सुबह-सुबह बिजली गायब
| पता चला कि आज सरहुल है इसलिए बिजली नहीं रहेगी | हर बार ऐसा होता है | पर्व-त्यौहार
के दिन बिजली न रहे, आश्चर्य है | बताया गया कि चूंकि आज के दिन आदिवासी लोग बड़े-बड़े बांस में
सरना झंडा लेके निकलतें है जो बिजली के तार में फंस सकतें हैं | कोई दुर्घटना न हो
इसलिए पूरे शहर की बिजली काट दी जाती है | बिजली की कटाई रामनवमी और मुहर्रम में
भी होती है | लोग इन पर्वो में भी लंबे और बड़े झंडों को लेकर जुलूस निकालते हैं | अच्छी
बात है, फिर भी पर्व-त्यौहार के दिन बिजली का न होना पता नहीं क्यों मुझे सामान्य
नहीं लग रहा था | मैं बड़े शिद्दत से सोच रहा था कि क्या सावधानी के नाम पर बिजली
काटने के अलावा कोई और व्यवस्था नहीं हो सकती !
सरहुल आदिवासियों के
दो मुख्य पर्वों में से एक है | सरहुल पर राँची में रहने का पहला मौका था तो सरहुल
देखने का लोभ त्याग पाना संभव न था | सो निकल पड़ा | दिन के लगभग तीन बजे मैं सड़क
पर था | सड़क पर इक्का दुक्का वाहन और खूब सारे सरना झंडे के अलावा था केवल सन्नाटा
| एकदम रोज़ाना की तरह | जो दुकाने दोपहर में खुलती थी वो खुली थीं | कोई अलग दिन
का आभास अभी तक नदारत था | मुझे तो बताया गया था कि पारंपरिक परिधानों में मांदल
और नगाडे की धुन पर खूब सारे लोग नाचते गाते सड़कों पर निकलतें हैं | पर यहाँ तो
दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं | चल पड़ा फिरायलाल चौक की तरफ़ | शहर का मुख्य
चौराहा फिरायलाल चौक |
रातु रोड़ से
सिधु-कानू पार्क फिर आदिवासी छात्रावास | स्थिति जस की तस | आदिवासी हॉस्टल के
मैदान में लगा पंडाल पूरी तरह खाली पड़ा था | आगे बढ़ाने पर राजभवन के पास भीड़ दिखी
| थोड़ा करीब जाने पर सबसे पहले जो साफ़-साफ़ दिखा वो अत्याधुनिक हथियारों से लैश
जवान | महिला-पुरुष दोनों | दर्जन भर आगे और लगभग उतने ही पीछे और बीच में ताल पर
थिरकते आदिवासी हॉस्टल के लड़के-लड़कियां | सच कहिये तो भयभीत हो गया कि इतने सारे
बंदूकों के बीच में कोई उत्सव कैसे मना सकता है ? क्या उन्हें इस प्रकार बंदूकों
के साये में सरहुल मनने पर मजबूर करना ठीक है ?
मैं आगे जाऊं कि नहीं
| भय के कारण ज़रा असमंजस में था | मैंने अपने को समझाया चल भाई दुनिया इतनी बुरी
भी नहीं है कि एक जुलूस को पार करने के एवज में तुम्हें जान गवानी पड़े | गुजरने के
क्रम में देखा कि सारे लड़के-लड़कियां आम पहनावे (पैंट, शर्ट, सलवार सूट) में अपने
में मगन होकर एक दूसरे को कमर से पकड़े नाचने में मस्त हैं | यहाँ कोई भी डंडा लेकर
आनेजाने वालों को धमका नहीं रहा था | जैसा कि पार्टी की रैलियों में होता है | लोग
आराम से वाहन ले कर गुज़र रहें हैं और नाचनेवाले गाड़ियों को निकल जाने की जगह भी दे
रहे हैं | एक बार मैं दशहरे में राँची में निकला था सडकों पर आस्था के नाम पर ऐसी
गुंडागर्दी थी कि कई बार जी किया कि सीधी गाड़ी उन पर चढा दूँ | कोई कहीं भी
बैरिकेट लगा के रास्ता बंद किये बैठा था |
आगे राजभवन के मुख्य
द्वार के पास जा कर रुक गया | आदिवासी संस्कृति के पारम्पिक परिधान में सजा धजा एक
विशाल समूह राजभवन के द्वार पर नाच रहा था | राजभवन के गेट के ठीक सामने के स्टैंड
पर एक साधु लेटा था | उसके पैर के पास एक छोटा सा बोर्ड तिरछा खड़ा था | उस बोर्ड
को पढ़कर ये पता चला कि ये कोई बाबा हैं जो धरती पर बढ़ते पाप से बड़े ही उद्वेलित
हैं और 16 या 17 साल के मौन व्रत पर हैं | ये उनका पन्द्रहवां
