टीम
इंडिया देश का नहीं बल्कि बीसीसीआई का प्रतिनिधित्व करती है. - सुप्रीम कोर्ट.
पढ़ोगे
लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब.
यह एक पुरानी कहावत
है जिससे खेल के प्रति भारतीय मानसिकता पता चलता है. बिना खेल के क्या किसी भी सभ्य
और स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकती है ? क्रिकेट भी एक खेल है किन्तु विज्ञापन
युक्त सीमा रेखा पर, चौको-छक्कों की गंगोत्री में कम से कम कपड़ों में डूबती,
इतराती, ठुमके लगाती चियर्स गर्ल्स से सुशोभित जिस टूर्नामेंट की शुरुआत ही नीलामी,
खरीद-फरोख्त से हो और जिसका मूल उद्देश्य ही खेल को एक ब्रांड के रूप में
परिवर्तित करके खेलप्रेमियों को उसके नशे की गिरफ़्त में कैद करना और मुनाफ़ा कमाना हो
वहां सट्टेबाज़ी, दारूबाजी, वेश्यावृत्ति, काले धन और अंडरवर्ल्ड की सत्ता नहीं तो
क्या नैतिकता और नैतिक मूल्यों की प्रयोगशाला चलेगी ? यहाँ खिलाड़ी, अम्पायर, कोच,
प्रशंसक, पूर्व खिलाड़ी, टीम मालिक आदि खेल से ज़्यादा मनोरंजन, नाईट पार्टियां,
लड़कियां और पैसे की गिरफ़्त में हैं. आईपीएल में खेल और खेलभावना कितना है पता नहीं
पर धंधा सौ प्रतिशत है ये बात तय है. धंधे में मुनाफ़ा प्रमुख होता है जहाँ भद्रता
की आड़ में अभद्र का बोलबाला है और बड़े से बड़ा भद्र और लिजेंड खिलाड़ी मालिक के आगे
दुम हिलाने को अभिशप्त है. ये है आज के क्रिकेट का सच. हाँ, जहाँ पुरी दुनियां
नस्लवाद के खिलाफ़ आवाज़ उठा रही है वहीं आईपीएल में चियर्स गर्ल्स का चयन नसल के
आधार पर होता है. क्या आपने आईपीएल में कोई काली चियर्स गर्ल्स देखी है और देखी भी
होगी तो कितनी ?
टीम
चाहे कोई हो सब पियेंगें पेप्सी और कोक.
वो क्रिकेट प्रेमी जो
खेल और खिलाड़ी के रोमांच में खो जाने को अभिशप्त और मजबूर हैं वो अब दया के पात्र
बन गए हैं. अपनी सारी भावनाओं को समेटे, सारे कामधाम और भूख प्यास त्यागकर टीवी से
चिपके इन बेचारों को इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं कि क्रिकेट के नाम पर इनकी
भावनाओं से खिलवाड़ चल रहा है. टीवी के माध्यम से उन्हें खास किस्म के नशे की
गिरफ़्त में लेने की यह एक विश्वव्यापी साजिश चल रही है. जहाँ नकली हीरो गढे जातें
है और जहाँ दिन की शुरुआत और रात का अंत रिमोट का गला घोंटते होता है. सारी
क्रांति और सूचनाएं समाचार चैनलों के हड-हड-कट-कट डिबेट में सिमट कर रह जाती है.
बको, देखो, कमाओ, खाओ, बच्चे पैदा करो और पैग लगाकर या बिन लगाए देश की हालत पर
हाय-हाय करते सो जाओ. ऐसी जनता से वर्तमान व्यवस्था को क्या आपत्ति हो सकती है ? आपत्ति
तब होती है जब कोई इसे बदलने की बात करे. यह नशा है जिसकी गिरफ़्त में लोग मगन हैं.
नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो वो व्यक्ति को तर्कहीन और विवेकहीन बनती ही है.
बाज़ार
से गुज़ारा हूँ खरीदार नहीं हूँ.
