Thursday, November 8, 2012

सीताराम शास्त्री की हत्या और आत्महत्या के बीच मस्तराम बनके ज़िंदगी के दिन गुज़ार दो !


सीताराम शास्त्री 
Who says it failed? You or him? The movement was not a failure. Rather, the society failed. The literature failed. They failed to understand us. But that doesn’t matter at all. If they don’t understand simply then, we have other ways.  – Baishe Srabon नामक बंगला फीचर फिल्म का एक संवाद. 

कई प्रगतिशील आंदोलनों को अपनी उर्जा से सीचनेवाले सीताराम शास्त्री जी ने 24 अक्टूबर 2012 को चलती ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या कर ली. मोबाइल पर उनके आखरी शब्द थे मेरी तलाश करो मैं लौटकर वापस नहीं आने वाला. चारु मजुमदार, एके राय, शंकर गुहा नियोगी, शिबू सोरेन, बीपी केसरी जैसे कई अन्य लोगों के साथ चालीस साल लगातार ईमानदारी की राजनीति करने के बाद कोई इंसान राजनीति के लिए अघोषित रूप से अनुपयोगी घोषित कर दिया जाय, इससे खतरनाक बात और क्या होगी ?
आत्महत्या की नैतिक ज़िम्मेदारी किसकी है ? आत्महत्या एक प्रवृति है जिसकी तरफ़ इंसान धकेला जाता है. ये अभाव और मजबूरी का मार्ग है, स्वेच्छा और हर्ष का नहीं. इस चयन के पीछे के बहुत सारे कारक ज़िम्मेदार होतें हैं. आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत आदि. केवल कायरतापूर्ण हरकत कहके शुतुरमुर्ग बन जाने से बोलनेवाला तो अपने आपको नायक जैसा समझता है पर साथ ही साथ उन महत्वपूर्ण सवालों को एक ही झटके में गटक भी जाता है जो इसके मूल कारक थे. क्योंकि कोई भी कायर या हारे हुए लोगों के बारे में बात करना पसंद नहीं करता. क्या सीताराम शास्त्री एक कायर का नाम था ? जो भी उन्हें अच्छे से जानते हैं वो उनके अद्भुत साहस के कायल हैं. सीताराम शास्त्री अपने जीवन में किसी इंसान और परिस्थिति से डर के अपना रास्ता बादल दिया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता.
मनुष्य परिस्थितियों को गढ़ता है ये बात जितना सच है उतना ही ज़्यादा यह भी सच है कि मनुष्य परिस्थितिओं से संचालित और प्रभावित भी होता है. ये सिक्के के दो पहलू हैं. ये प्राकृतिक प्रदत् मानवीय स्वभाव है. इंसान चाहें किसी भी वाद को मानता हो वर्तमान स्थिति में ( जैसा हमारा सामाजिक परिवेश है ) वो अपने इस स्वाभाविक गुण से बच नहीं सकता.
आखिर वो कौन सी परिस्थितियां हैं जिसमें फंसकर समाज के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने की सीख देने वाले लोग भी आत्महत्या करने को अभिशप्त हो जातें हैं ? क्या इस दिशा में बात करने की ज़रूरत नहीं है ? क्या शास्त्री जी चाहते तो केवल अनुवाद के सहारे लाखों प्रगतिशील झंडाबरदारों की तरह आराम से एक मध्यवर्गीय ज़िंदगी नहीं जी सकते थे ? क्या इन बातों पर बात करें ? ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा ? आत्महत्या की थोड़ी सी ज़िम्मेदारी हमारे कंधों पर भी आएगी, यही ? हमारी विफलता हमें मुंह चिढ़ाकर हमारी आराम से चल रहीं ज़िंदगी में खलल पैदा कर देगी, और क्या ? वैसे भी कड़वे सच से मुंह फेरकर किसी को क्या हासिल होना है ? दुनियां को बदलने से पहले उसे जानना समझना होगा. ये सवाल और है कि क्या हम कुछ हासिल करना या बदलना भी चाह रहें हैं या इसका दिखावा करते हुए अपने ही दडवे में कुढते-चिढ़ाते मस्तराम बनके ज़िंदगी के दिन गुज़ार भर रहें हैं. मानव मन बड़ा चंचल है. फ्रायड कहतें हैं मनुष्य स्वभाव नापसंद बात को सदा जूठी मान लेना चाहता है, और इसके बाद इसके खिलाफ़ दलीलें भी आसानी से तलाश कर लेता है. इस प्रकार समाज जो बात नहीं मानना चाहता, उसे झूठी बताता है.
