द्वारा निर्देशित नाटकों को महिला रंगमंच मान लेना एक संकीर्ण सोच है उसी प्रकार रानावि के निदेशक और अध्यक्ष का शारीरिक रूप से नारी होने भर से नारीवाद का झंडा बुलंद नहीं होता.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( रानावि ) के नए निदेशक की घोषणा होनी है, कमिटी नए निदेशक की खोज में लगी है. पर पिछले कई दिनों ये खबर और चर्चा उफान पर है कि रानावि ने अपने नए निदेशक का चयन चुपके से कर लिया है. अब केवल ओपचारिकताएँ ही बची हैं. तत्काल रानावि में माहौल मुखिया के चुनाव की तरह है जहाँ हर उम्मीदवार दुनाली टांगे मूंछ पर हाथ फिरते हुए विरोधियों को अपनी लाल-लाल आँखों से घूर रहा हो. वैसे भी, रानावि में अधिकतर चयन की प्रक्रिया एकदम जादुई है. यहाँ उम्मीदवार पहले तय हो जाता है फिर ये सोचा जाता है कि उसे कैसे फिट किया जाय, पूरे कानूनी तरीके से, राजनीति, गुटबाज़ी के भरपूर तडके के साथ. यहाँ कानून है तो उसका सही-गलत इस्तेमाल भी है. ये पुरानी परम्परा है जिसका पालन बड़ी ही सफाई के साथ होता है. यहाँ भारतीय लोकतंत्र की ही तरह तीन मुख्य गुट सदा सक्रिय रहें हैं – सत्ता के साथ चिपका ग्रुप, सत्ता के विरुद्ध खड़ा ग्रुप और अपना काम बनाता, भाड़ में जाए जनता वाला ग्रुप. इधर कुछ सालों से छद्म संभ्रांत ( स्यूडो-एलिट ) नारीवाद ने भी रफ़्तार पकड़ी है. कभी रानावि के मंच पर पांच पुरुष और एक महिला दिखाई पड़तीं थी आज पांच महिला और एक महिलानुमा पुरुष दिखाई पड़ता है. ये उपलब्धि अमल अलाना और अनुराधा कपूर की देन है, जिन्हें कुछ ‘अ’भूतपूर्व निदेशकों और किंग मेकरों का समर्थन है. जिस प्रकार स्त्री निर्देशकों द्वारा निर्देशित नाटकों को महिला रंगमंच मान लेना एक संकीर्ण सोच है उसी प्रकार रानावि के निदेशक और अध्यक्ष का शारीरिक रूप से नारी होने भर से नारीवाद का झंडा बुलंद नहीं होता.
अनुराधा कपूर के काल को इतिहास कैसे याद करेगा, तुगलक के काल या इंदिरा
गांधी के आपातकाल की तरह ? जब अनुराधा कपूर के निदेशक बनाने की घोषणा हुई तो सब
बड़े उत्साहित हुए. लगा अब रानावि में बेहतरीन बदलाव देखने को मिलेगा. गुटवादी परम्परा
का अंत होगा और आलोचनाओं को आराधना से ऊपर स्थान मिलेगा. इस सोच के पीछे बतौर शिक्षिका
उनकी शानदार छवि थी. पर किसे पता था कि ये भी उसी परम्परा की और तेज़ रफ़्तार वाहक
निकलेंगी और अनुशासन और अनु-शासन में फर्क नहीं कर पाएंगीं. ये बात शायद कालू (
रानावि में पलनेवाला एक कुत्ता ) जानता था तभी तो उनके निदेशक बनते ही काट लिया और
कालू की इस हरकत पर रानावि के एक प्रोफ़ेसर ने चटकारा लेते हुए कहा – चलो जो काम
मैं न कर सका वो कालू ने कर दिया. वैसे किसी ने ठीक ही कहा है कि व्यक्ति की
सही पहचान तब होती है जब उसके पास ताकत हो.
