Wednesday, February 7, 2018

नाटक बिदेसिया का एक किस्सा

1980 का दशक था। उस वक्त भिखारी ठाकुर लिखित और संजय उपाध्याय निर्देशित बिदेसिया नाटक तीन घंटे से ऊपर का हुआ करता था। 25 मिनट का तो पूर्व रंग हुआ करता था अर्थात् बिदेसी, बटोही, प्यारी सुंदरी और रखेलिन की कथा नाटक शुरू होने के 25 मिनट बाद ही शुरू हुआ करता था। अब तो पता नहीं कैसे यह भ्रम व्याप्त हो गया है कि डेढ़ घंटे से ज़्यादा का नाटक कोई देखना ही नहीं चाहता जबकि अभी भी कई शानदार नाटक ऐसे हैं जिनकी अवधि ढाई घंटे के आसपास है। अभी हाल ही में रानावि रंगमंडल ने दो मध्यांतर के साथ 6 घंटे का नाटक किया और लोगों ने भी छः घंटा देखा। अभी हाल ही में कई शानदार फिल्में आईं हैं जो तीन घंटे की हैं। आज भी गांव में लोग रात-रात भर नाटक (!) देखते हैं। तो शायद दोष लोगों यानी दर्शकों का नहीं है; शायद अब कलाकारों (लेखक, निर्देशक, परिकल्पक, अभिनेता आदि) में ही वह दम खम नहीं है कि वो डेढ़ घंटे से ज़्यादा वक्त तक लोगों में रुचि बनाकर रख सके।
बहरहाल, 80 के दशक में भी बिदेसिया के सारे प्रदर्शन टिकट लगकर किया जाता था लेकिन तब भी शो हाउसफुल हुआ करते थे। बहुत से लोग इस नाटक के फैन हो गए थे। वो किसी भी प्रकार इसका सारा शो देखना चाहते थे। पटना में कुछ तो ऐसे भी थे जो पूरे परिवार के साथ हर संभव प्रयास करके नाटक के सभागार में चले आते थे। खैर, मूल किस्सा यह है कि नाटक में प्यारी सुंदरी का किरदार करनेवाली अभिनेत्री के परिवार वाले कुछ शर्तों के साथ अभिनय करने देने के लिए राज़ी हुए थे। तो हुआ यूं कि उस दृश्य में जब बिदेसी कलकत्ता से घर वापस आता है तो बिदेसी की भूमिका कर रहे पुष्कर सिन्हा ने उत्साह वश मंच पर आंख मार दिया जिसे सभागार में बैठे प्यारी सुंदरी की भूमिका कर रही अभिनेत्री के परिवारवालों ने देख लिया। फिर क्या था दूसरे दिन के शो में प्यारी सुंदरी ग़ायब। इधर शो का वक्त हो रहा था उधर प्यारी सुंदरी के घर पर जाकर कुछ लोग मनाने की चेष्टा कर रहे थे और बिदेसी के उस आंख मारनेवाली हरक़त के लिए शायद सफाई भी पेश कर रहे थे। उन्हें समझा रहे थे कि यह अभिनेता ने उत्साह में किया है इसके पीछे कोई और मंशा नहीं है। शो का वक्त क़रीब आ रहा था ऐसी स्थिति में एक निर्देशक और पूरी टीम की मनोदशा का अनुमान कोई भी संवेदनशील और कलात्मक मन लगा सकता है। कोई चारा ना देख आख़िरकार नाटक के निर्देशक संजय उपाध्याय ने एक निर्णय यह लिया कि प्यारी सुंदरी की भूमिका वो खुद करेंगें - संवाद, गीत और नाटक की ब्लॉकिंग तो लगभग उन्हें याद तो है ही। फिर क्या था, निर्देशक महोदय ने साया, साड़ी, ब्लाउज़ धारण किया या करने लगे। वो मानसिक रूप से तैयार तो हो ही गए थे अब आहार्य ही तो धारण करना था कि तभी नाटक की प्यारी सुंदरी हाज़िर हुई और उस दिन का शो सुचारू रूप से शुरू हुआ।