जीवित रहते भले ही कोई, किसी की छाया तक से नफ़रत करता हो परन्तु हत्या हो चाहे आत्महत्या हमारा समाज श्रद्धांजलि देने और अमरता का नारा लगाने में कभी पीछे नहीं रहता. हम दुश्मन की मौत पर भी मातम करनेवाले लोग हैं. महान मध्यवर्गीय संवेदना है ये. दरअसल ये प्रमाणपत्र है कम से कम ज़िम्मेदारी लेकर इस समाज का एक सजग और सामाजिक नागरिक होने का. इस प्रमाण पत्र को कोई भी आसानी से खोना नहीं चाहता. आखिर कभी एकांत में हमें अपने-आप को भी तो जवाब देना होता है. हाँ मुसीबत तब जाती है जब कोई ज़िम्मेदारी की बात करने लगे.  
एक व्यक्ति जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी सामाजिक कार्यों और एक बेहतर समाज के सपने में लगा दी हो उसके आत्महत्या पर क्या केवल सरकार, सामाजिक ढांचे आदि को चिल्ला-चिल्लाकर रस्मी तौर पर कोस भर देने से ही सवाल हल हो जाता है ? जिस जिस को दोषी ठहराने की परम्परा है उस उस को दोषी ठहरा भर देने से काम हो गया ? वैसे क्या कोई इन सवालों के जवाब भी चाहता है ? इन सब बातों पर अमल करने का अर्थ है अपने को किसी मिशन पर झोंकना और मिशन त्याग की मांग करता है आरामचैन की नहीं. वैसे आजकल कम्फर्ट क्रांतिकारिता सह प्रगतिशीलता का चलन ज़ोर पर है.
मेरे जेहन में बार-बार इन बातों के साथ ही साथ गोरख पाण्डे, चंद्रशेखर, कानू सान्याल, महेन्द्र सिंह, बी एन शर्मा जैसे कई अन्य नाम घूम रहे हैं. आजतक गोरख पाण्डे और कानू सान्याल जैसे लोगों की आत्महत्याओं की सही पड़ताल क्यों नहीं की गई. इनपर खुलके बात क्यों नहीं होती ? कई बामपंथी नेताओं के गुरु और किसी वक्त एक बड़े वामपंथी समूह के महासचिव रहे बीएन शर्मा की दर्दनाक और गुमनाम मौत और पटना के एक महान वामपंथी नेता की नींद और टट्टी की कथा लिखने का साहस क्या किसी के पास नहीं है ? पड़ताल तो दूर की बात नाम तक नहीं लेते लोग. ऐसी बातों को नाजायज गर्भ की तरह छुपकर खत्म कर देना सामाजिक सत्य की भ्रूण हत्या से कम जघन्य अपराध नहीं है. परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करके आखिर कोई क्या साबित करना चाहता है और इससे आखिर किसका स्वार्थ सधता है ? सच चाहें कितना भी कड़वा हो उसे स्वीकार किये बिना क्या कोई भी व्यक्ति या दल सही रास्ते पर आगे बढ़ सकता है ? वैसे भी हम अपनी असफलताओं से ज़्यादा सिखातें है बशर्ते हमारे अंदर ये अहम् घर कर गया हो कि हम संसार के सबसे सही लोग है. किसी भी धर्म, वाद या विचार का तमगा ही अब सही गलत साबित करने के लिए काफी नहीं हैं. वर्ग, चरित्र, समाजवाद, साम्यवाद, अराजकतावाद, हिंसा, अहिंसा, प्रतिहिंसा, सही रास्ता, गलत रास्ता, वाममार्गी, मध्यमार्गी, दक्षिणमार्गी से भी ज़्यादा ज़रुरी है मानवीय संवेदना की बात करना, वैज्ञानिक और प्राकृतिक दृष्टिकोण की बात करना. बिना इसके इन सबका कोई अर्थ नहीं. बिना प्राकृतिक ( नेचुरल ) हुए हम तार्किक और वैज्ञानिक नहीं हो सकते. हाँ, इसका ढोंग ज़रूर कर सकतें हैं.
