झारखण्ड घरेलू नौकरों
की सप्लाई और मानव तस्करी का एक अड्डा बन गया है. यहाँ गरीब आदिवासियों को घरेलू
नौकर बनाने के नाम पर एक बड़ा धंधा पिछले कई दशक से निर्वाध रूप से चल रहा है. चल
ही नहीं बड़े ज़ोरों से फल फूल भी रहा है. इसे किसी का संरक्षण प्राप्त नहीं है ऐसा आज
के युग में कोई मुर्ख भी मानने से बचता है.
नाबालिक गरीब आदिवासी
लड़कियां इसके आसान शिकार बनाई जा रही हैं. काम दिलाने के नाम पर इन्हें राज्य और
देश कि सीमाओं से बाहर के नगरों-महानगरों तक ले जाया जाता है, जहाँ ये अमानवीय स्थितियों में काम करने और जीने को अभिशप्त होती हैं. जिन
घरों में ये काम के नाम पर कैद कर दी जाती हैं वहां उनके मालिक अमूमन इनके साथ
कैसा बर्ताव करते हैं, यह आए दिन अख़बारों में पढने को मिलाता
रहता है. इसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है.
करीब 6 हज़ार आदिवासी लड़कियों के लापता होने की सूचना पुलिस रिकार्ड में है.
वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी इस बात पर शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो.
कमाल तो यह है कि इस समस्या से उबरने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने
कई गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को प्रति व्यक्ति 19,400 रुपये
के हिसाब से पैसों का भुगतान किया. उन्होंने इसे कंट्रोल करने के नाम पर उल्टे
घरेलू नौकर बनाने का ही काम किया, वो भी सरकारी पैसे से. इन
संस्थाओं ने राज्य और केंद्र को गलत रिपोर्टे सौंपी. फर्ज़ी प्रशिक्षणार्थियों के
नाम लिखकर पैसे निकाले. कई संस्थाओं ने तो प्रशिक्षण दिया किसी और को, नौकरी का रहा है कोई और, नौकरी भी कैसी-घरेलू नौकर
की. हद तो ये है कि ये संस्थाएं आगे भी प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की इजाज़त मांग
रहीं हैं. उनमें से कुछ को गर इजाज़त मिल जाए तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
ये संस्थाएं दावा ठोक रहीं हैं कि इन्होनें 10 हज़ार से भी
अधिक युवाओं को नौकरी दिलवाई है. कहाँ और कैसी नौकरी इसका शायद ही कोई सही रिकार्ड
इनके पास हो.
एक खबर के अनुसार इन
संस्थाओं को अब तक 300 करोड़ से भी अधिक की राशि का
भुगतान किया जा चुका है. इसमें किसी सरकारी कर्मचारी और अफसरों ने कोई घूस नहीं खाई
होगी, ऐसा मानने का दिल नहीं करता.
देश की राजघानी दिल्ली
समेत कई नगरों-महानगरों के अख़बारों में तो बाजाब्ता विज्ञापन छपता है कि अगर आपको
आदिवासी नौकरानी चाहिए तो संपर्क करें. नीचे पता और फोन नंबर भी होते हैं. कहने का
अर्थ यह कि ये सब खुलेआम चल रहा है और कानून के लंबे हाथ यहाँ तक केवल ‘चंदा’
वसूलने के लिए पहुंचते हैं.
अंधाधुंध विकास की इस
अंधी दौड़ ने सबसे ज़्यादा अगर किसी चीज़ का नुकसान किया है तो वो है - मानवता. विकास
के नाम पर इन आदिवासियों को इनके जल, जंगल और ज़मीन से बेदर्दी के साथ खदेड़ा जा रहा
है. वहां से अलग होकर विस्थापन की मार झेलते इन सरल-सहज लोगों के पास दैनिक मज़दूर
और घरेलू नौकरानियां बनाने के सिवा चारा ही क्या बचाता है ? यह एक विडंवना है.
सरकार और मानव निर्मित विडंबना.
प्रतिकार करनेवाले को
विकास विरोधी का तमगा पहनाकर ‘उग्रवादी’ की संज्ञा से विभूषित कर, एक आसान शिकार बना
देना एक परम्परा है, जिसका निर्वाह कानूनी तौर पर, बड़ी शिद्दत के साथ किया जा रहा
है. आदिवासी शासित और पोषित झारखण्ड में न जाने कितने आदिवासी झूठे मुकदमें में
जेलों में कैद कर दिए गए है. ये खुशकिस्मत है कि इन्हें अब-तक किसी इनकाउंटर में
मारा नहीं गया.
जो भी है, जैसा भी
है, झारखण्ड की एक कड़वी सच्चाई यह भी है. हम माने या न माने. वैसे किसी के मानने
या न मानने से सच झूठ में नहीं बदल जाता.
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