क्रिकेट में पनप रही
बुरी प्रवृतियों का खंडन करने का अर्थ खेल और खेल भावना का विरोध कतई नहीं होता. किसी
भी चीज़ के प्रति अंधभक्ति उस चीज़ों के विनाश का कारण भी हो सकता है और कोई भी खेल
उसका अपवाद नहीं होता. जिस खेल को पूर्व क्रिकेटरों ने अपने जूनून और खून-पसीने से
सींचा आज उसका ऐसा पतन देखना किसी भी खेल प्रेमी के लिए पीड़ादायक है. इस खेल के
एवज में उस वक्त उन्हें जितनी रकम और सुविधाएँ मिलती थी ? खेल को खेल की तरह खेलना
चाहिए यानि खेलभावना से. पर यहाँ तो चीज़ें फिक्स और सेट होने लगी. जहाँ खेल की
भावना ही नहीं हो वहां खेल का रोना क्यों ? माना कि अधिकतर खिलाड़ी अभी भी ईमानदार
हैं किन्तु ऐसी इमानदारी किस काम की जो सही को सही और गलत को गलत न कह सके. मुट्ठीभर
पूंजीपतियों और मुनाफाखोरों को ये अधिकार किसने दिया कि वो लोगों के जूनून, प्रेम और
भावनाओं का ब्रांड बनाये, उससे मुनाफ़ा कमाए और ये महान खिलाड़ी इसका मौन समर्थन
करें. इस सवाल का जवाब यदि वर्तमान व्यवस्था है तो इसे जनविरोधी माना जाना चाहिए. नहीं
तो फिर सिद्धू की बात सही कही जायेगी कि “तमाम घोटालों के बाद भी सांसद पाक साफ़
है तो फिर आईपीएल क्यों नहीं.” वैसे 5300 करोड़
रुपये का बॉस बीसीसीआई के सौजन्य से सुनील गावस्कर और रवि
शास्त्री जैसे भूतपूर्व क्रिकेटर सालाना लगभग 3.6 करोड़
रूपया कमाते हैं. लगभग यही हाल कई अन्य भूतपूर्व क्रिकेटरों का है.
अभी
तो ये अंगडाई है.
आईपीएल के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है उसमें चौकाने वाला
तत्व कुछ नहीं है. इसके बीज इस आयोजन के अंदर ही व्याप्त है. यह सब तो एक नमूना
मात्र है स्थिति इससे कहीं ज़्यादा बदतर है. इस खेल में बड़े-बड़ों की संलग्नता है
जिसकी बात तक करने की हिम्मत किसी के पास नहीं. स्पॉट फिक्सिंग में संलग्न एक
खिलाड़ी की फोन टेप में यह बात कि “क्या पिछले साल कोई दिक्कत हुई थी, जो इस बार
परेशानी आ रही है.” आखिर किस ओर इशारा करती है ? या फिर चेन्नई टीम के मालिक
की फिक्सिंग में संलग्नता ?
आईपीएल का कोई भी
सीजन विवादों से परे नहीं रहा. हर बार विवादों का नया-नया अध्ययय जुड़ता रहा है जिस
पर टोकन करवाई के अलावा कुछ खास नहीं हुआ. इस बार तो खिलाडियों का एमएमएस बनाकर
ब्लैकमेल करने की कोशिश का भी खुलासा सामने आ रहा है. पहला सीजन (2007-08) में एक खिलाड़ी ने दूसरे खिलाड़ी को थप्पड़ मारा, एक खिलाड़ी डोप टेस्ट में
पोजिटिव पाया गया, जी ग्रुप ने अपनी टी20 टूर्नामेंट इंडियन
क्रिकेट लीग का आइडिया चुराने का आरोप लगाया तथा पंजाब में सर्विस टेक्स
डिपार्टमेंट ने इसे एक तमाशा मानते हुए सर्विस टेक्स भरने का नोटिस भेजा. दूसरे
सीजन में इसका आयोजन दक्षिण अफ्रीका में किया गया जिसके लिए वहां के तत्कालीन
बोर्ड अध्यक्ष पर ललित मोदी से पैसा लेने के आरोप की जाँच अभी चल रही है, क्रिस
केयेंर्स पर फिक्सिंग का आरोप लगाकर नीलामी में शामिल नहीं किया गया, पाकिस्तानी
खिलाडियों को बैन किया गया, आईसीसी पर आईपीएल को क्रिकेट कैलेण्डर में जगह देने को
लेकर दबाव बढ़ा जिसे आईसीसी ने मानने से इंकार कर दिया. तीसरा सीजन आईपीएल
कमिश्नर ललित मोदी विवादित रूप से आईपीएल से बाहर, आईसीसी के मैच फिक्सिंग निरोधी
टीम ने आईपीएल एक और दो के मैचों पर सवालिया निशान लगाया, स्टार खिलाड़ी (सर)
रविन्द्र जड़ेजा फ्रेंचाइजी से मोल भाव करता दिखा, इन्कमटेक्स डिपार्टमेंट ने टीम
मालिकों द्वारा खिलाडियों को तय से ज़्यादा रकम देने की जाँच शुरू की. चौथा सीजन
शशि थरूर विवाद, राजस्थान रॉयल्स के कप्तान शेन वार्न ने राजस्थान क्रिकेट संघ के
सचिव के साथ सार्वजनिक स्थल पर झगड़ा तथा जुर्माना, क्रिस गेल ने आईपीएल में
मिलनेवाली अपार पैसे के कारना अपने देश के क्रिकेट बोर्ड को ठेंगा दिखाया, दो
टीमों के (राजस्थान, पंजाब) खिलाफ़ बीसीसीआई ने बैन लगाया किन्तु दोनों टीमें
खेलीं. पांचवा सीजन एक बार फिर आईपीएल कमिश्नर का बदलाव, खिलाडियों को
खरीदने में मदद करने की बात उभरकर सामने आई, पुणे वारियर्स का बीसीसीआई की नीतिओं
का विरोध और गुप्त डील, केकेआर के मालिक नशे में धुत वानखेड के सुरक्षाकर्मी से
झगड़ा किया, एक स्टिंग ऑपरेशन में स्पार्ट फिक्सिंग का खुलासा में बड़े बड़े
खिलाडियों के नाम तथा दो टीम की मान्यता खत्म और अब वर्तमान सीजन में स्पार्ट
फिक्सिंग कर लाखों कमाने और लड़किया मांगने का मामला.