बदलाव से यदि सार्थक परिणाम आता है तो आपकी तारीफ़ होती है नहीं तो आलोचना. अनुराधा
कपूर ने उन सारी आवाज़ों को बड़े ही स्नेह से कुचला जो उनके सुर में सुर नहीं मिलाते.
कुछ को निकाला तो कुछ के लिए ऐसे माहौल बना दिए कि वो खुद ही या तो छोड़ के चला
जाएं या फिर लंबी छुट्टी ले लें. इसे मैदान साफ़ करना कहते हैं. इस बात को हम
रानावि रंगमंडल के मार्फ़त समझतें हैं. इनकी मान्यता थी कि रंगमंडल स्कूल में रहते
हुए भी स्कूल का अंग नहीं लगता. उन्होनें सबसे पहले अपनी पसंद के अभिनेताओं का चयन
किया. प्रस्तुति समन्वयक को बदल कर एक ऐसे व्यक्ति को लाया गया जो पहलेवाले से
बेहतर तो कतई नहीं था. ये बदलाव केवल इसलिए हुआ कि वो अनुराधा गुट के नहीं थे और
रंगमंडल में कार्यरत इनके कुछ भक्त कलाकारों को भी नापसंद थे. रंगमंडल के कुछ
कलाकारों ने इस बदलाव का लिखित रूप में विरोध करते हुए मांग की कि यदि इनको विदा
करना ही है तो सम्मानित तरीके से विदा किया जाय. ये एक लंबे अरसे तक ( लगभग 12
साल ) विद्यालय से जुड़े रहें हैं. इस मांग को शर्मनाक तरीके से अनदेखा कर दिया गया.
फिर बारी आई रंगमंडल प्रमुख की. ऐसा माहौल बना दिया गया कि वो भी बच्चे की तरह
रोते हुए लंबी छुट्टी पर जाने को अभिशप्त हो गए. उनपर अनुराधा कपूर के काम में असहयोग
करने का आरोप था ( शायद ). वैसे असहयोग के तुगलकी दिवास्वपन उन्हें अक्सर
ही आते रहतें हैं. इसीलिए इन्हें रानावि के मामले में भी अपने सहकर्मियों से ज़्यादा
अपने कद्रदानों पर भरोसा है. रानावि के कई महत्वपूर्ण काम ये इनके ही मार्फ़त ही
किया करतीं हैं.
बहरहाल, रंगमंडल में उन्होंने बदलाव के नाम पर उपरोक्त कामों के अलावा
अभिनेताओं के चाय के दो ब्रेक पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जिसके पीछे का बचकाना तर्क
था कि एक निदेशिका जो खुद कभी समय पर नहीं आई अपने नाटक के पूर्वाभ्यास में, ने
शिकायत की है कि रंगमंडल के कलाकार केवल चाय पीते रहतें हैं, जैसे ही काम करने का
मूड बनता है ये टी ब्रेक करने लगतें हैं. खैर, वादा किया गया कि एक चाय की मशीन ही लगा दी जायेगी. जो आज तक न लगी. किसी 'महान' विचार के तहत एक सामानांतर रंगमंडल की
स्थापना की गई, जिसका नाम रखा गया यायावर रंगमंडल. जिसकी यायावरी की हवा साल भर के
अंदर ही निकल गई. बस हाथ में रह गया एक और प्रस्तुति समन्वयक और एक-दो पसंदीदा
अभिनेता. आज एक रंगमंडल में दो-दो प्रस्तुति समन्वयक हैं. कई सारे और पोस्ट बनाकर
उसपर भक्तों को ठुंसा गया. जिनका मूल काम सुबह हाजरी बनाना और दिन भर भक्तिरस में
डूबकर स्तुतिगान करने और शाम में भरत वाक्य गाके ही घर जाना है.
