एक रंगमंचीय, एक
साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई
प्रासंगिकता नहीं है | दरियो फ़ो, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित रंगकर्मी.
असहमति सृजन की जननी है और लोकतंत्र
के मूल विचारों में से एक भी | रंगमंच, साहित्य, कला और संस्कृति
का उपक्रम एक सृजन ही तो है | सरकार की ओर से इन उपक्रमों के विकास के नाम पर
तरह-तरह के योजनाओं, उत्सवों आदि का क्रियान्वयन सालों भर चलता रहता है | इन
उपक्रमों में रंगमंच भी एक है | वर्तमान में रंगकर्म में ग्रांटों और रंगोत्सवों
के नाम पर अपने या अपने जैसों को लाभान्वित करने की प्रथा ज़ोर पर है | असहमति अब
विद्रोहियों की कवायत मान ली गई है | बहरहाल, प्रत्येक वर्ष आयोजित होनेवाला हिंदुस्तान
का सबसे समृद्द और सुविधासंपन्न नाट्योत्सव भारत रंग महोत्सव ( भारंगम ) के
पन्द्रहवें संस्करण का भव्य शुभारंभ और समापन हो चुका है | जिसका उद्घाटन प्रसिद्द
फ़िल्म निदेशक श्याम बेनेगल ने किया | ज्ञात हो कि इसके पूर्व के भारंगम का उद्घाटन
भी फिल्म अभिनेत्री शर्मिला टैगोर ने किया था | रंगमंच के क्षेत्र में इन दोनों
फ़िल्मी हस्तियों का योगदान क्या है ? क्या भारत में रंगमंच से जुड़ा ऐसा कोई
व्यक्ति नहीं है जो इस महोत्सव का उद्घाटन करे ? उद्घाटन सत्र के लगभग सारे
वक्ताओं का वक्तव्य भारंगम पर कम और रानावि पर ज़्यादा केंद्रित था, ऐसा प्रतीत हो
रहा था जैसे रानावि का स्थापना दिवस चल रहा हो |
भारंगम में इस बार नाटकों के
प्रदर्शन के इतर भी कुछ पहली बार घटित हुआ | कुछ ऐसी बातें जिनका प्रभाव
दीर्घकालिक होगा | यह पहला मौका था जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( रानावि ) ने दो पाकिस्तानी
नाटकों को रद्द कर दिया | भारंगम के दौरान रानावि के एक वरिष्ठ कर्मचारी और शिक्षक
की आपस में ही किसी बात पर भिडंत हो गई, परम्परानुसार कर्मचारी को दण्डित किया गया
बदले में रानावि कर्मचारी यूनियन ने भारंगम के समाप्ति के उपरांत होनेवाले महाभोज
से अपने आपको अलग कर लिया | वहीं एक पत्रिका के लोकार्पण के मंच पर ही रंगमंच के
बड़े-बड़े महारथी ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ के वाकयुद्ध में कूद पड़े | हालांकि इस आयोजन
का भारंगम से सीधे-सीधे कुछ लेना देना नहीं था, पर था यह भारंगम के दायरे के अंदर ही
|
रंगमंच के प्रति रानावि का ‘अनाटकीय’
नज़रिया इस भारंगम में एक बार फिर खुलकर सामने तब आया जब भारत-पाक सीमा पर हुई
हिंसा की वजह से पाकिस्तान से आए दो नाटकों को भारंगम में मंचित करने से रोक दिया
जाता है, वो भी तब जब टीम दिल्ली में आ चुकी थी | घोषणा किया गया कि यह निर्णय भारत
सरकार के संकेत पर लिया गया | लेकिन सरकार ने इस फैसले से झट से अपना पल्ला झाड
लिया | रही सही कसर दिल्ली के कुछ युवाओं ने उसी नाटक का मंचन भारंगम आयोजन स्थल
से कुछ ही दुरी पर कराके निकाल दिया, फिर जेएनयू भी इसका प्रस्तुति का मंचन स्थल
बना | कोई अतिरिक्त सुरक्षा नहीं थी और कहीं कोई परेशानी नहीं हुई | यह नाटक मंटो
की कहानियों पर आधारित थे और इस बार के भारंगम के केन्द्र में मंटो ही थे | सनद
रहे कि रानावि अपने छात्रों को द शो मस्ट गो ऑन का पाठ पढ़वाने में कोई कसर
नहीं छोड़ता !
रद्द किये गए नाटक की निदेशिका, प्रसिद्ध
पाकिस्तानी रंगकर्मी मदीहा गौहर इस घटना की तीब्र भर्त्सना करते हुए कहतीं हैं – “
एक ग्रुप जो कला प्रेमियों के बीच अपनी प्रस्तुति देने आया है, उसे किसी से
क्या खतरा हो सकता है ? नाटक कैंसिल करना आपसी भाईचारे और मुहब्बत की भावना का
मजाक उड़ाना और उस रवायत को बढ़ावा देना था जिसके खिलाफ वह ताउम्र कलम चलाते रहे ?