आप
कौन सा ब्रांड लेते हैं सर ?
भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का आईपीएल खेल कम ब्रांड ज़्यादा है. इसके वर्तमान संस्करण की ब्रांड वैल्यू 16,000 करोड़ रुपये का है जबकि सट्टे का कारोबार लगभग 40,000 करोड़ का अर्थात मूल कारोबार से ढाई गुना ज़्यादा. पिछले साल की अपेक्षा एक
ओर जहाँ ब्रांड वैल्यू में केवल 4 फीसदी का इज़ाफ़ा है वहीं
सट्टे के कारोबार में 25 फीसदी का. इसके पहले संस्करण में 6000 करोड़ रूपये की सट्टेबाजी
हुई थी. सट्टेबाज़ी में शानदार इजाफे के पीछे जो वजह है सामने आती है वो ये कि आज
समाज का कोई भी तबका पैसा सहज रूप से लगाने को तैयार है और सट्टे का कारोबार पान
की दुकानों तक फैला है. यह रकम 100 रूपये तक से लेकर
कितनी भी हो सकती है. बड़ा सट्टेबाज अपना फ़ायदा सुनिश्चित करने के लिए फिक्सिंग का
सहारा लेते हैं और बदले में खिलाडियों को लाखों रुपये, महंगे तोहफे और लड़कियां
उपलब्ध करवाते हैं. दूसरे, यह इतना लंबा टूर्नामेंट है कि सट्टेबाजों और बुकी
दोनों को मुनाफ़ा कमाने का ज़्यादा से ज़्यादा अवसर मिल जाता है.
ओह,
हम जलेबी की तरह सीधे-साधे लोग हैं.
आज समाज का पब्लिक
सेक्टर हो, प्राइवेट सेक्टर हो या फिर सरकारी विभाग सब भ्रष्टाचार की गिरफ़्त में
हैं. जिसको जहाँ मौका मिलता है वहीं मुंह मार लेता है. लोग बालू तक से भी तेल
निकालने में महारत हासिल कर चुके हैं. आईपीएल के खिलाड़ी और अधिकारी भी इसी समाज का हिस्सा हैं और समाज की दशा यह
है कि यहाँ लोभ, लिप्सा, पैरवी, घूसखोरी, परिवारवाद, भ्रष्टाचार आदि का अखंड राज
है. तो खेल और खिलाड़ी इस अंधी दौर में क्यों पीछे रहें. खिलाड़ी को पैसा,
शराब और लड़कियां मिले तो वो टीशर्ट उतरने, सोने की चेन घूमके या कमर में सफ़ेद
रूमाल खोंसके करप्शन में संलग्न होने को उद्वेलित है. खेल प्रेमियों का उल्लू बनाता
है तो बने इनकी परवाह किसे है !
मामला सार्वजनिक होते
ही कुछ खिलाडियों (छोटी मछली) पर बैन-वैन टाईप कोई दिखावा होगा और लूट का खेल पुनः
अपनी गति पर चल पड़ेगा. बड़ी मछली (टीम मालिकों) पर हाथ डालने की हिम्मत किसी के पास
नहीं है. आईपीएल के टीमों के मालिकों का बायोडाटा उठाकर देखिये सबकुछ पानी की तरफ़
साफ़ हो जायेगा. ये वही वर्ग है जिसने कभी चंद रुपयों से अपना कारोबार शुरू किया था
और आज अपार धन का मालिक हैं. कोई इनसे क्यों नहीं पूछता कि इतना रूपया किस पेड पर
कैसे उगाया ? ये वही लोग हैं जिनके इशारों पर इस विचित्र और भ्रमित प्रजातंत्र की
सरकारें बनती और चलती हैं. पैसा मेहनत से कमाया जाता है इस बात में अगर सच्चाई
होती तो सबसे ज़्यादा पैसा उस वर्ग के पास होना चाहिए था जो सालों भर हाड़तोड़ मेहनत
करने को अभिशप्त है. आज समाज, सरकार, कला-संस्कृति और खेल, हर जगह भ्रष्टाचार
धीरे-धीरे एक सर्वस्वीकृत धारणा बन गई है, जिसे आम आदमी की मौन स्वीकृति प्रदान
है.