#बहुत_किस्से_हैं_कोई_लिखे_तो_सही ।

बहुत संकीर्ण है Toilet एक प्रेम कथा

कल Toilet एक प्रेम कथा नामक प्रोपेगेंडा फ़िल्म देखी। फ़िल्म देखने के पीछे का मूल कारण यह था कि ऐसी ख़बर थी कि फ़िल्म हमारे मित्र Bulloo Kumar अभिनीति फ़िल्म गुंटर गुटरगूँ की कॉपी है लेकिन इस बात में कोई खास दम नहीं है। Toilet एक प्रेमकथा एक निहायत ही ज़रूरी विषय पर बनी, पर वर्तमान प्रधानमंत्री की हवा हवाई नीतियों की चमचई करनेवाली एक सरदर्द फ़िल्म साबित होती है। यह चूरन की एक ऐसी गोली की तरह है जिसको खाते ही हवा निकलती है और चंद पलों के लिए पेटदर्द से आराम मिलता है लेकिन असल बीमारी जस की तस बनी रहती है। फ़िल्म भारतीय परंपरा और संस्कृति की बात करती है जिसमें आदिवासी, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, पंजाबी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन आदि के लिए कोई स्थान नहीं बल्कि RSS की संकीर्ण सोच की तरह मनुस्मृति और गीता ही सबकुछ है। फ़िल्म इतनी संकीर्ण है कि पूरे के पूरे फ़िल्मी गाँव में ऊपरी पायदान के विशिष्ट हिन्दू छोड़कर किसी अन्य के लिए कोई स्कोप तो दूर की बात दूर दूर तक कोई नामोनिशान तक नहीं है। बहरहाल, इतना घटिया प्रोपगेंडा फ़िल्म पहली बार देखी मैंने। अरे भाई प्रोपगेंडा फ़िल्म ही बनाना है तो पहले दुनियां की कुछ बेहतरीन प्रोपगेंडा फ़िल्म देख तो लेते और पलॉट तो सही चुन लेते। प्रधानमंत्री का प्रचार Tiolet के माध्यम से करना - शोभा देता है क्या ? लेकिन अंधभक्तों को क्या फर्क पड़ता है कि भक्ति का स्तर क्या है। एक सियार बोला नहीं कि सारे हुआँ हुआँ करने लगते हैं और इस फ़िल्म में तो भक्तों की ही फौज है। भक्त अनुपम खेर तो अपनी ज़िंदगी की सबसे वाहियात भूमिका में हैं। एक से एक घटिया जोक मारे हैं अनुपम चाचा ने। वैसे सही भी है कि कलाकार जब राजनीतिज्ञों या राजनीतिक पार्टियों का बंदर बन जाए तो उसे भांड़गिरी तो करनी ही पड़ती है। वैसे भी लोकतंत्र में व्यक्ति विशेष को इतना भाव देना ख़तरनाक होता है। इतिहास बताता है कि हिटलर चाचा को भी प्रोपगेंडा फिल्में बनवाने का बेहद शौख था।
वैसे सुना है फ़िल्म खूब कमाई कर रही है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि भारत में अच्छी फिल्में फ्लॉप और घटिया फिल्में खूब कमाई करने के लिए ही जानी जाती है। किसी ने सही कहा है कि भारत अच्छी कला - संस्कृति की कब्रगाह बन गई है। वैसे यह सोच बहुत दिनों से प्रचलन में है कि पहले इंसान के दिमाग को टॉयलेट के रूप में परिवर्तित कर दो फिर वो टट्टी तो अपने आप ही निगल लेगा।

