Friday, February 1, 2013

विश्वरूपम् - हाय ! हाय !! भावना फिर आहत हो गई!


कमल हसन की फिल्म विश्वरूपम को सेंसर बोर्ड पास कर देती है | 25 जनवरी को फिल्म का तमिल संस्करण प्रदर्शित होने वाला था पर 23 जनवरी को फिल्म दो सप्ताह के लिए प्रतिबंधित कर दी जाती है | जो कारण बताया जाता है वो ये कि कुछ मुसलिम संगठनों ने आरोप लगाया है कि फिल्म में उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया है, इससे हमारी भावना आहत हुई है ! आरोप बिना फिल्म देखे लगाया जाता है |29 जनवरी को सिंगल बेंच अदालत पाबन्दी हटाती है किन्तु डबल बेंच अदालत उसे फ़ौरन बहाल कर देती है | कमल हसन साफ़ शब्दों में यह कहतें हैं ये कि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, विवाद धर्म की वजह से नहीं, राजनीति की वजह से हो रहा है | आहत कमल हसन किसी धर्मनिरपेक्ष स्थान की तलाश में हिंदुस्तान छोड़ने तक की बात करते हैं | फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार, गायक, कोरियोग्राफर पद्मश्री कमल हसन की पहचान एक ऐसे फिल्मकार की है जो प्रयोग करने और चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं से गुज़रते हुए व्यावसायिक फ़िल्में बनाता है |  
हिंदुस्तान, एक तरफ़ जहां विश्व का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र होने का दावा करता है, वहीं दूसरी तरफ़ यहाँ भावनाओं के नाम पर ऐसी राजनीति होती है कि बेचारा लोकतंत्र भी शर्मिंदा हो जाए | ये निर्लज भावनाएं किसी भी बात पर आहत हो जाती है, ठीक वैसे ही जैसे संस्कृत नाटकों या पुरानी फिल्मों में नायक के नाम मात्र से ही नायिका पानी-पानी होकर पल्लू लपेटने लगती थी | कई बार तो नायक का ख्याल मात्र ही काफी होता था पानी-पानी होने के लिए | पुरानी कहावत है कौआ कान ले गया वो आज तक सार्थक है और लोग दल-बल लेकर कौए की औकात बताने निकाल पड़ते हैं | जब जब लोग इस मूड में आए, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक तरीके की हैसियत रामू काका से ज़्यादा नहीं रही |
ऐसी भावनाएं खासजन की बपौती हैआमजन की नहीं ! सो उन खास जन की ही भावनाएं आहत होती हैं/हो सकती हैं | जब इनकी आहत हो गई तो ऐसा मान लिया जाना चाहिए की देश, कौम, समुदाय आदि-आदि सबकी हो गई | ये खास तरीके की आहत होनेवाली भावनाएं हर दल और हर वाद के पास है | भावना के आहत होने के लिए किसी भी वाद के प्रति अति-आस्थावान होना आवश्यक शर्त है | यही वो चीज़ है जो चीज़ों को अनटचेबल बनती है | इस अनटचेबल को टच करने के विचार मात्र से ही आहत-भावनाओं का अलार्म बज उठता है !
सेंसरबोर्ड, कोर्ट ने फिल्म देखी उनकी भावना आहत नहीं हुई पर ये खास लोग पता नहीं क्या खातें हैं कि इनकी भावनाएं फटाफट आहत हो गई | तमिलनाडु में फिल्म बैन कर दी गयी है | मुख्यमंत्री जयललिता कहती हैं – यह फैसला संभावित हिंसा की गुप्तचर सूचनाओं पर आधारित और सुरक्षाकर्मियों की कमी के कारण है ये गुप्त सूचनायें किसने, कैसे, कब दीं ये बात गुप्त रखने की मर्यादा है राजनीति में सो यहाँ भी गुप्त ही है ! वैसे, अपने ज़माने की बोल्ड अदाकारा और अब एक दबंग राजनीतिज्ञ, बिजनेसवूमन और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता इस कारण भी ज़रा नाराज़ चल रहीं थी कि कमल हसन ने इस फिल्म के डीटीएच अधिकार का करार उनकी टीवी के साथ नहीं किया और प्रधानमंत्री पद के लिए लुन्गीवाले ( चिदम्बरम ) की तारीफ़ की |