नमक
हराम नहीं हैं हम.
पिछले साल एक
स्ट्रिंग ऑपरेशन में यह खुलासा हुआ था कि आईपीएल में फ्रेंचाइजी टीमें अपने
खिलाडियों को तय सीमा से ज़्यादा रकम का भुगतान करती हैं और यह भुगतान काले धन के
रूप में होता है. यह बात खुद एक खिलाड़ी ने अपने मुंह से कही पर इस बात पर आजतक कोई
करवाई तो दूर ढंग से जाँच तक नहीं हुई. इसकी जाँच करने का अर्थ है भ्रष्टाचार के
इस महासागरीय प्रजातंत्र में नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर पालना. आप जिसका भी खाते
हैं उसके प्रति वफादारी बजा लाना हमारी ‘महान’ सभ्यता है नहीं तो लोग नामक हराम
कहतें हैं. ये सबको पता है कि टीम मालिक आईपीएल में क्रिकेट प्यार की वजह से पैसा
नहीं लगाते बल्कि इन्हें यहाँ मुनाफ़ा दिखता है. ये धंधा है, खेल का उत्थान नहीं. उनके
मुनाफ़े को नुकसान पहुंचाए बिना अगर किसी खेल का भला हो जाता है तो इन्हें कोई खास
आपत्ति भी नहीं है. वैसे खिलाड़ी की समृधि और खेल की समृधि, प्रतिभा का सम्मान और
प्रतिभा का मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल क्या एक ही बात है ?
खेल में पैसा आए इस
बात से किसी को भी शायद ही कोई आपत्ति हो सकती है पर कितना पैसा और किस तरह का पैसा
? जहाँ प्रजातंत्र की सरकार अपनी प्रजा को ज़्यादा से ज़्यादा शराब पिलाकर और बाज़ार
को विश्व के लिए शर्मनाक तरीके से खोलकर रायल्टी पर रायल्टी कमाना चाहती है ताकि
शासकों की गाड़ी बे-रोक टोक धकाधक चलती रही. वहां नैतिकता पर बड़े-बड़े प्रवचन एक ‘फार्स’
नहीं तो और क्या है.
पैसा किसे काटता है दाउद मियां ?
केवल आईपीएल या टी20 ही नहीं बल्कि कमोवेश क्रिकेट का हर प्रारूप आज इन भ्रष्टाचार, सट्टेबाजी,
फिक्सिंग आदि की गिरफ़्त में है. कमाल की बात ये है कि ऐसे
विवादों से न इसके दर्शकों की संख्या पर असर पड़ता है ना ही इससे जुडे
विज्ञापनदाताओं पर और न ही इसे प्रसारित करनेवालों चैनलों को ही. आश्चर्य तो ये है
कि अपने को खेल प्रेमी कहनेवाले लोग सट्टेबाज़ी को क़ानूनी मान्यता देने की बात तक
उठाने लगने हैं. कहतें हैं जुआ तो भारतीय परम्परा है. परम्परा तो सती प्रथा भी थी
तो क्या इसे फिर से शुरू किया जाय ? दरअसल ऐसे तर्क देने वाले लोग मजबूर हैं. वे
ये स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि इस खेल का इतना पतन और पूंजीवाद का कब्ज़ा हो
चुका है.
क्या यह नहीं माना
लिया जाना चाहिए कि उत्सवधर्मी हिन्दुस्तानी समाज ने भ्रष्टाचार को मौन सहमति
प्रदान कर रखी है और इसके समर्थन के लिए एक नैतिक कुतर्क गढ़ लिया गया है ! क्या हम
खेल और पिकनिक, काले धन, शराब, शबाव, ड्रग्स और अंडर वर्ल्ड में अंतर करने का
विवेक खो चुके हैं ?
ये
फिक्सिंग-फिक्सिंग क्या है, ये फिक्सिंग-फिक्सिंग ?