बनारस का महाश्मशान

जन्म और मृत्यु इस जगत के अकाट्य सत्य हैं जो एक न एक दिन सबके साथ घटित होता है। अमीर-गरीब, छोटा- बड़ा, लंबा-नाटा, सुंदर-कुरूप, प्रसिद्ध-गुमनाम यहां सब एक समान हैं। आदमी ख़ाली हाथ आता है और ख़ाली हाथ ही जाता है। अब वो स्वर्ग में जाता है, नर्क में जाता है या इसी धरती पर भटकता है इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है और आस्था की बात क्या करना वो तो जन्मजात अंधी होती है। बाकी जीवन और मृत्यु के बीच का वक्त इस धरती पर अच्छे-बुरे, अर्थवान या फालतू के काम करते हुए व्यतीत करता है। कुछ अपने जीवन को अपने कर्मों से सार्थकता प्रदान करते हैं तो कुछ निरर्थक ही समय काटकर चल देते हैं। कुछ के लिए अपनी सुख सुविधा का जुगाड़ ही जीवन का अर्थ होता है तो कुछ दुनियां जैसी भी है उसे और सुंदर और मानवीय बनाने में ही अपने जीवन की सार्थकता देखते हैं। कवि मुक्तिबोध कहते हैं -
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया ?
तो बात तत्काल बनारस की जो कला, साहित्य, सिनेमा, धर्म आदि के केंद्र में पता नहीं कब से विद्दमान है। ना जाने कितने लेखकों, कलाकारों, विद्वानों और मूर्खों को पाला है इसने। आधुनिक से लेकर पौराणिक ग्रंथ बनारस के किस्सों-कहानियों से भरे पड़े हैं। शिव की नगरी है तो औघड़ता इसके मिजाज़ में विद्दमान है। इस औघड़पने पर बात फिर कभी तत्काल बात यह कि बनारस घाटों का भी नगर है। यहां कुल मिलाकर 84 घाट हैं। ये घाट लगभग 4 मील लम्‍बे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पाँच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्‍हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थ' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट,(इस घाट का एक कमाल रूप काशीनाथ सिंह "काशी का अस्सी" में करते हैं) दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में। हर घाट की सत्य और काल्पनिक अपनी अलग-अलग कहानी है। लेकिन वर्तमान में बात मणिकर्णिका घाट की। अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग का नाम डॉ. तुलसीराम मणिकर्णिका रखते हैं। इस किताब में डॉ. तुलसीराम लिखते हैं - "एक हिन्दू मान्यता के अनुसार जिस किसी का अंतिम संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया जाता है, वह सीधे स्वर्ग चला जाता है। इस घाट पर सदियों से जलती चिताएं कभी नहीं बुझी। अतः मृत्यु का कारोबार यहां चौबीसों घंटे चलता रहता है। सही अर्थों में मृत्यु बनारस का बहुत बड़ा उद्योग है। अनगिनत पंडों की जीविका मृत्यु पर आधारित रहती है। सबसे ज़्यादा कमाई उस डोम परिवार की होती है, जिससे हर मुर्दा मालिक चिता सजाने के लिए लकड़ी खरीदता है। यह डोम परिवार इस पौराणिक कथा का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसमें उसके पूर्वजों के हाथों कभी राजा हरिश्चन्द्र बिक गए थे। डोम के ग़ुलाम के रूप में राजा हरिश्चन्द्र की नियुक्ति मुर्दाघाट की रखवाली के लिए की गई थी। एक घाट आज हरिश्चन्द्र घाट के रूप में भी जाना जाता है। इसी मान्यता के कारण लोगों का विश्वास है कि जब तक उस डोम परिवार द्वारा दी गई लकड़ी से चिता नहीं सजाई जाएगी, तब तक स्वर्ग नहीं मिलेगा।"
बहरहाल, स्वर्ग-नर्क का यह अंधविश्वासी खेल बहुत पुराना है जिसने अब हर चीज़ को एक कारोबार में बदल दिया है। बहरहाल, यह घाट वाराणसी में गंगानदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध घाट है। एक मान्यता के अनुसार माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहाँ एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूढने का काम भगवान शंकर जी द्वारा किया गया, जिस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान शंकर जी द्वारा माता पार्वती जी के पार्थीव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया, जिस कारण इसे महाश्मसान भी कहते हैं।
इस घाट से जुड़ी दो किम्वदंतियाँ हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी।
दूसरी कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी। देवी पार्वती इससे परेशान हुईं और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है? प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है। निश्चित ही कुछ और किवदंतियां होंगी। बहरहाल, इस घाट पर बहुत कुछ एक साथ घटित होता रहता है। वहां बिना काम के चैन से बैठिए और मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह फ़क़ीरों का वेश बनाकर तमाशा देखिए।
बनाकर फ़क़ीरों का हम वेश ग़ालिब
तमाशा ए अहले करम देखते हैं।
क्या धर्म या क्या अधर्म। क्या पाप क्या पूण्य। सबका घालमेल है यह जीवन। वैसे भी जीवन किताबों में वर्णित धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य से परे है। जीवन का सच कभी किताबी हो ही नहीं सकता। तो निःस्वार्थ भाव से चलते हुए तमाशा देखिए दुनियां श्वेत और श्याम नहीं बल्कि ग्रे है। तो अभी के लिए तत्काल बस इतना कि
काया का क्यों रे गुमान काया तोरी माटी की

