रंगमंच
वर्तमान में घटित होनेवाला कलामाध्यम है, इसलिए नाट्यालोचना की प्रवृति भी ज़रा अलग होती है | साहित्य, फिल्म, चित्रकला, मूर्तिकला ऐसी विधाएं हैं जो अपने पाठकों, दर्शकों, रसिकों के लिए सदा उपलब्ध रहतीं हैं | कोई भी इन्हें पढ़, देखकर इसकी समीक्षा से इतर अपने विचार बना सकता है, किन्तु किसी भी नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन को चिरकाल तक जारी रखना संभव नहीं और यदि हुआ भी तो उसका स्वरुप जैसे का तैसा बनाये रखना असंभव और अप्राकृतिक है | एक ही दल द्वारा किया गया एक से दूसरा प्रदर्शन कम से कम संवेदना के स्तर पर एक दूसरे से अलग होता ही है | नाट्यरचना अपने आप में एक पूर्ण साहित्यिक विधा हो सकती है पर नाटकों की रचना दर्शकों के समक्ष प्रदर्शन के लिए ही होता है | नाट्यसाहित्य, प्रदर्शन का रुप ग्रहण करके ही अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है |
अगर
हम आज से पहले मंचित हुए नाटकों के बारे में जानकारी पाना चाहतें हैं तो सुनी सुनाई बातों के साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस नाटक की समीक्षा और समाचार माध्यम हो सकतें हैं | नाटकों को रिकार्ड करने की तकनीक अभी भी सामान्य उपयोग में नहीं है | वैसे भी किसी नाट्य प्रस्तुति की रिकार्डिंग देखकर उसके बारे में कोई राय बनना उचित नहीं है | देश के अधिकतर नाट्यदल मुफलिसी में ही चल रहे हैं | इसीलिए कहा जा सकता है कि नाटकों की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा आदि एक अति गंभीर तथा एतिहासिक महत्व का काम हो जाता है |
किसी
ज़माने में हिंदी के अखबारों में कला और संस्कृति का पन्ना प्रकाशित होता था | जिनमें रंगमंच पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था | फिर उदारीकरण, निजीकरण और बाज़ारवाद का ऐसा दौर चला कि अखबारों ने अपना स्वरूप बदल लिया और कला और संस्कृति के लिए स्थान लगातार सिकुड़ता चला गया | तर्क था कि अखबार के सामान्य पाठकों को नाट्यालोचना से क्या सरोकार ! जहाँ तक सवाल रंगमंच पर आधारित पत्रिकाओं का है तो कुल मिलाकर केवल एक-दो ही पत्रिका है जो नियमित निकाल रही है पर वहाँ भी वातावरण ‘लौबिंग’ से परे नहीं है |
नाट्यालोचना रंगमंच की दुनियां में भी ठीक उसी तरह उपेक्षित है जैसे समाज में रंगमंच | रंगकर्मियों में आत्ममुग्धता का पारा इतना गर्म है कि नाट्यालोचना के प्रति सम्मान का भाव नहीं है | समीक्षक ने अगर तारीफ़ नहीं लिखी तो रंगकर्मी ये कहते हैं कि नाट्यालोचक को रंगमंच की समझ ही नहीं है | फिर समीक्षक को देख लेने की धमकी से लेकर व्यक्तिगत दुश्मनी ठान लेने तथा मौका मिलने पर शाब्दिक-शारीरिक हिंसा का प्रयोग करने से भी कोई परहेज़ नहीं करते |
