गणतंत्रता दिवस | देश
का हर नागरिक इसे हर्ष-उल्लास के साथ मनाता है या सबको मनाना चाहिए, ऐसा माना जाता
है | सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों में यह राष्ट्रीय अवकाश का दिवस होता है, यहाँ
कार्यरत लोग अपने परिवार के साथ छुट्टी मनातें हैं, टीवी पर झंडोतोलन देखतें हुए
| वहीं मजदूरवर्ग रोज़ की भांति इस दिन भी काम पर या कम की तलाश में निकलता है | जिनका
जीवन रोज़ कमाना और रोज़ खाना है, उन्हें राष्ट्रीय छुट्टी भी छुट्टी नहीं दिला पाती | बुज़ुर्ग कहतें हैं कि यह एक पवित्र दिन है, लोगों को तमाम बातें भूलकर इसे मनाना
चाहिए | इसके लिए देश की आज़ादी, आज़ादी की लड़ाई की कुर्बानी आदि के सैकड़ों प्रेरणादायक
किस्से भी सुनातें हैं | पर सवाल ये है कि जो आवाम सालों से अभाव, दुःख, दर्द सहन
करने को अभिशप्त है वो साल के दो दिन ( पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी ) सब भूलकर उत्सव कैसे, कहाँ और क्यों मनाये ? ये तर्क
यहाँ बड़ा ही बचकाना, यथास्थिवादी और अंधविश्वास को प्रेरित करनेवाला लगता है कि
जीवन दुखों की खान है हमें इन्हीं दुखों के बीच खुश रहना सिखाना चाहिए | यह लगभग
वही बात हुई कि देश में हत्या, क्रूरतम से क्रूरतम सामूहिक बलात्कार, फर्ज़ी
मुठभेड़, अमीरी-गरीबी, घोटालों, जनवादी ताकतों पर प्रतिबन्ध, असहमति का बलपूर्वक
दमन, कट्टरपंथियों का मौन समर्थन, अभिव्यक्तियों पर सेंसर आदि जो कुछ भी चल रहा
है, सब भूलकर आज के दिन जनतंत्र का उत्सव मनाओ !
हालांकि कोशिश हमेशा
यही होती है कि राज उत्सव जन-उत्सव भी माना जाय पर यह कत्तई ज़रुरी नहीं कि शासकवर्ग
का उत्सव जनता का उत्सव हो | इस दिन देश तथा राज्य के हर राजधानी, संस्थानों आदि
में राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है, लड्डू बांटी जाती है ( बचपन में हमारे स्कूलों
में लड्डू या बुंदिया बंटता था, जो हम जैसे साल में एकाध बार मिठाई के दर्शन
करनेवाले बच्चों के लिए ज़्यादा उपयोगी था, तात्कालिक ही सही. ) और हमारे नेतागन और
हुक्मरान भाषण देतें हैं ! हमारे घरों के छतों पर भी यह झंडा केवल एक दिन के लिए
ही सही पर लहराता है | इस दिन देशभक्त हो जाना लगभग सबको अच्छा सा लगता है |
कारों, मोटरसाइकिलों पर भी तिरंगे का कब्ज़ा हो जाता है और घोटालों की ढेर पर बैठी
सरकारें भी देशभक्ति का नारा बुलंद करने और संविधान के प्रति आस्थावान होने का
ज़ोरदार दावा ठोकने लगती है | दिल्ली के आयोजन में आज भी किसी देश के राजा-रानी,
सामंतवाद के प्रतीक के रूप में अतिथियों की कुर्सियों पर सुशोभित रहतें हैं |
प्रजातंत्र के उत्सव में राजा-रानी का क्या काम ?
