पुंज प्रकाश
एक कहानी है. बचपन में सुनी थी. किसी
मुल्क का एक कारकून घूसखोर हो गया. राजा बड़ा परेशान हुआ कि इसका क्या किया जाय.
उसे जहाँ भी लगाये वो वहीं घूसखोरी शुरू कर देता. राजा उसे निकाल सकता नहीं था और
कठोर सजा भी नहीं दे सकता था क्योंकि रिश्ते में वो राजा का साला लगता था. साले के
आगे तो बड़े बड़ों की नहीं चलाती फिर राजा की क्या औकात. साला को कुछ बोले तो पटरानी
का मुंह लटक जाता. राजा ने अपने सबसे काबिल मंत्रियों की सभा बुलाई और अपनी ये
समस्या सह-मजबूरी शरमाते हुए उनके सामने रखी. मंत्रियों ने काफी माथापच्ची के बाद
ये तय किया कि राजा के साले की पोस्टिंग ऐसी जगह कर दी जाय कि जहाँ से किसी प्रकार
की उपरी आमदनी की उम्मीद ही न हो. सोच विचार कर तय किया गया कि उसे समुद्र की
लहरों को गिनने का काम में लगा दिया जाय. वहाँ कोई इंसान होगा नहीं तो राजा का
साला घूस किससे लेगा! राजा को ये सुझाव अच्छा लगा और अन्तः राजा के साले को समुद्र
की लहरों को गिनने के काम में लगा दिया गया. राजा का साला अपने इस तबादले से ज़रा दुखी
तो हुआ पर काम पर लग गया. एक दिन वो लहरें गिन रहा था कि उधर से एक नाव गुज़रने
लगी. राजा के साले ने चिल्लाकर उस नाव को रोका और उधर से गुज़रने को मना किया कारण पूछने
पर बताया कि राजा ने उसे लहर गिनने के काम में लगाया है. नाविक ने अपनी मजबूरी ज़ाहिर
किया कि उसे तो इसी रास्ते से जाना है. राजा के साले ने कहा ठीक है जाओ पर चढावा
चढ़ाते जाओ. नाविक ने चढ़ावा चढ़ाया और आगे बढ़ गया. अब जो भी वहाँ से गुज़रता चढ़ावा
चढ़ा के ही आगे बढ़ता. इस तरह ये तय हुआ कि एक सच्चा घूसखोर लहरें गिनकर भी माल बना
सकता है.
ये एक ईमानदार राजा और उसके एक घूसखोर
साले की कहानी है. आज तो न राजा ईमानदार रहा ना ही उसके सालों की संख्या एक रही.
आज जिस विभाग में जाएँ वहीं राजा के साले भरे पड़े हैं या यूँ कहें कि राजा आज खुद
इन सालों की बहाली करता है. इस सठियाये लोकतंत्र में और कोई तरक्की हुई हो या न
हुई हो राजा के सालों की जनसंख्या में दिन दुगनी रात चौगुनी उन्नति हुई है और राजा
भी प्रसन्न है इनकी संख्या देखकर. राजा को भी पता है कि इन्हीं सालों की बदौलत तो
उसकी सत्ता है नहीं तो ऐसे ऐसे देशद्रोही पैदा हो चुके हैं इस पवित्र धरती पर कि
पल भर में वो राजा की सत्ता की नीव हिला दें.
अब वक्त है इसी कहानी को रीमेक करके आज
के सन्दर्भ में व्यक्त करने की. चलन के हिसाब से ज़रा नया मसाला भी डालना पड़ेगा तो चलिए
कोशिश करतें हैं. आप अगर महिला हैं तो किसी पुरुष और पुरुष हैं तो किसी महिला ‘मित्र’
के साथ किसी न किसी पार्क, मैदान या किसी सार्वजनिक जगह पर ज़रूर ही बैठे होंगें.