आज रंगमंडल की दशा उस एकलव्य की तरह है जिसका अंगूठा काट दिया गया है. कई
बार आश्चर्य होता है कि क्या कोई इंसान इतना मुर्ख हो सकता है कि उसे पता ही न चले
कि वो एक ठीक-ठाक रंगमंडल की और ज़्यादा लुटिया डुबोने पर लगा है. कई बार लगता है
कि ये सब जानबूझकर किया जा रहा है. अनुराधा कपूर के कार्य-काल में जितने रंगमंडल
के कलाकारों ने रंगमंडल से त्यागपत्र दिया वो अपने आप में एक नायाब रिकॉर्ड है. जो
इनकी कीर्ति पर एक और चाँद लगता है.
संस्कृत में एक मशहूर कहावत है जिसका अर्थ ये है कि महाजन जिस रास्ते पर चले
सही रास्ता वही है. रानावि के सन्दर्भ में यह कहावत इस प्रकार चरितार्थ होता है कि
रानावि का निदेशक रंगमंच की जिस धारा को माने यदि वो माना जाय तो ढेर सारे ग्रांट,
पुरस्कार, कार्यशालाएं आदि अपनी झोली में. इसे वर्तमान में रानावि के कई उभरते सितारों
के काम से समझा जा सकता है. एक युवा निर्देशक की व्यथा उदाहरण के तौर पर पेश है जो
किसी महाजन की शैली की नक़ल न करके अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश में लगा था. स्कूल
ने उसे सनकी, ज़िद्दी छात्र के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था. एक विदेशी
निर्देशक इनके साथ काम करने आया और रानावि प्रशासन ने उस निर्देशक को अपने इस
छात्र के बारे में आगाह करते हुए सावधान रहने को कहा. विदेशी निर्देशक ने इनके साथ
कुछ दिन काम करने बाद पाया कि उसे गलत गाइड किया गया है तो उसने उस छात्र से पूछा
कि तुम्हारे शिक्षक तुम्हारे बारे में इतना गलत क्यों सोचते हैं. छात्र का जवाब था
चूंकी मैं इनकी बातों को जस का तस नहीं मानता इसलिए. बाद में इसने अपना डिप्लोमा
किया. एकदम नए और अपने तरह का जिसे देखनेवालों ने तो बहुत ही पसंद किया. आज यह
युवा निर्देशक अपनी शर्तों पर आभावों के बीच नाटक कर रहा है और वहीं उसका एक सहपाठी
जो आँख बंद करके महाजनों की नक़ल कर रहा है वो कई पुरस्कारों सहित लाखों में खेल
रहा है और कई भारंगम का लुत्फ़ भी ले चुका है.
खैर, अनुराधा कपूर का ये मानना था कि रंगमंडल को नए तरह के नाटक करने
चाहिए. अब ये नए तरह का नाटक क्या होता है ये अलग से बताने की अब ज़रूरत नहीं. इसके
लिए उन्होंने ऐसे निर्देशकों को मौका दिया जो उनकी तरह का काम कर रहे थे. पर एकाध
नाटक छोड़कर किसी को भी दर्शकों और रंगमंडल के कलाकारों का स्नेह न मिला. वहीं बेगम
का तकिया, राम नाम सत्य है और जात ही पूछो साधू की जैसे रंगमंडल के
नाटकों के लिए दर्शकों और अभिनेताओं का समर्पण देखकर इनका कुढना स्वाभाविक ही था.
ऐसा नहीं कि रंगमंडल के कलाकार किसी तरह के प्रयोग से डरतें हैं, हां केवल प्रयोग
के नाम पर प्रयोग से ज़रूर परहेज करतें हैं.
