Monday, November 13, 2017

पद्मावती : नकली आहत भावनाएं

जो समाज जितना ज़्यादा डरा, सहमा, सामंती, नकली और कूढ़-मगज होता है; उसकी भावनाएं उतनी ज़्यादा आहत होती है। ज्ञानी आदमी कौआ और कान वाली घटना में पहले अपना कान छूता है ना कि कौए के पीछे दौड़ पड़ता है ।
फ़िल्म इतिहास की किताबें नहीं होती। कोई भी सिनेमा कितना भी ऐतिहासिक होने का दवा प्रस्तुत करे लेकिन वो पूर्णरूपेण ऐतिहासिक तो कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि कोई भी कला चाहे वो कितना भी यथार्थवादी होने का भ्रम पैदा करे, यथार्थ और कल्पना के प्रयोग से जन्म लेता है। बिना काल्पनिकता का सहारा लिए किसी भी कला की उत्पत्ति संभव ही नहीं है, और फ़िल्म जैसी विधा का तो बिल्कुल ही नहीं। फ़िल्म का एक एक फ्रेम कल्पित किया जाता है और फिर अभिनय सहित कई अन्य माध्यमों से हर दृश्य में प्रभाव पैदा करने की चेष्टा की जाती है। इसलिए सिनेमा पूरी तरह से एक काल्पनिक माध्यम है। चरित्रों के नाम ऐतिहासिक रखना और कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को आत्मसाथ कर लेने मात्र से सिनेमा इतिहास की किताब नहीं हो जाती। जो लोग सिनेमा में इतिहास खोजते हैं वो मूढ़ हैं। इतिहास इतिहास की किताबों में खोजो, अगर किताबों से वास्ता हो तो। कुछ नहीं तो कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में पद्मावत ग्रंथ रूप में लिखी है, वही पढ़ लिया जाए। यह गर्व नहीं बल्कि शर्म की बात है कि अपने इज़्ज़त(?) की रक्षा के लिए किसी देश में स्त्रियों को जौहर (ख़ुद को ज़िंदा जला देना) करना पड़े। क्या किसी ने कभी यह सुना है कि किसी मर्द ने जौहर किया हो या अपनी पत्नी से साथ सती/सता हो गया हो? तो क्या इज़्ज़त केवल औरतों के पास होती हैं और मर्द इज़्ज़त का घोषित रखवाला या लूटेरा होता है? वैसे पद्मावती का इतिहास मिलना मुश्किल है। 1540 में लिखित जायसी के काव्य में इनका ज़िक्र आता है लेकिन यह इतिहास है या मिथ, पता नहीं। वैसे भी जायसी खिलजी के 240 साल बाद इस काव्य की रचना कर रहे होते हैं। लेकिन एक ऐसे देश में जहां ऐतिहासिक प्रमाणिकता के बजाय मिथ और विश्वास का स्थान ज़्यादा पवित्र माना जाता है वहां तर्क से ज़्यादा भक्ति का राज चलता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भक्ति के लिए मनुष्य मूर्खता की पराकाष्ठा पार कर सकता है।
कोई भी फ़िल्म किसी ऐतिहासिक चरित्र, घटना आदि से जुड़ा नहीं कि इस देश में कोई ना कोई तबका हाय-हाय करने लगता है। इसीलिए आजतक इतिहास, ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं पर अमूमन लोग फ़िल्म या कलात्मक अभिव्यक्ति से बचते हैं। भैंस के आगे कौन बीन बजाए!
वैसे दशरथ मांझी के ऊपर फ़िल्म बनी। निश्चित रूप से फ़िल्म एक फैंटेसी ही थी लेकिन किसी ने सुना कि माझी लोगों ने तलवार निकाल ली हो या फ़िल्म के ख़िलाफ़ कोई फतवा जारी किया हो या फ़िल्म के सेट को तोड़ा हो या कोट कचहरी के चक्कर लगाए हों। सच ही कहा है किसी ने कि रस्सी जल गई लेकिन ऐंठन नहीं गई। वैसे पता नहीं किस बात का ऐठन है? कई सौ साल मुगल राज किए, तो कई सौ साल अंग्रेज लूटते रहे देश को!!! आज भी भारत का लगभग पूरा मार्केट विदेशी कब्ज़े में है। सब इतने ही "सुपरहीरो" होते हैं तो फिर यह सब क्यों हुआ ?
वैसे इस फ़िल्म के ट्रेलर देखें हैं। एक से एक वाहियात डॉयलोग हैं। माना कि सिनेमा लार्जर देन लाइफ़ माध्यम है लेकिन इतना संवादों भी वाहियातपना उचित नहीं।

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