स्थिति दोनों जगह खराब है | मैं यहां लाहौर से अधिक सुरक्षित महसूस करती हूं | अगर सरकार वाकई खुद को
सेक्युलर मानती है तो उसे गलत दबाव के आगे झुकना नहीं चाहिए था |”
रानावि और भारंगम एक दूसरे के
पर्याय बन चुके हैं | रानावि के हाथ में भारंगम नामक एक ऐसा तुरुप का पत्ता है
जिसकी वजह से वो अब केवल नाटक का प्रशिक्षण देने वाला संस्थान नहीं है वरण आज वो
हिंदुस्तान ही नहीं एशिया का सबसे बड़ा और समृद्ध रंग-महोत्सव का आयोजक होने का
गर्व भी रखता है | भारंगम की शुरुआत किस सोच के तहत की गई थी | इसका औचित्य क्या
है ? इस विषय पर स्वयं रानावि घोषणा करता है कि इससे पूरे मुल्क के रंगमंच का
विकास होगा ! हिंदुस्तान की जितनी
प्रतिशत आबादी गाँव में रहती है उसके अनुपात में अब तक हुए भारंगमों में नाट्य
दलों में भागीदारिता देखें तो जो स्थिति बनती है उसमें हम पातें हैं कि भारंगम से
भारत लगभग गायब ही है और भारतीय रंगमंच के नाम पर अब वहाँ जो कुछ भी बचा है वो सब
रानावि के आस पास ही चक्कर लगाकर समाप्त हो जा रहा है | कुछ डिप्लोमा प्रस्तुति,
कुछ शिक्षकों, रानावि रंगमंडल और रानावि पर आश्रितों की तथा दो चार इधर उधर का
नाटक बस यही है भारतीयता के नाम पर ! अब ये आकलन होना भी बेहद ज़रुरी हो गया है कि
पिछले पन्द्रह भारंगमों ने भारतीय रंगमंच के विकास में क्या
योगदान है और विकास के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है वो कहाँ तक जायज है ?
पहले यह महोत्सव गर्मी के दिनों
में होता था, जो भारतीय रंगकर्मियों के लिए एक आदर्श मौसम था | अब यह जनवरी महीने
में आयोजित किया जाता है | इस महीने में दिल्ली की सर्दी का जो आलम है वो
हिंदुस्तानियों के लिए कम यूरोपियन के ज़्यादा अनुकूल होता है | हिन्दुस्तानी नाट्य
दल ट्रेन के द्वितीय श्रेणी में किसी प्रकार कांपते ठिठुरते दिल्ली की सर्दी से
जूझते हुए अपने नाटकों का प्रदर्शन करने आतें है वहीं हवाई जहाज से उड़कर आनेवाले
यूरोपीय नाट्यदलों के लिए यह घरेलू वातावरण होता जैसा होता है | ज्ञातव्य हो कि
भारंगम में नाटकों की प्रस्तुति दिन के ढाई बजे से रात के लेकर लगभग ग्यारह बजे
रात तक चलाती है | तो इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस कड़कड़ाती
ठण्ड में दर्शक भारंगम का कितना लुत्फ़ उठा पातें हैं | इसी कड़ी में एक बात और;
अमूमन नाटकों के तकनीकी कार्य रात में ही निपटाए जातें हैं | जिसमें रानावि के
कारपेंटरी और प्रकाश विभाग कुछ रेगुलर व कुछ दैनिक मजदूरों की सहायता से पूरा करता
है | अब इस बात का भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस दौरान इन मजदूरों की हालत
क्या होगी ! ठण्ड लगा जाना आदि तो आम बात है, इस दौरान किसी मजदूर की मौत भी हो
जाए तो भारंगम की उत्सवधर्मिता को कोई फर्क नहीं पड़ता |
भारंगम इस बार दिल्ली और जयपुर में
ठीक उस वक्त मनाया जा रहा था जब दिल्ली और हिंदुस्तान की फिज़ा में सामूहिक
बलात्कार का प्रतिरोध पुरे जोश से विधमान था | यहाँ प्रदर्शित नाटकों में बड़ी-बड़ी
आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौधिकता से भरपूर व्यक्तिगत बातें की जा रहीं थी पर इस
बलात्कार पर किसी तरह की कोई चर्चा नहीं थी | हिंदुस्तान में ही कई ऐसे नाट्य समूह
और शहर हैं जिनके रंगकर्मी अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग रहतें हैं | आश्चर्य
तब और बढ़ जाता है जब ये पता चलता है कि इस बार का भारंगम सहादत हसन मंटो जैसे लेखक
को केंद्रित किया गया था और वर्तमान ने रानावि के निदेशक, अध्यक्ष समेत कई
महत्वपूर्ण पोस्ट उन महिलायों के पास है जो रंगमंच में नारीवाद के पक्षधर हैं |
अगर कोई उत्सव या रंगकर्म समाज से
कोई मतलब नहीं रखता तो फिर समाज भी ऐसे उत्सवों से कोई मतलब नहीं रखता | फिर इतना
सब तामझाम किसके लिए और क्यों ? कला और संस्कृति समाज का प्रतिनिधित्व करतें हैं
और संस्कृतिकर्मी समाज के अग्रणी तबकों में से एक हैं; ऐसी मान्यता है | रंगमंच जो
अपने मूल स्वरूप में एक सामूहिक कला है, भी इस मान्यता से परे नहीं है | किसी भी
करणवश रंगमंच यदि समाज के ज्वलंत सवालों से अपने आपको विमुख करता है तो वो समाज का
प्रतिनिधित्व करने और अग्रणी कहलाने का हक खोकर केवल उत्सवधर्मिता, विलासिता और
आत्ममुग्धता रूपी पतन के रास्ते पर बड़ी तेज़ी से अग्रसर हो जाता है |
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