पुरुष से पुरुष और महिला से महिला ‘मित्रों’ पर अभी बात नहीं करेगें नहीं तो झूठ
मूठ का दिशा भ्रम हो जायेगा और दिशा भ्रम का शिकार होना कोई अच्छी बात नहीं. हाँ
तो पार्क की बात हो रही थी. आप अपने मित्र के साथ पार्क में बैठे होतें हैं. थोड़े
दूर, थोड़े पास. हल्की मुस्कुराहट के साथ बातों का सिलसिला नज़रें नीची किये हुए
चलता है, दूरी ज़रा कम होती है कि कहीं से ताली पीटता हुआ “उनलोगों” का दल आ धमकाता
है और आपके गाल छूकर एक खास अंदाज़ में ताली पिटते हुए आपको लाख-लाख दुआएं देने
लगता(ती) है. उनकी दुआओं को सुनकर आप और मित्र दोनों एक दूसरे को कनखियों से देखकर
मुस्कुराने लगतें हैं. फिर आप या मित्र दोनों में से कोई एक अपने पर्स से दस-बीस
का नोट निकालकर ताली पीटनेवाले (वाली) को थामतें हैं और वो खुशी से उस नोट को अपने
पसीने से लथपथ ब्लाउज के अंदर डालके आपको पुनः ढेर सारी दुआएं देते हुए अगली जोड़ी
की तरफ़ बढ़ जातें हैं. ये सारा काम (कुछ अपवादों को छोड़कर) अमूमन बड़े ही प्यार से अंजाम
दिया जाता है. उनकी दुआएं सच हो न हो, आपकी जोड़ी सलामत रहे न रहे पर उन ताली पीटनेवालों
का स्नेह हर जोड़ी पर रोजाना ऐसे ही फुहार बनके दुआओं के रूप में बरसता है. जिसे
याद करके आपके होठों पर मुस्कान अपने आप ही आ जाती है.
झारखण्ड की राजधानी राँची में आजकल यही काम
पुलिस द्वारा अंजाम दिया जा रहा है. बस अंदाज़ ज़रा बदला है. बाकि सारा सेटअप वैसे
का वैसा है बस ताली पीटनेवालों की जगह ले ली है झारखण्ड पुलिस ने. अब पुलिस आएगी
तो काम करने का अंदाज़ भी निश्चित है बदलेगा ही. आप वैसे ही हंसते, मुस्कुराते,
शरमाते आदि आदि राँची के किसी पार्क में बैठे हैं कि एक हवलदार आपके पास आता है और
कहता है कि साहेब बुला रहें हैं. आप सवालिया नज़रों से अपने मित्र की तरफ देखतें
हैं और उस हवलदार के साथ चल पड़ते हैं. साहेब अपनी जिप्सी में तोंद निकले कचर-कचर
पान के साथ काला, पीला, तीन सौ ( ज़र्दा ) की खुशबूदार बदबू छोड़ते विराजमान हैं. आप
पहुंचतें है. साहेब कड़क आवाज़ में आपको नैतिकता का पाठ पढाते है, आपको थाने चलने को
कहते हुए जीप में बैठने को भी कहते हैं. आपकी सारी दलील वर्दी के पसीने की बदबू
में बाप-बाप करते हुए वहीं की वहीं आत्महत्या कर लेती है. तभी एक सिपाही साहेब का
इशारा पाकर आपकी जेब में हाथ डालता की कोशिश करता है. डर के मारे आप खुद ही पर्स
निकालकर सामने रख देतें हैं. खुदरा-खुदरी मिलाकर जितना भी होता है सब साहेब की जेब
में चला जाता है और बदले में आपको नसीहत मिलती है कि आज छोड़ रहा हूँ फिर दिखा तो
अंदर कर दूँगा. आप अपने मित्र के साथ वहाँ से निकलने में हीं अपनी भलाई समझतें हैं
और यहाँ के बाद जो पिज्ज़ा खाने का प्लान था वो पैसे के लूट जाने के कारण दम तोड़
देता है इसे आप अपनी इच्छाओं की भ्रूण हत्या भी कह सकतें हैं. आप दोनों मुंह लटकाए
अपने अपने घर पहुंचतें हैं पुनः कभी उस पार्क या मैदान में न बैठाने की कसम खाते
हुए.
अब ज़रा लगे हाथ कुछ नैतिक बातें कर लेना
ही चाहिए. क्या ज़रूरत है लड़के-लड़किओं को ऐसे खुलेआम बैठाने की, पता नहीं वहाँ
बैठके क्या-क्या कर रहे होंगें. क्या ज़रूरत है पुलिस से डरने की और पुलिस को पैसा
देने की. अड जाना चाहिए. आप पैसा देतें हैं तभी तो कोई लेता है आदि आदि. इन नैतिक तर्कों
का जवाब आपको भी पता है. हमारा अर्ध-सामंती मानसिकता वाला समाज प्रेम को कितना
मान्यता देता है वो अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है. आए दिन ऑनर किलिंग की खबरें कई
बातों की पुष्टि करने के लिए काफी है. समाज अगर किसी लड़का-लड़की के मिलाने, बात
करने, एक दूसरे के प्रति स्नेह ज़ाहिर करने को सहजता पूर्वक स्वीकार करता तो इनको
पार्कों, साईबरकैफ़े, सुनसान जगहों, झाडियों, मकबरों, किलों आदि में मिलाने की
ज़रूरत ही नहीं पड़ती. लगे हाथ ये जानकारी भी जोड़ लें कि राँची में पार्कों, डैमों,
झरनों के आसपास खुलेआम कानूनी और गैरकानूनी शराबें मिलाती और सेवन की जातीं हैं.