एक ऐसे निर्देशक भी आए जिन्हें न हिंदी आती थी न अंग्रेज़ी. एक दुभाषिये के
ज़रिये वो काम कर रहे थे और वो दुभाषिया भी ऐसी की शैतान भी पानी मांगे. नकारात्मक
सोच की शानदार उदाहरण. वो अपने ही तरह से चीज़ों का अर्थ निकलती. उनकी खुद की हिंदी
माशाअल्लाह ही थी पर हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक ( जोकि उस नाटक के अनुवादक भी थे
) को भी हिंदी सिखाने से परहेज़ नहीं था. जो कलाकार उस नाटक में नहीं थे उन्हें ये ‘चमचा’
कहके पुकारती थीं. एक बार वो मोहतरमा कहने पर भड़क उठीं, उनका मानना था कि ये शब्द
सही नहीं है किसी महिला को संबोधित करने के लिए. आखिरकार ऐसा नाटक हुआ कि सब
त्राहिमाम कर उठे. इस असफलता का भी ठीकरा रंगमंडल के कलाकारों पर फूटा. वो कहतें
हैं न कि अबरा के मौगी सबके भौजी ( कमज़ोर की बीवी सबकी भाभी ). कहा गया कि
कलाकारों ने सहयोग नहीं किया. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कलाकार ( जो भी उस
नाटक में थे ) सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक कुछ न समझ में आने के बावजूद बैल की
तरह मेहनत कर रहे थे, फिर भी नाटक न बना. मौका मिलते ही अनुराधा कपूर ने रंगमंडल
के कुछ कलाकारों को कुछ नाटकों में असहयोग करने के लिए दण्डित किया, वो भी बिना उन
कलाकारों का पक्ष सुने. कुछ से बात करने का नाटक किया गया ज़रूर.
इस नाटक के निर्देशक महोदय ने पहले ही दिन रंगमंडल के कलाकारों से दो बातें
कही थी. पहली, उन्हें केवल उन्हीं कलाकारों से मतलब रहेगा जो उनके नाटक में
भूमिकाओं में होगें दूसरी उन्होंने रंगमंडल के समस्त कलाकारों को पूरे कपड़े उतारने
को कहा था, पहले तो इस दूसरी बात पर किसी को भी अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हुआ.
लगा कोई मज़ाक चल रहा है. पर जैसे ही ये पता चला कि मामला सीरियस है तो कुछ कलाकार
तो नौकरी जाने के डर से कच्छे पर आ गए पर अधिकतर ने साफ़ माना कर दिया था. अभिनेत्रियां
( कुछ ) तो रोती हुई पहले रंगमंडल प्रमुख फिर रानावि निदेशक अनुराधा कपूर से मिलने
चलीं गयीं. सबलोग नंगे हो जाते तब शायद तन-मन से सहयोग कहलाता ? साथ ही जो कलाकार
इनके नाटक में भूमिकाएं नहीं कर रहे थे उनके बारे में द्विभाषिये महोदया ने खुलेआम
काफी उल्टा पुलटा बोलना शुरू किया कि रंगमंडल प्रमुख के चमचे है, रंगमंच के क्लर्क
है, उनकी वजह से नाटक खराब हो रहा है आदि आदि. जो भी रंगमंडल को जानता है उसे पता
है कि वर्तमान में वहाँ कलाकारों की सुननेवाला कोई नहीं. सब लगभग एक सहमे माहौल
में काम कर रहें हैं.
जिस देश में हत्या जैसे जघन्य अपराध पर भी फैसला कम से कम दोनों पक्षों की
बात सुनाने के बाद ही किया जाता है वहीं एक कला विद्यालय ऐसे हालात में चल रहा है,
क्या कोई इस बात पर यकीन करेगा ? असहयोग को कारण बताकर लिए फैसले के विरोध में दो
कलाकारों ने रंगमंडल से अपना त्यागपत्र दे दिया और एक को निकाल दिया गया. अनुराधा
कपूर ने इन त्यागपत्रों को सहर्ष स्वीकार कर लिया और जिसे निकला गया उसके बारे में
इनकी शानदार डिप्लोमेटिक विचार है कि उस कलाकार की भलाई के लिए ही रंगमंडल ये कदम
उठाया गया है. इनमें से एक ने अपने त्यागपत्र में लिखा कि मेरी गलती बस इतनी है
कि मैं किसी से अपने सही होने का प्रमाणपत्र नहीं लेता, बल्कि चुपचाप अपना काम
करता हूँ, जो शायद काफी नहीं है.
