Wednesday, February 7, 2018

नाटक बिदेसिया का एक किस्सा

1980 का दशक था। उस वक्त भिखारी ठाकुर लिखित और संजय उपाध्याय निर्देशित बिदेसिया नाटक तीन घंटे से ऊपर का हुआ करता था। 25 मिनट का तो पूर्व रंग हुआ करता था अर्थात् बिदेसी, बटोही, प्यारी सुंदरी और रखेलिन की कथा नाटक शुरू होने के 25 मिनट बाद ही शुरू हुआ करता था। अब तो पता नहीं कैसे यह भ्रम व्याप्त हो गया है कि डेढ़ घंटे से ज़्यादा का नाटक कोई देखना ही नहीं चाहता जबकि अभी भी कई शानदार नाटक ऐसे हैं जिनकी अवधि ढाई घंटे के आसपास है। अभी हाल ही में रानावि रंगमंडल ने दो मध्यांतर के साथ 6 घंटे का नाटक किया और लोगों ने भी छः घंटा देखा। अभी हाल ही में कई शानदार फिल्में आईं हैं जो तीन घंटे की हैं। आज भी गांव में लोग रात-रात भर नाटक (!) देखते हैं। तो शायद दोष लोगों यानी दर्शकों का नहीं है; शायद अब कलाकारों (लेखक, निर्देशक, परिकल्पक, अभिनेता आदि) में ही वह दम खम नहीं है कि वो डेढ़ घंटे से ज़्यादा वक्त तक लोगों में रुचि बनाकर रख सके।
बहरहाल, 80 के दशक में भी बिदेसिया के सारे प्रदर्शन टिकट लगकर किया जाता था लेकिन तब भी शो हाउसफुल हुआ करते थे। बहुत से लोग इस नाटक के फैन हो गए थे। वो किसी भी प्रकार इसका सारा शो देखना चाहते थे। पटना में कुछ तो ऐसे भी थे जो पूरे परिवार के साथ हर संभव प्रयास करके नाटक के सभागार में चले आते थे। खैर, मूल किस्सा यह है कि नाटक में प्यारी सुंदरी का किरदार करनेवाली अभिनेत्री के परिवार वाले कुछ शर्तों के साथ अभिनय करने देने के लिए राज़ी हुए थे। तो हुआ यूं कि उस दृश्य में जब बिदेसी कलकत्ता से घर वापस आता है तो बिदेसी की भूमिका कर रहे पुष्कर सिन्हा ने उत्साह वश मंच पर आंख मार दिया जिसे सभागार में बैठे प्यारी सुंदरी की भूमिका कर रही अभिनेत्री के परिवारवालों ने देख लिया। फिर क्या था दूसरे दिन के शो में प्यारी सुंदरी ग़ायब। इधर शो का वक्त हो रहा था उधर प्यारी सुंदरी के घर पर जाकर कुछ लोग मनाने की चेष्टा कर रहे थे और बिदेसी के उस आंख मारनेवाली हरक़त के लिए शायद सफाई भी पेश कर रहे थे। उन्हें समझा रहे थे कि यह अभिनेता ने उत्साह में किया है इसके पीछे कोई और मंशा नहीं है। शो का वक्त क़रीब आ रहा था ऐसी स्थिति में एक निर्देशक और पूरी टीम की मनोदशा का अनुमान कोई भी संवेदनशील और कलात्मक मन लगा सकता है। कोई चारा ना देख आख़िरकार नाटक के निर्देशक संजय उपाध्याय ने एक निर्णय यह लिया कि प्यारी सुंदरी की भूमिका वो खुद करेंगें - संवाद, गीत और नाटक की ब्लॉकिंग तो लगभग उन्हें याद तो है ही। फिर क्या था, निर्देशक महोदय ने साया, साड़ी, ब्लाउज़ धारण किया या करने लगे। वो मानसिक रूप से तैयार तो हो ही गए थे अब आहार्य ही तो धारण करना था कि तभी नाटक की प्यारी सुंदरी हाज़िर हुई और उस दिन का शो सुचारू रूप से शुरू हुआ।

#बहुत_किस्से_हैं_कोई_लिखे_तो_सही ।

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