देखता हूँ कि एक
चौराहे पर एक कलाकार माइक पर स्थानीय भाषा में किसी लोकगीत की पैरोडी गा रहा है,
उसके बगल में दो स्त्रियां कठपुतलियों को नचाने की कोशिश में लगी है, एक नाल वादक ज़मीन
पर उकडू सा बैठा गीत के साथ ताल मिला रहा है और पीछे पार्टी का बड़ा सा बैनर लगा है
जिसमें एक खास पार्टी के उम्मीदवार को (बिना कोई खास कारण बताए) वोट देने का
निवेदन है । फैशन के अनुसार बैनर पर उम्मीदवार की हाथ जोड़े फोटू भी है ।
बगल
में एक छोटी ट्रक नुमा गाड़ी खड़ी है जिस पर जनरेटर और माइक सेट लगा है । कलाकार इसी
में बैठकर एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचता है । हां, कुछ पानी के पुराने बोतल और
कपड़े भी रखे हैं । गाड़ी बाहर से पुरी तरह से बैनर से सजी है । कलाकार वहां कुछ गीत
गाता है, बीच में एक छुटभैया नेता गीत सुन रहे लोगों के रस में अपने भाषण से विघ्न
डालता है । भाषण से लोग जैसे ही बोर होते हैं कि गीत और कठपुतली नाच शुरू हो जाता
है । अलग-अलग चौराहे पर यह पूरा दिन चलता रहेगा । इन कलाकारों को देखकर ही यह साफ़
पता लगाया जा सकता है कि उन्हें यह काम करते हुए बहुत मज़ा नहीं आ रहा हैं !
चुनाव का वक्त है, हर
पार्टी प्रचार-प्रसार में लगी है । अखबार, टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट आदि के
अलावा नुक्कड़ नाटकों, गीतों आदि का सहारा भी लिया जा रहा है । कुछ पार्टियों के
पास अपने सांस्कृतिक दल है जिसे चुनाव के दिनों में पार्टियां अपने चुनाव प्रचार
में लगाती हैं, यह बात इतर है कि बाकि दिनों इन पार्टियों को कला-संस्कृति से कोई
ख़ास मतलब नहीं होता । पार्टियों के सांस्कृतिक प्रकोष्ठों में अनुशासन और
विचारधारा के नाम अकलात्मक माहौल बनाया जाता है लेकिन यह पार्टियां अमूमन अपने
किसी भी सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता का दायित्व उठाने को तैयार नहीं होती । ऐसे में
इन कलाकारों के पास निम्न रास्ते बचते हैं - ये पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता बन जाएँ
और सांस्कृतिक दायित्वों के अलावा भी कई सारे और कामों में अपने को उलझा ले, पेट
चलाने के लिए कोई और काम करें और साथ में अपने कलात्मक जूनून को ज़िंदा रखें और यह
सब त्यागकर या तो किसी एनजीओ में चला जाएं या फिर मुंबई की गाड़ी पकड़ लें और फ़िल्मी
दुनियां में दोयम दर्ज़े के नागरिक बन जाएं ।
जिन पार्टियों के पास
अपना सांस्कृतिक प्रकोष्ठ नहीं है वे प्रोफेशनल्स या स्थानीय कलाकारों को बुलाकर
चुनाव प्रचार में लगा रहे हैं । इन कलाकारों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं दी जाती ।
कहीं कहीं तो मामला केवल खाने-पीने तक सिमट जाता है तो कहीं यह भी ठीक से नहीं
दिया जाता । तो कई कोई व्यक्ति इन कलाकारों का मुखिया बन जाता है और कलाकारों को प्रसादनुमा
कुछ खिला-पिलाकर सारा पैसा खुद डकार जाता है । यह स्थिति तब है जब एक पार्टी चुनाव
प्रचार पर करोड़ों रूपया तक खर्चा कर रही है । पार्टियां एलबम निकाल रहीं है,