भावनाएं : कलाकार, कला और समाज की भावना

एक फ़िल्म के लिए लोग मरने-मारने पर उतारू हैं। कानून व्यवस्था और संविधान को ताक पर रखकर भावना के नाम पर गुंडई कर रहे हैं। इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों को तालिबानी मूल्य में बदलते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आती और वोट बैंक की पॉलिटिक्स के चक्कर में रखवाले लोग मूक तमाशा देख रहे हैं। न्यायाधीश चीख़-चीख़कर कह रहे हैं कि यह सही नहीं है लेकिन उसकी परवाह करने का समय किसके पास है!
कोई भी लोकतांत्रिक देश कानून व्यवस्था और मेहनतकशों की मेहनत से संचालित होती है, ना कि जाति, समुदाय या धर्म की मूर्खतापूर्ण आस्थाओं से। आस्था में भावना का तड़का लगाकर सदियों से लोग आतंकवाद को बढ़ावा देते आए हैं। अब हद यह हो गई है कि देश के शीर्ष पदों पर विद्दमान लोग भी आस्था और भावना का नंगा नाच नाच रहे हैं। मुख्यमंत्री फ़िल्म बैन करते हैं तो प्रधानमंत्री मौनव्रत धारण कर लेते हैं। तत्काल मामला संजय लीला भंसाली की फ़िल्म पद्मावत का है जो जायसी के काव्य पर आधारित मूलतः एक काल्पनिक गाथा ही है। जायसी के काव्य को आधार बनाकर पहले भी फ़िल्म बनी है। एक तो मणिकौल की ही लघु फ़िल्म है उसका नाम ‘द क्लाऊड डोर’। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले स्वयं मणिकौल ने लिखा है जो प्रसिद्ध नाटककार भाष के नाटक अविमारका और मोहम्मद जायसी का काव्य पद्मावत पर आधारित है। मणि की यह फ़िल्म इरोटिक है जो कामसूत्रा के इस देश में सहज ग्राह्य नहीं है। वैसे भी हम कम्बल के नीचे से घी पीने के लिए कुख्यात हैं, कम्बल के बाहर से घी पीने पर हमारी भावनाएं आहत हो जाती है। लगभग 23 मिनट की यह फ़िल्म यूट्यूब पर मुफ़्त में उपलब्ध है, पोस्ट के अंत में लिंक दे रहा हूँ - देख सकते हैं। फ़िल्म अपने बुद्धि-विवेक से देखिएगा क्योंकि फ़िल्म न्यूड़ सीन से भरपूर है। वैसे मणिकौल की काव्यत्मक सिनेमा को समझना साधारण दिमाग के वश की बात नहीं है।
इस फ़िल्म की एक और ख़ास बात है इस फ़िल्म की अभिनेत्री अनु अग्रवाल। उसने जिस सहजता से इस फ़िल्म को किया है वो काबिलेतारीफ है। वैसे अनु अग्रवाल का चेहरा तो याद ही होगा। नहीं याद तो सन 
1990 में आई फ़िल्म ‘आशिकी’ को याद कर लीजिए। 90 के दशक में महेश भट्ट की यह फ़िल्म सुपर डुपर हिट थी और राहुल रॉय और अनु अग्रवाल प्रेमी-प्रेमिकाओं के आदर्श चेहरे हो गए थे जिन्होंने उस वक्त लोगों को प्यार करने का एक नया अंदाज़ सिखाया था। उस फ़िल्म के समीर के लिखे और नदीम-श्रवण के संगीतबद्ध किए गीत चाहे वो जान इ ज़िगर जानेमन , मैं दुनिया भुला दूंगा तेरी चाहत में, बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए, नज़र के सामने, धीरे धीरे से मेरी ज़िन्दगी में आना , मेरा दिल तेरे लिए, तू मेरी ज़िन्दगी है, दिल का आलम मैं क्या बताऊँ तुझे संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करते हैं।
इन्हें सुनते ही हमारे सामने अनु अग्रवाल और राहुल रॉय का चेहरा अपने आप सामने आ जाता है. लेकिन फिल्मी दुनियां जितना चमकदार होती है काश सच में उसमें इतनी चमक होती। अब अनु अग्रवाल की ही कहानी ले लीजिए।
11 जनवरी 1969 को दिल्ली में जन्मी अनु अग्रवाल उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र की पढ़ाई कर रही थीं, जब महेश भट्ट ने उन्हें अपनी आने वाली संगीतमय फ़िल्म ‘आशिकी’ में पहला ब्रेक दिया। उस वक्त उनकी उम्र महज 21 वर्ष थी। फ़िल्म बम्पर हिट रही लेकिन बाद में उनकी ‘गजब तमाशा’, ‘खलनायिका’, ‘किंग अंकल’, ‘कन्यादान’ और ‘रिटर्न टू ज्वेल थीफ़’ फिल्में कब पर्दे पर आईं और कब चली गईं, पता ही नहीं चला। उन्होंने एक तमिल फ़िल्म ‘थिरुदा-थिरुदा’ में भी काम किया। 1996 के बाद अनु एकाएक बड़े पर्दे से गायब हो गईं और उन्होंने योग और अध्यात्म की तरफ़ रुख कर लिया था।
1999 में उनके साथ एक सड़क दुघटर्ना घटित हुई जिसने अनु के जीवन की गाड़ी को एक पटरी से उठाकर दूसरी पटरी पर रख दिया। इस हादसे ने न सिर्फ़ उनकी याददाश्त को प्रभावित किया, बल्कि उन्हें चलने फिरने में भी अक्षम (पैरालाइज़्ड) कर दिया। 29 दिनों तक कोमा में रहने के बाद जब अनु होश में आईं, तो वह खुद को पूरी तरह से भूल चुकी थी। लगभग 3 वर्ष चले लंबे उपचार के बाद वे अपनी धुंधली यादों को जानने में सफ़ल हो पाईं। इसके बाद उन्होंने अपनी संपत्ति त्याग कर सन्यास की ओर रुख किया। हाल ही में अनु अपनी आत्‍मकथा 'अनयूजवल: मेमोइर ऑफ़ ए गर्ल हू केम बैक फ्रॉम डेड' को लेकर दुबारा से चर्चा के केंद्र में आईं थी. यह आत्मकथा उस लड़की है जिसकी ज़िंदगी कई टुकड़ों में बंट गई थी और बाद में उसने खुद ही उन टुकड़ों को एक कहानी की तरह जोड़ा है। इसमें फ़िल्म उद्योग के कई स्याह पन्ने भी शामिल हैं जो केवल उगते सूरज को ही सलाम करने की आदत पाले बैठा है। वर्तमान में अनु अग्रवाल झुग्गियों के बच्चों को नि:शुल्क योगा सिखाती है। फिल्मी दुनियां ही नहीं बल्कि साहित्य, रंगमंच आदि ऐसी कहानियों से भरी पड़ी हैं जिनकी सुधबुध लेनेवाला कोई नहीं - न सरकार, न कोई जाति और ना ही कोई समुदाय इनके लिए आंदोलन करता है और ना ही किसी की भावना ही आहत होती है। बहरहाल, अनु अग्रवाल अभिनीत मणिकौल की फ़िल्म "द क्लाऊड डोर" का लिंक यह रहा। हां, इस फ़िल्म के एक शॉर्ट में इरफ़ान खान भी नज़र आएगें - सोते हुए।