वहीं, वो लोग भी आलोचक/समीक्षक कहलाने से बाज़ नहीं आते जिन्हें नाटक की सैधांतिक, व्यावहारिक समझ उतनी नहीं होती कि वे नाटकों की समीक्षा करें | इनके लिए किसी नाटक पर लिखना बस चंद पैसा, छपास सुख या नाम कमाने का एक ज़रिया है | केवल अपने फायदे और मस्ती के लिए किसी प्रस्तुति को महान बनाने तक से बाज़ नहीं आते ! कुछ ऐसे भी हैं जो हर चीज़ को दलित, आदिवासी, साम्यवाद, समाजवाद, कलावाद के बने बनाये संकीर्ण और पारंपरिक खांचे से रंगमंच की परख करके अपनी दुकान चला रहें हैं | कुछ समीक्षकों के पास एक बना-बनाया चलताऊ खाका होता है, जिसमें पहले नाटक की कहानी होगी फिर कुछ प्रभावित और अप्रभावित करनेवाले कलाकारों के नाम होगें और अंत में कुल मिलाकर प्रस्तुति प्रभावित/अप्रभावित करती है का भरत-वाक्य होगा, बस समीक्षा खत्म | ब्लॉग और वेब के युग में इन दिनों हिंदी रंगमंच के रंगपटल पर कुछ ऐसे नाट्यचिन्तक भी ‘अंकुरित’ हुए हैं जो हैं मूलतः रंगकर्मी या नाटककार हैं पर रंगइतिहास और रंगमंच पर अपनी बहुमूल्य राय लिखने का शौक रखतें हैं और साल व दशक की महान प्रस्तुतियों में अपने समूह या अपने द्वारा लिखित नाटकों के नाम गिनवाना कभी नहीं भूलते | कुछ नाट्य-समीक्षकों ने तो अपना एक मठ बना रखा है जहाँ से ये किसी भी रंगकर्मी व रंगमंच से जुड़े विषयों पर अपनी प्रतिक्रियायों की आकाशवाणी करते रहतें हैं | जो रंगकर्मीं इन्हें सम्मानित करे उसे ही ये सम्मान के काविल मानतें हैं |
हिंदुस्तान के कुछ बड़े नाट्य संस्थान और निर्देशक नाट्यालोचक पालने का काम भी करतें है | कोई पत्रिका का संपादन करता है तो कोई अन्य बहुतेरे काम | बदले में ये पत्र-पत्रिकाओं में उस संस्थान और निर्देशक के नाट्य-प्रस्तुतियों में महानता ढूंढने का काम करतें हैं | इस प्रकार नाट्यालोचक की दाल-रोटी तबतक चलती रहती है जबतक कोई दूसरा नाट्यालोचक आके स्थान न हड़प ले | फिर पहला उसी संस्थान के प्रस्तुतियों में बुराई ही बुराई खोजने लगता है | इसी परम्परा के तहत एनएसडी के वर्तमान अभूतपूर्व निदेशक से नाराज़ कुछ नाट्यालोचकों ने अपने पसंद के उम्मीदवार को निदेशक बनाने के लिए “लॉबिंग” शुरू भी कर दिया है | रंगकला में दुनियां की सारी कलाएं समाहित हैं अतः इसे प्रस्तुत करना और इसकी समीक्षा करना दोनों ही गंभीर काम है जिसमें इंसानी मजबुरियों और आत्ममुग्धता का कोई स्थान नहीं है | ऐसा कहा जाता है कि कला और संस्कृति समाज का दर्पण होता है | आज समाज की जो स्थिति है उससे कोई कला अछूता कैसे रह सकता है ? कण-कण में व्याप्त भ्रष्टाचार और नैतिक पतन के इस युग में तमाम सरकारी और गैरसरकारी अनुदानों के बावजूद रंगमंच की सामाजिक सरोकरता में कमी आई है | समाज के ज्वलन्त सवालों से सीधा साक्षात्कार करने के बजाय आज रंगमंच जिस ओर मुड़ा है वहाँ चंद पलों के सुख की मृगतृष्णा के आगे अंधी खाई के अलावा कुछ नहीं है | आकाओं को खुश करने और रंगमहोत्सवों के लिए हो रहे प्रयोग के नाम पर परिवेश से कट जाना एक खतरनाक संकेत है | इस मृगतृष्णा की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं | वहीं ऐसे जुनूनी रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक कम ही सही पर हैं ज़रूर जो सामाजिक सरोकार से जुड़े रंगमंच में सार्थकता देखतें हैं | जिस देश की आधी से ज़्यादा आवादी रोज़ाना दुःख, दर्द झेलने को अभिशप्त हो वहाँ सामाजिक सरोकरता के प्रति हीन भावना रखकर केवल माल बनाना सार्थक कलाकर्म नहीं है |
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