यथार्थ के परिवेश में जघन्य से जघन्यतम बलात्कार, हत्या पर जिनकी भावना आहत नहीं होती वो फ़िल्मी पर्दे पर रचित मायालोक के बलात्कार, हत्या के दृश्य को देखकर आहत हो जाते हैं | समाज का सबसे असंवेदनशील तबका कला, संस्कृति की संवेदनशीलता पर जबरन अपना हक़ जताने लगता है | अनैतिकगण नैतिकता पर प्रवचन देतें हैं और लकीर के फकीर स्वतंत्रता की बात करने लगते हैं, सरकारें वोट बैंक की राजनीति का ताला अपनी ज़बान पर लगाकर चुपचाप तमाशा देखने लगती हैं | मुस्लिम वोट, दलित वोट, ब्राह्मण वोट, ये वोट, वो वोट ! तो क्या अब सांप्रदायिक और अंध भक्त लोग तय करेगें इस देश का भविष्य ? समस्यायों को सुलझाने और आगे बढ़कर चीज़ों का सही हल तलाशने के बजाय मुट्ठीभर लोगों की गलत और हिंसक भावनाओं के आगे झुक कर बुजदिली का महान उदाहरण पेश करने में हमारी सरकारें और संस्थाएं आखिर कौन सी मिसाल पेश कर रहीं हैं?
फिल्म एक लोकप्रिय कला माध्यम है और किसी भी कला का एक सामाजिक दायित्व भी होता है, जो कला अपने सामाजिक दायित्व को नहीं समझती वो बनियागिरी करती है कलाकारी नहीं | हर साल बेसिर-पैर की कहानियों पर मार-धाड़ और अश्लीलता का तडका लगाकर सैंकडों फिल्मों बनती हैं उनमें से कुछ देखते ही देखते 100 करोड़ तक कमा लेती है तब किसी की भावना आहत नहीं होती | पर यदि कोई फिल्म, कला या साहित्य, विमर्श की बात करे तब देखिये हर समुदाय के ठेकेदार एक राग में सियार रुदन शुरू कर देतें हैं कि हाय हाय हमारी भावना आहत हो गई, अब मैं तेरा नाश करके की दम लूँगा !
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-स्वतंत्रता चिल्लाने से कुछ हासिल नहीं होगा जब तक कि बौद्धिक स्तर में सुधार और राजनीति का चरित्र लोकतान्त्रिक नहीं होता | व्यक्तिगत अहम् की पूर्ति के लिए राजनीति का इस्तेमाल और चीज़ों को नकार देने की प्रवृति का बलपूर्वक दमन करने की आवश्यकता है | यह काम जनपक्षीय तरीके से एक मज़बूत लोकतान्त्रिक सरकार ही कर सकती है पर अफ़सोस कि हमारे पास सरकार तो है, लोकतंत्र भी है, पर मजबूत और जनपक्षीय सरकार नहीं | यदि होती तो संजय गांधी किस्सा कुर्सी का नामक फिल्म के प्रिंट जलाने का साहस नहीं करते |
किसी ज़माने में रुदालियों का बड़ा प्रचलन था | वो भाड़े पर मातम करतीं थीं | मरनेवाले से उनका कोई संवेदनात्मक लगाव न होते हुए भी वे छाती पीट-पीटके रोती थीं | इस काम के एवज में उन्हें धन मिलता था | यह संवेदना और मातम के प्रदर्शन का धंधा था जो मरनेवाले और उसके परिजनों की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगता था कि फलां की मौत पर इतनी रुदालियों ने इतनी देर तक मातम किया | आज यही काम कला-संस्कृति के ये ठेकेदार अंजाम दे रहें हैं ! बिना देखे-सुने-समझे आहत होने का रुदन कर रहें हैं |
अगर भारतीय लोकतंत्र ( जो जैसा भी है ) को एक सुन्दर समाज रचना है तो इन रुदालियों से जैसे भी हो निपटना होगा, नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हर दल और धर्म का अपना एक सेंसर बोर्ड होगा और हर किसी को इनका आशीर्वाद लेना ज़रुरी होगा |
कमल हसन से मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है | फिल्म पर धारा 144 के तहत प्रतिबन्ध लगाया गया है | कमल हसन यदि 24मुसलिम संगठनों के प्रतिनिधियों को फिल्म पहले दिखा देते तो ये नौबत ही नहीं आती जयललिता का ये कथन क्या कोई सन्देश नहीं दे रहा है हिंदी में विश्वरूप(म) आज प्रदर्शित हुई और जिन समीक्षकों ने भी ये फिल्म देखी है वो तमिलनाडु के उन संगठनों और जयललिता पर लानत ही भेज रहें हैं |  

3 comments:

  1. मैंने आज अच्छी फिल्म देखी.बिना आहत हुए... सलाम कमल हसन भाई ...

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  2. यहाँ भेड़ों के रेवड़ हैं और उन्हें हाँकने वाले उनके सौदागर। विरोध करने वालों में से कितने फ़िल्म के बारे में जानते थे? बस हाँक लगती है और शुरू हो जाता है वही पुराना तुष्टिकरण का खेल।

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  3. बंधु, आपकी रचना 'बकर-शास्त्र का संछिप्त घोषणापत्र' को मैं hindisamay.com पर प्रकाशित करना चाहता हूँ। कृपया अनुमति दें तथा अपना ईमेल आईडी भी दें। हमारा ईमेल आईडी है - hindeesamy@gmail.com.
    राजकिशोर, संपादक

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