भारत उत्तराखंड प्राकृतिक सह मानवनिर्मित त्रासदी
से गुज़र रहा है ठीक उसी वक्त भारतीय क्रिकेट टीम चमत्कारिक रूप से आखिरी चैम्पियंस
ट्राफी जीत लेती है. इस बार की भारतीय क्रिकेट टीम को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे
उसे रामायण के बाली जैसा वरदान मिला हो कि जो भी उसके सामने आएगा उसकी आधी शक्ति
का हरण हो जाएगा. तभी तो अच्छी से अच्छी टीम भारतीय दल के सामने आके क्लब के टीमों
जैसा व्यवहार करने लगी तो संदेह होने लगा कि टीम इंडिया को आखिर किसका बरदान
प्राप्त हो गया जिसने ये लिख दिया कि चैम्पियंस ट्राफी की आखिरी चैम्पियन टीम
इंडिया ही होगी.
सार्वजनिक है कि इंग्लैड की टीम क्रिकेट के लंबे
फोर्मेट में ज़्यादा कम्फ्ट महसूस करती है, जिसे जबरन 20-20 का मुकाबला खेलवाया गया. उसी दिन ही
विजेता का फैसला कर लेना क्या निहायत ज़रुरी ही था ? चैम्पियंस ट्रॉफी विश्व कप के
आयोजन के बाद विश्व क्रिकेट के एकदिन प्रारूप का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन है. बरसात
के सीजन ध्यान रखते हुए क्या यह ज़रूरी नहीं हो जाता है कि कम से कम फाइनल जैसे
महत्वपूर्ण मुकाबले के लिए रिज़र्ब डे रखा जाता. 50 ओवर का मुकाबला 20-20 ओवर खेलकर कोई जीते
यह बात आज के ज़माने में जब टी 20 का प्रारूप आ चुका है, पचा पाना किसी भी क्रिकेट
प्रेमी के लिए ज़रा सांप-छुछुंदर हो जाता है. ध्यान रहे मैं क्रिकेट प्रेमियों की
बात कर रहा हूँ, दीवानों और क्रिकेट से कमाई करनेवालों की नहीं.
“आईपीएल में जो कुछ भी हुआ उसका पाप धोने का एक
संक्षिप्त तरीका था ये कि भारतीय टीम को किसी भी तरह चैम्पियंस ट्रॉफी जितवाया
जाए, ताकि कमज़ोर यादाश्तवाले भारतीय जनता का विश्वास एक बार पुनः क्रिकेट में वापस
लाया जा सके.” कुछ क्रिकेट प्रेमी आलोचकों का यह कथन अतिवाद हो सकता है पर विश्व
क्रिकेट की वर्तमान हालत देखते हुए पूर्णतः निराधार नहीं माना जा सकता. किसे नहीं
पता कि भारत आज क्रिकेट का सबसे बड़ा मार्केट है. हो सकता है कि यह मात्र एक शंका
हो पर यह शंका अपने चाहनेवालों के दिल में किसने पैदा किया ? पैसे और शोहरत की
लालच में कौन आज कुछ भी करने और कुछ भी बेचने को तैयार है ?
बहरहाल, विजेता टीम इंडिया ने शैंपेन की बोतलों
के बीच बार्मिघम (इंग्लैड) के एक होटल में पुरी रात पार्टी में मस्त रही. जीत का
जश्न मनाया, हिंदी-पंजाबी गानों पर नृत्य किया. यह सब उस वक्त हो रहा है जब केदारनाथ
में हज़ारों लोग ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं. खैर यहाँ केवल क्रिकेटरों को दोष
देना उचित नहीं सेना और कुछ एनजीओ को छोड़ दें तो समाज के लगभग सारे ही हिस्से का
हाल यही है. जो जहाँ हैं वहीं से क्रांति, परिवर्तन और नैतिकता का कानफाडू ‘हुयां-हुयां’
जारी रखे है. सब अपने आपको नैतिकता का पुजारी घोषित करने में लगे हैं और नैतिकता
की हालत अबरा की मौगी सबकी भौजी वाली ही गई है. कह सकते हैं कि उदारीकरण,
बाज़ारीकरण, निजीकरण, तकनीकीकरण आदि कारणों के बीच यह नैतिकता के पतन का युग भी है.
और इससे कोई भी अछूता नहीं है, कोई भी नहीं. नेता, अभिनेता, साहित्यकार, रंगकर्मी,
फिल्मकार, पत्रकार, जज, वकील, बाबू आदि आदि. हर कोई अपने को नैतिक और दूसरे को
अनैतिक मानकर चलता है. क्रांतिकारी जमात का ध्यान अब क्रांतिकारिता पर कम फ़तवेबाज़ी
पर ज़्यादा है. वो अपने अलावा हर चीज़ को नकार देना चाहते हैं. इनके लिए केदारनाथ त्रासदी
एक धार्मिक पागलपन और उन्माद और क्रिकेट एक बुर्जुआ खेल से ज़्यादा कुछ नहीं है. जो
हज़ारों लोग मरे वो इनके लिए बुर्जुआ और सामंत, अंधविश्वासी आदि संज्ञाओं से ज़्यादा
कोई महत्व नहीं रखते. किसी बुर्जुआ की कमाई पर पलते और क्रांति का रट्टा मारते-मारते
ये बेचारे भूल जातें हैं कि इनका खुद का घर और भारत की ज़्यादातर जनता की मानसिकता आज
भी बुर्जुआ और सामंती है. क्रांति के ये नए चितचोर जनता का विश्वास तर्क से कम बल
से ज़्यादा हासिल करने में विश्वास करते हैं. अक्ल बड़ी की भैंस में अब इनका जवाब
भैंस होता है क्योंकि भैंस तात्कालिक और शारीरिक रूप से ज़्यादा ताकतवर दिखाती है
और उसका रंग भी काला है और काला अपने आपमें विरोध का प्रतीक है. लाल और काले के
मिश्रण से ही तो क्रांति संभव है, अब !
सब अपने आपको नैतिकता का पुजारी घोषित करने में लगे हैं और नैतिकता की हालत अबरा की मौगी सबकी भौजी वाली ही गई है.
ReplyDeletevery right view .
क्रांतिकारी जमात का ध्यान अब क्रांतिकारिता पर कम फ़तवेबाज़ी पर ज़्यादा है.---सत्यवचन!
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