मैच फिक्सिंग में
पुरे मैच का परिणाम फिक्स होता है वहीं स्पॉट फिक्सिंग में यह फिक्स किया जाता है
कि बॉलर को किसी ओवर में नो बॉल, वाइड बॉल या कितने रन देने हैं. बल्लेबाज अपने
आउट होने के बारे में फिक्सिंग करता है.
हिन्दुस्तान में
सट्टेबाजी या फिक्सिंग रोकने के लिए कोई कारगर कानून नहीं है. इसके लिए आज भी
गैब्लिंग एक्ट 1867 की धाराएँ ही लगाई जाती हैं. इसके तहत
दोषी पाए जानेवाले पर अधिकतर तीन महीने की सज़ा या 200 रुपये
का जुर्माना लगाया जाता है. धारा 420 और 120 के तहत मुकद्दमा दर्ज किया गया है पर यह ठगी और धोखाधड़ी की धारा है,
फिक्सिंग के सन्दर्भ में इसे साबित करना आसान नहीं है. इसिलिय आजतक किसी को कठोर
सज़ा नहीं हुई. वैसे केवल कानून मात्र बना भर देने से कोई अपराध रुक जायेगा यह तो
अब कोई मुर्ख भी मानने को तैयार नहीं.
हे
भ्रष्टाचार देव, तुम्हारी सदा जय हो ?
सन 2000
से ही क्रिकेट अपराध की गिरफ़्त में जाने लगा था. इससे पहले यह पाक
साफ़ था यह दावा कोई नहीं कर सकता. अभी समाचार चैनल में अपने एक साक्षत्कार में डी
कंपनी का एक मुरीद कह रहा था कि वो अच्छा खेलने पर पहले भी कई क्रिकेटरों को गिफ़्ट
देता रहा है. अजहरुद्दीन, अजय शर्मा, मनोज प्रभाकर, अजय जड़ेजा आदि भारतीय सन्दर्भ
में क़ानूनी रूप से इसके जन्मदाता माने जा सकतें हैं. आज अजहरुद्दीन बड़े राजनेता
हैं और अपनी पहुँच के आधार पर तमाम आरोपों से बा-इज्जात बारी होकर इस बात पर और एक
मुहर लगा चुके हैं कि भारत में राजनेताओं को सजा नहीं होती. बाकि सब क्रिकेट के
विश्लेषक बनके विभिन्न समाचार चैनलों पर विराजमान हो शान से ‘माल’ बना रहें हैं और
हमें क्रिकेट के गुढ़ रहस्यों से परिचित कराने का बेशर्म प्रयास कर रहे हैं.
बीसीसीआई तो न जाने कब से बेशर्मी का ताज़ पहने विश्व की सबसे संपन्न क्रिकेट
संस्था होने के दंभ में मग्न है. आईसीसी की एंटी करप्शन यूनिट के आईपीएल के प्रति
चेतावनियों से भी इसके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. इन सब बातों को प्रमुखता से
उठानेवालों को क्रिकेट विरोधी का तमगा पहना दिया. माल, बोनस, मुफ़्त का खाना-शराब
और मस्ती लूट रहे भूतपूर्व-अभूतपूर्व और वर्तमान खिलाड़ी भी बीसीसीआई के समर्थन में
एक सूर से हूआं हूआं करने लगतें हैं और क्रिकेट प्रेमी भी उनके उटपटांग तर्कों से
प्रभावित हो हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं. यह भ्रष्टाचार की सामाजिक स्वीकृति नहीं
तो क्या है ?
प्रतिभावान
से ज़्यादा कमाऊ पूत की सेवा करते हैं हम.
जो लोग क्रिकेट प्रेमी
होने का दावा ठोकते हैं वो तक कहाँ गायब होतें हैं जब महिला क्रिकेट, राज्य क्रिकेट,
ज़िला क्रिकेट व अन्य क्रिकेट चल रहा होता है ? ये केवल बीसीसीआई वाली कथित राष्ट्रीय
टीम के क्रिकेट के दौरान ही क्यों जागृत होतें हैं ? दरअसल बीसीसीआई ने क्रिकेट
प्रेम के नाम पर जनता को बाज़ार का हिस्सा बना दिया गया है.
इस मुल्क में उदारीकरण,
भूमंडलीकारण, विकास आदि बड़े-बड़े विश्लेषणों के नाम पर एक खास प्रकार की साजिश चल
रही है. जिसके निशाने पर हर वो वर्ग और व्यक्ति है जिसके पास उपभोक्ता बनने लायक
धन या समय है. जिसके पास नहीं भी है वे गुलाम बनाये जायेंगें. सही तथ्यों को दबाकर
एक खेल के नाम पर खास किस्म का उन्माद बनाया जाता है. याद कीजिये कि टीम इंडिया
किसी टूर्नामेंट का विज्ञापन कितने हिंसक तरीके से करती है और मिडिया भी इस काम
में उनका भरपूर सहयोग प्रदान करती है. ऐसा माहौल बना दिया जाता है जैसे कोई खेल
नहीं बल्कि विश्वयुद्ध शुरू होनेवाला हो.