पुलिस की गश्त भी रूटीनीरूप से चलती ही रहती है. इन जगहों पर हर तरह की देसी
विदेशी बोतलें सरेआम मिल जायेगी. साथ ही साथ शोहदों की नज़रें तो हर जगह की तरह
यहाँ भी अक्सर ही लड़कियों के उदभव और विकास का रसास्वादन करती ही रहतीं हैं.
नैतिकता का इतना तड़का काफी है अब ज़रा बात मुद्दे की.
इसमें ऊपर जो राजा वाली घटना है वो
कहानी है और नीचे जो साहेबवाली घटना है वो हकीकत. वैसे कहानी कब हकीकत और हकीकत कब
कहानी बन जाए कहना मुश्किल है. हकीकत है तो कहानी है, कहानी है तो हकीकत. दोनों एक
दूजे से अलग भी है और एक दूसरे में पूरक और समाहित भी.
यहाँ एक तरफ़ है वो समाज जो सदियों से
हमारे ‘सभ्य’ समाज से वहिष्कृत है और दूसरी तरफ़ है समाज का वो अंग जो पढ़ लिखकर,
कम्पटीशन देकर बहाली पाता है और जिसपर कानून व्यवस्था बनाये रखने की ज़िम्मेदारी
है. दोनों में कौन ज़्यादा असहनीय और सामंती मानसिकता से सराबोर है ये बताने की
ज़रूरत नहीं. एक प्यार को दुआएं देता है तो दूसरा अंदर डाल देने के नाम पर वसूली
करता है. आए दिन शहर में ‘मजनू भगाओ’ कार्यक्रम के नाम पर किसी भी नौजवान पर डंडा
बरसाने से ज़रा भी नहीं हिचकती. अब बेचारे मजनू को क्या पाता था कि प्यार के बदले
उसका नाम एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जायेगा वो भी 21वीं सदी में. वैलेंटाइन डे के दिन अमूमन
इनका रवैय्या किसी कठमुल्ले से कम नहीं होता. ये यही पुलिसिये हैं जो अपने भूख
हड़ताल के आंदोलन के दिन जमके खाते हुए कैमरे में कैद होतें हैं. रात को थानों में ताला
मरके जमके सोतें हैं और तब तक उस स्थान पर नज़र नहीं आते जबतक कोई घटना घट न जाय.
बात ज़रा फ़िल्मी लग सकती है पर इनकी सच्चाई ज़रा फिल्मी ही है या ये कह सकतें हैं कि
फ़िल्मी हो गई है. तभी हमारे देश का एक मशहूर टेक्स्ट बुक लेखक भी इन्हें वर्दी
वाला गुंडा कहता है. ये होते जन सेवा के लिए हैं पर जनता की ये कैसे सेवा करतें
हैं वो आप भी जानतें हैं. सरकारी संरक्षण प्राप्त इन महानुभावों की कथा का सागर
अथाह और सर्वव्यापी है. वैसे बात केवल इस विभाग की ही क्यों, हिंदुस्तान का कोई भी
कोना और विभाग आज लहर गिनकर माल कमा लेने वालों से खाली नहीं.
आखिरी बात ये कि लहरें गिनने वाले इन पुलिसवालों की कुछ तस्वीरें लहरें गिनते हुए एक अखबार में छप गई है सो पुलिस डिपार्टमेंट की भी कुछ नैतिक ज़िम्मेदारी बनाती है. सो दो लोगों को निलंबित किया गया है तत्काल. मामला शांत पड़ते ही हो सकता है इन्हें फिर से लहरें गिनने के काम पर लगा दिया जाय.
आखिरी बात ये कि लहरें गिनने वाले इन पुलिसवालों की कुछ तस्वीरें लहरें गिनते हुए एक अखबार में छप गई है सो पुलिस डिपार्टमेंट की भी कुछ नैतिक ज़िम्मेदारी बनाती है. सो दो लोगों को निलंबित किया गया है तत्काल. मामला शांत पड़ते ही हो सकता है इन्हें फिर से लहरें गिनने के काम पर लगा दिया जाय.
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