पूर्वरंग- यह समीक्षा नहीं है |
प्रो. हेमंत द्विवेदी के आकर्षक आवरण चित्र से सुसज्जित बनास जन का नया अंक डाक से मिला | पहली बार इस पत्रिका से वाकिफ़ होने का अवसर मिला | हालांकि इसके दो अंक पहले भी आ चुके थे | बकौल पल्लव (सम्पादक, बनास जन) “ बनास के दो अंक रचनाकार केंद्रित और विशेषांक थे। पहला कथाकार स्वयं प्रकाश पर और दूसरा चर्चित कृति काशी का अस्सी पर। इन अंकों के बाद मेरा स्थानांतरण हो गया और मुझे परदेस आना पड़ा। अब मित्रों का दबाव कि बनास नियमित हो, सामान्य अंक आएं। तो धीरे धीरे आयी की तर्ज पर दो साल इस सामान्य अंक में भी लग गये। होता यह कि पहले के अंकों के कारण बनास के सामान्य अंक के भी बहुत बढ़िया होने का पूर्वाग्रह बन गया था। अब भला हर पत्रिका तो पहल और तद्भव नहीं हो सकती और न ही वसुधा या नया पथ।
तो धीरे धीरे रचनाएं मिलीं, उससे भी बहुत धीरे विज्ञापन और सबसे धीमा हमारा सम्पादकीय परिवार। मैं टाइप करवाता रहा, मिहिर और अमितेश (उप-सम्पादक) प्रूफ पढ़ते रहे। हां, पुस्तक मेले के मौके पर एक छोटा अंक आया था, जिसमें मीरा के समय और समाज पर डॉ माधव हाड़ा का लंबा शोध आलेख था, उसे हमारी कंजूसी ने रोके रखा कि मूल अंक के साथ ही रीलीज करेंगे ताकि डाक का पैसा बच सके|”
तो ये है बनास जन के अंतराल की कहानी | अब थोड़ी सी बात इस पर कि “मंडली” जो मूलतः रंगमंच केंद्रित ब्लॉग है उस पर एक पत्रिका को केंद्र में रखकर आलेख क्यों ? जवाब बहुत ही सरल है | पहली बात तो ये कि रंगमंच का दायरा बड़ा है और इसमें लगभग हर चीज़ समाहित है और दूसरी बात ये कि मेरी जानकारी में हिंदी ( हो सकता है मेरी जानकारी कम हो ! ) साहित्य और संस्कृति पर केंद्रित बनास जन शायद एकलौती पत्रिका है जिसने रंगमंच पर केंद्रित आलेखों को भी एक सम्मानित स्थान दिया है | कथादेश के अमूमन हर अंक में रंगमंच पर केंद्रित एक आलेख होता है जिसे सालों से अमूनन हृषिकेश सुलभ ही लिखतें हैं | जहाँ तक सवाल रगमंच पर केंद्रित पत्रिका का है तो हिंदी में दो नाम प्रमुखता से लिए जा सकतें हैं – नटरंग और रंगप्रसग | हाल ही में दो अंकों के साथ रंगवार्ता कुछ उम्मीद जगाता है | रंगप्रसंग चूंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पोषित पत्रिका है तो उसकी नीतियों को स्थापित करना इसकी सीमा है | तो ले देके बचता है नटरंग जो अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद समय-समय पर आशा का दीप जलाता रहता है | ऐसे समय में बनास जन का रंगकर्म को भी स्थान देना सुखद भी है और स्वागत योग्य भी |
बनास जन के वर्तमान अंक (फरवरी-अप्रैल 2012) में रगमंच को केंद्र में रखते हुए दो महत्वपूर्ण आलेख हैं | पहला, प्रसिद्ध रंग निर्देशक प्रसन्ना का आलेख “ हबीब तनवीर का असल महत्व”, जो भोपाल में आयोजित हबीब उत्सव 2009 के अंतर्गत आयोजित सुरता हबीब में अंग्रेज़ी में दिया व्याख्यान है | इस महत्वपूर्ण आलेख का सुन्दर हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है युवा रंगप्रेमी और विशेषज्ञ मुन्ना कुमार पाण्डेय ने | इस आख्यान में हबीब तनवीर का सन्दर्भ लेते हुए प्रसन्ना भारतीय रंगमंच की कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ़ इशारा करते हुए कहतें हैं- “हमारे राष्ट्रीय संस्थानों को आकार देने के लिए एक स्पष्ट इरादे से राष्ट्रीय रंगमंच को बनाया गया है, पर दूसरी ओर ये कमबीन ( अदूरदर्शी ) हो गए | इनकी वर्तमान दृष्टि इन्हें दिल्ली से बाहर देखने ही नहीं देती |...