Friday, April 19, 2013

रामनौमी की पूर्वसंध्या और धर्म की स्थापना !

भारत विचित्रताओं से भरा देश है इसलिए भारतीय संस्कृति का व्यावहारिक अध्ययन करना एक ज़रुरी अंग बन जाता है | किताबों में बातें जितनी कोमल और सुन्दर लगती हैं, ऐसा हो सकता है कि यथार्थ जगत में मामला एकदम ही उल्टा हो | इतिहास पलटके देखें तो हमारे देश की सबसे बड़ी सेकुलर ताकतों और पार्टियों के हाथ भी मासूमों के खून से सने हैं | जिन्हें इस बात पर ज़रा भी संदेह है वो 1947 के बाद के भारतीय इतिहास के पन्ने पलट के नज़र डाल लें !
कल रामनौमी है अर्थात आज उसकी पूर्व संध्या कही जा सकती है | रामनौमी अर्थात बजरंगबली का दिन | रामनौमी अर्थात धर्मध्वजा की स्थापना का दिन | बचपन को याद करता हूँ तो यह दिन दो वजहों से खास तौर पर याद आता है | पहला कि उस दिन किसी भी घर में मांस-मछली नहीं बनता था और दूसरा कि पूजा के बाद खाने के लिए लडुआ ( एक खास प्रकार का घर में बनाया लड्डू ) मिलाता था | इन दोनों वजहों में धर्म कहाँ है, मुझे नहीं मालूम | तब कहाँ पता था कि धर्म इतना मासूम नहीं होता |
अन्य धर्मों के मुकाबले हिंदू धर्म ज़्यादा सहिष्णु है ऐसा अक्सर ही पढ़ने-सुनने में आता है | ये बात और है कि हर धर्म के अनुयायी उस धर्म को सबसे ज़्यादा सहिष्णु और यहाँ तक कि वैज्ञानिक घर्म तक घोषित करने में तनिक भी नहीं हिचकते | टीवी डिबेट देखिये लोग आतंकवाद तक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने से नहीं शर्माते ! कहा भी गया है – जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी !!
एकाएक मन किया चलो कल रामनौमी है तो आज शहर घूमा जाय | देखें तो सही आदिवासी लैंड झारखण्ड की राजधानी इस पर्व को कैसे मनाती है | बाहर निकला तो कांके रोड से बिरसा कृषि विश्विद्यालय की तरफ़ चल पड़ा | मुझे बताया गया कि बीच में कहीं अस्त्र-शस्त्र संचालन प्रतियोगिता का आयोजन होता है, जहाँ अलग-अलग दल आके अस्त्र-शस्त्र संचालन का प्रदर्शन करते हैं और  पुरस्कृत होते हैं | लगभग ग्यारह बजे प्रातः का समय था | वैसे गर्मी के दिन में इसे प्रातः कहना उचित नहीं | मैं अपने दुपहिया का कान ज़ोर से अमेठता अस्त्र-शस्त्र प्रतियोगिता आयोजन स्थल की ओर चल पड़ा | रास्ते में लाल रंग के बड़े-बड़े पताके (तिकोना झंडा) बड़े-बड़े और ऊँचे बांस के सहारे खूब ऊँचे हवा में फहरा रहे थे और उन पर राम भक्त हनुमान विराजमान हो हवा में फुर्र-फुर्र उड़ रहे थे |  मुझे अपना गाँव याद हो आया जहाँ रामनौमी की शाम किसी ऊँची छत से गाँव को निहारना एक अलग ही अनुभूति का हिस्सा हुआ करता था | लगभग हर घर में खूब ऊँचे-ऊँचे बांस के सहारे पताका फहरा रहा होता था | खुला आसमान, फहराते लाल-लाल पताके और खपड़ैल घरों से उठता धुआं | उसे निहारना एक काव्यात्मक अनुभव हुआ करता था और इस काव्यात्मकता में धर्म कहीं नहीं था |
खैर, आगे बढ़ा तो पाया कि झंडे तो एक से एक हैं पर रंग बहुतेरे हो गए हैं | हनुमान अब केवल लाल रंग के नहीं रहे | वो केसरिया, नीला, पीला आदि पता नहीं कितने रंग से भर गए थे पर हरा नहीं था कहीं भी | अब ये हरे रंग का झंडा कहीं क्यों नहीं लगा था इस सवाल का जवाब देनेवाला कोई नहीं था | वैसे शायद जवाब की ज़रूरत नहीं है, हम सब जानतें हैं | अब जानबूझकर अनजान बने रहने का अभिनय करें तो बात और है |