जिस साल ये सब अंजाम दिया जा रहा था उस साल रानावि रंगमंडल की कलाकार चयन
प्रक्रिया में ऐसे-ऐसे लोग बैठे थे जिन्होंने रंगमंडल का कोई नाटक शायद ही देखा
हो. नए कलाकारों के चयन तक तो मामला ठीक है पर पुराने कलाकारों का भी भविष्य और
ग्रेडिंग तक तय कर गए, बिना उसके काम से परिचित हुए. जहाँ तक सवाल रंगमंडल के
नाटकों में कास्टिंग का है तो एक नाट्य निर्देशिका के मुंह से एक दिन गुस्से में ये भी
निकल ही गया कि अनुराधा ने मुझे गलत कास्टिंग सजेस्ट करके फंसा दिया. इस
बात की सच्चाई क्या है वो भी परखी जानी चाहिए की क्या रंगमंडल के नाटकों की
कास्टिंग रानावि निदेशक के बंद कमरे में होने लगी हैं ?
खाना खरीदने के लिए लाइन खड़े रानावि के कर्मचारीगण तथा रंगमंडल व टीआई कंपनी के कलाकार. |
इनका पक्षपाती रवैया किसी से छुपा नहीं है. एक बार रंगमंडल के अधिकतर
कलाकार व कर्मचारियों ने लिखित रूप से एक कलाकार के व्यवहार के बारे में शिकायत की
जिसपर कोई कार्यवाई नहीं की गयी. उल्टे मुख्य शिकायतकर्ता को खरी-खोटी सुनाई गई और
साल के अंत में उसे रंगमंडल से निकाल भी दिया गया. उदाहरणों की भरमार है पर फिलहाल
इतना ही. हाँ, किसी के विचारों को अपने नियंत्रण में कर लेना एक खतरनाक खेल है.
जिससे गुलाम तो पैदा किये जा सकते हैं कलाकार नहीं. अगर कोई गुरु ये काम करता है
तो वो एक पूरी की पूरी पीढ़ी को पंगु बना रहा होता है. कला के क्षेत्र में यह एक
अपराध है – खतरनाक अपराध.
बहरहाल, नए निदेशक की घोषणा होनेवाली है. अपने आपमें एक इतिहास समेटे राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय आज जिस वैचारिक दिवालियापन के दौर से गुज़र रहा है उससे केवल कोई एक
व्यक्ति निकाल लेगा ऐसा मानना बचपना ही होगी. इसके लिए स्कूल के तमाम छात्रों,
कर्मचारियों, प्रोफेसरों को एक सम्मिलित प्रयास करना होगा जिसमे एक खुले विचार के
निदेशक का नेतृत्व मिलना बहुत ही ज़रुरी है. पर वर्तमान परिवेश को देखते हुए ये बात
जागती आँखों का सपना ही प्रतीत हो रही है. भारत जैसे देश में जहाँ आधी से ज़्यादा आबादी
भूखे रहने को अभिशप्त है वहाँ नाटक के नाम पर ऊल-जलूल प्रयोगों को प्रश्रय देना एक
सांस्कृतिक अपराध है. ये अपराध तब और जघन्य हो जाता है जब इसके लिए पूरी तरह से
सरकारी धन का प्रयोग हो रहा है. रानावि की परिकल्पना व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं की
पूर्ति के लिए नहीं हुई है. लोगों को रानावि के मार्फ़त अपने और अपनी कला को
स्थापित करने का लोभ त्याग देना चाहिए वरना वह दिन दूर नहीं जब रानावि की सार्थकता
पर ही सवाल उठाने शुरू हो जायेंगे. वैसे भी इंसान अपने कर्मों की वजह से याद किया
जाता है. ख्याल रहे इतिहास किसी को भी माफ नहीं करता. उन्हें भी नहीं जिन्होंने
कभी अपनी ताकत के बल पर दुनिया पर राज किया है.
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