Saturday, February 4, 2017

अनिल ओझा : गुरु वह जो शालीनता से चुपचाप गढ़ता हो।

हम सबकी ज़िन्दगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो लगते साधारण हैं लेकिन वो बड़ी ही शालीनता और निःस्वार्थ भाव से आपकी ज़िंदगी को एक सार्थक दिशा देते हैं। किसी ने सही ही कहा है कि हर व्यक्ति गुरु होता है, हम हर किसी से सीख सकते हैं। कोई हमें यह सिखाता है कि क्या करना चाहिए तो कोई हमें यह सीखा जाता है कि क्या नहीं करना चाहिए।
सच्चा गुरु वह है जो आपकी आज़ादी (अराजकता नहीं) और प्रतिभा को विस्तार दे, सत्य का मार्ग दिखाए और सही राह पकडाकर अपने पैरों से चलने को स्वतंत्र कर दे, वह नहीं जो किसी भैंस-गाय की तरह आपके गले में पगहा डाल दे और कहे कि कोल्हू के बैल की तरह ज़िन्दगी भर मेरे आगे पीछे गोल-गोल घूमते रहो।
बाबा कबीर कहते हैं गुरु बिना ज्ञान संभव नहीं। नाट्यकला के क्षेत्र में रंग-चिंतक और प्रशिक्षक स्तानिस्लावस्की का यह कथन न केवल मार्गदर्शन करता हैं बल्कि हार्ड कोर संविधान जैसा ही है। वो कहते हैं - "अध्यापक या प्रशिक्षक को, चाहे वह कितना भी पढ़ा - लिखा क्यों न हो और रंग - प्रदर्शन के विविध स्वरूपों का चाहे उसने कितना ही अभ्यास क्यों न कर रखा हो, चाहे वह रंगकर्मी वयोवृद्ध क्यों न हो गया हो, यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि वह कोई बहुत बड़ा अथवा महामहीम व्यक्ति है। उसे छात्र अभिनेताओं को अपना मित्र, अपना बंधु, अपना आत्मीय समझना चाहिए। उसके विचार और आचार में सहज सामंजस्य होना चाहिए। यह ज़रूरी है कि वह अपने कार्य के प्रति पूर्णतः समर्पित हो। उसके छात्र अभिनेताओं को यह कभी नहीं लगना चाहिए कि कोई वरिष्ठ व्यक्ति आदेशात्मक रूप में उनसे कुछ कराना चाहता है। उसके कथन और कार्य में कुछ ऐसा समन्वय होना चाहिए कि जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, वह दूर से चलकर आए और छात्रों के मन में सहज रूप से संप्रेषित हो जाए।" (स्तानिस्लावस्की peoples and method of creative art.)
सही उम्र, सही स्थान और सही समय पर कोई सच्चा मार्गदर्शक मिल जाए तो ज़िन्दगी सार्थक हो जाती है और कहीं गुरु-घंटालों के चंगुल में फंस गए तो गई भैंस पानी में।
अनिल ओझा मुझे उस उम्र में मिले जब मैं अराजकता की ओर क़दम बढ़ा रहा था। उन्होंने मुझे मानव जीवन और मानवीय व वैज्ञानिक विचार का सही अर्थ केवल प्रवचन मात्र से नहीं बल्कि साथ जी कर बताया। जब लगा कि मैं समझने लगा हूँ तो सही राह दिखाई और बिना कुछ बोले ही कह दिया कि चलते जाओ साथी। इस संघर्ष की शायद कोई मंज़िल नहीं बल्कि रस्ते ही रास्ते हैं। वैसे जब कभी परेशान होता हूँ तब पापा कहते हैं - "संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष करो और आगे बढ़ो।"
अनिल की ज़िंदगी बड़ी छोटी थी और एक सड़क दुर्घटना ने उन्हें हम सबसे शारीरिक रूप से जुदा कर दिया लेकिन विचार कभी नहीं मरता, यह भी सच है।अनिल के विचार हम जैसे अनगिनत लोगों के अंदर आज भी ज़िंदा हैं और हर मुश्किल में राह दिखाता है और मुश्किल से मुश्किल समय में भी शालीनता से संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। आज भी जब कभी स्वार्थी बनकर सोचता हूँ तो अनिल फटकार लगा देता है जैसे बोल रहा हो फिर तुम वो नहीं रह जाओगे जो तुम हो। गांधीजी का अंतिम जन ही मार्क्स का सर्वहार है, उसकी फ़िक्र किए बिना दुनियां की कोई भी कला व्यर्थ जैसा ही कुछ है। दारियो फ़ो कहते है - जो कला अपने समय से साक्षात्कार नहीं करता, वह निरर्थक है।
अनिल की ज़िंदगी लम्बी के हिसाब से बड़ी ही छोटी थी लेकिन ज़िन्दगी कितनी लंबी है यह ज़रूरी बात नहीं है बल्कि ज़रूरी यह है कि वह कितनी सार्थक है।
अनिल, निःस्वार्थ और बिंदास जिए और अपने निहायत ही छोटे से जीवन में मुझ जैसे ना जाने कितनों को सही राह दिखा गए। सलाम साथी। तुम हमारे दिलों पर राज करते हो। तुम हमारे अंदर सांस लेते हो।

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