बड़े-बड़े कटआउट में हनुमान अपनी छाती फड़के राम और सीता का दर्शन करा रहे थे | तो कहीं राम बाल लहराते राम जन्मभूमि – बाबरी मस्ज़िद विवाद की याद ताज़ा कर रहे थे | कल एक बुज़ुर्ग कह रहे थे कि अब अयोध्या नाम लेते ही डर लगता है | रुकिए एक बहुत पुराना चुटकुला याद आ रहा है | एक ने पुछा – सबसे पहला मार्क्सवादी कौन था ? दूसरे ने जवाब दिया – हनुमान, क्योंकि वो कच्छा भी लाल रंग का पहनते थे |
अस्त्र-शास्त्र प्रतियोगिता स्थल पर पहुंचकर जो कुछ भी देखा उसे कैसे परिभाषित करूँ समझ में नहीं आ रहा | ढेर सारे लोग एक बड़े से गोल दायरे में जमा थे और बीच में नुक्कड़ नाटक के प्रदर्शन नुमा एक परफोर्मेंस चल रहा था | जिसका मूल मन्त्र ये था कि पाप और शैतान से मुक्ति चाहिए तो बजरंगबली का मंदिर बनाना और उनकी आराधना करना ज़रूरी है | इस आग्रह से मुझे व्यक्तिगत तौर पर कोई आपत्ति नहीं पर यहाँ यह बात आग्रह पूर्वक नहीं बल्कि डराकर कही जा रही थी | जो प्रस्तुति दिखाई जा रही थी वो पूरी तरह से अंधविश्वासों पर आधारित थी | एक बीस साल का लड़का इस प्रदर्शन में शैतान बना था | उसके पूरे शरीर पर काला रंग पोत दिया गया था और उसे सांप खाते हुए दिखलाया जा रहा था | जी हां, ज़िंदा सांप, सचमुच का सांप | उसने मेरी आँखों के सामने दो ज़िंदा सांपों को अपने दांतों से काट दिया | एक सांप के कुछ टुकड़ों को तो वो खा भी गया | फिर आम आदमी बने कुछ अभिनेताओं ने हनुमान से गुहार लगाई | हनुमान प्रकट हुए और उसने उस शैतान का वध कर दिया और धर्म की स्थापना कर दी | फिर कुछ देर तक तलवार और लाठी के सहारे असत्य पर सत्य की विजय की कहानी दिखाई गई | वहां बहुत कुछ और चल रहा था | लगे हाथ उस प्रस्तुति में इस्तेमाल की जा रही भाषा पर भी कर लेतें हैं | उस पर बस इतना कह देना काफी होगा कि संवादों में कब हनुमान स्त्रीलिंग और कब पुल्लिंग हो जा रहे थे पता ही नहीं चल रहा था | वैसे हम कह सकतें हैं कि भाषा हिंदी थी | सबका निचोड़ ये कि धर्म के नाम पर की गई हत्या, हत्या नहीं कहलाती |
एक नाटक खुलेआम लोगों में अंधविश्वास को बढ़ावा और धर्म के नाम पर हत्या करने की प्रेरणा दे रहा था और किसी को इसकी कोई चिंता नहीं | वहां न प्रशासन का कोई आदमी था ना ही समाज का ठेका अपने सड़े कंधों पर उठाये कोई समाज का ठेकेदार | अरुण गोबिल को राम माननेवाली जनता तो हिंसा और नफ़रत से भरे इस प्रदर्शन को देखकर गदगद थी | कैसे इस मुल्क में किसी एक व्यक्ति के आह्वान पर लोग रामराज स्थापित करने के लिए एक खास समुदाय को समूल नष्ट करने को तत्पर हो जातें है, ये सब देखने के बाद बहुत कुछ समझ में आ जाता है |
क्या यह शक्ति प्रदर्शन था ? क्या यह भक्ति प्रदर्शन था ? क्या ऐसे आयोजन अन्य धर्म या समुदाय के लोग नहीं करते ? गौर करिये, दूध का धुला कोई नहीं है | बहरहाल, कल रामनौमी है और शहर के पुलिसकर्मियों को तैनात रहने को कह दिया गया है कि कहीं कुछ गडबड न हो जाए ! पर्व चाहे हिंदू का हो, मुसलमान का हो, आदिवासी का हो या किसी और का, गडबड़ी की संभावना रहती ही है !

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