Thursday, January 25, 2018

हिंदी रंगमंच की मूल समस्या - भाग दो

उदारीकरण के बाद विभिन्न सरकारी या गैरसरकारी अनुदानों के तहत कुछ पैसों का आगमन रंगमंच में हुआ है। यह पैसे क्यों बांटे जा रहे हैं, यह एक राजनैतिक खेल है जो इतनी आसानी से समझ में नहीं आनेवाला। एक पुरानी कहावत है, कह देता हूँ - समझ में आ जाए तो ठीक और ना आए तो भी ठीक - "किसी को बेकार बनाना हो तो उसे ख़ैरात की आदत डाल दो।" फिर क्या है वो ख़ुद की सलाम बजाने को तैयार रहेगा।
ख़ैर, इस प्रक्रिया में कुछ का भला भी हुआ है। कुछ की दाल रोटी चल गई है, तो कुछ के घर में सामान बढ़ गए हैं, कुछ ने नई बाइक ले ली है, कुछ के घर में नल की टंकी लग गई है, कुछ के दादा बढ़ गए हैं तो कुछ के चमचे बढ़ गए हैं, तो कुछ ने कुछ बेहतरीन नाटक भी किए हैं। लेकिन साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उग आए हैं जिनका दूर-दूर तक कोई भी सरोकार ना कभी रंगमंच से रहा है और ना है। वो रंगमंच के "शुभचिंतक" के रूप में अवतरित हुए हैं और दिन रात इन अनुदानों की वेबसाइट की ख़ाक छानते और अप्लाई करते रहते हैं। रंगमंच के विकास के लिए आए इस पैसे से ये कौन सा विकास कर रहे हैं यह बात जग ज़ाहिर है! वैसे सरल भाषा में इन्हें परजीवी कहते हैं।
साथ ही यह भी एक आम चलन और हर अड्डे पर सुनने को मिल जाता है कि रंग-समूह का मुखिया रंगमंडल ग्रांट के तहत मिलनेवाले अभिनेताओं का पैसा विभिन्न कुतर्कों को देकर डकार जाता है। ऐसा बहुत कम ही समूह है जो पैसे का हिसाब साफ़-साफ़ और सार्वजनिक रखता हो और अभिनेता को महीने का पूरा पैसा देता हो। जो भी समूह ऐसा कर रहा है उसे मेरा सलाम। बहरहाल, क्या इसके लिए केवल उस ग्रुप का मुखिया ही ज़िम्मेदार है? क्या अभिनेता या बाकी लोग उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं जो केवल अपना स्वार्थ देखते हैं? 6 हज़ार की जगह 2 या 3 हज़ार पाकर 6 हज़ार के कागज़ पर या ख़ाली पन्ने पर साइन करते हैं और जबतक आपको यह पैसा मिलता रहता है तबतक सब ठीक और जब किसी वजह से नहीं मिलता तब "क्रांतिकारी" हो जाते हैं या फिर किसी और मुखिया को खोजने लगते हैं जो अनुदान के चंद टुकड़े आपके मुंह में डाल सके और साथ ही समय-समय पर चाय-पानी या मुर्गा-दारू की व्यवस्था भी देख ले। चाहे रंगमंडल अनुदान हो या व्यक्तिगत अनुदान शुरू में ही एक कानूनी एग्रीमेंट पेपर पर साइन क्यों नहीं होता, यह बात समझ के परे तो बिल्कुल ही नहीं है!
मैं ऐसा कहके अभिनेताओं के मजबूरियों पर कटाक्ष नहीं कर रहा हूँ और ना ही उन निर्देशकों पर उंगली ही उठा रहा हूँ जो अपनी पूरी ऊर्जा रंगमंच की भावी पीढ़ी को गढ़ने में खर्च कर रहे हैं। मैं ख़ुद एक अभिनेता-निर्देशक हूँ और हिंदी रंगमंच में मैंने एक अभिनेता-निर्देशक होने की पीड़ा और अकेलेपन को बड़े ही शिद्दत से महसूस किया ही नहीं बल्कि कर रहा हूँ। बहुत अच्छे और खरे लोग भी मिले लेकिन कुछ ऐसे निर्देशकों और आयोजकों से भी पाला पड़ा है जो