भारत में यह कुलीन रंगमंच अपने मूल में कंप्रेडर बुर्जुआ है |...मैं आज़ादी के पहले पैदा हुई एक महत्वपूर्ण पीढ़ी के दो शख्सियतों, जिन्होंने इस कंप्रेडर बुर्जुआ को चुनौती दी, के बारे में सोचता हूँ | एक थे हबीब तनवीर और दूसरे बादल सरकार |...अभी तक वे दोनों भारतीय रंगमंच में विरोध के एक मजबूत प्रतीक के रूप में खड़े हैं |...वे एक प्रेरक रंग निर्देशक थे साथ ही नाटककार और शायर भी | मुझे ऐसा लगता है कि उनके नाटककार होने के महत्व को अभी तक पूरी तरह से सराहना नहीं मिली |... अलकाजी की शैली थोड़ी-बहुत पश्चिमी थी...हबीब की शैली पारंपरिक और समकालीन दोनों तरह की है | यह भारत में कहीं भी प्रस्तुत करने, तैयार करने के लिए काफी लचीला और सहज है |....हबीब ने एक झटके में ब्राहमणवादी उच्च परम्परा और पश्चिम बुर्जुआ थियेटर दोनों को तोड़ दिया |...उनके पास संस्थागत समर्थन या बुनियादी सुविधाएँ प्राप्त नहीं थीं जो अलकाजी को प्राप्त थीं | लेकिन हबीब प्रेरित करतें हैं |...हबीब तनवीर के लिए लोक रंगमंच का मतलब था जो हमेशा जनता का रगमंच होना चाहिए |”
इस प्रकार जहाँ तथाकथित मुख्यधारा के रंगमंच के कुछ प्रसिद्ध भारी-भरकम नाम हबीब तनवीर के नाम से बगलें झांकने लगतें हैं वहीं प्रसन्ना जैसे निर्देशक, जिनका ज़्यादातर काम रंगमंच के भारतीय तरीके ( तकनीक ) की तलाश पर ही केंद्रित है, का यह आलेख हबीब तनवीर के काम को भारतीय इतिहास के बजाय भविष्य में समाहित करने की एक ज़रूरी वकालत करता है |
वहीं दूसरा आलेख है युवा नाट्य-समीक्षक और रंगमंच के कट्टर दर्शक अमितेश कुमार का | शीर्षक है –“रगमंच के नए रंग |” अपने बेबाक लेखन के लिए जाने जा रहे अमितेश के इस आलेख के केन्द्र में वर्तमान रंगपटल ( खासकर महानगर में ) पर चल रहे नाट्य प्रयोग हैं | जिनपर ये खुलकर अपनी राय प्रकट करतें हैं | वहीं आलेख का दायरा इतना ज़्यादा वृहद हो गया है ( नाट्य-आलेखों की कमी, नाटककार – निर्देशक, लिखित आलेख- इम्प्रोवाईजड आलेख, स्त्री रंगमंच, अभिनेता का आलेख-भूमिका, मल्टीमीडिया, रंगमंच का उद्येश्य, नाट्य-आलोचना की समस्या, सूचना की समस्या इत्यादि ) कि कई स्थानों पर सूचनात्मक आभास भर ही दे पाता है | एक ही आलेख में इतना सब कुछ समेटना मुश्किल है, विषय बड़ा ही वृहद है जो समय और धर्य की मांग करता है, फिर भी इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि इन्होनें रंगमंच में चल रहे लगभग हर नई-पुरानी हलचल और बहस को छूने और यथासंभव परखने की कोशिश तो की ही है, जिसकी वजह से यह आलेख वर्तमान रंग प्रयोग और बहसों का आईना बनकर उभरता है |
