हिंदी नाटकों का प्रतिनिधि नाटक है अंधायुग । जिसे पढ़ने , सुनने और देखने का अपना एक अलग ही महत्व और आनंद है । जिस प्रकार कोई भी नाटक प्रेमी इस नाटक के प्रति अपना मोह प्रकट किये बिना नहीं रह पता है उसी प्रकार लगभग हर नाट्य निर्देशक , अभिनेता , परिकल्पक एवं रंगमंच की विधा (खासकर हिंदी रंगमंच) से जुड़ा हरेक कलाकार कम से कम एक बार तो ज़रूर ही इस नाटक में सक्रिय भागीदारी करना चाहता है । हिंदुस्तान के रंगमंच पर अंधायुग एक सपने की तरह है जो हर रंगप्रेमी के दिलों पर राज करता है। इसके किसी भी पात्र को अभिनीत करना किसी भी संवेदनशील अभिनेता का ख्वाब हो सकता है. खासकर अस्वत्थामा की भूमिका तो एक रंगमंच के अभिनेता का ड्रीम रोल है. इसका प्रमुख कारण ये है कि अंधायुग में धर्मवीर भारती जी का हर पात्र अपने आप में सम्पूर्ण है. हर किसी का अपना अंतर्द्वंद के साथ ही साथ हर पात्र के भीतर - बाहर तेज़ी से घटता घटनाक्रम भी है. आज इस बात पर यकीन करने का दिल नहीं करता कि धर्मवीर भारती ने अंधायुग को नाट्य मंचन के लिए नहीं बल्कि एक रेडियो नाटक के रूप में लिखा था। आज यह बात एक आश्चर्य की तरह सत्य है कि मूलतः रेडियो के लिए लिखा गया अंधायुग आज भी हिंदी के सफलतम नाटकों में से एक है. एक क्लासिक बन चुका है अर्थात एक ऐसा नाटक जो एतिहासिक पात्रों के मार्फ़त विश्वव्यापी वर्तमान के सवालों से रु-ब-रु होता है. भारतीय एवं विदेशी भाषाओँ में आज इसका अनुवाद देखा, पढ़ा जा सकता है. इतिहास शायद बने बनाये रास्तों से पृथक चलकर ही बनता है ।
कुछ कुछ ग्रीक परन्तु पूरी तरह से भारतीय रंग-संस्कार से सराबोर अंधायुग जब भी नाट्य रसिकों से रु-ब-रु हुआ, स्नेह का पात्र बना. इसके कई प्रदर्शन तो अपने किसी खास अनूठेपन कि वजह से इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो चुके हैं.
दिल्ली के दर्शकों से एक बार फिर से रु - ब - रु होने का अवसर इस बार भानु भारती के निर्देशन में मिला तो आश्चर्य नहीं कि नाट्य रसिक टूट पड़े। और फिर कोई एतिहासिक फिरोजशाह कोटला किले में बिना टिकट खरीदे मोहन महर्षि (धृतराष्ट्र ), उत्तरा बावकर (गांधारी), जाकिर हुसैन (संजय), रवि खानविलकर (विदुर), टीकम जोशी (अस्वत्थामा) , गोविन्द पांडे (कृपाचार्य ) , दानिश इकवाल (कृतवर्मा ), रवि झाँकल (वृद्ध याचक), कुमुद मिश्रा (गूंगा सैनिक ), अमिताभ श्रीवास्तव एवं कुलदीप सरीन (प्रहरी) जैसे नामचीन एवं सशक्त अभिनेताओं के दल को देखने के परमानन्द को हाथ से जाने ही क्यूँ दे भला ? तो पास के लिए मारा - मरी होना ही था - सो हुआ और खूब हुआ । रोजाना लगभग प्रत्येक वर्ग के नाट्य - प्रेमिओं से खुले आकाश के नीचे बना रंगस्थल खाचा-खच भरा रहा।