विज्ञापन बना रही हैं लेकिन उसमें काम करनेवाले कलाकार उपेक्षित हैं ।
देश और समाज में,
खासकर हिंदी प्रदेशों में कला और कलाकार की स्थिति लगभग अनचाहे बच्चे जैसी ही है ।
यह कलाकारों का जूनून ही है जो इन प्रदेशों में आजतक कला का वजूद है । सरकारें और
सरकारी नीतियों ने तो इन्हें लुप्त प्रजाति में शामिल करने में कोई कोर-कसर नहीं रख
छोडीं हैं । यहाँ पारम्परिक और रंगमंच के कलाकारों की बात हो रही है, फ़िल्मी
कलाकारों का मामला एकदम दूसरा है । वैसे अभी हाल ही की तो बात है जब रैली और रैला
में रात-रात भर लौंडा और बाईजी का नाच होता था । बदले में इन कलाकरों को क्या
मिलता है, यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं ।
कला और संस्कृति का
दायरा व्यापक है इसे केवल नाटक, नृत्य, संगीत, साहित्य आदि के ही संदर्भ में नहीं
देखा जाना चाहिए । कला और संस्कृति किसी भी सभ्य समाज का आईना होता है । अब किसी
भी पार्टी का चुनाव घोषणापत्र उठाकर देखिए क्या कला और संस्कृति का कहीं ज़िक्र तक है
? यदि नहीं तो क्या यह एक खरतनाक बात नहीं है ? बिना कला-संस्कृति के क्या मानव और
मानवीय जीवन की परिकल्पना की जा सकती है ? इन बातों की चिंता किसे है, नेता और
पार्टियां तो परिवारवाद, अवतारवाद, जातिवाद,
ग्लैमरवाद, क्षेत्रवाद, व्यक्तिवाद, समुदायवाद,
सम्प्रदायवाद, सेकुलरवाद आदि की लहर चलाने में व्यस्त है और
जनता इन लहरों में गोते लगाने को !
विभिन्न पार्टियों की
सांस्कृतिक शून्यता का एक और नमूना देखना हो तो इनके भाड़े या जबरन के प्रचार
गाड़ियों पर बजनेवाले गीतों को ज़रा गौर से सुनिए । यह अमूनन किसी फ़िल्मी या
पारंपरिक गीतों की तुच्छ सी पैरोडी होती है । कई बार तो ऐसे-ऐसे गानों की पैरोडी
सुनने में मिलती है जिसका मूल गाना याद आते ही हंसी छूट जाती है । इन पार्टियों के
पास एक अच्छा गीतकार, संगीतकार तक नहीं जो मूल रच सके । सुना है चुनाव के समय
छोटे-छोटे स्टूडियो सीडी तैयार करने का ठेका लेते हैं । कई बार तो एक ही स्टूडियो
में कई-कई पार्टी का प्रचार सीडी तैयार होता है । तो कई बार एक ही एंकर की आवाज़ दो
अलग-अलग पार्टियों की सीडी में पाई जाती हैं । बहरहाल, केवल राजनीति
को कोसने से क्या होगा ? समाज और व्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं । जैसा समाज वैसी
व्यवस्था और जैसी व्यवस्था वैसा समाज । समाज की ज़िम्मेदारी केवल वोट देना नहीं
होता वहीं व्यवस्था का काम केवल राज करना नहीं होता बल्कि सुन्दर, कलात्मक, मानवीय
और वैज्ञानिक समाज गढ़ने की दिशा में अग्रसर होना भी होता है । यदि ऐसा नहीं हो रहा
तो आखिर ज़िम्मेदार कौन है ? सारी ज़िम्मेदारी किसी और पर डाल देने से पहले एक सवाल
अपनेआप से भी करना चाहिए कि क्या हमने कभी कला-संस्कृति की कभी चिंता की ? चीज़ें
विलुप्त हो जाएं उससे पहले हम सचेत हो जाएं तो अच्छा है, नहीं तो “अब पछताए का होत
जब चिड़िया चुग गई खेत ।”
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