पतन
का ये आलम और गिरवी जमीर.
बाज़ार और क्रिकेटर की
बेशर्मी का एक नमूना और देखिये. इतना सब उथल-पुथल चल रहा है इसे भी लोग कैच करना
चाहते हैं. सिन्थौल डियो के अपने नए विज्ञापन में घोषणा करते हुए भारतीय क्रिकेट
के नए स्टार विराट कोहली घोषणा करतें हैं – मैं खेलता हूँ तिरंगे के लिए, फैन्स
के लिए, हौसलाअफजाई के लिए, आंसुओं के लिए, टीम के लिए, कप के लिए, जीत के लिए,
ख्वाबों के लिए, सम्मान के लिए, स्वाभिमान के लिए, जोश के लिए, जूनून के लिए,
चुनौती के लिए, विश्वास के लिए. मैं खेलता हूँ जिंदादिली के लिए. क्रिकेट को इस
समय आपकी ज़रूरत है, पहले से ज़्यादा.
इतना सब लिखते हुए
बेचारे ये लिखना भूल जातें हैं कि मैं खेलता हूँ लिकर किंग मालिक और पैसे के लिए.
यह तो एक उदाहरण है. बाकि आज हिन्दुस्तान का हर खिलाड़ी किसी भी तरह का विज्ञापन
करके माल बना रहा है. प्रतिभावान लोगों को स्टार और आइकन बनाया जाता है और जो खेल
के साथ ही साथ अपनी बीमारी, सफलता-असफलता को भुनाते हुए पूंजीपतियों का समान बेचतें
हैं, बेचने में मदद करतें हैं. इसमें हर वो खिलाड़ी शामिल है जिसकी किसी भी प्रकार
की मार्केट वैल्यू है. एक शतक लगाते या किस मैच में दो-चार विकेट लेते ही मिडिया और
उसके पेड एक्सपर्टस किसी खिलाड़ी की तुलना इतिहास के महान खिलाडियों से करने लगते
हैं और विज्ञापन के दरवाज़े उनके वास्ते अपने आप ही खुलने लग जाते हैं. आईपीएल के
वर्तमान अध्यक्ष राजीव शुक्ला जी की मासूमियत देखिये कहते हैं “खिलाडियों के
पास सारी सुविधाएँ है और उन्हें अच्छा पैसा मिलाता है, तो उससे ऐसा कुछ करने की
उम्मीद नहीं की जा सकती.” अब इस बेहूदा बयान का क्या मतलब निकला जाय ? यह कि
जिसके पास सुविधा और पैसा नहीं होता उससे बईमानी की उम्मीद की जा सकती है ?
जहाँ बीसीसीआई अध्यक्ष
खुद ही एक टीम का मालिक और दामाद सहित शक के दायरे में हो वहां ‘सब ठीक है’
का राग बार-बार अलापते रहना बेशर्मी नहीं तो और क्या है? तभी तो छुट्टी माना रहे
अध्यक्ष महोदय एन श्रीनिवासन कहतें हैं “यह कहा जा सकता है कि आईपीएल फिक्स्ड
है. यह सही नहीं है. लोगों का क्रिकेट में विश्वास कायम है. इतिहास में ऐसा होता
रहा है.”
तू
जंगल की मोरनी मैं जंगल का मोर कि लुक-छुप चोरी-चोरी.
संचार क्रांति के इस
युग ने दर्शकों को आश्चर्यजनक रूप से उपभोक्ता के रूप में ढला है. इस पुरे प्रकरण
में दर्शक (उपभोक्ता) दूध के धुले हो ऐसा नहीं है. हम आपको एक असंवेदनशील उपभोक्ता
और मुनाफ़ाखोरों का आसान शिकार बनकर मग्न हो रहें हैं. हमारी दृष्टि केवल खेल तक ही
पहुंचकर तृप्त हो जाती है और उसकी आड़ में यह सारा प्रपंच बड़े ही आराम से चल रहा होता
है. हम कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप में क्रिकेटमोनियाँ नामक बीमारी के शिकार
हो चुके हैं. जिसका यदि समय रहते इलाज न किया गया तो खिलाड़ी और दर्शक तो बचे रहें किन्तु
शायद खेल दम तोड़ दे. ठीक उसी प्रकार जैसे प्रजा रोटी, कपड़ा, मकान और मैथुन की तलाश
करती बची रहती है और प्रजातंत्र पल-पल दम तोड़ देता है.