शास्त्री जी रोज़ाना मॉर्निग वॉक पर जाते थे. उस दिन भी गए. लेकिन वापस नहीं आए बल्कि उनका शव रात करीब आठ बजे आदित्यपुर स्टेशन से एक किलोमीटर आगे रेलवे पुल के नीचे से बरामद किया गया. शास्त्रीजी को इलाज के लिए दोपहर को दिल्ली के लिए रवाना होना था. सीताराम शास्त्री को हाल ही में गले का कैंसर पता चला था, जिसके कारण परिवार के सदस्यों ने दिल्ली में उनका बेहतर इलाज कराने की योजना बनायी थी. सीताराम शास्त्री को शायद अपने बीमारी के बारे में पता चल गया था, इसलिए वे जाना नहीं चाह रहे थे, लेकिन परिवारवालों की जिद के आगे कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे. उन्होंने घर से निकलने के पहले सुसाइडल नोट में लिखा कि वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते हैं. उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को एमजीएम मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों को शोध के लिए दान में सौंप दिया जाए.
आंध्र प्रदेश के मूल निवासी सीताराम शास्त्री का जन्म जमशेदपुर में ही हुआ था. उनकी पढ़ाई मेसर्स केएमपीएम स्कूल से हुई. वे हिंदी और अंग्रेजी भाषा के अनुवादक थे. उन्होंने वाम विचारधारा के साथ आंदोलन शुरू किया. इसके अलावा वे पीयूसीएल, मानवाधिकार, झारखंड आंदोलन के साथ भी विभिन्न मंचों पर जुड़े रहते थे. वर्तमान में वे झारखंड मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर आंदोलन चला रहे थे. कई किताबें भी लिखी है. मेहनत, झारखंड दर्शन, नितांत, हिरावल, उलगुलान संबंधित कई पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया. आदिवासियों की राष्ट्रीयता पर उन्होंने एक किताब भी लिखी. वे झारखंड आंदोलन के जनक भी माने जातें हैं.  झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन में भी उनका विशेष योगदान रहा.
अख़बारों ने यहाँ तक लिखा कि झारखंड आदोलन में महती भूमिका निभाने वाले सीताराम शास्त्री झारखंड की धरती पर ही अंतिम सांस लेना चाहते थे. उनका कहना था कि जिस धरती पर मैंने जन्म लिया, उसी धरती पर अंतिम सांस भी लूंगा. तुम लोग तो हजारों लाखों खर्च कर मेरा इलाज करा दोगे पर यह सोचो कि ऐसे हजारों लोग हैं जो इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं. मैंने अपनी ज़िंदगी जी ली, मुझपर इतना रूपया क्यों खर्च हो, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता.
हमारा कानून आत्महत्या करनेवाले को या इसके प्रयास करनेवाले को दोषी मानता है. लोग इसे एक कायराना या झक्कीपूर्ण हरकत भी कहतें हैं. पर क्या कोई ये पड़ताल करने की हिम्मत दिखने को तैयार है कि पूरी ज़िंदगी समाज को समर्पित कर देनेवाला और अपने आखिरी पलों में भी हज़ारों-लाखों लोगों के प्रति चिंता जतानेवाला एक इंसान अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अकेला और हरा हुआ कैसे महसूस करने लगता है. उनके कई करीबी मित्र ये बताते हैं कि वर्तमान स्थिति से शास्त्रीजी बड़े द्रवित थे. वर्तमान में जिनके साथ भी जुड़कर वो काम कर रहे थे उनसे भी इनका वैचारिक मतभेद चल रहा था. शास्त्रीजी कैंसर से डर गए ऐसा सोचना मामले को एक निहायत ही हल्का अंत देना होगा, उनके संघर्ष को कायरता का जमा पहनना और सच कहें तो अपने आप को किसी भी जवाबदेही से मुक्त करना होगा. मैंने अपनी ज़िंदगी जी ली, मुझपर इतना रूपया क्यों खर्च हो, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता. ये सब शास्त्रीजी की सोच मान भी ले फिर भी क्या इस सोच के सहारे उन्हें अकेला छोड़ देना उचित था ? क्या इन बातों के अंदर दबी निराशा और निरर्थकता के एहसास को लोग समझ नहीं पा रहें हैं या समझाना नहीं चाहते ? अगर ये निराशा है तो क्या यह निराशा निहायत ही व्यक्तिगत है या सामूहिक ? इस निराशा की नैतिक ज़िम्मेदारी क्या कोई लेने को तैयार है ?  सफलता पर सब फ्रेम में खड़े होकर मुस्कुराते हुए तस्वीर खिंचवाना चाहतें हैं पर असफलता का क्या अब भी कोई साझेदार नहीं मिलेगा ?