काम कराकर पैसे देने भूल गए हैं या फिर बार-बार मांगने पर एहसानी मुद्रा में पैसे दिए हैं। कुछ बेचारे ने तो बेशर्मी की हद पार करते हुए ना केवल पैसे डकारे बल्कि यह कोशिश भी की कि बतौर कलाकार मेरा वजूद ही ख़त्म हो जाए! लेकिन ग़लती मेरी ही थी कि मैंने "दोस्ती-यारी" के चक्कर में आकर इन कार्यों को अंजाम दिया था। मुझे पहले ही दिन से सबकुछ साफ़-साफ़ बात करना चाहिए था, फिर उस निर्देशक को अच्छा लगता तो मेरे साथ काम करता, नहीं अच्छा लगता तो न करता। बहरहाल, ग़लती करना कोई गुनाह नहीं है बल्कि एक ग़लती को दुहराना गुनाह है। अब अगर कोई भी मेरे साथ काम करना चाहता है तो उसे मेरी फीस पहले तय करनी पड़ती है। हां, उन गुरुओं के लिए मैं आज भी सहज और फ्री में उपलब्ध हूँ जिन्होने मेरी उंगली पकड़कर मुझे इस महान कला के क्षेत्र में चलना सिखलाया है और उन दोस्तों के लिए भी जो दोस्ती का अर्थ जानते हैं या फिर उन लोगों के लिए भी जो एक मुहिम के तहत सामाजिक सरोकार से लैश होकर "सेवाभाव" से रंगकर्म कर रहे हैं और नए साथियों के लिए तो मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा ही खुले हैं।
एक सच्चे कलाकार को हर क़ीमत पर अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना ही चाहिए। बाद में हाय-हाय करने से बेहतर है कि पहले ही दूध का दूध और पानी का पानी कर लिया जाय। रीढ़ की हड्डी सीधी रखो मेरे अभिनेता/अभिनेत्री मित्रों; क्योंकि ग़लत का साथ देना भी ग़लत ही कहलाता है। आप इस्तेमाल करके दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंक दिए जाओ इससे पहले ही सचेत हो जाओ। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए खूब मेहनत से अपने को गढ़ों। बौद्धिक, शारीरिक और रचनात्मक रूप से अपने को खूब लगन और किसी अच्छे मार्गदर्शक के सानिध्य में तैयार करो। इस क़ाबिल बनो कि लोगों को आपकी क़ाबिलियत पर फ़क्र हो। झूठी प्रशंसा और फ़र्ज़ी निंदा से अपने को सचेत रखो। अपने काम का सही-सही और सत्य से आंकलन तुम खुद करो। दुनियां भर की चीज़ें देखों, सुनो, पढ़ों और ख़ूब चिंतन करो। साथ ही रंगमंच एक सामूहिक कार्य है तो समूह के हर कार्य में अपना रचनात्मक और सक्रिय योगदान दो। किसी के भी पीछे मत भागो बल्कि उसकी अच्छी बातों को आत्मसात और बुरी बातों को त्याग कर उसके आगे या कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जोश भरो - अपने अंदर। किसी भी ऐसे इंसान चाहे वो कितना भी पहुँचवाला क्यों ना हो, का साथ छोड़ दो जिसके पास अपने लिए अलग और तुम्हारे लिए अलग संविधान हो। एक सच्चा मार्गदर्शक अपने शागिर्दों को हर तरह से रचनात्मक बनाता है पिछलग्गू नहीं।
जैसी दुनियां, रंगमंच या समूह तुम्हें चाहिए - गढ़ो - रोका किसने है ? कोशिश करो, अपने लिए कुछ ना गढ़ पाए तो भावी पीढ़ी के लिए तो कुछ ना कुछ सार्थक कर ही जाओगे। बस इतना ख्याल रखना कि तुम्हारी दुनियां ऐसी हो जहां कोई मनुष्य किसी और मनुष्य का शोषण ना कर रहा हो। 