लगभग तीन सौ पन्ने और पचहत्तर रुपये मूल्य की बुक साईज की इस पत्रिका में कविता, कहानी, समसामयिक मुद्दे, समीक्षाएँ सहित बहुत कुछ और भी है जिन्हें सदाशिव क्षेत्रीय (आत्मकथा और कविताएँ ), विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, प्रणय कृष्ण ( प्रगतिशील लेखक संघ के पचहत्तर साल ), नवल किशोर, शम्भुनाथ ( अगेय व शमशेर जन्मशताब्दी ), प्रेमपाल शर्मा ( हंस की रजत जयंती ), जीतेन्द्र गुप्ता, राकेश कुमार सिंह ( पूंजीवादी अपतंत्र से संघर्ष व हिंसा युग ), सत्यनारायण व्यास ( लंबी कविता, सीता की अग्नि परीक्षा ), रवि कुमार, विनोद विट्ठल ( कविताएँ ), जवाहर लाल नेहरू, स्वयं प्रकाश, मनीषा कुलश्रेष्ठ ( एक शहर : तीन मुसाफिर ), असगर वजाहत, राम कुमार सिंह, सईद अय्यूब, विनोद विट्ठल ( कहानियां ), नेम नारायण जोशी ( अपना घर : राजस्थानी ), राहुल सिंह, विनीत कुमार, विजय सती ( साहित्यकी ), रवि श्रीवास्तव, गणपत तेली ( भाषा ), रामेश्वर राय ( पुनर्पाठ ), अविनाश, योजना रावत( यात्रा आख्यान ), रूपेश कुमार शुक्ल, सोमप्रभा ( युवा कविता ), अजित कुमार ( हमसफरनामा ), दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, सुमन केसरी, शशि प्रकाश चौधरी, विमलेन्दु तीर्थकर, जीतेन्द्र विसारिया तथा ओम निश्छल ( समिक्षायण ) ने लिखा है | जिनकी परख इन विषयों के विशेषज्ञ ही करें तो शोभा देगा | साथ ही रोशनदान नामक एक विशिष्ट कलम भी है जिसमें सामयिक पात्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों का सचित्र परिचय प्राप्त किया जा सकता है |
हाँ, पत्रिका के बहुत से पन्ने कुछ भरे कुछ खाली रह गए हैं जिसका कुछ सार्थक प्रयोग हो सकता था | वैसे खाली स्थान का भी अपना एक अलग और खास महत्व है, लिखे शब्दों से इतर, जैसे कि रगमंच में “पौज़” का होता है पर उसका मीनिंगफुल होना निहायत ही ज़रुरी है | वहीं प्रूफ की गलतियाँ न हो तो मज़ा आ जाए | आने वाले अंकों में उम्मीद है पाठकों के पत्रों को भी स्थान दिया जायेगा और उनकी बेवाक प्रतिक्रियाओं को तहे दिल से प्रकाशित किया जायेगा, यह किसी भी पत्रिका का उतना ही ज़रुरी अंग होना चाहिए जितना कि कोई आलेख, कविता या कहानी |
हाँ, पत्रिका के बहुत से पन्ने कुछ भरे कुछ खाली रह गए हैं जिसका कुछ सार्थक प्रयोग हो सकता था | वैसे खाली स्थान का भी अपना एक अलग और खास महत्व है, लिखे शब्दों से इतर, जैसे कि रगमंच में “पौज़” का होता है पर उसका मीनिंगफुल होना निहायत ही ज़रुरी है | वहीं प्रूफ की गलतियाँ न हो तो मज़ा आ जाए | आने वाले अंकों में उम्मीद है पाठकों के पत्रों को भी स्थान दिया जायेगा और उनकी बेवाक प्रतिक्रियाओं को तहे दिल से प्रकाशित किया जायेगा, यह किसी भी पत्रिका का उतना ही ज़रुरी अंग होना चाहिए जितना कि कोई आलेख, कविता या कहानी |
आशा है सजग रंगकर्मी बनास जन के इस प्रयास में सहभागी होंगें और आने वाले अंकों में महानगरों से इतर के भी रंगकर्म सम्बन्धी आलेख पढ़ने को मिलेंगें |
वर्तमान अंक अगर आप भी पढ़ना चाहे तो इनसे संपर्क करिये - सम्पादक, बनास जन, फ़्लैट न. 393, डी.डी.ए. ब्लाक सी एंड डी, कनिष्क अपार्टमेन्ट, शालीमार बाग़, नई दिल्ली-110088. फोन से संपर्क - 08800107067 इ मेल - banaasmagazine@gmail.com
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