साल चल रहा है | बोर्ड पर लिखा था कि रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई ! अब मुझ जैसे नास्तिक को ये कभी समझ में नहीं आएगा कि मौन रहने से
पाप कैसे कम हो जायेगा ! खैर, राजभवन वाला दल इतना ज़्यादा सजा धजा था कि मुझे सहज
ही यकीन नहीं हुआ, लगा जैसे कोई अभिनेता बना ठना अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा है | हॉस्टल
वाला समूह जब करीब पहुँचने ही वाला था कि ये जोश से भरके नाचने लगे | इन्होंने
नाचते-नाचते हॉस्टलवाले समूह का स्वागत किया, फिर थोड़ी देर दोनों मिलकर नाचे, उसके
बाद हॉस्टलवाला समूह कचहरी की तरफ़ बढ़ चला और राजभवन वाला समूह वहीं रुक गया | शायद
किसी दूसरे समूह का स्वगत करने के लिए | सवाल ये कि ये कौन लोग थे और किसके द्वारा
नियुक्त ? खैर मैं इनके वीडियो बनाने में मस्त था, इस क्रम में एक एके 47 वाला मुझे ऐसे घूरा जैसे मैं यहाँ बम लगाने आया हूँ | मैंने भी डरने का अभिनय बखूबी किया | वो खुश हो
गया | उसकी आत्मा तृप्त हो गई |
मैं अपने दोपहिये का
कान तेज़ी से अमेठ रहा था | गाड़ी तेज़ी से फिरायलाल चौक की तरफ़ जा रही थी | रास्ते
में हॉस्टल वाला समूह फिर मिला | जगह जगह लोग चना, गुड़ और शरबत बाँट रहे थे | ये
सब किसी न किसी कमिटी के लोग थे | मैंने जीवन में पहली बार इतने आदिवासी लोगों को
थिरकते देखा | एकदम साक्षात् | एकाएक मेरे जेहन इनकी दशा-दुर्दशा का ख्याल आया और
आँखें नम होते होते बची | ऐसा पूरे दिन में कई बार हुआ | आज कौन चिंता करता है
आदिवासी संस्कृति की ? जो भी चिंता करने का दावा करते हैं सब नकली हैं और अपनी
अपनी दुकान चला रहें हैं |
फिरायलाल चौक, भीड़,
पुलिस, पत्रकार, फोटोग्राफर, नाचनेवाले, बजानेवाले, देखनेवाले, आदिवासी, गैर-आदिवासी
| वाहनों का आवागमन भी अपनी गति से चल रहा था | सबका अपना-अपना अस्तित्व और
सहअस्तित्व भी | एकाध को समस्या हो रही थी, वो खीज रहा था, मगर ये लोग झारखण्ड के
नहीं हैं | बाहर से आके बसे हैं या किसी ज़रूरी काम से कहीं जा रहे होंगें | किन्तु
अधिकतर मज़े में मस्त | तीन चार बड़े-बड़े मंच बने हैं | बड़ा-बड़ा हिंदी में बैनर बना
है | खूब तेज़-तेज़ आवाज़ में भोंपू बज रहा है, इतना तेज़ की उसमें नगाड़े की आवाज़ का
कुछ पता ही नहीं चल रहा | नाचनेवाले किस ताल पर नाचे ? जितने मंच उतना संगीत | सबका
अपना ही राग | उद्घोषणा की भाषा हिंदी साथ में कुछ अंग्रेज़ी के शब्दों का तड़का |
गुलाब के फूलों से स्वागत | घोटालों में
फंसे नेता भी बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर प्रकृति पर्व सरहुल की बधाई दे रहें हैं, इन होर्डिंग्स
की भाषा भी हिंदी है | यहाँ की अपनी भाषा और लिपि में कोई कुछ क्यों नहीं कर रहा |
सारी दुकाने खुली थी | किताब की दूकान पर गया, वो पत्रिका उपलब्ध नहीं जो मुझे
चाहिए | दूसरी दुकान बंद है | एक व्यक्ति पुलिसवाले के सामने अकेले झूम-झूमके नाच
रहा है | देखनेवाले मुस्कुरा रहे हैं | व्यक्ति मासूम हो और नशे में हो फिर वो
किसी की परवाह नहीं करता | बहुत देर तक मेरा ध्यान उस व्यक्ति पर लगा रहा बहुत
सारे वीडियो भी बनाये और फिर चल पड़ा मोरहबादी मैदान की तरफ़ | हां, इस बीच दो बार
दो महिलायों ने मेरे सामने सूप कर दिया | सूप कपड़े से ढंका था और उसमें चंद सिक्के
भी पड़े थे | महिलाएं गैर आदिवासी थीं | सरहुल से इसका क्या कोई सम्बन्ध है ? कैसे
हो सकता है भीख मागने की यहाँ परम्परा नहीं है ! फिर एकाएक याद आया ओ हो चैती छठ !