Wednesday, January 24, 2018

हिंदी रंगमंच की मूल समस्या !!!

हिंदी रंगमंच की मूल समस्या उसका गैरपेशेवर चरित्र है। दूसरे किसी भी पेशा को लीजिए, उस पेशे को अपना व्यवसाय बनानेवाला व्यक्ति ज़्यादा से ज़्यादा वक्त उस पेशे में देता है और उस पेशे को व उस पेशे के लिए ख़ुद को बेहतर से बेहतर बनाने का प्रयत्न करता है।
जाड़ा हो, गर्मी हो, बरसात हो : एक चाय बेचनेवाला इंसान सुबह 6 बजे से पहले अपनी दुकान पर आ जाता है और देर रात तक चाय बेचता रहता है, तब वो उस पेशे से अपना और अपने परिवार का किसी प्रकार भरण-पोषण कर पाता है। वो पैसे के लिए सरकार या किसी और के पास हाथ नहीं फैलाता, किसी अड्डे पर जाकर समय काटने के लिए घंटे भर फालतू के गप्पें नहीं मरता बल्कि जो कुछ भी कमाना होता है, अपने पेशे से कमाता है। जितना भी वक्त बिताना होता है अपने पेशे के साथ बिताता है। दुनियां का वो कोई भी इंसान जो पेशेवर है उसके पास फालतू का वक्त होता ही नहीं। यहां तो आलम यह है कि फालतू के वक्त में से एकाध घंटे नाटक-वाटक भी कर लिए। 
कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी का अधिकार रंगकर्मी व्यवहारिक रूप से दिनभर में रोज़ 2 घंटे भी अपने पेशे को नहीं देता। ना ढंग का कोई अभ्यास करता है, ना प्रशिक्षण में रुचि है (बल्कि प्रशिक्षण और प्रशिक्षित लोगों के प्रति हेय दृष्टिकोण है) और ना ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास में (बल्कि अज्ञानता का घमंड है) : बस कुछ जुगाड़ और जोड़-तोड़ करके साल में जैसे-तैसे कुछ नाटक खेलना है। मेरा नाटक तुम देखो, तुम्हारा नाटक हम देखेंगे। मेरे नाटक में ताली तुम पीटो, तुम्हारे में हम पीटेंगे! मुझे तुम पुरस्कार दो, हम तुम्हें पुरस्कृत करेगें। अपने नाट्योत्सव में तुम हमें बुलाओ, हम तुम्हें बुलाएगें। तुम हमें महान घोषित करो, हम तुम्हें महानता का तमगा देगें। और कोई एकाध अगर कुछ थोड़ा बहुत बेहतर करने की चेष्टा कर रहा है तो उसे कुज़ात घोषित कर दो और ऐसे माहौल बना दो कि मानसिक टॉर्चर होता रहे। इससे क्या हासिल होगा - आत्ममुग्धता, कुछ तालियां, कुछ गालियां और कुछ झूठी - सच्ची हाय-हाय, वाह-वाह के सिवा ?
इस दृष्टिकोण को दूर कर पेशेवर बनने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। जानता हूँ इसमें बहुत वक्त लगेगा लेकिन पूरी ईमानदारी से गंभीरतापूर्वक प्रयास हुआ तो कुछ भी असंभव नहीं। भले ही हम अपने लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाएं लेकिन हम भावी पीढ़ी के लिए एक सुंदर जगह ज़रूर छोड़ जाएगें जहां वो बड़ी आसानी से रंगमंच को अपना पेश बना सकते हैं। 24 घंटे में किसी तरह 2 घंटे रंगमंच करने को रंगमंच करना नहीं कहते। यह बदलाव रंगमंच को पेशा बनानेवाले लोग ही कर सकते हैं, इसे शौकिया तौर पर करनेवालों का इसमें कोई रुचि नहीं है और हिंदी रंगमंच व्यवसायिक हो ही नहीं सकता का जाप भी करने लगेंगे क्योंकि उनकी दाल-रोटी, चिकन-मटन, घर-गाड़ी का जुगाड़ कहीं और से हुआ रहता है। प्रसिद्द जर्मन कवि रिल्के कहते हैं - "अपनी सारी इच्छाओं और मूल्यों कला को अपना आप समर्पित किए बिना कोई भी व्यक्ति किसी ऊंचे उद्देश्य तक नहीं पहुंच सकता। मैं कला को एक शहादत की तरह नहीं - एक युद्ध की तरह मानता हूं जहां कुछ चुनिंदा लोगों को अपने और अपने परिवेश के विरुद्ध लड़ना है ताकि वे शुद्ध मन से उच्चतम उद्देश्य तक पहुंच सकें और अपने उत्तराधिकारियों को खुले हाथों से यह सम्पदा सौंप सकें। ऐसा करने के लिए एक इंसान के समग्र जीवन की ज़रूरत है न कि थकान से भरे कुछ फुर्सती घंटों की।"
इसलिए चाहे जैसे भी हो, रंगमंच को पेशा और पेशा को पेशेवर बनाने की ओर प्रयास होना चाहिए। कुछ चुनिंदा लोगों के गालों पर लाली और पेट पर चर्बी और एकाउंट में चंद रुपए आ जाने को पेशेवर होना नहीं कहते।
दूसरे का इंतज़ार मत कीजिए क्योंकि इस देश की एक और समस्या यह है कि यहां लगभग हर व्यक्ति दूसरे को बदलने में लगा है ख़ुद को नहीं। तो क्यों ना ख़ुद से ही शुरुआत हो और जो भी मुसीबत आए उससे सीना तानकर भीड़ जाया जाय। जो होगा देखा जाएगा; वैसे भी कौन सा भला हो रहा है ? रंगमंच का समृद्ध इतिहास का जाप किस काम का है, वो तो चटनी बनाने के भी काम नहीं आएगा !