कोई भी मुल्क सजग और
संवेदनशील नागरिकों और शासन के दम पर मानवीयता और मानवीय प्रवृतियों का पोषक बनता
है, जिस समाज में इसका आभाव हो वहां अराजकतावादी प्रवृतियों का ही साम्राज्य होगा.
जैसा समाज वैसी सरकार और वैसी ही उसकी अन्य संस्था, यह कल भी सच था और आज भी सच है.
संवेदशील होने के लिए किसी भी कौम का ज़िंदा होना एक अनिवार्य शर्त है और ज़िंदा
होने का अर्थ साँस लेने, खाना खाना और नित्य क्रिया मात्र को संपन्न करना कदापि नहीं
होता.
ये
तो कहो कौन हो तुम उर्फ़ प्ले डाउन.
बीसीसीआई एक निजी
संगठन है. जो आरटीआई और खेल मंत्रालय के दायरे से बाहर है. खेल मंत्रालय ने इसे
आरटीआई के दायरे के अंतर्गत लाने की कोशिश की पर केंद्रीय मंत्रियों के विरोध के
कारण यह संभव नहीं हो सका. विरोध करनेवाले मंत्री सहित सरकार और विपक्ष के कई नेता
बीसीसीआई के पदाधिकारी हैं और जम के माल बना रहें हैं. बीसीसीआई का कथन है कि “चुकी
वह सरकार से कोई मदद नहीं लेता, इसलिए उसे खेल मंत्रालय की मान्यता की ज़रूरत नहीं
है.” इसी वजह से अपने-आपको किसी भी चीज़ के प्रति जवाबदेह भी नहीं मानता. पता
नहीं क्यों सरकार बीसीसीआई को बिना मान्यता के वो सारी सुविधाएँ देती हैं जो केवल
राष्ट्रीय खेल संगठन को मिलनी चाहिए. उदाहरणार्थ – बोर्ड की शिफारिश पर क्रिकेटरों
को अर्जुन अवार्ड तथा उन्हें सरकार संस्थानों में नौकरियों पर रखना. यह पैसे की
ताकत नहीं तो और क्या है कि सरकार उसे मान्यता नहीं होने के बावजूद राष्ट्रीय खेल
संगठन मानती है और उसके जीत हार पर देश के आम आदमी से लेकर प्रधान आदमी तक के
सन्देश प्रसारित होतें हैं. ममता दीदी जैसे कुछ महान लोग तो बस कुर्बान ही हो
जातीं हैं. वैसे खेल मंत्रालय के अंदर जितने खेल हैं उनकी स्थिति देखते हुए किसी
बेहतर की उम्मीद करना उचित नहीं लगता. “टीम इंडिया देश का नहीं बल्कि बीसीसीआई
का प्रतिनिधित्व करती है.” सात साल पहले यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी
दलीलों और तर्कों के आधार पर सुनाया था. जिसे पलटने की बड़ी कोशिश की गई, कानून में
बदलाव तक किया गया पर वो फैसला अब भी कायम है. कुल मिलाकर लबोलुआब ये कि क्रिकेट
पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है और सट्टेबाज़ी पर बीसीसीआई. वर्तमान बीसीसीआई
अध्यक्ष ये साफ़ कह ही चुके हैं कि “हम सरकारी संस्था नहीं हैं. सट्टेबाजी रोकना
हमारे बस में नहीं है. इतना सबकुछ होने के बाद भी देखिए, लोग बड़ी संख्या में
स्टेडियम पहुँच रहें हैं. मैं इससे खुश हूँ और दर्शकों का आभारी भी. इससे साफ़ है
कि आईपीएल में खोट नहीं है.”
अनैतिकों
की नैतिकता बड़े माल की चीज़.