शास्त्रीजी वाली इस घटना से कुछ दिनों पहले साम्यवादी क्रांति का सपना पाले एक ईमानदार नेता दिल्ली में सड़क पार करते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गए. गंभीर चोटें आयीं. कहा जाय कि किसी तरह जान भर बच गई. कितने लोग हाल-चाल पूछने आए ? पता चला कि पार्टी से कार्यशैली को लेकर इनका भी कुछ वैचारिक मतभेद चल रहा है. सो विचार की ये लड़ाई व्यक्ति के अहम् की लड़ाई समझ ली गई है. अपनी पूरी ज़िन्दगी इन्होनें जिस सपने को पूरा करने के लिए लगाई उसका ऐसा हश्र कि आज इन्हीं के द्वारा अंगुली पकड़कर चलनेवाले बच्चे ये कहते पाए जातें हैं कि कामरेड, आपको चलना नहीं आता ! ये हाल हैहर चीज़ पर संदेह करो.” ( doubt everything ) की विचारधारा को माननेवाले हिंदुस्तान की सबसे बड़ी और सबसे ज़्यादा ईमानदारी का दावा पेश करने वाली शोषितों के न्याय के लिए संघर्ष करनेवाली क्रांतिकारी लालझंडाधरी पार्टी की. अगर इन्हें कुछ हो गया होता तो सब के सब सबकुछ भूलके लालसलाम और कामरेड फलाने अमर रहें करने पहुँच जाते जिसका मूल अर्थ ये होता कि चलो बुड्ढे में झाक्किपन से पीछा छुटा.
आप क्या करतें हैं ?पहली मृतात्मा.
जी मैं स्वांग रचता हूँ. – दूसरी मृतात्मा.
वो तो सभी रचातें हैं. आप कैसा स्वांग रचातें हैं ?पहली मृतात्मा.
अपने आपको सुरक्षित रखते हुए, सार्थक जीवन जीने का स्वांग.दूसरी मृतात्मा.
अरे वाह फिर तो हम एक ही रह के राही निकले. बड़ी खुशी हुई आपसे मिलाकर.पहली मृतात्मा
सत्तर के दशक में अपनी तमाम दुनियावी खुशियों को तिलांजलि देकर एक बहुत बड़ा युवावर्ग व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में कूद पड़ा. मार्क्स, भगत सिंह, जेपी, गोलवरकर आदि इनके आदर्श थे. कुछ ने अपना कुछ बहुमूल्य समय आंदोलन को दिया फिर उसी व्यवस्था का हिस्सा बन गए जिनके खिलाफ़ कभी खड़े हुए थे. कुछ नागरिक जीवन में वापस लौट आए तो कुछ आज तक इमानदारी-बेईमानी के साथ मैदान में डटें हैं. आज वो पीढ़ी अपने जीवन की अंतिम पारी में प्रवेश कर गई है. ऐसे समय में इन्हें निरर्थकता का एहसास होने का अर्थ है एक पुरे के पुरे इतिहास को निरर्थक कह देना, नक्कार देना. यह निश्चित रूम से एक खतरनाक संकेत है. जो प्रगतिशील और क्रांतिकारी पीढ़ी अपने बुजुर्गों को निरर्थक समझे उनके हाथों किसी भी आन्दोलन का भविष्य सुरक्षित नहीं, वो समाज का सबसे खतरनाक तबका है, जो दरअसल प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता के नाम पर घनघोर अराजकतावादी है. आधुनिकता का एक पैर यदि परम्परा में रहे तो वो हवाई होता है.
अभी हाल ही में ओल्ड एज होम में गरीबी और मुफलिसी की ज़िंदगी गुज़ार रहे सुरेश भट्ट जी का निधन हो गया. वो पिछले कई सालों से दिल्ली के ओल्ड एज होम में ज़िंदगी गुज़ार रहे थे. 