Sunday, January 21, 2018

अघोरी : जो घोर नहीं बल्कि सरल हैं।

भारत एक बहुलतावादी संस्कृति का देश है। यहां पग-पग पर पानी और वाणी बदल जाता है। कोई अगर किसी एक संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति मानता है तो यह उसकी मूढ़ता है या फिर वो बाकियों में मूढ़ता का प्रचार करके अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना चाहता है। नफ़रत के बीज के पोषक अमूमन यह कार्य करते हैं।
इस मुल्क़ में बहुत से समुदाय एकदम भिन्न हैं। इन समुदायों के बारे में तथाकथित सभ्य समाज की जानकारी बहुत ही कम है और वो अमूमन उन्हें हीन भावना से भी देखता है। वैसे बिना जाने समझे पूजने या नफ़रत करने की एक समृद्ध भारतीय परम्परा रही है। विचार और व्यवहार का फर्क समझने की शक्ति तो कमतर है ही। हम कुतर्क करना तो बख़ूबी जानते हैं लेकिन मिथ्या भाषण या प्रचार और व्यवहारिक कार्य में फ़र्क को बड़ी मुश्किल से ही समझ पाते हैं। हमें ज्ञान के बजाय मूढ़ता का ही गुमान होता है और इसी मूढ़ता का फ़ायदा चंद चालक लोग बड़ी ही आसानी से उठा लेते हैं। बहरहाल, बात तो रही थी सांस्कृतिक भिन्नता की तो एक समुदाय है मसान योगियों का।
जो मशान जगाता (कम से कम मान्यता तो यही है) है उसे मशान जोगी कहते हैं। हम अमूमन इन्हें अघोरी के नाम से जानते हैं और इनसे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि काल भैरव के ये उपासक तंत्र-मंत्र के काली विद्यायों में महारत हासिल रखते हैं। वैसे ऐतिहासिक रूप से इन योगियों की उत्पत्ति हैदराबाद के पूर्व निजाम के शासनकाल में माना जाता है। यह समुदाय पारंपरिक रूप से अंत्योष्टि से जुड़े धार्मिक कर्मकांड करनेवाला वर्ग माना जाता है। श्मशान ही इनका ठिकाना होता है और इनका जीवन दान-दक्षिणा से ही चलता है। श्मशान के उपासक मसान योगी श्मशान के देवता माने जाते हैं। ये ज्वालामुखी (चिता) की आग का इस्तेमाल करते हैं, इसीलिए कुछ समय पहले तक रसोई की आग इनके लिए पूर्णतः प्रतिबंधित थी। वैसे इनको लेकर आज भी एक रहस्यमय वातवरण ही है। वर्ष 2011 की जनगणना में इनकी कुल संख्या 27,000 दर्ज़ की गई है। वैसे बदले समय में इस समुदाय के कुछ लोग अब आम ज़िन्दगी का हिस्सा भी बनने लगे हैं।
इस समुदाय के बारे में आज भी कई तरह की भ्रांतियां हैं। जिसका मूल आधार धर्म और अंधविश्वास ही है। अब एक भ्रांति यह है कि ये श्मशान को जागृत करते हैं और ये अपनी शक्ति से मृत व्यक्ति को भी जीवित कर सकते हैं। तंत्र-मंत्र साधना भी इनकी क्रियायों में शामिल हैं। जिसका लाभ किसको कैसे मिलता है, यह एक विचित्रता भरी परिकल्पना है। बहरहाल, इनके अनुसार शमशान को निम्नलिखित दस प्रकारों से जागृत किया जाता है -सफेदा ,यमदंड, सुकिया, फुलिया, हल्दिया कमेदिया, कीकिचिया, मिचमिचिया, सिलासिलिया, पिलिया। ये नाम उन 10 शक्तिशाली प्रेत शक्तियों के हैं जो कि शमशान साधना के अधिपति होते हैं। इनकी मान्यता के अनुसार इन्ही प्रेत शक्तियों के बल के माध्यम से श्मशान की ख़ामोशी में अभिचार कर्म, भूतप्रेत , पिशाच, बेताल, भैरव, आदि के मंत्र सिद्ध किये जाते हैं।
इनके अनुसार शमाशान के सेनापति महिषासुर और धूम्रलोचन को माना जाता है और मुख्य गणश्मशान भैरव और रक्त चामुण्डा काली होती है। वैसे और मशान वीरों की भी सिद्धि की जाती हैं जिनका स्वरुप घनश्याम, भयानक, दीर्घ देह, बड़े बड़े केश और सघन बड़ी लोम्राशी, हाथ में वज्र और पाश, नग्न पाद, चमड़े की लंगोट धारण किये हुए है। ये दुनियां के बने बनाए नियम नहीं मानते और निषिद्ध से निषिद्ध चीज़ों को अपने भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।
ये कई प्राकर के विचित्र साधना करते हैं। इनके अनुसार अघोर साधना, काल भैरव साधना, श्मशान जागरण साधना, आसन कीलने की साधना, उग्र काली साधना, 52 भैरव और 52 वीर और 56 कलुवा वीरों की  साधना, महाउग्र तारा साधना, श्मशान काली साधना, मरघट चंडी साधना, तांत्रिक षट्कर्म आदि श्माशान में की जाने वाली प्रमुख साधनाएं है। इनके अतिरिक्त वीर साधन एक अति महत्वपूर्ण साधना है।
फिल्मों, सीरियलों, दंतकथाओं आदि ने इनके बारे में इतने डरवाने छवि प्रस्तुत किए हैं कि किसी भी साधारण इंसान को इनके आस पास फटकने में भी भय घेर लेता है लेकिन कुछ समय इनके पास गुजारिए तो इनके आसपास रचा झूठ का तिलिस्म खंडित होने लगता है और पता चलता है कि ये भी हम और आपकी तरह एक साधारण मानव ही हैं और बड़े-बड़े तंत्र-मंत्र जानने और विचित्र-विचित्र कार्य को सम्पन्न करने का दावा प्रस्तुत करनेवाले इन अजीब वेशभूषा धारियों के आडम्बर के नीचे एक साधारण मानव का ही निवास है। वैसे भी अघोर का अर्थ समझाते हुए एक अघोरी कहते हैं - जो घोर नहीं बल्कि सरल हो।

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...