मामला कुछ कुछ पिरान्दलो जैसा होने लगा | यथार्थ कल्पना और कल्पना यथार्थ में गडमड
होने लगी | खैर, शाम होने को आ रही थी और हर तरफ़ जुलुस ही जुलुस | अपने में मस्त |
हां एक स्थान पर एक नशे में धुत व्यक्ति टेम्पो चालाक का कॉलर पकड़के कुछ बोल रहा
था और कुछ पुलिसवाले उस व्यक्ति को प्यार से समझा रहे थे | आज पुलिस भी ज़रूरत से
ज़्यादा सभ्य लग रही थी | वैसे बड़ी मेहनत लग रही थी बेचारों को सभ्य लगने का अभिनय
करने में | कोई और दिन होता तो डंडे कब के चल चुके होते |
मोराबादी मैदान में
कोई अलग मेला चल रहा था तभी रास्ते में एक जुलुस आता दिखाई पड़ा | पर ये क्या बिना
मांदर के | वैसे इससे पहले भी कई ऐसे समूह मिले जो मंदर के थाप पर नहीं बल्कि एक
बड़े से टेम्पो या छोटे से ट्रक या ट्रेक्टर पर जनरेटर सहित रखे लाउडस्पीकरों और
साउंड-बॉक्स के मार्फ़त बजाये जा रहे गीतों पर थिरक रहे थे | कई लड़के लड़कियां काफी
मॉडर्न कपड़ों में थे | कुछ लोग पारंपरिक कपड़ों के साथ कला चश्मा धारण किये हुए थे
| परम्परा एक बहती हुई नदी की तरह है जिसमें बहुत सी चीज़ों का समावेश होता रहता है
इसमें कोई आश्चर्य नहीं | किन्तु जब चीज़ों का स्वरूप विकृत होने लगता है तब दुःख
होना स्वभाविक है | पर कोई करे भी तो क्या जब सबको विकृति में ही आनंद मिल रहा हो
तो ! लोग कहते हैं कि यह विकृति कहीं और से आई है | हो सकता है कि मेरा चश्मा खराब
हो गया हो | चश्में में एक समस्या ये है कि जिस रंग का पहनों दुनिया उसी रंग की
दिखती है | वैसे कोई भी संस्कृति आज अप-संस्कृति से अछूती नहीं है |
मोराबादी मैदान के एक कोने पर पहुँचा | सामने पेड़ों के झुरमुट और कई जगह पर
चार पेड के बीच में बांधकर बनाया गया प्लास्टिक की छत और उस छत के नीचे रोज़ की तरह
आज भी हडिया बेचती एक महिला और हडिया पीते लोग | परम्परा है |
मैं वापस चल पड़ा | रास्ते में जुलुस ही जुलुस | सन्नाटा अब इलेक्ट्रोनिक
संगीत के शोर में उत्सव मनाते समूहों में परिवर्तित हो चुका थी | नगाड़े और मांदल की
आवाज़ से मन जिस प्रकार उद्वेलित हो रहा था कानफाडू इलेक्ट्रोनिक संगीत सुनकर उतना
ही कुढ़ भी रहा था | क्या यह आनेवाले वक्त का संकेत नहीं है कि हमारी अगली पीढियां
इतिहास की किताबों में ये पढ़े कि सरहुल नामक पर्व किस प्रकार से मनाया जाता था |
दुखी मन से सब्ज़ी की दूकान पर गया | आदिवासी महिला थी | रोज़ सब्ज़ी बेचती
हैं | पर आज सरहुल के दिन भी ? मैं झूठ मूठ बौधिकता बखान रहा था वो महिला तो मस्त
थी अपने काम में | खैर, मैंने उनसे पांच रुपये का पचास ग्राम मिर्च ख़रीदा और मन में
बहुत सारा उत्साह और सवाल लिए वापस आ गया | हां, बिजली रात में दस बजे आई और फिर
देर रात आई आंधी के कारण पूरी रात आँख मिचौली खेलती रही | उसे सामान्य होने में
लगता है अभी और वक्त लगेगा |
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