1974 आंदोलन की उपज ये भी थे. पटना बिहार का शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जो इन्हें नहीं जानता हो पर शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जिसने इनकी खोज खबर ली हो. कभी सम्पन्न रहे भट्ट जी के यहाँ विनोवा भावे, जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, लालू प्रसाद यादव जैसे कई अन्य राजनीतिक गैरराजनीतिक लोगों की बैठकी लगती थी. पिछले दिनों नितीश कुमार ने जब जेपी आंदोलन में शामिल लोगों को पेंशन देने की घोषणा की तो सुरेश भट्ट के परिजन दौड़ते रहे पर इनका नाम उस लिस्ट में शामिल नहीं हो सका. हद तो ये है कि जेपी आंदोलन के पैदाइश होने की कसमें उठानेवाले कई कद्दर नेताओं को आजतक ये भी नहीं पता कि सुरेश भट्ट ज़िंदा है या नहीं. वैसे ज़िंदा रहने की ख़बरें बने बने पर मौत की खबर कहीं कहीं बन ही जाती है. वैसे सुना है कि 1974 आंदोलन के समय एक नारा लगाया जाता था अगल बगल हट, रहे सुरेश भट्ट. सुरेश भट्ट की बहुत सारी कहानियां हैं जिसे शायद इनका कोई शुभचिंतक ही कलमबद्द करेगा, ऐसा विश्वास है.
ऐसे लोगों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा आखिर ? परिवार ? इतनी बड़ी-बड़ी पार्टियां बनाकर बड़े-बड़े सपनों की बात करनेवाले लोग क्या केवल इन्हें श्रद्धान्जली देकर ही अपनी जिम्मेवारियों से मुक्त हो जायेंगें ? शास्त्रीजी जैसे लोगों ने क्या ऐसे ही कार्यकर्ताओं की परिकल्पना की थी ? क्या हत्या केवल शारीरिक और शरीर की ही होती ? क्या इसका कोई सम्बन्ध सोच और मन ( मानसिकता ) से भी नहीं है ? सवाल तो बहुतेरे हैं पर फिलहाल बस इतना ही. हाँ, ये बात भी सच है कि सबको अराजक कहना भी एक तरह का अराजकता ही है. तमाम गलतियों के बीच भी कुछ अच्छा चलता रहता है, उसे पहचानना और उसका समर्थन करना भी आज निहायत ही ज़रुरी है. जिस रूप में आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहिए उस रूप में आगे बढ़ रहा है ? कभी किसी और पर निर्भर नहीं रहनेवाले शास्त्री जी ने निरर्थक जीवन जीने के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुना, क्या कुछ लोगों के इस बात में कोई सच्चाई है. किसी की भी आत्महत्या अनुकरणीय नहीं हो सकती. इस दुनियां में आशा की किरण हमेशा जलती रहती है, ये बात और है कि लौ कभी बहुत तेज़ तो कभी मद्धम पड़ जाती है. हो सकता है शास्त्रीजी का सच इन सब बातों से भी अलग हो पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक कविता  “अंत मेंहमें कुछ सोचने पर मजबूर तो करती ही है अगर हम जानबूझकर सोचने की कसम खाए बैठे हों तो
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो
अन्यथा
इससे पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन , हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापिस लौट आये
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है
वह बिना कहे मर गया
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से
कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं.

1 comment:


  1. Yog Mishra जी ने लिखा कि आलेख पढ़कर अलोक धन्वा की ये कविता याद आती है -

    देखना
    एक दिन मैं भी उसी तरह शाम में
    कुछ देर के लिए घूमने निकलूंगा
    और वापस नहीं आ पाऊँगा !

    समझा जायेगा कि
    मैंने ख़ुद को ख़त्म किया !

    नहीं, यह असंभव होगा
    बिल्कुल झूठ होगा !
    तुम भी मत यक़ीन कर लेना
    तुम तो मुझे थोड़ा जानते हो !
    तुम
    जो अनगिनत बार
    मेरी कमीज़ के ऊपर ऐन दिल के पास
    लाल झंडे का बैज लगा चुके हो
    तुम भी मत यक़ीन कर लेना।

    अपने कमज़ोर से कमज़ोर क्षण में भी
    तुम यह मत सोचना
    कि मेरे दिमाग़ की मौत हुई होगी !
    नहीं, कभी नहीं !
    हत्याएँ और आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गयी हैं
    इस आधे अँधेरे समय में।
    फ़र्क़ कर लेना साथी !

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