अंधायुग का मंचन, तीन अलग निर्देशकों के निर्देशन में देखने का अवसर अभी तक प्राप्त हुआ है। पहली बार पटना इप्टा के द्वारा पटना (बिहार) के सुपरिचित नाट्य - निर्देशक परवेज अख्तर के निर्देशन में, दूसरी दफा प्रवीन गुंजन का रानावि में डिप्लोमा और अब साहित्य कला परिषद् एवं भाषा विभाग दिल्ली सरकार की तरफ से आयोजित ये प्रस्तुति। परवेज अख्तर के अभिनेता ने जहाँ आधुनिक सैनिक पोषक से लैश हो इतिहास के मार्फ़त वर्तमान को रेखांकित करने की कोशिश की वहीँ प्रवीण गुंजन खचाखच भरे अभिमंच सभागार में चरित्र के भीतर के वातावरण को, रानावि के तमाम तामझाम के बीच विशुद्द रानावि स्टाइल में आकर दे रहे थे, वहीँ भानु भारती ने यथासंभव रंगमंच के कुछ अच्छे अभिनेताओं को इक्कठा कर अभिनय को पूरी भव्यता के साथ परोसाने की कोशिश में दिखे।
कहा जा सकता है कि अपनी इस कोशिश में वो अपने गुरु इब्राहिम अल्काजी से प्रभावित थे। ये बात इसलिए और भी प्रकट होकर सामने आती है कि कुछ दशक पूर्व अल्काजी ने इसी नाटक की प्रस्तुति (१९६३ में) इसी किले में एवं कुछ वर्ष पश्चात् जापानी कोरस का प्रयोग करते हुए पुराने किले में की थी। जो भारतीय रंग इतिहास में एक मील का पत्थर का दर्जा प्राप्त कर चुका है. वैसे कला के क्षेत्र में किसी का किसी खास से प्रभावित होना कोई बुरी बात नहीं होती और पूरी ईमानदारी से अपने खूबसूरत स्मारिका में भानु भारती इसे स्वीकार करते हुए अपनी ये प्रस्तुति अल्काजी को समर्पित भी करतें हैं ।
निर्देशक आगे लिखतें हैं - "अब तक अंधायुग को हमारे सभी विख्यात एवं उदीयमान नाट्य-निर्देशकों ने मूलतः युद्ध - विरोधी नाटक के रूप में देखा है...लेकिन यह अपने भीतर कुछ और गहरे उतरकर पूछने को आमंत्रित करता है ... युद्धों, हिंसा - प्रतिहिंसा के मूल कारण क्या है ?...हम इतिहास के ऐसे दौर में हैं, जिसमे विचारधाराएँ, नैतिक निर्देश, धार्मिक विधि - निषेध और मसीहा - महापुरुष तक कारगर होते नहीं दिखाते। हमारी प्रेरणाएँ झूठ या अर्धसत्य से संचालित हो रहीं हैं। "
पर सवाल अब ये पैदा हो रहा है कि क्या ये वक्तव्य अपने आपमें अर्ध सत्य नहीं है ? क्या सच में मनुष्य के सारे सिद्धांत धराशाई हो चुके हैं ? ये मानना ज़रा असंभव सा लगता हैं। एक पल को ये स्वीकार कर भी लें कि असत्य की जय - जयकार है चारों तरफ परन्तु यह भी सत्य है कि सत्य अभी पूरी तरह से पराजित नहीं है और न ही कभी होगा। "आशा टूटी फिर भी है आशा". और फिर महाभारत असत्य पर सत्य की विजय का महाकाव्य हैं क्या? यहाँ तो विजय मत्वपूर्ण हैं चाहे जैसे भी मिले। महाभारत नैतिकता और अनैतिकता की खाई को पाटने वाला महाकाव्य है , साथ ही साथ नैतिकता और अनैतिकता पर सवाल भी उठता है. वर्तमान सवालों के दायरे में प्रवेश कर क्या यही काम भारती जी अंधायुग के माध्यम से नहीं कर रहे हैं ?