यह कोई नहीं कहता कि
बीसीसीआई में सारे के सारे बेईमान लोग ही बैठे हैं. वहां भी निश्चित रूप से अपवाद स्वरुप
कुछ ऐसे लोग होंगें ही जो ईमानदार और खेल से प्यार करनेवाले होंगें किंतु इसके
अधिकांश कर्ता-धर्ता राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतने दबंग हैं कि वे तमाम किस्म के
विवादों के बावजूद किसी भी किस्म की जवाबदेही, पारदर्शिता और जाँच को पहली नज़र में
दुत्कार देतें हैं. बीसीसीआई की कार्यशैली नियमों और कानून के मुताबिक कम पैसे और
रसूक के सहारे ज़्यादा चलता है. यहाँ नैतिकता का स्थान किसी दरबान से ज़्यादा नहीं
है. क्रिकेट में अकूत धन है इस वजह से ज़्यादातर राज्य क्रिकेट संघों पर पक्षीय
अथवा विपक्षिय ‘रावड़ी’ नेताओं का पभुत्व है. बीसीसीआई ने धीरे-धीरे अपने आपको एक
अहंकारी और स्वार्थी संस्थान में परिणत कर लिया है. जो किसी की भी बात मानने को
तैयार नहीं चाहें वो सरकार हो या आईसीसी. जहाँ तक सवाल पूर्व और वर्तमान स्टार
खिलाडियों का है तो बीसीसीआई ने उनके मुंह में पैसा ठूंसकर उनकी ज़बान बंद कर रखी
है. जिसने भी मुंह खोला उसका नाम काली सूचि में दर्ज़ हो जायेगा. ऐसी प्रवृति तथा पूंजी
और पहुँच की इस आंधी में एक अच्छे खासे खेल का सत्यनाश होना लगभग तय है और जब खेल
ही नहीं बचेगा तो खिलाडियों की व्यक्तिगत क्षमता, इमानदारी और महानता का क्या
खेलप्रेमी समाज अचार डालेगा ? इस खेल के रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं.
खतरनाक
है मुर्दा शांति से भर जाना.
जब पुरे का पूरा
तालाब गन्दा होने लगे तो चंद मछलियों को कुर्बान करके सफाई का भ्रम पैदा किया जा
सकता है, बेहतर वातावरण का निर्माण नहीं. वर्तमान में मुल्क के जो हालात हैं उसमें
कोई भी समस्या के मूल पर बात करने को तैयार नहीं. भ्रष्टाचार एक मानसिकता है जिसकी
जड़े आज समाज के हर हिस्से में व्याप्त है और वर्तमान व्यवस्था इससे लड़ने में अक्षम
है. केवल कानून बना भर देने और कुछ लोगों को सज़ा की सूली पर कुर्बान देने से इसका निवारण
हो जायेगा ऐसा सोचना जागती आँखों का सपना ही माना जायेगा.
स्थिति कितनी भी
भयावह क्यों न हो दुनियां विकल्पहीन न कभी हुई है न होगी. ये बात और है कि हम
विकल्प और बदलाव के लिए तैयार भी हैं या नहीं. आज भी विश्व क्रिकेट में ऐसे खिलाड़ी
हैं जो विज्ञापनों, आइपीएलों और किसी भी तरह पैसा कमाने से कहीं ज़्यादा क्रिकेट को
तहजीब देतें हैं, वो केवल अपने देश के लिए खेलतें हैं और खुश हैं. इन जैसों के आगे
सचिन, लक्षमण, द्रविड जैसे महानतम और चरित्रवान खिलाड़ी का नायकत्व किसी आदर्शविहीन
फ़िल्मी नायक जैसा ही प्रतीत होता है, जो फ़िल्मी खलनायकों से तो लड़ सकता है किन्तु
वास्तविक खलनायकों का मौन समर्थन करता है.
एक प्रजातान्त्रिक
देश में अपने नायकों को किसी अमीर घराने के लिए नीलाम होते देखने में जिन्हें आनंद
और मज़ा आता हो उन्हें एक बार पुनः अपने और अपनी उपयोगिता के बारे में विचार करना
चाहिए. धन की मीनार पर बैठी बीसीसीआई इतनी नादान नहीं कि किसी का निःस्वार्थ
मनोरंजन करें. किसी के त्यागपत्र देने से कोई बुनियादी परिवर्तन हो जायेगा ऐसा
नहीं है जब तक की मूल समस्या पर चिंतन-मनन करके उसका निवारण करने का प्रयत्न न
किया जाय. व्यक्ति बदलने से ज़्यादा ज़रुरी है प्रवृति में बदलाव करने की. किन्तु
तत्काल ऐसा कोई प्रयास नज़र नहीं आ रहा. बीसीसीआई का सच, व्यक्ति का सच, सरकार का
सच, इन सब सच से बड़ा होता है सामाजिक सच, जिसकी अनदेखी एक ऐतिहासिक भूल ही मानी
जायेगी.
Punj sir aap vyangya bahut achha likhte hai, aasha karta hoon kabhi main bhi aisa likh paaunga
ReplyDeleteBy Rohit Yadav
Deleteआभार मित्र. मैं भी कभी ऐसा ही सोचा करता था जैसा आज आप सोचतें हैं. आपके सपने को सलाम. हर बात हकीकत बनाने से पहले एक सपना ही होती है.....
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