आज टीवी खोला तो परेड
के शक्तिप्रदर्शन के प्रसारण से पूर्व राष्ट्रीय चैनल ( दूरदर्शन ) पर बिस्मिल्ला
खां शहनाई बजा रहे थे और लाइव लिखा हुआ था | बिस्मिल्ला खां साहेब आज इस दुनियां
में नहीं है, फिर ये लाइव प्रोग्राम का फंडा समझना ज़रा सुपर-नैचुरल हो गया | अखबार
खोला तो पन्ने का पन्ना बधाई संदेशों से भरा पड़ा है | अधिकतर ऐसे लोग जनता को गणतंत्र
दिवस की बधाई दे रहे हैं जो सालों भर लूट और भ्रष्टाचार में संलग्न रहें हैं | कुछ
अच्छे लोगों का भी नाम है इस लिस्ट में, पर इसे अपवाद जैसा ही कुछ माने | एक ऐसा
व्यक्ति जो देशद्रोही नहीं है जिसे इस देश पर गर्व हो या न हो पर प्यार किसी से कम
नहीं है, क्या उसे आज के दिन सब कुछ भूलकर सहृदयता का जीता-जगता पुतला बनके इन
बधाई संदेशों को बेशर्मी पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए ? ये सन्देश अख़बारों में
कैसे छापतें हैं इसका एक पूरा चक्रव्यूह है | अखबार और विज्ञापन का एक बड़ा ही
मजेदार खेल है, मेल-ब्लैकमेल से भरा हुआ ! अख़बारों से जुड़े लोग मज़ाक में ही सही
इसे वसूली दिवस भी कहतें हैं |
बहरहाल, आज बहुत से
लोग को राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया जायेगा | उसमें वैसे लोग भी होगें
जिन्होंने राष्ट्र के लिए कौन सा योगदान किया है इसका पता नासा भी नहीं लगा सकता |
अंधभक्ति और
राष्ट्रभक्ति, मासूमियत और मूर्खता, संविधान का अनुपालन और व्यवस्था के अनुपालन
में फर्क है और वर्तमान व्यवस्था यह कतई नहीं चाहेगी कि आवाम इस फर्क को पहचाने | धीरे-धीरे
यह दिवस रीढविहीन और मात्र एक उत्सव बनाता जा रहा है, कारण कि इस मुल्क का
प्रजातंत्र अपने उद्देश्य में बहुत ज़्यादा सफल नहीं कहा जा सकता | देश की अधिकतर
आबादी आज भी मूल ज़रूरतों से महरूम है | अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ी है | जब
तक समाज का आखिरी व्यक्ति तक खुशहाल न हो और अच्छे व्यकि के साथ बेचारा ( बेचारा
अच्छा आदमी था/है ! ) शब्द हट न जाए तबतक किसी भी दिवस की उत्सवधर्मिता की कोई
सार्थकता पर शक है | वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण आदि के वर्तमान दौर में जन
समस्यायों का समाधान सरकारी तरीके से हो पायेगा, इस पर सहज विश्वास करने का दिल, अब
नहीं करता | ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी नामक गीत आखों
में आंसू तो लाता है पर उसका असर अब वैसा नहीं होता जैसा होना चाहिए | ये देश
है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का नामक गीत अब देशभक्ति से ज़्यादा
शादियों में नाचने के काम आता है | हम
वर्तमान में एक ऐसे मुल्क में रह रहें हैं जहाँ
कफ़न, ताबूत, बोफोर्स, वर्दी आदि तक का घोटाला होता है और मुल्क का तंत्र
भ्रष्टाचार की आंधी में बुरी तरह से गिरफ़्त है, वहीं आमजन और स्त्रियां भय में
जीने को अभिशप्त हैं | जब तक समतामूलक और
भयविहीन समाज का निर्माण नहीं होता तब तक तमाम शक्ति प्रदर्शन और मोटे-मोटे ग्रंथ उत्सवधर्मिता
का तो कार्य बखूबी अंजाम दे सकतें गौरव का नहीं | मिसाइल, तोप और मिलिट्री देश की
सुरक्षा तो कर सकतें हैं देशवासियों की सुरक्षा नहीं |
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