भानु भारती आगे लिखतें हैं - "मूल पाठ के शब्दों को छेड़े बगैर ,मैंने कुछ दृश्यों को आगे पीछे या छोटा बड़ा किया है". किसी मूल पाठ को छेडने का कोई और भी कोई तरीका होता है क्या ? शायद होता ही होगा. बहस तो इस बात पर भी हो सकती हैं कि एक सुदृढ़ कथानांक एवं हर तरह से परिपूर्ण नाटक में निर्देशकीय वीटो पवार का बलपूर्वक प्रयोग कर अपनी मर्ज़ी से काट - छांट, पत्रों के आगमन - प्रस्थान में बदलाव ( जो आजकल फैशन में हैं , जोर शोर से. खास तौर से रानावि में ) कहाँ तक जायज हैं .दुख तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब एक स्थापित निर्देशक भी इस फैशन के गिरफ्त में आ जाये।
नाट्य - आलेख और नाटककार को उचित सम्मान दिया ही जाना चाहिए और तब तो और भी ज्यादा जब नाटक एक क्लासिक का दर्ज़ा पा चुका हो. हाँ अगर सवाल नाटक की अवधी का हो तो वर्तमान में कई ऐसे सफल नाटक हैं जिनकी अवधी लगभग तीन घंटे का है. प्रस्तुति में अगर दम है तो लोग तीन घंटे भी आराम से बैठ के नाटक देखतें हैं .. जी हाँ आज भी. और फिर इतने सारे समर्थ अभिनेताओं के रहते भी अगर कोई निर्देशक भयभीत हो तो...
भानु भारती की इस प्रस्तुति में संजय को सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत करना और संजय के द्वारा घटनाक्रम को आगे बढ़ाना रोचक तो है परन्तु भारती जी का सूत्रधार भी नाटक का एक अति महत्वपूर्ण चरित्र है उसका क्या हुआ ? संजय तटस्थ हैं और महाभारत में यही बात उन्हें अन्य चरित्रों से अलग पहचान देती हैं. पर भारती जी का सूत्रधार उतना तटस्थ नहीं हैं जितना की संजय. वो कथा को आगे भी बढाता है और घटनाओं पर कथा-गायन के माध्यम से टिपण्णी भी करता रहता है. वो संजय की तरह अन्धों से नहीं बल्कि सहृदय दर्शकों से सत्य कह रहा होता है.
भानु भारती की इस अंधायुग के केंद्र में अभिनेता हैं और जहाँ तक सवाल अभिनेताओं के अभिनय का है तो तमाम अच्छे अभिनेताओं की मंडली के बावजूद जाकिर हुसैन (संजय), रवि खानविलकर (विदुर) ही अपनी सहजता और अनुभव से प्रभावित कर पातें हैं। वहीं मोहन महर्षि को एक लम्बे अंतराल के बाद बतौर अभिनेता मंच पर देखना एक सुखद अनुभूति है । कुलदीप सरीन एक अच्छे अभिनेता हैं। जिन्होंने इन्हें रानावि रंगमंडल में अभिनय करते देखा हैं वे इस बात को कभी नहीं भूलते।
नाट्यप्रयोग में इस्तेमाल होने वाले हरेक तत्व अगर नाटक के प्रदर्शन में कुछ और नहीं जोड़ते तो वो निरर्थक हैं इस लिहाज से इस प्रस्तुति का संगीत एकदम ही बासी और एकरसता से सराबोर था। नाट्य संगीत अंधायुग का एक महत्वपूर्ण अंग है. पर यहाँ यह एक कमज़ोर अंग भर बनकर रह गया. पर जो सबसे बड़ी कमजोरी उभर के सामने आ रही थी वो रंगमंच के इतने अनुभवी अभिनेताओं का बतौर चरित्र न एक दूसरे को सुनना ना ही उनके कथन एवं परिस्थितिओं आदि से प्रभावित ही होना। कभी कभी तो लगता था जैसे अभिनेतागन अपनी अपनी खुबिओं और अभिनय तकनीक के साथ सब अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करने की जी तोड़ कोशिश में लगे थे। पर अधिकतर अभिनेता ज़्यादातर एक टीम की तरह व्यवहार करते नहीं दिखे, जबकि यह रंगमंच की एक अनिवार्य शर्त है । एक खास तरह की क्राफ्ट वाली अभिनय पद्धति पुरानी हो चुकी है । अभिनेता और अभिनय दोनों को ही समय के साथ तारतम्य बैठना ही पड़ेगा अगर उसे वर्तमान में रंगमंच करना है तो. रंगमंच सदा ही वर्तमान का खेला जाने वाला खेला रहा है । समय के साथ साथ रंगमंच भी बदलता है, रंगमंच का अर्थ और उद्देश्य भी और अभिनय करने का तरीका भी. यही रंगमंच की ताकत भी है और खूबसूरती भी ।
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